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Friday, November 24, 2017

मंदिर मस्जिद विवाद से देश में कारपोरेट राज बहाल तो जाति युद्ध से जनसंख्या सफाये का मास्टर प्लान! पद्मावती विवाद का तो न कोई संदर्भ है और न प्रसंग। यह मुकम्मल मनुस्मृति राज का कारपोरेट महाभारत है।

मंदिर मस्जिद विवाद से देश में कारपोरेट राज बहाल तो जाति युद्ध से जनसंख्या सफाये का मास्टर प्लान!

पद्मावती विवाद का तो न कोई संदर्भ है और न प्रसंग।

यह मुकम्मल मनुस्मृति राज का कारपोरेट महाभारत है।

राजनीति,कारपोरेट वर्चस्व और मीडिया का त्रिशुल परमाणु बम से भी खतरनाक।

सामाजिक तानाबाने को मजबूत किये बिना हम इस कारपोरेट राज का मुकाबला नहीं कर सकते।

पलाश विश्वास

मंदिर मस्जिद विवाद से देश में कारपोरेट राज बहाल तो जाति युद्ध से जनसंख्या सफाये का मास्टर प्लान है।


पद्मावती विवाद का तो न कोई संदर्भ है और न प्रसंग।


मंदिर मस्जिद विवाद के धारमिक ध्रूवीकरण से इस देश की अर्थव्यवस्था सिरे से बेदखल हो गयी और मुकम्मल कारपोरेट राज कायम हो गया।


तो यह समझने की बात है कि पद्मावती विवाद से नये सिरे से जातियुद्ध छेड़ने के कारपोरेट हित क्या हो सकते हैं।


यह देश व्यापी महाभारत भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को  सिरे से खत्म करने वाला है।


यह मुकम्मल मनुस्मृति राज का कारपोरेट महाभारत है।


यह जनसंख्या सफाये का मास्टर प्लान है।


पद्मावती विवाद को लेकर जिस तरह जाति धर्म के नाम भारतीय जनमानस का ध्रूवीकरण हुआ है,वह भारत विभाजन की त्रासदी की निरंतरता है।


जाति केंद्रित वैमनस्य और घृणा धर्मोन्माद से कहीं ज्यादा भयानक है,जो भारतीय समाज में मनुस्मृति विधान के संविधान और कानून के राज पर वर्चस्व का प्रमाण है।


अफसोस यह है कि इस आत्मघाती जातियुद्ध का बौद्धिक नेतृत्व पढ़े लिखे प्रबुद्ध लोग कर रहे हैं तो दूसरी ओर बाबा साहेब भीमाराव अंबेडकर के स्वयंभू अनुयायी भी इस भयंकर जातियुद्ध की पैदल सेना के सिपाहसालर बनते दीख रहे हैं।


मिथकों को समाज,राष्ट्र और सामाजिक यथार्थ,अर्थव्यवस्था और भारतीय नागरिकों की रोजमर्रे की जिंदगी और उससे जुड़े तमाम मसलों को सिरे से नजरअंदाज करके कारपोरेट राज की निरंकुश सत्ता मजबूत करने में सत्ता विमर्श का यह सारा खेल सिरे से जनविरोधी है।


राजनीति,कारपोरेट वर्चस्व और मीडिया का त्रिशुल परमाणु बम से भी खतरनाक है तो इसे मिसाइलों की तरह जनमानस में निरंतर दागने में कोई कोर कसर समझदार, प्रतिबद्ध,वैचारिक लोग नहीं छोड़ रहे हैं और वे भूल रहे हैं कि धर्मोन्माद से भी बड़ी समस्या भारत की जाति व्यवस्था और उसमें निहित अन्याय और असमता की समस्या है तो अंबेकरी आंदोलन के लोगों को भी इस बात की कोई परवाह नहीं है।


करनी सेना और ब्राह्मणसमाज के फतवे के पक्ष विपक्ष में जो महाभारत का पर्यावरण देश के मौसम और जलवायु को लहूलुहान कर रहा है,उससे क्रोनि कैपिटलिज्म का कंपनी राज और निरंकुश होता जा रहा है।


ऐसे विवाद दुनियाभर में किसी न किसी छद्म मुद्दे को लेकर खड़ा करना कारपोरेट वर्चस्व के लिए अनिवार्य शर्त है।


मोनिका लिवनेस्की,सलमान रश्दी,पामेला बोर्डेस जैसे प्रकरण और उनकी आड़ में विश्वव्यापी विध्वंस का हालिया इतिहास को हम भूल रहे हैं।


तेल युद्ध और शीत युद्ध की पृष्ठभूमि में इन्ही विवादों की आड़ में दुनिया का भूगोल सिरे से बदल दिया गया है और इऩ्ही विवादों की वजह से आज दुनिया की आधी आबादी शरणार्थी है और दुनियाभर में सरहदो के आर पार युद्ध और गृहयुद्ध जारी है।


ईव्हीएम के करिश्मे पर नानाविध खबरें आ रही हैं।चुनाव नतीजे पर इसका असर भी जाहिर है, होता होगा।लेकिन मेरे लिए यह कोई निर्णायक मुद्दा नहीं है।क्योंकि भारत में चुनावी समीकरण और सत्ता परिवर्तन से कारपोरेट राज बदलने की कोई सूरत नहीं है।सत्तापक्ष विपक्ष में कोई बुनियादी फर्क नहीं है।कारपोरेट फंडिग से चलनेवाली राजनीति का कोई जन सरोकार नहीं है और वह कारपोरेट हित में काम करेगी। राजनीति और कारपोरेट के इसी गठबंधन को हम क्रोनी कैपिटैलिज्म कहते हैं।


गुजरात में अव्वल तो सत्ता परिवर्तन के कोई आसार जाति समीकरण के बदल जाने से नहीं है और न ऐसे किसी परिवर्तन का भारतीय कारपोरेट राज में कोई असर होना है।


सीधे तौर पर साफ साफ कहे तो राष्ट्रीय और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट की  छूट दस साल के मनमोहनी राजकाज में मिली हुई थी,कांग्रेस के सत्ता से बेदखल होने के बाद उनकी सेहत पर कोई असर नहीं हुआ है।बल्कि कंपनियों का पाल बदलने से ही कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गयी।अब जबतक उन्ही कंपनियों का समर्थन मोदी महाराज को जारी है,कोई सत्ता समीकरण उन्हें बेदखल नहीं कर सकता।


मान भी लें कि वे बेदखल हो गये तो फिर मनमोहनी राजकाज की पुनरावृत्ति से कारपोरेट राज का अंत होगा,ऐसी कोई संभावना नहीं है।कांग्रेस और भाजपा के अलावा राज्यों में जो दल सत्ता पर काबिज हैं या विपक्ष में हैं,उनमें को कोई मुक्तबाजार के कारपोरेट राज के खिलाफ नहीं है और न कोई जनता का पक्षधर है।


1991 से भारत की आर्थिक नीतियों की निरंतराता में कोई व्यवधान नहीं आाया है।डिजिटल इंडिया की मौलिक योजना कांग्रेस की रही है जैसे आधार परियोजना,कर सुधार और जीएसटी कांग्रेस की परियोजनाएं है जिन्हें भाजपा की सरकार ने अमल में लाने का काम किया है।अब भी राज्यसभा में भाजपा को बहुमत नहीं है।अब भी केंद्र में गठबंधन सरकार है।


1989 से हमेशा केंद्र में अल्पमत या गठबंधन की सरकारे रही हैं।इसी दरम्यान तमाम आर्थिक सुधार हो गये।कुछ भी सार्वजनिक नहीं बचा है।


किसानों का सत्यानाश तो पहले हो ही चुका है अब कारोबारियों का भी सफाया होने लगा है और रोजगार, नौकरियां,आजीविका सिरे से खत्म करने की सारी संसदीय प्रक्रिया निर्विरोध सर्वदलीय सहमति से संपन्न होती रही है।


इस निरंकुश कारपोरेट राज ने भारत का सामाजिक तानाबाना और उत्पादन प्रणाली को तहस नहस कर दिया है।नतीजतन भोजन, पानी,रोजगार, शिक्षा,चिकित्सा और बुनियादी जरुरतों और सेवाओं से आम जनता सिरे से बेदखल हैं।किसान जमीन से बेदखल हो रहे हैं तो व्यवसायी कारोबार से।बच्चे अपने भविष्य से बेदखल हो रहे हैं तो युवा पीढ़ियां रोजगार और आजीविका से।


सामाजिक तानाबाने को मजबूत किये बिना हम इस कारपोरेट राज का मुकाबला नहीं कर सकते।इसलिए हम किसी भी राजनीतिक पक्ष विपक्ष में नहीं हैं।


हम हालात बदलने के लिए नये सिरे से संत फकीर, नवजागरण,मतुआ,लिंगायत  जैसे सामाजिक आंदोलन की जरुरत महसूस करते हैं, इन आंदोलनों के जैसे शिक्षा और चेतना आंदोलन की जरुरत महसूस करते हैं और महावनगर राजधानी से सांस्कृति आंदोलन को जनपदों की जड़ों में वापस ले जाने की जरुरत महसूस करते हैं। बाकी बचे खुचे जीवन में इसी काम में लगना है।



बहरहाल हमारे लिए सीधे जनता के मुखातिब होने का कोई माध्यम बचा नहीं है।प्रबुद्धजनों का पढ़ा लिखा तबका चूंकि सत्ता वर्ग के नाभिनाल से जुड़कर अपनी हैसियत और राजनीति के मुताबिक अपने ही हित में जनहित और राष्ट्रहित की व्याख्या करता है,तो उनपर भी हमारे कहे लिखे का असर होना नहीं हैे।

