Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Monday, November 14, 2011

वैकल्पिक दुनिया की चाहत

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/4105-2011-11-14-05-47-45

अजेय कुमार 
जनसत्ता, 14 नवंबर, 2011 : वर्ष 2008 में जब वैश्विक वित्तीय संकट अपने चरम पर था, तब फ्रांस के एक प्रकाशक ने एक साक्षात्कार में बताया था कि कार्ल मार्क्स की अमर कृति 'पूंजी' की मांग में इतनी अधिक वृद्धि हुई है कि तीन माह की अवधि में प्रकाशक ने तीन संस्करण बेच डाले। इस बार की खबर और भी चौंकाने वाली है। खबर यह है कि आदरणीय पोप ने वैटिकन के लिए 'पूंजी' की प्रतियां मंगवाई हैं। ऐसा क्या है 'पूंजी' में, कि संकट की इस घड़ी में साम्यवाद के पारंपरिक दुश्मन चर्च के सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति को इस पुस्तक में कुछ हल ढूंढ़ने की सूझ रही है।
आज उनके लिए हालात इतने खराब हैं कि अमेरिकी कॉरपोरेट दुनिया के सबसे बड़े अखबार 'न्यूयार्क टाइम्स' को आठ अक्तूबर के अपने संपादकीय में लिखना पड़ा है: ''समस्या यह है कि वाशिंगटन में कोई सुनना नहीं चाहता। इस बिंदु पर विरोध ही संदेश है; वेतन असमानता से मध्यवर्ग की हालत पस्त हो रही है, गरीबों की संख्या बढ़ रही है जो कि एक सक्षम निम्न-वर्ग में स्थायी तौर पर तब्दील हो रहे हैं, और जिनके पास काम करने की इच्छाशक्ति तो है, पर रोजगार नहीं है। जब प्रदर्शनकारी कहते हैं कि वे 99 प्रतिशत अमेरिकी हैं तो दरअसल वे वर्तमान असमान समाज में धन के केंद्रीकरण की ओर इशारा कर रहे हैं।'' 
अमेरिकी कांग्रेस की संयुक्त आर्थिक समिति की एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका के सबसे ऊपर के दस प्रतिशत घरानों की आय, जो कि 1980 में 34.6 प्रतिशत थी, 2008 में बढ़ कर 48.2 प्रतिशत हो गई। सबसे अधिक वृद्धि सबसे ऊपर के एक प्रतिशत घरानों की आय में हुई है, राष्ट्रीय आय में जिनका हिस्सा 1980 में दस प्रतिशत था, जो कि बढ़ कर 2008 में इक्कीस प्रतिशत हो गया। यह तो मात्र आय की बात हुई। जहां तक संपत्ति का सवाल है, तो ऊपर के एक प्रतिशत घरानों के पास राष्ट्र की संपत्ति का चालीस फीसद हिस्सा है। यह संपत्ति बड़े-बड़े व्यापारिक घरानों, मुख्य कार्यकारी अधिकारियों और वित्तीय क्षेत्र के कारोबारियों के पास है।
