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Sunday, November 13, 2011

अज्ञान-दान

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/4066-2011-11-13-08-38-00

सुधीर चंद्र 
जनसत्ता, 13 नवंबर, 2011 : हालात बिगड़ रहे हैं यह तो दीख रहा था एक अरसे से। याद करने बैठें तो बहुत कुछ याद आने लगेगा। मसलन, मैसूर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मल्लिकार्जुन कालबर्गी। बासवेश्वर पर गंभीर शोध और चिंतन पर आधारित जब उनकी किताब आई तो लिंगायतों ने बवाल खड़ा कर दिया।

गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के अपने ही प्रेस से गुरु ग्रंथ साहब की निर्मिति पर एक शोध ग्रंथ छपा। वहां भी बवाल हुआ। दोनों ही जगहों पर लेखकों को माफी मांगनी पड़ी और पुस्तकें वापस ले ली गर्इं। अमृतसर में तो बुजुर्ग लेखक को बतौर सजा और प्रायश्चित गुरुद्वारे में जूतों की सफाई भी करनी पड़ी।

उसी के आसपास दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर मुशीरुल हसन को जामिया के ही विद्यार्थियों ने पीट दिया था। वजह बस यह थी कि सलमान रश्दी के उपन्यास 'सैटनिक वर्सेज' की निंदा करते हुए भी मुशीरुल हसन ने कहा था कि किताब पर पाबंदी लगाना ठीक नहीं है।

याद का यह सिलसिला, जो अभी याद आया, उससे पहले से शुरू होता है, अभी तक चल रहा है, और लगता नहीं कि इसमें भविष्य की नई यादें जुड़ेंगी नहीं। एक खास मानसिक प्रवृत्ति का द्योतक और वाहक है यह सिलसिला। आज वह प्रवृत्ति वक्त के साथ जोर पकड़ते-पकड़ते खतरनाक तरीके से सशक्त हो गई है।
जैसा कि ऊपर आई तीनों यादें उजागर करती हैं, यह सिलसिला किसी एक समुदाय, या कुछ विशिष्ट और आक्रामक माने जाने वाले समुदायों तक सीमित नहीं है। सारा देश इसकी चपेट में है। अपने को सुसंस्कृत मानने वाले भी बौद्धिक हठमति और कूपमंडूक उग्रता से ग्रसित हो रहे हैं, केवल वही नहीं, जो इस या उस धार्मिक-सांस्कृतिक 'सेना' या 'दल' के नाम पर जब और जहां भी चाहा तबाही मचा देते हैं।

यह तबाही एक स्तर पर फौरन दिखाई दे जाती है, वैसे ही जैसे कि इसके लिए इस्तेमाल की गई हिंसा फौरन दिखाई दे जाती है। पर इसी के साथ अक्सर एक और तबाही तथा एक और हिंसा भी चलती है जो काफी बाद में दिखाई देती है। तब जबकि उसे रोक पाना नामुमकिन नहीं तो बहुत कठिन हो चुका होता है।
सुसंस्कृत और संभ्रांत माने जाने वालों की बौद्धिक हठमति और कूपमंडूकता से जो तबाही और हिंसा आती है वह फौरन और आसानी से न दिखने वाली होती है। इस हठमति और कूपमंडूकता में लगभग हमेशा ही संभ्रांतों के अपने स्वार्थ और उनकी वर्गोचित अवसरवादिता का घातक समावेश भी रहता है। संभ्रांत व्यक्ति हो या वर्ग, उसके पास तर्क होता है, यथेष्ट जानकारी होती है और येनकेन प्रकारेण अपने को सही मानने, और कभी-कभार सिद्ध भी कर पाने, की सलाहियत होती है।

संभ्रांत कभी गलत नहीं होते। सदा सर्वजन हिताय सोचते, करते और रहते हैं। तब और भी ज्यादा जब किसी संस्था की, व्यवस्था की बागडोर उनके हाथ में होती है। बात तकरीबन दो साल पहले की है। इसी 'जनसत्ता' में नियमित रूप से हर पखवाड़े लिखता था मैं। 
अचानक एक मित्र का फोन आया। उसने बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में कुछ लोगों ने आकर बखेड़ा कर दिया। उनकी मांग है कि एके रामानुजन का लेख, 'थ्री हंड्रेड रामायणाज: फाइव इग्जाम्पल्स ऐंड थ्री थॉट्स आॅन ट्रांसलेशन', विद्यार्थियों के लिए प्रस्तावित लेखन सामग्री में से निकाल दिया जाए। मित्र ने कहा कि मुझे इस विषय पर लिखना चाहिए। मेरे बताने पर कि वह लेख मैंने पढ़ा नहीं था, मित्र ने दूसरे ही दिन इसकी एक प्रति मुझे भिजवा दी।

रामानुजन का प्रशंसक मैं था ही। जानता था कि भारतीय संस्कृति और परंपरा की उनकी जानकारी और उसके प्रति उनकी भक्ति बेजोड़ है। समझ नहीं पा रहा था कि क्या हो सकता है ऐसे सहृदय विद्वान के रामायण के किसी विवेचन में, जिसे लेकर किसी हिंदू की भावना आहत हो, और ऐसी आहत हो कि लेख पर पाबंदी लगा दिए जाने की मांग कर दी जाए। फिर भी जब लेख मिला तो मैंने निश्चय किया कि रामानुजन के प्रति अपनी श्रद्धा से प्रभावित हुए बगैर उसे पढ़ूं। यह भी कि उसे