बहरहाल प्रिंट से बाहर हो जाने के बाद नब्वे के दशक से ब्लागिंग और सोशल मीडिया के मार्फत बोलते लिखते रहने का मेरा विकल्प भी अब सिरे से खत्म होने को है।


फिलहाल दो तीन महीने के लिए उत्तराखंड की तराई के सिडकुल साम्राज्य में मरुद्यान की तरह अभी तक साबुत अपने गांव में डेरा रहेगा।इसलिए कंप्यूटर,नेट के बिना मेरा लिखना बोलना स्थगित ही रहना है क्योंकि मैं स्मार्ट फोन का अभ्यस्त नहीं हूं।


पत्र व्यवाहर के लिए अब मेरा पता इस प्रकार रहेगाः

पलाश विश्वास

द्वारा पद्मलोचन विश्वास

गांव बसंतीपुर

पोस्टःदिनेशपुर

जिलाः उधमसिंह नगर,उत्तराखंड

पिनकोडः263160


Tuesday, November 21, 2017

सबकुछ निजी हैं तो धर्म और धर्मस्थल क्यों सार्वजनिक हैं?वहां राष्ट्र और राजनीति की भूमिका क्यों होनी चाहिए? किताबों,फिल्मों पर रोक लगाने के बजाये प्रतिबंधित हो सार्वजनिक धर्मस्थलों का निर्माण!जनहित में जब्त हो धर्मस्थलों का कालाधन! पलाश विश्वास

सबकुछ निजी हैं तो धर्म और धर्मस्थल क्यों सार्वजनिक हैं?वहां राष्ट्र और राजनीति की भूमिका क्यों होनी चाहिए?

किताबों,फिल्मों पर रोक लगाने के बजाये प्रतिबंधित हो सार्वजनिक धर्मस्थलों का निर्माण!जनहित में जब्त हो धर्मस्थलों का कालाधन!

पलाश विश्वास

https://www.youtube.com/watch?v=hdtbE2WerLI

निजीकरण का दौर है।आम जनता की बुनियादी जरुरतों और सेवाओं का सिरे से निजीकरण हो गया है।

राष्ट्र और सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है।तो धर्म अब भी सार्वजनिक क्यों है?


गांव गांव धर्मस्थल के निर्माण के लिए विधायक सांसद कोटे से अनुदान देने की यह परंपरा सामंती पुनरूत्थान है।


सत्ता हित के लिए धर्म का बेशर्म इस्तेमाल और बुनियादी जरुरतों और सेवाओं से नागरिकों को उनकी आस्था और धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ करते हुए वंचित करने की सत्ता संस्कृति पर तुरंत रोक लगनी चाहिए।


अर्थव्यवस्था जब निजी है तो धर्म का भी निजीकरण कर दिया जाये।निजी धर्मस्थल के अलावा सारे सार्वजनिक धर्मस्थल निषिद्ध कर दिये जायें और सार्वजनिक धर्मस्थलों की अकूत संपदा नागरिकों की बुनियादी जरुरतों के लिए खर्च किया जाये या कालाधन बतौर जब्त कर लिया जाये।


नोटबंदी और जीएसटी से अर्थव्यवस्था जो पटरी पर नहीं आयी,धर्म कारोबारियों के कालाधन जब्त करने से वह सरपट दौड़ेगी।

निजी दायरे से बाहर धर्म कर्म और सार्वजनिक धर्म स्थलों के निर्माण पर उसी तरह प्रतिबंध लगे जैसे हर सार्वजनिक चीज पर रोक लगी है।

यकीन मानिये सारे वाद विवाद खत्म हो जायेंगे।


व्यक्ति और उसकी आस्था,उसके धर्म के बीच राष्ट्र,राजनीति और सरकार का हस्तक्षेप बंद हो जाये तो दंगे फसाद की कोई गुंजाइस नहीं रहती।वैदिकी सभ्यता में भी तपस्या,साधना व्यक्ति की ही उपक्रम था,सामूहिक और सार्वजनिक धर्म कर्म का प्रदर्शन नहीं।


मन चंगा तो कठौती में गंगा,संत रैदास कह गये हैं।

भारत का भक्ति आंदोलन राजसत्ता संरक्षित धर्मस्थलों के माध्यम से आम जनता के नागरिक अधिकारों के हनन के विरुद्ध दक्षिण भारत से शुरु हुआ था,जो कर्नाटक के लिंगायत आंदोलन होकर उत्तर भारत के संत फकीर आंदोलन बजरिये पूरे भारत में राजसत्ता के खिलाफ नागरिकों के हक हकूक और आस्था और धर्म की नागरिक स्वतंत्रता का आंदोलन रही है।


समूचे संत साहित्य का निष्कर्ष यही है।

मूर्ति पूजा और धर्मस्थलों के पुरोहित तंत्र के खिलाफ सीधे आत्मा और परमात्मा के मिलन का दर्शन।

यही मनुष्यता का धर्म है।भारतीय आध्यात्म है और अनेकता में एकता की साझा विरासत भी यही है।


ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता के एकताबद्ध स्वतंत्रता के महासंंग्राम के खिलाफ अंग्रेजों की धर्म राष्ट्रीयता की राजनीति से भारत का विभाजन हुआ तो आज भी हम उसी अंग्रेजी विरासत को ढोते हुए इस महादेश का कितना और विभाजन करेंगे?


सत्तर साल पहले मेरे परिवार ने पूर्वी बंगाल छोड़ा था भारत विभाजन की वजह से।सत्तर साल बाद पश्चिम बंगाल में सत्ताइस साल रह लेने के बावजूद मुझे फिर विस्थापित होकर उत्तराखंड के शरणार्थी उपनिवेश में अपने विस्थापित परिवार की तरह शरण लेना पड़ रहा है।


तब विस्थापन का कारण धर्म आधारित राष्ट्रीयता थी और अब मेरे विस्थापन का कारण आर्थिक होकर भी फिर वही धर्म आधारित मुक्तबाजारी राष्ट्रीयता है,जिसके कारण अचानक मेरे पांव तले जमीन उसीतरह खिसक गयी है,जैसे सत्तर साल पहले इस महादेश के करोड़ों लोगों की अपनी जमीन से बेदखली हो गयी थी।


जिस तरह आज भी इस पृथ्वी की आधी आबादी सरहदों के भीतर,आरपार शरणार्थी हैं।


गंगोत्री से गंगासागर तक,कश्मीर से कन्याकुमारी तक,मणिपुर नगालैंड से कच्छ तक मुझे कहीं ईश्वर के दर्शन नहीं हुए।

मैंने हमेशा इस महादेश के हर नागरिक में ईश्वर का दर्शन किया है। इसलिए शहीदे आजम भगतसिंह की तरह नास्तिक हूं,कहने की मुझे जरुरत महसूस नहीं हुई।


मेरे गांव के लोग,मेरे तमाम अपने लोग जिस तरह सामाजिक हैं,उसीतरह धार्मिक हैं वे सारे के सारे।

इस महादेश के चप्पे चप्पे में तमाम नस्लों के लोग उसी तरह धार्मिक और सामाजिक हैं,जैसे मेरे गांव के लोग,मेरे अपने लोग।

हजारों साल से भारत के लोग सभ्य और सामाजिक रहे हैं तो धार्मिक भी रहे हैं वे।


सत्ता वर्ग के धार्मिक पाखंड और आडंबर के विपरीत निजी जीवन में धर्म के मुताबिक निष्ठापूर्वक अपने जीवन यापन और सामाजिकता में नैतिक आचरण और कर्तव्य का निर्वाह ही आम लोगों का धर्म रहा है।


मैंने पूजा पाठ का आडंबर कभी नहीं किया।लेकिन मेरे गांव के लोग,मेरे अपने लोग अपनी आस्था के मुताबिक अपना धर्म निभाते हैं,तो आस्था और धर्म की उनकी स्वतंत्रता में मैं हस्तक्षेप नहीं करता।

गांव की साझा विरासत के मुताबिक जो रीति रिवाज मेरे गांव के लोग मानते हैं,गांव में रहकर मुझे भी उनमें शामिल होना पड़ता है।


यह मेरी सामाजिकता है।

सामूहिक जीवनयापन की शर्त है यह।

लेकिन न मैं धार्मिक हूं और न आस्तिक।


15 अगस्त,1947...दो राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर इस महादेश अखंड भारतवर्ष का विभाजन हो गया।राष्ट्रीयता का मानदंड था धर्म।उसी क्षण इतिहास भूगोल बेमायने हो गये।बेमायने हो गया इस महादेश के मनुष्यों,मानुषियों का जीवन मरण।


धर्म के नाम राजनीति और धर्म राष्ट्रीयता,धर्म राष्ट्र इस माहदेश का सामाजिक यथार्थ है और मुक्त बाजार का कोरपोरेट सच भी यही है।इतिहास और भूगोल की विकृतियों का प्रस्थानबिंदू है इस महादेश का विभाजन।


भूमंडलीकरण के दौर में भी इस महादेश के नागरिक उसी दंगाई मानसिकता के शिकंजे में हैं,जिससे उन्हें रिहा करने की कोई सूरत नहीं बची।तभी से विस्थापन का एक अटूट सिलसिला जारी है।


धर्म के नाम विस्थापन,विकास के नाम विस्थापन,रोजगार के लिए विस्थापन।धर्मसत्ता,राजसत्ता और कारपोरेट सत्ता के एकीकरण से महाबलि सत्ता वर्ग का कारपोरेट धर्म कर्म आडंबर और पाखंड से भारत विभाजन की निरंतरता और विस्थापन का सिलसिला जारी है।


बांग्लादेश और पाकिस्तान की फिल्मों,उनके साहित्य,उनके जीवन यापन को गौर से देखें तो धार्मिक पहचान के अलावा उनमें और हममें कोई फर्क करना बेहद मुश्किल है।


बांग्लादेश में सारे रीति रिवाज,लोकसंस्कृति,बोलियां पश्चिम बंगाल की तरह हैं तो पाकिस्तान के लोगों को हिंदुस्तान से अलग करना मुश्किल है।उनके खेत,खलिहान,उनके गांव,उनके शहर,उनके महानगर हूबहू हमारे जैसे हैं।


सरहदों ने बूगोल का बंटवारा कर दिया है लेकिन मोहनजोदोड़ो और हड़प्पा की विरासत अब भी साझा है।


युद्ध,महायुद्ध,प्राकृतिक,राजनीतिक,आर्थिक आपदाएं भूगोल बदलने के लिए काफी हैं,लेकिन इतिहास और विरासत में गंथी हुई इंसानियत जैसे हजारों साल पहले थी,आज भी वैसी ही हैं और हजारों साल बाद भी वहीं रहेंगी।


भारत के इतिहास में तमाम नस्लों के हुक्मरान सैकड़ों,हजारों साल से राज करते रहे हैं,लेकिन गंगा अब भी गंगोत्री से गंगासागर तक बहती हैं और हिमालय से बहती नदियां भारत,बांग्लादेश और पाकिस्तान की धरती को सींचती हैं बिना किसी भेदभाव के।


बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से उठते मानसून के बादल हिमालय के उत्तुंग शिखरों से टकराकर सरहदों के आर पार बरसकर फिजां में बहार लाती है।


धर्म और धर्मस्थल केंद्रित वाणिज्य और राजनीति पर रोक लगे तो बची रहेगी गंगा और बचा रहेगा हिमालय भी।


Monday, November 20, 2017

खोज रहा हूं खोया हुआ गांव,मैदान,पहाड़,अपना खेत।अपनी माटी। पलाश विश्वास

खोज रहा हूं खोया हुआ गांव,मैदान,पहाड़,अपना खेत।अपनी माटी।

पलाश विश्वास

https://www.facebook.com/palashbiswaskl/videos/vb.100000552551326/1919932074701859/?type=2&theater


खोज रहा हूं खोया हुआ गांव,मैदान,पहाड़,अपना खेत।अपनी माटी।

बाजार का कोई सिरा नजर नहीं आाता,न नजर आता कोई घर।

किसी और आकाशगंगा के किसी और ग्रह में जैसे कोई परग्रही।


सारे चेहरे कारपोरेट हैं।गांव,देहात,खेत खलिहान,पेड़ पहाड़ सबकुछ

इस वक्त कारपोरेट।भाषा भी कारपोरेट।बोलियां भी कारपोरेट।

सिर्फ बची है पहचान।धर्म,नस्ल,भाषा,जाति की दीवारें कारपोरेट।

कारपोरेट हित से बढ़कर न मनुष्य है और न देश,न यह पृथ्वी।


गायें भैंसें और बैल न घरों में हैं और न खेतों में- न कहीं गोबर है

और न माटी कहीं है।कड़कती हुई सर्दी है,अलाव नहीं है कहीं

और न कहीं आग है और न कोई चिनगारी।संवाद नहीं है,राजनीति है बहुत।

उससे कहीं ज्यादा है धर्मस्थल,उनसे भी ज्यादा रंग बिरंगे जिहादी।


महानगर का रेसकोर्स बन गया गांव इस कुहासे में,पर घोड़े कहीं

दीख नहीं रहे।टापों की गूंज दिशा दिशा में,अंधेरा घनघोर और

लापता सारे घुड़सवार।नीलामी की बोली घोड़े की टाप।

पसीने की महक कहीं नहीं है और सारे शब्द निःशब्द।

फतवे गूंजते अनवरत।वैदिकी मंत्रोच्चार की तरह।


न किसी का सर सलामत है और नाक सुरक्षित किसी की।हवाओं में

तलवारें चमक रहीं है।सारे के सारे लोग जख्मी,लहुलुहान।लावारिश।


घृणा का घना समुंदर कुहासे से भी घना है और है

चूंती हुई नकदी का अहंकार। सबकुछ निजी है और

सार्वजनिक कुछ भी नहीं।सिर्फ रोज रोज बनते

युद्ध के नये मोर्चे जैसे अनंत धर्मस्थल।

सारे महामहिम, आदरणीय विद्वतजन बेहद धार्मिक है इन दिनों।


धर्म बचा है और क्या है वह धर्म भी,जिसका ईश्वर है अपना ब्रांडेड और जिसमें मनुष्यता की को कोई सुगंध नहीं।कास्मेटिक धर्म की कास्मेटिक

सुगंध में मनुष्यता निष्णात।बचा है पुरोहिततंत्र।


सारा इतिहास सिरे से गायब।मनुष्यता,सभ्यता की सारी विरासतें

बाजार में नीलाम। न संस्कृति बची है और न बचा है समाज।

असामाजिक समाजविरोधी प्रकृतिविरोधी सारे मनुष्य।


घना कुहासा। सूरज सिरे से लापता और खेतों पर दबे पांव

कंक्रीट महानगर का विस्तार,गांव में अलग अलग किलों में कैद

अपने सारे लोग,सारे रिश्ते नाते,बचपन।सन्नाटा संवाद।


सरहदों की कंटीली बाड़ घर घर कुहासा में छन छनकर चुभती,

लहूतुहान करती दिलोदिमाग।मेट्रो की चुंधियाती रोशनी चुंचुंआते

विकास की तरह पिज्जा,मोमो,बर्गर पेश करती जब तब-

सारे किसान आहिस्ते आहिस्ते लामबंद एक दूसरे के खिलाफ।


अघोषित युद्ध में हथियार डिजिटल गैजेट और वजूद आधार नंबर।

अपने ही गांव के महानगरीय जलवायु में कुहासा घनघोर।


मैदान पहाड़ इस कुहासे में एकाकार,जैसे पहाड़ कहीं नहीं हैं

और न मैदान कहीं है कोई हकीकत में और न नदी कोई।


पगडंडियां और मेड़ें एकाकार।बल खाती सर्पीली सड़के डंसतीं

पोर पोर।खेतों में जहरीली फसल से उठता धुआं और आसमान

से बरसता तेजाब।घाटियां बिकाउ बाजार में और सारे पेड़ ठूंठ।


चारों तरफ तेल की धधक।तेज दौड़ते अंधाधुंध बाइक कुहासे में।

कारों के काफिले में मशीनों का काफिला शामिल और इंसान सिरे से

लापता हैं जैसे लापता हैं सूरज और आग।धमनियों में जहर।


सरहदों के भीतर सहरहद कितने।सेनाएं कितनी लामबंद सेनाओं के खिलाफ।

मिसाइलों का रिंगटोन कभी नहीं थम रहा।सारे लोकगीत

खामोश हैं और बच्चों की किलकारियां गायब है।गायब चीखें।


परमाणु बमों का जखीरा हर सीने में छटफटाता और रिमोट से

खेल रहा कोई कहीं और सरहद के भीतर ही भीतर।आगे पीछे के

सारे पुल तोड़ दिये।महानगर सा जनपद,क्या मैदान,क्या पहाड़-

अनंत युद्धस्थल है और सारे लोग एक दूसरे के खिलाफ लामबंद।



Tuesday, October 3, 2017

शंबूक हत्या,सीता की अग्निपरीक्षा और उनका वनवास,उत्तर कांड हटाकर रामजी का शुद्धिकरण जनविमर्श का जन आंदोलनः साहित्य,कला,माध्यम,विधाओं को सत्ता के शिकंजे से रिहा कराना सत्ता परिवर्तन से बड़ी चुनौती है जो सभ्यता और मनुष्यता के लिए अनिवार्य है। पलाश विश्वास

शंबूक हत्या,सीता की अग्निपरीक्षा और उनका वनवास,उत्तर कांड हटाकर रामजी का शुद्धिकरण 
जनविमर्श का जन आंदोलनः साहित्य,कला,माध्यम,विधाओं को सत्ता के शिकंजे से रिहा कराना सत्ता परिवर्तन से बड़ी चुनौती है जो सभ्यता और मनुष्यता के लिए अनिवार्य है।
पलाश विश्वास


मिथकों को इतिहास में बदलने का अभियान तेज हो गया है।साहित्य और संस्कृति कीसमूची विरासत को खत्म करने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खत्म है और सारे के सारे मंच,माध्यम और विधाएं बेदखल है।
मर्यादा पुरुषोत्तम को राष्ट्रीयता का प्रतीक बनाने वाली राजनीति अब मर्यादा पुरुषोतत्म के राम का भी नये सिरे से कायाकल्प करने जा रही है।शंबूक हत्या,सीता की अग्निपरीक्षा और उनका वनवास,उत्तर कांड हटाकर रामजी का शुद्धिकरण किया जा रहा है।
बंगाल या बांग्लादेश में रवींद्र के खिलाफ घृणा अभियान का जबर्दस्त विरोध है।स्त्री स्वतंत्रता में पितृसत्ता के विरुद्ध रवींद्र संगीत और रवींदार साहित्य बंगाल में स्त्रियों और उनके बच्चों के वजूद में पीढ़ी दर पीढ़ी शामिल हैं।
लेकिन विद्यासागर,राममोहन राय और माइकेल मधुसूदन दत्त के खिलाफ जिहाद का असर घना है।राम लक्ष्मण को खलनायक और मेघनाद को नायक बनाकर माइकेल मधुसूदन दत्त का  मुक्तक (अमृताक्षर) छंद में लिखा उन्नीसवीं सदी का मेघनाथ बध काव्य विद्यासागर और नवजागरण से जुड़ा है और आधुनिक भारतीय कविता की धरोहर है।
जब रामायण संशोधित किया जा सकता है तो समझ जा सकता है कि मेघनाथ वध जैसे काव्य और मिथकों के विरुद्ध लिखे गये बारतीय साहित्य का क्या हश्र होना है।इस सिलसिले में उर्मिला और राम की शक्ति पूजा को भी संशोदित किया जा सकता है।
इतिहास संशोधन के तहत रवींद्र प्रेमचंद्र गालिब पाश मुगल पठान और विविधता बहुलता सहिष्णुता के सारे प्रतीक खत्म करने के अभियान के तहत रामजी का भी नया मेकओवर किया जा रहा है।
ह्लदी घाटी की लड़ाई,सिंधु सभ्यता,अनार्य द्रविड़ विरासत,रामजन्मभूमि,आगरा के ताजमहल,दिल्ली के लालकिले के साथ साथ रामायण महाभारत जैसे विश्वविख्यात महाकाव्यों की कथा भी बदली जा रही है।जिनकी तुलना सिर्फ होमर के इलियड से की जाती रही है।
रामायण सिर्फ इस माहदेश की महाकाव्यीय कथा नहीं है बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया में व्यापक जनसमुदायों के जीवशैली में शामिल है रामायण।इंडोनेशिया इसका प्रमाण है।
राम हिंदुओं के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम है तो बौद्ध परंपरा में वे बोधिसत्व भी हैं।
भारत में रामकथा के विभिन्न रुप हैं और रामायण भी अनेक हैं।भिन्न कथाओं के विरोधाभास को लेकर अब तक विवाद का कोई इतिहास नहीं है।
बाल्मीकी रामायण तुलसीदास का रामचरित मानस या कृत्तिवास का रामायण या कंबन का रामायण नहीं हैय़जबकि आदिवासियों के रामायण में राम और सीता भाई बहन है।अब तक इन कथाओं में राजनीतिक हस्तक्षेप कभी नहीं हुआ है।
अब सत्ता की राजनीति के तहत रामकथा भी इतिहास संशोधन कार्यक्रम में शामिल है।
सीता का वनवास,सीता की अग्निपरीक्षा और शंबूक हत्या जैसे सारे प्रकरण समेत समूचा उत्तर रामायण सिरे से खारिज करके राम को विशुद्ध मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनाने के लिए इतिहास संशोधन ताजा कार्यक्रम है।
मनुस्मृति विधान के महिमामंडन के मकसद से यह कर्मकांड उसे लागू करने का कार्यक्रम है।
साहित्य और कला की स्वतंत्रता तो प्रतिबंधित है ही।अब साहित्य और संस्कृति की समूची विरासत इतिहास संशोधन कार्यक्रम के निशाने पर है।
सारे साहित्य का शुद्धिकरण इस तरह कर दिया जाये तो विविधता,बहुलता और सहिष्णुता का नामोनिशान नहीं बचेगा।
मीडिया में रेडीमेड प्रायोजित सूचना और विमर्श की तरह साहित्य,रंगकर्म,सिनेमा, कला और सारी विधाओं की समूची विरासत को संशोधित कर देने की मुहिम छिड़ने ही वाली है।
जो लोग अभी महान रचनाक्रम में लगे हैं,उनका किया धरा भी साबूत नहीं बचने वाला है।तमाम पुरस्कृत साहित्य को संशोधित पाठ्यक्रम के तहत संशोधित पाठ बतौर प्रस्तुत किया जा सकता है।शायद इससे बी प्रतिष्ठित विद्वतजनों को आपत्ति नहीं होगी।
रामायण संशोधन के बाद साहित्य और कला का शुद्धिकरण अभियान बी चलाने की जरुरत है।गालिब,रवींद्र और प्रेमचंद,मुक्तिबोध और भारतेंदु के साहित्य को प्रतिबंधित किया जाये,तो यह उतना बड़ा संकट नहीं है।लेकिन उनके लिखे साहित्यऔर उनके विचारों को राजनीतिक मकसद से बदलकर रख दिया जाये,तो इसका क्या नतीजे होने वाले हैं,इस पर सोचने की जरुरत है।
आज बांग्ला दैनिक एई समय में गोरखपुर में रामायण संशोधन के लिए इतिहास संशोधन के कार्यकर्ताओ की बैठक के संदर्भ में समाचार छपा है।हिंदी में यह समाचार पढ़ने को नहीं मिल रहा है।किसी के पास ब्यौरा हो तो शेयर जरुर करें।
साहित्य,कला,माध्यम,विधाओं को सत्ता के शिकंजे से रिहा कराना सत्ता परिवर्तन से बड़ी चुनौती है जो सभ्यता और मनुष्यता के लिए अनिवार्य है।
इसीलिए हम जन विमर्श के जनआंदोलन की बात कर रहे हैं।

Saturday, September 23, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-33 वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है। जहां काबूलीवाला जैसा पिता कोई नहीं है। काबूलीवाला,मुसलमानीर गल्पो और आजाद भारत में मुसलमान रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ,भाववाद या आध्यात्म नहीं! आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम सिर्फ मुसल�

रवींद्र का दलित विमर्श-33

वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है।

जहां काबूलीवाला जैसा पिता कोई नहीं है।


काबूलीवाला,मुसलमानीर गल्पो और आजाद भारत में मुसलमान

रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ,भाववाद या आध्यात्म नहीं!

आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ समझने की भूल कर रहे हैं।

पलाश विश्वास

kabuliwala এর ছবি ফলাফল


रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती सार्वभौम मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ है।विषमता की पितृसत्ता का प्रतिरोध है।अन्य विधाओं में लगभग अनुपस्थित वस्तुवादी दृष्टिकोण है।मनुस्मृति के खिलाफ,सामाजिक विषमता के खिलाफ,नस्ली वर्चस्व के खिलाफ अंत्यज,बहिस्कृतों की जीवनयंत्रणा का चीत्कार है।कुचली हुई स्त्री अस्मिता का खुल्ला विद्रोह है।न्याय और समानता के लिए संघर्ष की साझा विरासत है।

रवींद्रनाथ की गीताजंलि,उनकी कविताओं,उनकी नृत्य नाटिकाओं,नाटकों और उपन्यासों में भक्ति आंदोलन,सूफी संत वैष्णव बाउल फकीर गुरु परंपरा के असर और इन रचनाओं पर वैदिकी,अनार्य,द्रविड़,बौद्ध साहित्य और इतिहास,रवींद्र के आध्यात्म और उनके भाववाद के साथ उनकी वैज्ञानिक दृष्टि की हम सिलसिलेवार चर्चा करते रहे हैं।इन विधाओं के विपरीत अपनी कहानियों में रवींद्रनाथ का सामाजिक यथार्थ भाववाद और आध्यात्म के बजाय वस्तुवादी दृष्टिकोण से अभिव्यक्त है।इसलिए उनकी कहानियां ज्यादा असरदार हैं।

आज हम रोहिंगा मुसलमानों को भारत से खदेड़ने के प्रयास के संदर्भ में आजाद भारत में मुसलमानों की स्थिति समझने के लिए उनकी दो कहानियों काबूलीवाल और मुसलमानीर गल्पो की चर्चा करेंगे।इन दोनों कहानियों में मनुष्यता के धर्म की साझा विरासत के आइने में रवींद्र के विश्वमानव की छवि बेहद साफ हैं।

गुलाम औपनिवेशिक भारत में सामाजिक संबंधों का जो तानाबाना इस साझा विरासत की वजह से बना हुआ था,राजनीतिक सामाजिक संकटों के मध्य वह अब मुक्तबाजारी डिजिटल इंडिया में तहस नहस है।

उत्पादन प्रणाली सिरे से खत्म है।

खात्मा हो गया है कृषि अर्थव्यवस्था,किसानों और खेती प्रकृति पर निर्भर सारे समुदायों के नरसंहार उत्सव के अच्छे दिन हैं इन दिनों,जहां अपनी अपनी धार्मिक पहचान के कारण मारे जा रहे हैं हिंदू और मुसलमान किसान,आदिवासी,शूद्र,दलित,स्त्री और बच्चे।

आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम मुसलमानों के खिलाफ समझने की भूल कर रहे हैं।

आज धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी में धार्मिक जाति नस्ली पहचान की वजह से मनुष्यों की असुरक्षा के मुकाबले विकट परिस्थितियों में भी सामाजिक सुरक्षा का पर्यावरण है।भारतविभाजन के संक्रमणकाल में भी घृणा,हिंसा,अविश्वास,शत्रुता का ऐसा स्रवव्यापी माहौल नहीं है जहां हिंदू या मुसलमान बहुसंख्य के आतंक का शिकार हो जाये।रवींद्रनाथ की कहानियों में उस विचित्र भारत के बहुआयामी चित्र परत दर परत है,जिसे खत्म करने पर आमादा है श्वेत आतंकवाद का यह नस्ली धर्मयुद्ध।

उनकी कहानियों में औपनिवेशिक भारत की उत्पादन प्रणाली का सामाजिक तानाबाना है जहां गांवों की पेशागत जड़ता औद्योगिक उत्पादन प्रणाली में टूटती हुई नजर आती है तो नगरों और महानगरों की जड़ें भी गांवों की कृषि व्यवस्था में है।

कृषि निर्भर जनपदों को बहुत नजदीक से रवींद्रनाथ ने पूर्वी बंगाल में देखा है और इसी कृषि व्यवस्था को सामूहिक सामुदायिका उत्पादन पद्धति के तहत आधुनिक ज्ञान विज्ञान के सहयोग से समृद्ध संपन्न भारत जनपदों की जमीन से बनाने का सपना था उनका।जो उनके उपन्यासों का भी कथानक है।

इस भारत का कोलकाता एक बड़ा सा गांव है जिसका कोना कोना अब बाजार है।

इस भारत में शिव अनार्य किसान है तो काली आदिवासी औरत।धर्म की सारी प्रतिमाएं कृषि समाज की अपनी प्रतिमाएं हैं।

जहां सारे धर्मस्थल धर्मनिरपेक्ष आस्था के केंद्र है,जिनमें पीरों का मजार भी शामिल है। जहां हिंदू मुसलमान अपने अपने पर्व और त्योहार साथ साथ मनाते हैं।पर्व और त्योहारों को लेकर जहां कोई विवाद था ही नहीं।

रवींद्रनाथ प्रेमचंद से पहले शायद पहले भारतीय कहानीकार है,जिनकी कहानियों में बहिस्कृत अंत्यज मनुष्यता की कथा है।

जिसमें कुचली हुई स्त्री अस्मिता का ज्वलंत प्रतिरोध है और भद्रलोक पाखंड के मनुस्मृति शासन के विरुद्ध तीव्र आक्रोश है।

आम किसानों की जीवन यंत्रणा है और अपनी जमीन से बेदखली के खिलाफ गूंजती हुई चीखें हैं तो गांव और शहर के बीच सेतुबंधन का डाकघर भी है।

दासी नियति के खिलाफ पति के पतित्व को नामंजूर करने वाला स्त्री का पत्र भी है।

रवींद्रनाथ की पहली कहानी भिखारिनी 1874 में प्रकाशित हुई।सत्तावर्ग से बाहर वंचितों की कथायात्रा की यह शुरुआत है।

1890 से बंगाल के किसानों के जीवन से सीधे अपनी जमींदारी की देखरेख के सिलसिले में ग्राम बांग्ला में बार बार प्रवास के दौरान जुड़ते चले गये और 1991 से लगातार उनकी कहानियों में इसी कृषि समाज की कथा व्यथा है।

उन्होंने कुल 119 कहानियां लिखी हैं।उऩके दो हजार गीतों में जो लोकसंस्कृति की गूंज परत दर परत है,उसका वस्तुगत सामाजिक यथार्थ इन्हीं कहानियों में हैं।

कविताओं की साधु भाषा के बदले कथ्यभाषा का चमत्कार इन कहानियों में है,जो क्रमशः उनकी कविताओं में भी संक्रमित होती रही है।

अपनी कहानियों के बारे में खुद रवींद्रनाथ का कहना हैः

..'এগুলি নেহাত বাস্তব জিনিস। যা দেখেছি, তাই বলেছি। ভেবে বা কল্পনা করে আর কিছু বলা যেত, কিন্তু তাতো করিনি আমি।' (২২ মে ১৯৪১)

রবীন্দ্রনাথের উক্তি। আলাপচারি

इसी सिलसिले में बांग्लादेशी लेखक इमरान हुसैन की टिप्पणी गौरतलब हैः

তার গল্পে অবলীলায় উঠে এসেছে বাংলাদেশের মানুষ আর প্রকৃতি। তার জীবনে গ্রামবাংলার সাধারণ মানুষের জীবনাচার বিশ্ময়ের সৃষ্টি করে। তার গল্পের চরিত্রগুলোও বিচিত্র_ অধ্যাপক, উকিল, এজেন্ট, কবিরাজ, কাবুলিওয়ালা, কায়স্থ, কুলীন, খানসামা, খালাসি, কৈবর্ত, গণক, গোমস্তা, গোয়ালা, খাসিয়াড়া, চাষী, জেলে, তাঁতি, নাপিত, ডেপুটি ম্যাজিস্ট্রেট, দারোগা, দালাল প-িতমশাই, পুরাতন বোতল সংগ্রহকারী, নায়েব, ডাক্তার, মেথর, মেছুনি, মুটে, মুদি, মুন্সেফ, যোগী, রায়বাহাদুর, সিপাহী, বাউল, বেদে প্রমুখ। তার গল্পের পুরুষ চরিত্র ছাড়া নারী চরিত্র অধিকতর উজ্জ্বল। বিভিন্ন গল্পের চরিত্রের প্রসঙ্গে রবীন্দ্রনাথ একসময় তারা শঙ্কর বন্দ্যোপাধ্যায়কে লিখেছিলেন 'পোস্ট মাস্টারটি আমার বজরায় এসে বসে থাকতো। ফটিককে দেখেছি পদ্মার ঘাটে। ছিদামদের দেখেছি আমাদের কাছারিতে।'

अनुवादः उनकी कहानियों में बांग्लादेश के आम लोग और प्रकृति है।उनके जीवन में बांग्लादेश के आम लोगों के रोजमर्रे के  जीवनयापन ने विस्मय की सृष्टि की है।उनकी कहानियों के पात्र भी चित्र विचित्र हैं-अध्यापक, वकील, एजेंट, वैद्य कविराज, काबूलीवाला, कायस्थ, कुलीन, कैवर्त किसान मछुआरा, ज्योतिषी, जमींदार का गोमस्ता, ग्वाला, खासिवाड़ा, हलवाहा, मछुआरा, जुलाहा, नाई, डिप्टी मजिस्ट्रेट, दरोगा, दलाल, पंडित मशाय, पुरानी बोतल बटोरनेवाला, नायब, डाक्टर, सफाईकर्मी, मछुआरिन, बोझ ढोने वाला मजदूर, योगी, रायबहादुर, सिपाही, बाउल, बंजारा, आदि। उनकी कहानियों के पुरुषों के मुकाबले स्त्री पात्र कहीूं ज्यादा सशक्त हैं।अपनी विभिन्न कहानियों के पात्रों के बारे में रवींद्रनाथ ने कभी ताराशंकर बंद्योपाध्याय को लिखा था-पोस्टमास्टर मेरे साथ बजरे (बड़ी नौका) में अक्सर बैठा रहता था।फटिक को पद्मा नदी के घाट पर देखा।छिदाम जैसे लोगों को मैंने अपनी कचहरी में देखा।

अनुवादः यह खालिस वास्तव है।जो अपनी आंखों से देखा है,वही लिख दिया।सोचकर,काल्पनिक कुछ लिखा जा सकता था,लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया है।(22 मई,1941।

रवींद्रनाथ का कथन।आलापचारिता (संवा्द)।

(संदर्भः রবীন্দ্রনাথের ছোটগল্প, http://www.jaijaidinbd.com/?view=details&archiev=yes&arch_date=20-06-2012&feature=yes&type=single&pub_no=163&cat_id=3&menu_id=75&news_type_id=1&index=0)

काबूलीवाला की कथाभूमि अफगानिस्तान से लेकर कोलकाता के व्यापक फलक से जुड़ी है,जहां इंसानियत की कोई सरहद नहीं है।काबूली वाला पिता और बंगाली पिता,काबूली वाला की बेटी राबेया और बंगाल की बालिका मिनी में कोई प्रति उनकी जाति,उनके धर्म,उनकी पहचान,उनकी भाषा और उनकी राष्ट्रीयता की वजह से नहीं है।

काबूलीवाला के कोलकाता और आज के कोलकाता में आजादी के बाद क्या फर्क आया है और वैष्णव बाउल फकीर सूफी संत परंपरा की साझा विरासत किस हद तक बदल गयी है वह हाल के दुर्गापूजा मुहर्रम विवाद से साफ जाहिर है।

रोहिंग्या मुसलमान तो फिरभी विदेशी हैं और भारत और बांग्लादेश की दोनों सरकारें रोहिंग्या अलग राष्ट्र आंदोलन की वजह से इस्लामी राष्ट्रवादी संगठनों के साथ इन शरणार्थियों को जोड़कर सुरक्षा का सवाल उठा रहीं हैं।

भारतीय नागरिक जो मुसलमान रोज गोरक्षा के नाम मारे जा रहे हैं,फर्जी मुठभेड़ों में मारे जा रहे हैं,कश्मीर में बेगुनाह मारे जा रहे हैं,दंगो में मारे जा रहे हैं, नरसंहार के शिकार हो रहे हैं और नागरिक मानवाधिकारों से वंचित हो रहे हैं और हरकहीं शक के दायरे में हैं ,शक के दायरे में मारे जा रहे हैं, उनकी आज की कथा और काबूलीवाला के कोलकाता में कितना फर्क है,यह समझना बेहद जरुरी है।

बांग्ला और हिंदी में बेहद लोकप्रिय फिल्में काबूली वाला पर बनी हैं।दक्षिण भारत में भी काबूलीवाला पर फिल्म बनी है।भारतीय भाषाओं के पाठकों के लिए यह कहानी अपरिचित नहीं है।

काबूलीवाला की ख्याति निर्मम सूदखोर की तरह है।वैसे ही जैसे कि  यूरोेप में मध्यकाल में यहूदी सूदखोरों की ख्याति है।

मर्चेंट आफ वेनिस में शेक्सपीअर ने सूदखोर शाइलाक का निर्मम चरित्र पेश किया है।इसके विपरीत रवींद्रनाथ का काबूलीवाला एक मनुष्य है,एक पिता है।

रवींद्रनाथ का काबूलीवाला कोई सूदखोर महाजन नहीं है।

वह  काबूलीवाला अफगानिस्तान में कर्ज में फंसने के कारण अपनी प्यारी बेटी को छोड़कर हिंदकुश पर्वत के दर्रे से भारत आया है तिजारत के जरिये रोजगार के लिए।

काबूलीवाला सार्वभौम पिता है,विश्वमानव विश्व नागरिक है और अपने देश में पीछे छूट गयी अपनी बेटी के प्रति उसका प्रेम मिनी के प्रति प्रेम में बदलकर सार्वभौम प्रेम बन गया है।वह न विभाजनपीड़ित शरणार्थी है,न तिब्बत या श्रीलंका का युद्धपीड़ित, न वह रोहिंग्या मुसलमान है और न मध्य एशिया के धर्मयुद्ध का शिकार।

आज के भारतवर्ष में,आज के कोलकाता में रोहिंग्या मुसलमानों कीतरह काबूलीवाला की कोई जगह नहीं है और आजाद हिंदू राष्ट्र में मुसलमानों, बौद्धों, सिखों, ईसाइयों समेत तमाम गैरहिंदुओं,अनार्य द्रविड़ नस्लों,असुरों के वंशजों, आदिवासियों, किसानों,शूद्रों,दलितों और स्त्रियों के लिए कोई जगह नहींं।

वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है।

जहां काबूलीवाला जैसे पिता के लिए कोई जगह नहीं है।

देखेंः

वह पास आकर बोला, ''ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजिएगा।''

मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा, ''आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पिसा रहने दीजिए।'' तनिक रुककर फिर बोला- ''बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।''

कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसकी चारों तहें खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।

देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे-से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं, हाथ में-थोड़ी-सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कलकत्ता के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्च वंश का रईस हूँ। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी एक बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मैंने तत्काल ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालाँकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई…..


इस कहानी बनी बाग्ला फिल्म में हिंदकुश दर्रे के लंबे दृश्य बेहद प्रासंगिक है क्योंकि इसी दर्रे की वजह से भारत में बार बार विदेशी हमलावर आते रहे हैं।आर्य,शक हुण कुषाण,पठान मुगल सभी उसी रास्ते से आये और भारतीय समाज और संस्कृति के अभिन्न हिस्सा बन गये।सिर्फ यूरोप के साम्राज्यवादी पुर्तगीज,फ्रेंच,डच,अंग्रेज वगैरह उस रास्ते से नहीं आये।वे समुंदर के रास्ते से आये और भारतीय समाज और संस्कृति के हिस्सा नहीं बने। बेहतर हो कि काबुली वाला पर बनी बांग्ला या हिंदी फिल्म दोबारा देख लें।

मुसलमानीर गल्पो की काबुलीवाला की तरह लोकप्रियता नहीं है लेकिन यह कहानी भारतीय साझा विरासत की कथा धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के विरुद्ध है।

14 अप्रैल,1941 को रवींद्रनाथ के 80 वें जन्मदिन के अवसर पर शांतिनिकेतन में उनका बहुचर्चित निबंध सभ्यता का संकट पुस्तकाकार में प्रकाशित और वितरित हुआ।7 अगस्त,1941 में कोलकाता में उनका निधन हो गया।

मृत्यु से महज छह सप्ताह पहले 2425 अप्रैल को उन्होंने अपनी आखिरी कहानी मुसलमानीर गल्पो लिखी,जिसमें वर्ण व्यवस्था और सवर्ण हिंदुओं की विशुद्धतावादी कट्टरता की कड़ी आलोचना करते हुए मुसलमानों की उदारता के बारे में उन्होंने लिखा।हिंदू समाज के अत्याचार और बहिस्कार के खिलाफ धर्मांतरण की कथा भी यह है।आखिरी कहानी होने के बावजूद मुसलमानीर गल्पो की चर्चा बहुत कम हुई है और गैरबंगाली पाठकों में से बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी होगी।

गौरतलब है कि अपने सभ्यता के संकट में रवींद्रनाथ नें नस्ली राष्ट्रीयता के यूरोपीय धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का विरोध भारत के सांप्रदायिक ध्रूवीकरण के संदर्भ में करते हुए ब्रिटिश हुकूमत के अंत के बाद खंडित राष्ट्रीयताओं के सांप्रदायिक ध्रूवीकरण को चिन्हित करते हुए भारत के भविष्य के बारे में चिंता व्यक्त की थी।

दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत जब सांप्रदायिक ध्रूवीकरण चरम पर था,उसी दौरान मृत्यु से पहले धर्मांतरण के लिए वर्ण व्यवस्था की विशुद्धता को जिम्मेदार बताते हुए मुसलमानों की उदारता के कथानक पर आधारित रवींद्रनाथ की इस अंतिम कहानी की प्रासंगिकता पर अभी संवाद शुरु ही नहीं हुआ है।

इस कहानी में डकैतों के एक ब्राह्मण परिवार की सुंदरी कन्या को विवाह के बाद ससुराल यात्रा के दौरान उठा लेने पर हबीर खान नामक एक मुसलमान उसे बचा लेता है और अपने घर ले जाकर उसे अपने धर्म के अनुसार जीवन यापन करने का अवसर देता है। हबीर खान किसी नबाव साहेब की राजपूत बेगम का बेटा है ,जिसे अलग महल में बिना धर्मांतरित किये हिंदू धर्म के अनुसार जीवन यापन के लिए रखा गया था और वही महल हबीर खान का घर है।जहां एक शिव मंदिर और उसके लिए ब्राह्मण पुजारी भी है।कमला अपने घर वापस जाना चाहती हैतो हबीर उसे वहां  ले जाता है।

यह कन्या अनाथ हैं और अपने चाचा के घर में पली बढ़ी,जो उसकी सुंदरता की वजह से उसे अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानते हुए एक विवाहित बाहुबलि के साथ विदा करके अपनी जिम्मेदारी निभा चुका था।अब मुसलमान के घर होकर आयी, डकैतों से बचकर निकली अपनी भतीजी को दोबारा घर में रखने केलिे चाचा चाची तैयार नहीं हुए तो कमला फिर हबीर के साथ उसके घर लौट जाती है।

अपने चाचा के घर में प्रेम स्नेह से वंचित और बिना दोष बहिस्कृत कमला को हबीर के घर स्नेह मिलता है तो हबीर के बेटे से उसे प्रेम हो जाता है। वह इस्लाम कबूल कर लेती है।फिर उसके चाचा की बेटी का डकैत उसीकी तरह अपहरण कर लेते हैं तो मुसलमानी बनी कमला अपनी बहन को बचा लेती है और उसे उसके घर सुरक्षित सौप आती है।

इस कहानी में हबीर को हिंदुओं और मुसलमानों के लिए बराबर सम्मानीय बताया गया है जिसके सामने हिंदू  डकैत भी हथियार डाले देते हैं तो नबाव की राजपूत बेगम की कथा में जोधा अकबर कहानी की गूंज है।हबीर में कबीर की छाया है।दोनों ही प्रसंग भारतवर्ष की साझा विरासत के हैं।

इस कहानी में कमला का धर्मांतरण प्रसंग भी रवींद्रनाथ के पूर्वजों के गोमांस सूंघने के कारण विशुद्धतावाद की वजह से मुसलमान बना दिये जाने और टैगोर परिवार को अछूत बहिस्कृत पीराली ब्राह्मण बना दिये जाने के संदर्भ से जुड़ता है।

सांप्रदायिक ध्रूवीकरण और हिंदू मुस्लिम राष्ट्रवाद के विरुद्ध सभ्यता का संकट लिखने के बाद रवींद्रनाथ की इस कहानी में साझा विरासत की कथा आज के धर्मोन्मादी गोरक्षा तांडव के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक है।

इस कथा के आरंभ में सामाजिक अराजकता,देवता अपदेवता पर निर्भरता, कानून और व्यवस्था की अनुपस्थिति और स्त्री की सुरक्षा के नाम पर उसके उत्पीड़न के सिलसिलेवार ब्यौरे के साथ स्त्री को वस्तु बना देने की पितृसत्ता पर कड़ा प्रहार है  तो सवर्णों में पारिवारिक संबंध,स्नेह प्रेम की तुलना में विशुद्धता के सम्मान की चिंता भी अभिव्यक्त है।पितृसत्ता की विशुद्धता के सिद्धांत के तहत सुरक्षा के नाम स्त्री उत्पीड़न की यह कथा आज घर बाहर असुरक्षित स्त्री,खाप पंचायत और आनर किलिंग का सच है।

তখন অরাজকতার চরগুলো কণ্টকিত করে রেখেছিল রাষ্ট্রশাসন, অপ্রত্যাশিত অত্যাচারের অভিঘাতে দোলায়িত হত দিন রাত্রি।দুঃস্বপ্নের জাল জড়িয়েছিল জীবনযাত্রার সমস্ত ক্রিয়াকর্মে, গৃহস্থ কেবলই দেবতার মুখ তাকিয়ে থাকত, অপদেবতার কাল্পনিক আশঙ্কায় মানুষের মন থাকত আতঙ্কিত। মানুষ হোক আর দেবতাই হোক কাউকে বিশ্বাস করা কঠিনছিল, কেবলই চোখের জলের দোহাই পাড়তে হত। শুভ কর্ম এবং অশুভ কর্মের পরিণামের সীমারেখা ছিল ক্ষীণ। চলতে চলতে পদে পদে মানুষ হোঁচট খেয়ে খেয়ে পড়ত দুর্গতির মধ্যে।

এমন অবস্থায় বাড়িতে রূপসী কন্যার অভ্যাগম ছিল যেন ভাগ্যবিধাতার অভিসম্পাত। এমন মেয়ে ঘরে এলে পরিজনরা সবাই বলত 'পোড়ারমুখী বিদায় হলেই বাঁচি'। সেই রকমেরই একটা আপদ এসে জুটেছিল তিন-মহলার তালুকদার বংশীবদনের ঘরে।

কমলা ছিল সুন্দরী, তার বাপ মা গিয়েছিল মারা, সেই সঙ্গে সেও বিদায় নিলেই পরিবার নিশ্চিন্ত হত। কিন্তু তা হল না, তার কাকা বংশী অভ্যস্ত স্নেহে অত্যন্ত সতর্কভাবে এতকাল তাকে পালন করে এসেছে।

তার কাকি কিন্তু প্রতিবেশিনীদেরকাছে প্রায়ই বলত, "দেখ্‌ তো ভাই, মা বাপ ওকে রেখে গেল কেবল আমাদের মাথায় সর্বনাশ চাপিয়ে। কোন্‌ সময় কী হয় বলা যায় না। আমার এই ছেলেপিলের ঘর, তারই মাঝখানে ও যেন সর্বনাশের মশাল জ্বালিয়ে রেখেছে, চারি দিক থেকে কেবল দুষ্টলোকের দৃষ্টি এসে পড়ে। ঐ একলা ওকে নিয়ে আমার ভরাডুবি হবে কোন্‌দিন, সেই ভয়ে আমার ঘুম হয় না।"