ये नीतियां 1980 में रीगन प्रशासन ने शुरू की थीं, जब अमीरों के टैक्स में भारी कटौती की गई। क्ंिलटन ने कई कल्याणकारी योजनाओं को लगभग खत्म कर दिया था। बुश ने और उनके बाद ओबामा ने भी इन नीतियों को लगभग जारी रखा है। वॉल स्ट्रीट पर एक प्रदर्शनकारी के प्ले-कार्ड पर ठीक ही लिखा था, 'यह मंदी नहीं, डकैती है'। 2008 के संकट के समय वित्तीय बचाव पैकेज (बेल आउट) के कदमों को लागू करने के लिए अनेक विकासशील देशों की सरकारों ने बडेÞ पैमाने पर घरेलू और बाहरी ऋण लिए थे। इसके चलते आज यूरोपीय संघ की, विशेषकर यूनान और स्पेन की सरकारों की हालत बेहद खस्ता हो गई है। आज नए संकट के उभरने से यूरोपीय सरकारें अब दोबारा बचाव पैकेज जारी करने की स्थिति में नहीं हैं। उन्हें किफायतशारी के चक्कर में साधारण जनता के सामाजिक लाभों और उसके हक में चलने वाले कल्याणकारी कार्यक्रमों में भारी कटौती के कदम उठाने पड़ रहे हैं। 
वाल स्ट्रीट- जो कि अमेरिका के वित्तीय कारोबार का गढ़ है- में स्थित धातु का बना पगलाया सांड दरअसल अपनी बुनावट और अपने चेहरे के तेवर में पूंजी के चरित्र को बखूबी दर्शाता है। 'पूंजी' के प्रथम खंड के अंतिम अध्याय में मार्क्स ने लिखा था, ''पर्याप्त मुनाफा हो तो पूंजी की हिम्मत बहुत बढ़ जाती है। दस फीसद मुनाफा पक्का हो तो उसका कहीं भी लगना लाजिमी है। बीस फीसद उसे व्यग्र कर देगा। पचास फीसद, पक्के तौर पर निर्लज्ज बना देगा। सौ फीसद उसे सभी इंसानी कानूनों को पांवों तले रौंदने के लिए तैयार कर देगा। तीन सौ फीसद, और कोई अपराध नहीं है जिसे करने में उसे हिचक होगी, कोई जोखिम नहीं है जिसे वह उठाने के लिए तैयार नहीं होगी, भले ही उसके मालिक के फांसी चढ़ने का ही खतरा क्यों न हो।''
इसलिए प्रदर्शनकारियों द्वारा वॉल स्ट्रीट का स्थान चुनना विशेष महत्त्व रखता है। वे दुनिया की पूंजी को जनता के हाथों में सौंपना चाहते हैं। जब इस भीड़ भरे इलाके में जगह न बची, तो प्रदर्शनकारी वॉल स्ट्रीट के नजदीक जुकोटी पार्क में टेंट लगा कर जम गए। उनके कुछ नारे इस प्रकार थे: 'अमीरों पर टैक्स लगाओ', 'बैंकों को दिया माल हमें किया कंगाल', 'कॉरपोरेट कल्याण के स्थान पर स्वास्थ्य कल्याण'। जुकोटी पार्क से प्रदर्शनकारी नियमित समाचार बुलेटिन जारी कर रहे हैं। उनकी एक वेबसाइट है 'ओक्युपाइ टुगेदर', जिसके अनुसार ''मिस्र, ट्यूनीशिया, स्पेन, यूनान, इटली और इंग्लैंड के जन-सैलाब से प्रेरणा पाकर वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करोआंदोलन का लक्ष्य उन एक प्रतिशत अमीर लोगों का भंडाफोड़ करना है जो वैश्विक अर्थव्यवस्था के नियम लिख रहे हैं और नवउदारवाद और आर्थिक असमानता का एजेंडा हमारे सामने ला रहे हैं और हमारे भविष्य को खत्म करते जा रहे हैं।'' 
यह शब्दावली लगभग वामपंथी प्रतीत होती है, पर वेबसाइट में इस बारे में चेतावनी भी दी गई है ताकि इस आंदोलन के चरित्र के बारे में किसी को कोई गलतफहमी न