पढ़ते समय विशेष ध्यान रखूं कि क्या कुछ उसमें सामान्य हिंदुओं को ठेस पहुंचा सकता है।

श्रद्धा से नहीं, दोष-दर्शन की नीयत से सारा लेख पढ़ गया। सवा उनतीस पृष्ठों के पूरे लेख में एक वाक्यांश ऐसा नहीं मिला, एक ध्वनि नहीं, जिसे हिंदू विरोधी कहा जा सके। फिर भी, मित्र के इसरार के बावजूद, मैंने इस विषय पर लिखा नहीं। मुझे लगा कि सारा बखेड़ा कुछ संकीर्ण राजनीतिक कारणों से हुआ होगा और बात जल्दी ही आई-गई हो जाएगी। यह भी मन में आया कि इस विषय पर लिखकर शायद मैं बखेड़े को तूल ही दे दूं। 

गलत सोचा था मैंने। दो साल बाद, जब लग रहा था कि बात वाकई आई-गई हो गई, दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद ने रामानुजन के लेख को निकाल देने का फैसला कर दिया है। देश के एक शीर्षस्थ विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद ने किया है यह फैसला। पढ़ने-लिखने, सोचने-समझने वाले लोगों ने, जिनको जिम्मेदारी सौंपी गई है इतने महत्त्वपूर्ण शिक्षा संस्थान में ज्ञान-दान की सुचारु व्यवस्था बनाए रखने की। कैसे कर सके वे ऐसा फैसला, जिसका सीधा परिणाम- अगर उद्देश्य नहीं- होगा विद्यार्थियों को ज्ञान से वंचित कर उन्हें अज्ञान में फंसाए रखना?

अकादमिक परिषद में जो प्रस्ताव पारित हुआ है उसमें रामानुजन के रामायण सबंधी लेख को अकादमिक रूप से कहीं खोटा नहीं ठहराया गया है। फिर भी स्नातक स्तर पर इसके पढ़े और पढ़ाए   जा सकने को लेकर संदेह व्यक्त किया गया है। संदेह भी इतना निर्णायक कि लेख को सिरे से निकाल देने का निर्णय परिषद को विवेकपूर्ण लगने लगा।

हर गंभीर ज्ञान प्रणाली और शिक्षा व्यवस्था में संदेह की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। संदेह विवेचन को, विश्लेषण को, बहस को पैना करता है, सोच को नई दिशाएं देता है, खोज के अनसोचे रास्ते सुझाता है। संदेह आगे ले जाता है। किसी समस्या के उठ खड़े होने पर- समस्या चाहे तात्त्विक हो या व्यावहारिक- आंख मूंद लेने को नहीं कहता।

रामानुजन के लेख को निकाल बाहर कर दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद विद्यार्थियों की आंख मुंदा रही है। इस बौद्धिक हिंसा के परिणाम क्या हम ठीक से सोच भी सकते हैं? ज्ञानार्जन के प्रति कौन-सी प्रवृत्ति पैदा होगी इससे? भारत जैसे विविधता से भरे राष्ट्र-राज्य में कैसे नागरिकों को जन्म देगी यह?
'तीन सौ रामायण' के सहारे रामानुजन भारतीय संस्कृति में व्याप्त व्यावहारिक और सैद्धांतिक बहुलता को उजागर करते हैं। 'तीन सौ' सिर्फ सांकेतिक है। दरअसल रामायण अनगिनत हैं। राम भी। देश में, विदेश में, अलग-अलग भाषाओं में, विभिन्न संप्रदायों और वर्गों में, बदलते ऐतिहासिक परिवेश में नाना प्रकार की राम कथाएं मिलेंगी। कभी-कभी एक दूसरे से इतनी भिन्न और विपरीत कि एक रामायण दूसरी रामायण के उपासकों को कुत्सित और गर्हित लगे।

रामानुजन अपने लेख में पूरे पांडित्य से जो कहते हैं, वही है जो आम भावनात्मक समझ में गहरे बैठा है। बैठा रहा है प्रारंभ से। 'हरि अनंत हरि कथा अनंता', 'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी' उसी समझ को उद्घाटित करते हैं, और संभव बनाए रहते हैं। इसी समझ के चलते कहा जा सकता था: 'कहा कहौं छबि आज की भले बने हौ नाथ, तुलसी मस्तक तब नवै जब धनुस बान लेउ हाथ।'
दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद ऐसे विद्यार्थी, और नागरिक, पैदा करना चाहती है जो अपने राम- प्रतीकार्थ भी बनता है इसका- के अतिरिक्त किसी और के आगे मस्तिक तो नहीं ही झुकाएंगे और न उसको सराह सकेंगे, बल्कि उसका होना भी उनको बर्दाश्त नहीं होगा।

जिन तीन उदाहरणों से यह चर्चा शुरू हुई, तीनों का ही किसी विश्वविद्यालय से संबंध था। उन तीनों प्रकरणों में जबरदस्ती बाहर वालों की या विद्यार्थियों के किसी गुट की थी। जो अब हुआ है उसमें सब कुछ विश्वविद्यालय के अंदर रहने वालों और उसके अकादमिक मामलों से संबद्ध कुछ बाहरी सदस्यों ने किया है। और यह दिल्ली में हुआ है। जहां अभी कम से कम उस विचारधारा और उस राजनीतिक पार्टी का नियंत्रण नहीं है, जिससे इस तरह के कर्मों का अंदेशा रहता है। बड़ा चिंताजनक है यह तथ्य।

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