डाइवर्सिटी को सम्मान देने वाला महान साहित्यकार नहीं रहा.
मित्रों!कुछ देर पहले अपना लैपटॉप बंद करने के पहले मैं आज अर्थात 23 अगस्त के ‘देशबंधु’ के ऑन लाइन संस्करण पर यह सोचकर नज़र दौड़ा लेना चाहा कि कहीं मेरा लेख तो नहीं छपा है,मुझे यह देखकर लगा कि न्यायपालिका में डाइवर्सिटी पर मेरा लेख छपा है.किन्तु जब यह देखा कि डाइवर्सिटी से विमुग्ध रहने वाला देश के मेन स्ट्रीम साहित्य का अन्यतम श्रेष्ठ लेखक नहीं रहा तो बहुत भारी अघात लगा.जी हाँ बात मैं यूआर अनंतमूर्ती की कर रहा हूँ.उनके नहीं रहने की खबर पढ़ कर भारी अघात लगा. मैं 23 की सुबह साढ़े तीन बजे ही यह पोस्ट लिखना शुरू किया.किन्तु नीद का इतना जबरदस्त प्रहार हुआ कि इसे अधुरा छोड़ना पड़ गया.उसके बाद कल दुसरे कई अन्य में कामों में इस कदर व्यस्त रहा फिर इसे पूरा न कर कर सका. बहरहाल अनंतमूर्ती सर को लेकर मेरे जेहन में अनंत नहीं,बस दो यादें हैं.पहली का संपर्क कोलकाता से है,जब मैंने युवास्था में उपन्यास पढ़ने शुरू किये.तब वैचारिक लेखन से प्रभावित रहने के बावजूद,इसके प्रति जूनून पैदा नहीं हुआ था.जूनून तब बांग्ला और विदेशी-अमेरिकन और ब्रितानी तथा कुछ हद तक फ्रेंच-उपन्यासों के प्रति था.उन दिनों मैं विमल मित्र की ट्रिलोजी-साहब बीबी गुलाम,कोडी दिए किनलाम और एकक दशक शतक –तथा तारा शंकर बंदोपाध्याय की ‘गण देवता’,शंकर की ‘चौरंगी’और निमाई भट्टाचार्य की ‘मेम साब’से अभिभूत था.जब भी मौका मिलता इनके पात्रों की विशेषताएं बताने और सुनने में खो जाता.ऐसे दौर में मेरे एक श्रद्धेय बंगाली दादा,जो मार्क्सवादी होने के बावजूद भी बेहद सज्जन थे,ने उपन्यासों के प्रति मेरी दीवानगी देखते हुए यूआर अनंतमूर्ति की ‘संस्कार’उपन्यास पढने की हिदायत दी. उस समय मुझमें जाति चेतना का बीजारोपड़ नहीं हुआ था.किन्तु शायद मेरी लाइफ का वह उपन्यास था जिसने ब्राह्मणवाद के प्रति मन के किसी कोने में पहली बार घृणा पैदा किया.बंगाल जैसे कथित जाति –मुक्त समाज में पले-बढ़े होने के कारण 1990 के पहले मैं जाति-पाति से बिलकुल मुक्त था.बहरहाल मूल रूप से कन्नडी भाषा में लिखे गए उस उपन्यास का बांग्ला अनुवाद मैंने कमसे कम तीस साल पहले पढ़ा था.उपन्यास की कथा वस्तु इस ब्राहमणवादी सोच पर विकसित हुई थी कि यदि किसी के मकान पर गिद्ध बैठ जाय तो उस मकान को ब्राह्मणों को दान कर देना चाहिए.क्योंकि गिद्ध का मकान में मुंडेर पर बैठना घोर अपशकुन का सूचक है.उस एक उपन्यास ने यूआर अनंतमूर्ति को तारा शंकर बंदोपाध्याय ,शंकर,विमल मित्र जैसे मेरे फेवरिट भारतीय उपन्यासकारों की पंक्ति में ला खड़ा किया. बहरहाल जीवन में खेल-कूद,फिल्म और राजनीति इत्यादि से जुड़े बड़ी-बड़ी हस्तियों को थोड़ा बहुत करीब से देखने,स्पर्श करने का अवसर बहुत पहले,युवावस्था में ही पा गया था.किन्तु लेखक मेरे लिए दूर से दर्शन करने की वस्तु रहे.इसीलिए अपने फेवरिट लेखकों ,जिनमे अनंतमूर्ती भी थे,से सपनों में मिलने का प्रयास करता.मुझे पहली बार जिस लेखक को करीब से देखने सुनने और चिरस्थाई निकटता पाने का अवसर में मिला वह थे एस के बिस्वास.बिस्वास साहेब से मेरा परिचय 1991 में ही हो गया था. 1990 में जब डॉ.आंबेडकर पर टीवी सीरियल का प्रोजेक्ट मंडी हाउस में डाला तब से थोड़े –थोड़े अन्तराल पर उसके अनुमोदन की प्रगति का जायजा लेने के लिए कोलकाता से दिल्ली आने लगा.इस क्रम में 1991 के बाद जब भी आता सबसे ज्यादा बिस्वास साहेब से मिलने का प्रयास करता.वह मेरे लिए धीरे-धीरे नायक का रूप ले चुके थे.उसी बिस्वास साहेब ने जब 1994 में बांग्ला में अपनी पहली रचना ‘भारतीय समाजेर उन्नयन धारा:डॉ.आंबेडकर’ सामने लाया ,तब मुझे पहली बार उनके रूप में किसी लेखक को निकट से देखने सुनने का अवसर मिला.उनकी वह रचना मेरे जीवन में देश-विदेश की पढ़ी हुई असंख्य किताबों में पहली ऐसी रचना थी जिसे पढ़कर मन यह यकीन जन्मा कि किताबों के द्वारा दुनिया को बदला जा सकता है.ऐसा नहीं कि वह दुनिया की सबसे अनमोल कृति हो,किन्तु मेरी नजरों में थी.बिस्वास साहब ने उसके बाद इतिहास आधारित कुछ और किताबें लिखीं,जिनका मुकाबला भारत में सिर्फ डॉ.आंबेडकर के लेखन से किया जा सकता.किन्तु आज भी मुझे उनकी पहले रचना ही सर्वोत्तम लगती है.बाद में जब आंबेडकर पर धारावाहिक बनाने में विफल हो कर मैंने सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के लिए कलम थाम लिया तो सिर्फ उस एक किताब से प्रभावित होकर .उस एक किताब ने बंगाल की एक्साइड बैटरी में लेबर के रूप में काम करने वाले ग्यारह पास दुसाध को लेखक बना दिया.मेरे सम्पूर्ण चिंतन पर यदि किसी एक व्यक्ति का प्रभाव है तो,डॉ.आंबेडकर नहीं,एस के बिस्वास हैं.उनको पढ़ने और सुनने के बाद देश की सभ्यता-संस्कृति,राजनीति-अर्थनी खैर !गुरु एस के बिस्वास के सौजन्य से लेखक बनने के बाद तो लेखकों की दुनिया का मैं भी एक पार्ट बन गया.यहाँ ढेरों लोगों की निकटता मिली.इनमें जिस लेखक की निकटता के फलस्वरूप कुछ क़द्रदानों की नज़रों में ‘डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ इंडिया’बन गया वह भारत में ‘डाइवर्सिटी के जनक’ चंद्रभान प्रसाद हैं,जिनका 2000-04 तक सहयोगी रहा.उसी चंद्रभान जी के साथ 2003 के अप्रैल में हम बंगलोर के ‘नेशनल ला कालेज’ में एक सेमिनार में शिरकत करने गए ,जो डाइवर्सिटी के मुद्दे पर आयोजित की गयी थी.उसमें धीरुभाई सेठ,विजय बहादुर,राजशेखर उन्द्रू,डॉ राजेश पासवान इत्यादि कई लोग थे.2002 की जनवरी में ‘भोपाल घोषणापत्र’जारी करने के बाद जब मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने 27 अगस्त,2002 को अपने राज्य के समाज कल्याण विभाग में सप्लायर डाइवर्सिटी लागू किया ,पुरे देश के दलित संगठनों में डाइवर्सिटी पार चर्चा कराने की होड़ मच गयी.उसी क्रम में वहां ला कालेज के डॉ.जाफेट ने भी अपने यहाँ सेमिनार का आयोजन किया था.हमारे खाने-पीने,रहने इत्यादि की व्यवस्था किसी बहुत बड़े होटल में की गयी थी.नियत समय पर एक बहुत ही शानदार हाल में सेमीनार में शुरू हुआ.हाल लगभग भरा हुआ था.दक्षिण भारत के भिन्न सांस्कृतिक परिवेश में पहली बार किसी सेमिनार में शिरकत की भिन्न अनुभूति से हम सराबोर थे.इसी बीच मंच संचालक ने घोषणा किया कि मुख्य अतिथि यूआर अनंतमूर्ति बस थोड़ी ही देर पहुँचने वाले हैं.उनके आते ही कार्यक्रम शुरू हो जायेगा.अनंतमूर्ती का नाम सुनकर कानों पर विश्वास नहीं हुआ.मुझे यह एक अविश्वास्य घोषणा लगी.यकीन नहीं हो रहा था जिस शख्सियत से अबतक सिर्फ सपनों में मिलने की कल्पना करता रहा,वह हमारे बीच बैठेगा. बहरहाल 10-15 मिनट के इंतजार के बाद ही अनंतमूर्ती सर आ गए.उनको देखकर आंखे जुड़ा गयीं.लेखन की दुनिया में प्रवेश के बाद ढेरों लेखकों को करीब से देखने सुनने का अवसर मिला था.किन्तु यूआर अनंत मूर्ती के व्यक्तित्व में जो बात थी,वह किसी में नहीं पाया था.चेहरे पर वैसी प्रशांति का भाव अबतक किसी लेखक में नहीं देखा हूँ.करुणा ,शील और मैत्रीय की प्रतिमूर्ती लग रहे थे.उन्हें देखकर औरों की क्या प्रतिक्रिया हुई,नहीं कह सकता .कितु उनके दर्शन मात्र से मेरा सिर श्रद्धा से झुक गया.खैर,सेमिनार शुरू हुआ.दिल्ली से आये लोग एक एक कर डाइवर्सिटी पर अपने विचार रखने लगे.इस कांसेप्ट से नावाफिक कई स्थानीय विद्वान् पूंजीवाद की कठोर आलोचना न सुनकर निराश थे .कुछ ने तो इस विचार को उग्रता से ख़ारिज करने की कोशिश की.किन्तु जब अनंतमूर्ती सर की बारी आई सबसे पहले उन्होंने डाइवर्सिटी को भिन्न नजरिये से प्रस्तुत करने के लिए भूरि-भूरि बधाई दी .उसके बाद अंग्रेजी में अपने लम्बे वक्तब्य की शुरुआत इस बात से की-मैं भी अपनी रचनाओं में डाइवर्सिटी का कुछ –कुछ उल्लेख किया हूँ.किन्तु आप लोगों के मुंह से उसके मानवीय पक्ष की बात सुनकर अभिभूत हूँ.डाइवर्सिटी इतनी खुबसूरत भी हो सकती है,यह पहली बार जाना .फिर तो वा डाइवर्सिटी के विषय में देर तक बोलते रहे. मित्रों ,अनंतमूर्ती नहीं रहे किन्तु लगता है अब भी वह सामने बैठे हुए कह रहे है,’वोह! डाइवर्सिटी इतनी सुन्दर हो सकती है... ‘ |
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