এতদিন চলে যাচ্ছিল এক রকম করে, এখনআবার বিয়ের সম্বন্ধ এল।সেই ধূমধামের মধ্যে আর তো ওকে লুকিয়ে রাখা চলবে না। ওর কাকা বলত, "সেইজন্যই আমি এমন ঘরে পাত্র সন্ধান করছি যারামেয়েকে রক্ষা করতে পারবে।"


Friday, September 22, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-32 देवी नहीं है,कहीं कोई देवी नहीं है। विसर्जनःदेवता के नाम मनुष्यता खोता मनुष्य দেবতার নামে মনুষ্যত্ব হারায় মানুষ पलाश विश्वास

रवींद्र का दलित विमर्श-32

देवी नहीं है,कहीं कोई देवी नहीं है।

विसर्जनःदेवता के नाम मनुष्यता खोता मनुष्य

দেবতার নামে

মনুষ্যত্ব হারায় মানুষ

पलाश विश्वास

वैसे भी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी के मध्य मनुस्मृति विरोधी रवींद्र के दलित विमर्श को जारी रखने में भारी कठिनाई हो रही।रवींद्र के दलित विमर्श और उससे संदर्भ सामग्री शेयर करने पर बार बार रोक लग रही है।

दैवी सत्ता और राजसत्ता के देवी पक्ष में देवी के अस्तित्व से इंकार के नाटक विसर्जन की चर्चा इस अंध धर्मोन्माद के महिषासुर वध उत्सव के मध्य बेहद मुश्किल है लेकिन जरुरी भी है सत्ता ने वर्ग वर्ण नस्ली तिलिस्म को तोड़ने के लिए।

रवींद्र नाथ ने राष्ट्रवाद के विरुद्ध त्रिपुरा राजपरिवार को लेकर राजर्षि उपन्यास लिखा,जिसका प्रकाशन 1889 में हुआ।फिर उन्होंने इसी उपन्यास के पहले अंश को लेकर विसर्जन नाटक लिखा,जो 1890 में प्रकाशित हुआ।

राष्ट्रवाद के नाम अंध धर्मोन्माद के खिलाफ यह नाटक है जिसमें बलि प्रथा का विरोध है और देवी के अस्तित्व से सिरे से इंकार है।जयसिंह के आत्म बलिदान की कथा भी यह है.जो सत्य,अहिंसा और प्रेम की मनुष्यता का उत्कर्ष है।

धर्म और आस्था से बड़ी है मनुष्यता और वही विश्वमानव जयसिंह है।

रवींद्रनाथ ने सीधे कह दिया हैःदेवी नहीं है,कही कोई देवी नहीं है।

सिर्फ विसर्जन नाटक ही नहीं,रवींद्रनाथ ने विसर्जन शीर्षक से गंगासागर तीर्त यात्रा के दौरान पुरोहित के उकसावे पर देवता के रोष से बचने के लिए तीर्थ यात्रियों के अंध विश्वास के कारण एक विधवा के इकलौते बेटे को गंगा में विसर्जन की कथा अपनी कविता देवतार ग्रास में लिखी है।

इस नाटक में दैवी सत्ता  राजसत्ता के साधन बतौर प्रस्तुत है। अंध धर्मोन्माद की सत्ता की राजनीति बेनकाब है इसमें,जो आज का सच है।

आम जनता में देव देवी के नाम धर्मसत्ता के आवाहन के तहत राष्ट्रव्यवस्था पर कब्जा करके निजी हित साधने के तंत्र मंत्र का पर्दाफाश करते हुए रवींद्र कहते हैं कि जिस दिवी के नाम यह धर्मोन्माद है,वह कहीं है ही नहीं।

यह सियासती मजहब इंसानियत के खिलाफ है।

मनुष्यता के खिलाफ पशुता को महोत्सव है यह धर्मोन्माद।

आज से करीब सवासौ साल पहले रवींद्र नाथ इस मजहबी सियासत के खिलाफ मुखर थे और हम आज उसी मजहबी सियासते के पक्षधर बनकर महिषासुर वध की तरह रवींद्रनाथ के वध के उत्सव में शामिल हैं और इस पर संवाद प्रतिबंधित है।

सवासौ साल पहले यूरोप के धर्मयुद्ध के राष्ट्रवाद के विरुद्ध भारतीय मनुष्यता के धरम की बात कर रहे थे रवींद्रनाथ और देव,देवी,ईश्वर के नाम अंध विश्वास की पूंजी के दम पर धर्म सत्ता के आवाहन से सत्ता के अपहरण के राष्ट्रवाद पर हिंसा,घृणा और नरसंहार की संस्कृति के विरुद्ध सत्य,प्रेम और अहिंसा के मनुष्यताबोध का आवाहन कर रहे थे रवींद्रनाथ।

इस नाटक की पृष्ठभूमि त्रिपुरा में गोमती नदी के पास विख्यात कालीमंदिर है तो कथा का स्रोत बौद्धसाहित्य है।हिंसा और घृणा की नरसंहारी वैदिकी संस्कृति के विरुद्ध महात्मा तथागत गौतम बुद्ध के सत्य,प्रेम और अहिंसा की वाणी है।

धर्म का अर्थ मनुष्यता का धारण है।

धर्म का अर्थ मनुष्य और प्रकृति का आध्यात्मिक तादात्म्य है।

भारतीय दर्शन परंपरा की साझा विरासत की जमीन पर खड़े रवींद्रनाथ ने इस नाटक के जरिये वैदिकी कर्मकांड, बलिप्रथा, रक्तपात, हिंसा के माध्यम से दैवी सत्ता के आवाहन के राजकीय आयोजन को धर्म या आस्था मानने से सिरे इंकार करते हुए कहा है,देवी नही है।

देवी कहीं नही है।

जो है वह मनुष्यता है।

जो है वह सत्य और सुंदर है।

जो है वह मनुष्य और मनुष्यता है।

मनुष्य और मनुष्य के बीच अहिंसा और प्रेम का मानवबंधन है।

घृणा और हिंसा के धर्मस्थल की पाषाणप्रतिमा में देवी नहीं है।

देवी कहीं नहीं है।

महात्मा गौतम बुद्ध के धम्म के अनुसार जीवों से प्रेम और स्वामी विवेकानंद के नरनारायण का अद्भुत समन्वय है इस नाटक का कथानक और कथ्य दोनों।

अंध विश्वास की पूंजी परआधारित धार्मिक कट्टरपंथ के हिंसा और घृणा पर आधारित नरसंहारी राष्ट्रवाद के विरुद्ध मनुष्यता और सभ्यता का आधार सत्य,प्रेम और अहिसा है,जो सत्य है,सुंदर है और शाश्वत भी है।

भारतीय दर्शन परंपरा में यही धर्म है।

संत सूफी भक्ति आंदोलन,बाउल फकीर आंदोलन के विमर्श में मनुष्यता के धर्म भी वैदिकी संस्कृति के मनुस्मृति धर्म की हिंसा,घृणा,बलि और वध के खिलाफ है।

धर्म का समूचा भारतीय दर्शन नरसंहार संस्कृति के खिलाफ है जो आज पासिस्ट कारपोरेट नस्ली वर्चस्व का राष्ट्रवाद है।

परंपरा और लोकाचार नहीं,धर्म का आशय मनुष्य की मुक्ति और मानव कल्याण है और मनुष्यों की सामाजिक एकता है।जहां भेदभाव विषमता अन्या और असमानता के लिए कोई स्थान नहीं है,जो पश्चिम के फासिस्ट दैवीसत्ता के नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद के अनिवार्य तत्व हैं।

राजर्षि उपन्यास और विसर्जन नाटक का कुल सार यही है।

रवींद्रनाथ ने लिखा भी हैः 'ধর্ম যখন তার প্রকৃত উদ্দেশ্য ও স্বরূপ হারিয়ে নিমজ্জিত হয় গোড়ামি ও আচার সর্বস্বতায়, তখন তা হয়ে ওঠে মানবতাবিরোধী।'

अनुवादः धर्म जब अपने सही ल्क्ष्य से भटककर,अपना स्वरुप खोकर कट्टरपंथ और कर्मकांड सर्वस्वता में निष्णात हो जाता है,तब वह मनुष्यताविरोधी धर्म बन जाता है।

आज मनुष्यता विरोधी प्रकृति विरोधी धर्म और धर्मोन्मादी नरसंहारी राष्ट्रवाद के शिकंजे में मनुष्यता मर रही है और प्रकृति से मनुष्यता और सभ्यता का मानवबंधन टूट रहा है।गोरक्षा तांडव महिषासुर वध उत्सव की बलि बेदी पर मनुष्यता के वध का उत्सव है यह मुक्तबाजारी कारपोरेट धर्मोन्मादी महोत्सव का नंगा कार्निवाल।

नाटक की शुरुआत में त्रिपुरा की रानी गुणवती पुत्र की कामना लेकर धर्म गुरु रघुपति के समक्ष पशुबलि की मनौती करती हैं।लेकिन राजा गोविंदमाणिक्य ने त्रिपुरा में पशुबलि निषिद्ध कर दी है और वे जीवों से प्रेम के खिलाफ हिंसा को धर्म के विरुद्ध मानते हैं।लेकिनरानी की पुत्रकामना को पूंजी बनाकर पशुबलि संपन्न करने के लक्ष्य में अडिग थे राजपुरोहित धर्मगुरु।

हम आज ऐसे धर्मगुरुओं,राजपरुोहितों,राजकीय संतों साध्वियों का तांडव और कटकटेला अंधकार का उनका कारोबारी राजकाज देख रहे हैं।