रहे। 
आंदोलन की कार्यनीति के संबंध में वेबसाइट पर लिखा है: ''रणनीतिक रूप से कहा जाए तो इस बात का वास्तविक खतरा है कि अगर हमने भोलेपन से अपने पत्ते उजागर कर दिए और पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने या फिर ऐसे किसी यूटीपियन नारे के गिर्द लामबंद हुए, तो हमारा तहरीर आंदोलन जल्द ही एक और असंगत धुर-वामपंथी तमाशे की तरह खत्म हो जाएगा और जल्द ही भुला दिया जाएगा।
लेकिन अगर हम   'ट्रॉजन होर्स' जैसी जरा सी चालाकी से काम लें...कुछ गहरी, लेकिन बिल्कुल ठोस और ऐसी करने योग्य मांग करें, जिसको अनदेखा करना राष्ट्रपति ओबामा के लिए असंभव हो जाए ...कुछ ऐसा जो अमेरिका की राजनीतिक प्रणाली पर वॉल स्ट्रीट के वित्तीय कब्जे की बात साफ तौर पर उजागर करे और उसके सामने व्यावहारिक कदम पेश करे...जैसे ग्लास-स्टीगल कानून को बहाल करने की मांग...या फिर वित्तीय लेन-देन पर एक फीसद कर लगाने की मांग...या फिर वाशिंगटन में बैठे हमारे प्रतिनिधियों के कॉरपोरेट भ्रष्टाचार की अमेरिकी न्याय विभाग द्वारा स्वतंत्र जांच कराए जाने की मांग...।''
जुकोटी पार्क में आंदोलनकारियों के बीच खुली बहसें हुई हैं। उनकी वेबसाइट पर भविष्य के समाज की रूपरेखा इन शब्दों में व्यक्त की गई है: ''मात्र जिंदा रहने की भी एक कीमत चुकानी पड़ती है। कुछ लोग आसानी से इसकी कीमत अदा कर लेते हैं। कुछ गुलाम बन कर और कुछ किसी भी तरह इसकी कीमत नहीं चुका सकते।... निर्ममता और अलगाव के समाज का विरोध होना चाहिए और उसकी जगह सहयोग और सामुदायिकता का समाज बनाया जाना चाहिए... हम उस सिद्धांत का विरोध करते हैं जो न केवल हमारे आर्थिक जीवन पर बल्कि संपूर्ण जीवन पर प्रभुत्व कायम किए हुए है और वह सिद्धांत है- मुनाफा सबसे ऊपर है।''
इस अपील में दम है। यह वैसी ही अपील है जैसी अण्णा हजारे के आंदोलन की अपील, जो कि एक बुनियादी सच पर आधारित है कि भ्रष्टाचार खत्म होना चाहिए। और यह आंदोलन भ्रष्टाचार को 2-जी स्पेक्ट्रम के घोटाले से लेकर सरकारी बाबू द्वारा फाइल आगे बढ़ाने के लिए पचास रुपए की रिश्वत मांगने को समान रूप से देखता है। यानी यह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन 'नैतिकता' के सवाल तक सीमित हो जाता है। 'वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करो' आंदोलन के पीछे भी जबर्दस्त नैतिक प्रेरणा है, आंदोलनकारियों की कई तख्तियों पर मार्टिन लूथर किंग और महात्मा गांधी की तस्वीरें दिख जाती हैं।
वहीं ऐसे नारे भी सुनाई देते हैं जैसे 'यह व्यवस्था की विफलता है', 'एक फीसद बनाम निन्यानवे फीसद' आदि। किसी हद तक यह आंदोलन नैतिकता के दायरे को लांघ कर पूंजी और संपत्ति की असमानता के सवालों तक पहुंचता है। वित्तीय पूंजी पर हमला अपने आप में पूंजीवाद पर हमला है। इस तरह ये आंदोलन 'अरब आंदोलनों' से भी भिन्न है। वहां सत्ताधारी शासकों को हटाने की मांग प्रमुख थी, लेकिन उनके पीछे काम कर रही वैश्विक पूंजी की भूमिका पर सवाल खड़ा नहीं किया गया।
बेशक 'वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करो' आंदोलन को किसी अण्णा हजारे जैसे चमत्कारिक व्यक्तित्व का नेतृत्व प्राप्त नहीं है, फिर भी देश के बड़े-बडेÞ बुद्धिजीवियों- नॉम चोमस्की, माइकल मूर, नोआमी क्लीन, कॉरनेल वेस्ट आदि- ने इस आंदोलन का समर्थन किया है। अमेरिका के पचास शहरों में यह आंदोलन फैल चुका है। लगभग चालीस प्रमुख ट्रेड यूनियनों ने भी अपना समर्थन दिया है।
मजेदार बात यह है कि न्यूयार्क पुलिस के कुछ लोग भी व्यक्तिगत रूप से इस आंदोलन से एकजुटता का इजहार करते हैं। अलबत्ता उन्हें जब कार्रवाई करने का ऊपर से निर्देश आता है तो वे प्रदर्शनकारियों से सख्ती से पेश आते हैं। लगभग सात सौ प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया गया है। पर ये प्रदर्शन इतने शांतिपूर्ण रहे हैं कि सत्ताधारियों को बल-प्रयोग का कोई मौका नहीं देते।
सरकार के साथ-साथ रिपब्लिकन पार्टी का रवैया भी प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध है। उनका डर वाजिब है। आगामी राष्ट्रपति चुनावों में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार हरमन केन का मत है, ''वॉल स्ट्रीट और बैंकरों का विरोध करने का मतलब है कि तुम पूंजीवाद विरोधी हो।'' उन्होंने प्रदर्शनकारियों को 'ईर्ष्यालु अमेरिकी' और 'गैर-अमेरिकी' तक कह डाला है।
यूरोप के वित्तीय संकट को हल करने के मकसद से जी-20 की हाल ही में कॉन में हुई बैठक की पूर्वसंध्या पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की-मून को कहना पड़ा कि 'सरकारों में विश्वास की कमी आज सबसे बड़ी चुनौती है'। अमेरिकावासियों ने केवल दो राजनीतिक पार्टियों के क्रियाकलाप को देखा है और नीतिगत मामलों में उनके मत एक जैसे हैं। इसलिए इन पार्टियों के प्रति उनकी वितृष्णा को समझा जा सकता है। पर राजनीति से ही घृणा करना भी एक तरह की राजनीति है।
वैचारिक-आर्थिक स्तर पर पूंजीवाद या समाजवाद को छोड़ कर कोई तीसरा विकल्प फिलहाल उपलब्ध नहीं है। एक बेहतर समाज का निर्माण जरूरी है और वह केवल समाजवाद द्वारा ही संभव है। समाजवाद कैसा हो, इस पर सोवियत संघ और चीन के अनुभवों की पृष्ठभूमि में बहस हो सकती है। स्वागतयोग्य बात यह है कि पूंजीवाद के गढ़ में वैकल्पिक दुनिया के निर्माण की चाहत ने अमेरिकावासियों की आत्मा को झकझोरा है और अब वे पुराने ढंग से शासित होने के लिए तैयार नहीं हैं।

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors