| Saturday, 20 April 2013 12:36 |
योगेश अटल इस कसौटी पर आंकड़े देखिए। 1951 की जनगणना में केवल 212 आदिवासी समूहों की गिनती हुई थी। आज उनकी कुल संख्या बढ़ कर छह सौ का आंकड़ा पार कर चुकी है। इसी प्रकार, आज अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्ग की जातियों की संख्या भी तीन हजार से अधिक है। यहां यह बता दूं कि 1931 की जनगणना में, जबकि अंतिम बार जातियों की भी गणना की गई थी, इस देश में कुल तीन हजार जातियों का जिक्र है। उनमें से कुछ जो पश्चिमी भारत की थीं, पाकिस्तान चली गर्इं। फिर भी जातियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। और साथ ही साथ पिछड़े वर्ग में शामिल होने की दावेदारी भी। इतनी संख्या बढ़ने के पीछे कोई जादू नहीं है। किसी भी जाति को अनुसूचित या पिछड़े वर्ग में सम्मिलित करने के लिए हरेक राज्य को केंद्र के पास अपनी अनुशंसा भेजनी होती है। इस प्रकार सामाजिक दृष्टि से एक ही जाति बहुवचन में बदल जाती है। यही बात आदिवासियों के प्रसंग में भी कही जा सकती है। कुछ ऐसे भी समूह हैं जिन्हें एक प्रदेश में आदिजाति का दर्जा मिला हुआ है तो दूसरे में जाति का। उत्तर प्रदेश में जब गोविंद वल्लभ पंत मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने अपने प्रदेश में किसी भी समूह को आदिवासी होने का प्रमाणपत्र नहीं दिया। आज उस प्रदेश में भी आदिजातियां हैं। उत्तर प्रदेश के विभाजन के बाद नए बने उत्तराखंड प्रदेश में पांच प्रमुख आदिवासी समुदाय हैं तो शेष उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्व में इकतीस आदिवासी समुदाय रहते हैं जिनके सामाजिक संबंध उन्हीं के समाज के उन लोगों से हैं जो पड़ोस के राज्यों की सीमा में रहते हैं। इनमें से कई तो खुद को गूजर कहते हैं। पर उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में ऐसे गुर्जर भी हैं जो एक जाति की तरह हैं। भारत सरकार ने ज्यों ही जातियों की अनुसूची विज्ञापित की, कई अन्य जातियों ने अपना नाम सम्मिलित न होने के कारण आंदोलन खड़ा किया। उसके लिए सरकार को तुरंत काका कालेलकर की अध्यक्षता में 1949 में एक आयोग नियुक्त करना पड़ा। इस आयोग से अपेक्षा की गई कि वह अनुसूचित जातियों के अतिरिक्त पिछड़े वर्गों की एक अलग सूची तैयार करे। वह दस्तावेज ऐतिहासिक बन गया है। बहुतों को यह पता नहीं है कि काका कालेलकर की रिपोर्ट संसद में कभी प्रस्तुत नहीं की गई और न ही उस पर कोई बहस हुई, उसके पारित होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। फिर उस आयोग के प्रतिवेदन का क्या महत्त्व है! शायद यह पहला उदाहरण है कि जिसमें आयोग का अध्यक्ष अपनी संस्तुति में भारत के राष्ट्रपति को लिखता है कि वह जिस रिपोर्ट को पेश कर रहा है, उससे उसकी सहमति नहीं है। जब रिपोर्ट पूरी बन कर तैयार हो गई, तब उसे अंतिम रूप देते समय कालेलकर को लगा कि जाति के आधार पर पिछड़ेपन को परिभाषित नहीं किया जा सकता। अपने पत्र में कालेलकर ने राष्ट्रपति को लिखा: 'जब रिपोर्ट को अंतिम स्वरूप दिया जा रहा था तब जाकर मुझे ऐसा लगा कि जाति के अतिरिक्त अन्य आधार भी हैं जिनके माध्यम से पिछड़ेपन की समस्या को हल किया जा सकता है।' काका कालेलकर का मानना था कि हिंदू जातियों को मिलने वाली विशेष रियायतों और प्राधिकारों से समस्या सुलझने के स्थान पर और जटिल हो गई है। पिछले कुछ वर्षों में अनुसूची में सम्मिलित होने की जातियों में जो होड़ मची है, वह कालेलकर की भविष्यवाणी को सही सिद्ध करती है। राजस्थान के गूजर, जो कभी अपने को क्षत्रिय कहने में गौरव का अनुभव करते थे, पहले तो पिछड़े वर्ग में सम्मिलित किए जाने के लिए राजी हो गए, पर बाद में वे भी अब आदिवासी की संज्ञा पाना चाहते हैं, क्योंकि उनके ही समकक्ष मीणा लोगों को वह दर्जा सहज ही प्राप्त हो गया और जिसके कारण उनके लोगों को कई लाभ मिल रहे हैं। कश्मीर के मुसलमान गूजरों ने यह मांग सबसे पहले उठाई और उन्हें आदिवासी की श्रेणी में रख लिया गया। इसका आधार राजनीति है, न कि समाज वैज्ञानिक। अब हरियाणा के जाट अपने को पिछड़ा साबित करने की कोशिश में लगे हैं। प्रतिक्रियास्वरूप वे जातियां या धार्मिक समूह, जो अधिक प्रतिष्ठित माने जाते रहे हैं, भी अब अवनति का मार्ग अपना रहे हैं। जैन लोग अल्पसंख्यक वर्ग का दावा पेश कर रहे हैं, वहीं ब्राह्मण लोग परशुराम सेना बना रहे हैं। क्षत्रिय भी कह रहे हैं कि उनमें भी ढेरों परिवार गरीब हैं। अगर किसी एक जाति को सम्मिलित कर लिया गया तो दूसरी जातियां भी ऐसी ही मांग करेंगी और यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होने वाला। जाति-व्यवस्था को समूल नष्ट करने के उद््देश्य से बनी यह आरक्षण की योजना जाति को पुनर्जीवित कर रही है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/42799-2013-04-20-07-06-42 |
Sunday, April 21, 2013
आरक्षण की उलझन
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