मनुष्यता के धर्म के महानायक रुप में राजा गोविंदमाणिक्य का चरित्र है।

दैवीसत्ता के राजसत्ता पर वर्चस्व के लिए त्रिपुरा राजपरिवार में गृहयुद्ध का पर्यावरण इस नाटक का कथानक है जो आज के गोरक्षा तंडव का सच भी है।

पुरोहित दैवीसत्ता के पक्ष में राजसत्ता पर दैवीसत्ता के वर्चस्व के लिए राजमाता और त्रिपुरा के जणगण की आस्था और उनके अंध विश्वास के आधार पर धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण में कामयाब हो जाते हैं जो आज का सबसे बड़ा राजनीतिक सच है जिसके सामने प्रतिरोध सिरे से असंभव हो गया है और पशुबलि की जगह नरबलि का महोत्सव जारी है।

धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण में बहुसंख्य आम जनता की आस्था और अंध विश्वास के राजनीतिक इस्तेमाल के राष्ट्रवाद की सुनामी की वजह से नरबलि का महोत्सव धर्म कर्म और राजकाज साथ साथ हैं।

क्षत्रपों को सत्ता समीकरण में सत्ता साझा करने की सोशल इंजीनियरिंग की तरह राजपुरोहित धर्म और देवी की स्वप्न आज्ञा का हवाला देकर सेनापति को राजा के खिलाफ विद्रोह के लिए उकसाते है और राजा केभाई नक्षत्र राय को नया राजा बनाने काप्रलोभन देकर तख्ता पलट की साजिश रचते हैं।

भाई से भाई की हत्या कराने के लिए इस धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण की साजिशाना मजहबी सियासत के खिलाफ जयसिंह  प्रतिरोध करते हैं।

वे सीधे सवाल खड़ा करते हैं ः

'একী শুনিলাম ! দয়াময়ী মাতঃ;

...ভাই দিয়ে ভ্রাতৃহত্যা?

...হেন আজ্ঞা

মাতৃআজ্ঞা বলে করিলে প্রচার।'

अनुवादः

यह क्या सुन रहा हूं! दयामयी माता

---भाई के हाथों भाई की हत्या?

…. ऐसे आदेश को

माता का आदेश बताकर हो रहा है प्रचार।

तकनीकी क्रांति के माध्यमों और विधाओं पर वर्चस्व हो जाने से धर्मोन्मादी प्रचार तंत्र का यह बीज है जो अब विषवृक्षों का महारण्य है।सारे वनस्पति मरणासण्ण हैं।फिजां जहरीली है और हर सांस के साथ हिंसा और घृणा का संक्रमण है।

फिर इस साजिश का पता चलने पर राजा गोविंदमाणिक्य कहते हैंः

'...জানিয়াছি, দেবতার নামে

মনুষ্যত্ব হারায় মানুষ।'

अनुवादः

जान गया मैं,देवता के नाम

मनुष्यता खोता मनुष्य

नाटक के अंत में जयसिंह के आत्म बलिदान से राजपुरोहित का मन बदलता है।पुत्रसमान जयसिंह को खोने के बाद वैदिकी हिंसा में उनकी आस्था डगमगा जाती है।

जयसिंह को खोने के बाद भिखारिणी अपर्णा के समक्ष राजपुरोहित रघुपति सच का सामना करते हैंः

'পাষাণ ভাঙ্গিয়া গেল জননী আমার

এবার দিয়েছ দেখা প্রত্যক্ষ প্রতিমা

জননী অমৃতময়ী।'

पाषाण टूट गया है जननी मेरी

अब प्रत्यक्ष प्रतिमा का दर्शन मिला है

जननी अमृतमयी

नाटक के अंतिम दृश्य में हिंसा की धर्मोन्मादी आस्था की देवी मूर्ति टूट जाती है और धर्मोन्मादी राजपुरोहित खुद  देवी के अस्तित्व से ही इंकार कर देते हैं।

देखेंः

গুণবতী। জয় জয় মহাদেবী।

                দেবী কই?

রঘুপতি।                 দেবী নাই।

গুণবতী।                             ফিরাও দেবীরে

            গুরুদেব, এনে দাও তাঁরে, রোষ শান্তি

            করিব তাঁহার। আনিয়াছি মার পূজা।

            রাজ্য পতি সব ছেড়ে পালিয়াছি শুধু

            প্রতিজ্ঞা আমার। দয়া করো, দয়া করে

            দেবীরে ফিরায়ে আনো শুধু, আজি এই

            এক রাত্রি তরে। কোথা দেবী?

রঘুপতি। কোথাও সে

            নাই। ঊর্ধ্বে নাই, নিম্নে নাই, কোথাও সে

            নাই, কোথাও সে ছিল না কখনো।

গুণবতী।                                         প্রভু,

            এইখানে ছিল না কি দেবী?

রঘুপতি।                                     দেবী বল

            তারে? এ সংসারে কোথাও থাকিত দেবী,

            তবে সেই পিশাচীরে দেবী বলা কভু

            সহ্য কি করিত দেবী? মহত্ত্ব কি তবে

            ফেলিত নিষ্ফল রক্ত হৃদয় বিদারি

            মূঢ় পাষাণের পদে? দেবী বল তারে?

            পুণ্যরক্ত পান ক'রে সে মহারাক্ষসী

            ফেটে মরে গেছে।

अनुवादः

गुणवती। जय जय महादेवी

          देवी कहां हैं?

रघुपति। देवी नहीं है।

गुणवती। लौटा लाओ देवी को

गुरुदेव,ले आओ उन्हें,गुस्सा उनका

करुंगी मैं ठंडा।लायी हू मां की पूजा।

राज्य पति छोड़कर भागी हूं मैं

अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने को.दया करो,दया करो,

देवी को लौटा लाओ,सिर्फ आज की

एक रात के लिए।कहां हैं देवी?

रघुपति। कहीं भी नहीं हैं वे

उर्द्धे नहीं हैं,निम्ने नहीं हैं,कहीं भी

नहीं है वे।कहीं वह थीं ही नहीं।

गुणवती। प्रभु,

यहीं क्या थीं नहीं वह?

रघुपति। देवी

कहती हो उसे? इस संसार में होती कहीं देवी

तो उस पिशाची को देवी कहने पर

क्या सहन कर लेती देवी? इसकी महत्ता क्या

फलती ह्रदय तोड़कर निकले निष्फल रक्त

पाषाण के पांवों पर?उसे कहती हो देवी?

पुण्य रक्त पीकर महाराक्षसी

वह पाषाण फटकर मर गयी है।

 

राजर्षि उपन्यास का आख्यान देखेंः

तीसरा परिच्छेद

राज-सभा बैठी है। भुवनेश्वरी देवी मंदिर का पुरोहित कार्यवश राज-दर्शन को आया है।

पुरोहित का नाम रघुपति है। इस देश में पुरोहित को चोंताई संबोधित किया जाता है। भुवनेश्वरी देवी की पूजा के चौदह दिन बाद देर रात को चौदह देवताओं की एक पूजा होती है। उस पूजा के समय एक दिन दो रात कोई भी घर से नहीं निकल सकता, राजा भी नहीं। अगर राजा बाहर निकलते हैं, तो उन्हें चोंताई को अर्थ-दण्ड चुकाना पडता है। किंवदंती है कि इस पूजा की रात को मंदिर में नर-बलि होती है। इस पूजा के उपलक्ष्य में सबसे पहले जो पशु-बलि होती है, उसे राजबाड़ी के दान के रूप में ग्रहण किया जाता है। इसी बलि के पशु लेने के लिए चोंताई राजा के पास आया है। पूजा में और बारह दिन बचे हैं।

राजा बोले, "इस बरस से मंदिर में जीव-बलि नहीं होगी।"

सभा के सारे लोग अवाक रह गए। राजा के भाई नक्षत्रराय के सिर के बाल तक खड़े हो गए।

चोंताई रघुपति ने कहा, "क्या मैं यह सपना देख रहा हूँ!"

राजा बोले, "नहीं ठाकुर,हम लोग इतने दिन तक सपना देख रहे थे, आज हमारी चेतना लौटी है। एक बालिका का रूप धारण करके माँ मुझे दिखाई दी थीं। वे कह गई हैं, करुणामयी जननी होने के कारण माँ अपने जीवों का और रक्त नहीं देख सकतीं।"

रघुपति ने कहा, "तब माँ इतने दिन तक जीवों का रक्त-पान कैसे करती आ रही हैं?"

राजा ने कहा, "नहीं, पान नहीं किया। जब तुम लोग रक्तपात करते थे, वे मुँह घुमा लेती थीं।

पाँचवाँ परिच्छेद

प्रात:काल नक्षत्रराय ने आकर रघुपति को प्रणाम करके पूछा, "ठाकुर, क्या आदेश है?"

रघुपति ने कहा, "तुम्हारे लिए माँ का आदेश है। चलो, माँ को प्रणाम करो।"

दोनों मंदिर में गए। जयसिंह भी साथ-साथ गया। नक्षत्रराय ने भुवनेश्वरी की प्रतिमा के सम्मुख साष्टांग प्रणति निवेदन किया।

रघुपति ने नक्षत्रराय से कहा, "कुमार, तुम राजा बनोगे।"

नक्षत्रराय ने कहा, "मैं राजा बनूँगा? पुरोहित जी क्या बोल रहे हैं, उसका कोई मतलब नहीं है।"

कह कर नक्षत्रराय ठठा कर हँसने लगा।

रघुपति ने कहा, "मैं कह रहा हूँ, तुम राजा बनोगे।"

नक्षत्रराय ने कहा, "आप कह रहे हैं, मैं राजा बनूँगा?"

कह कर रघुपति के चेहरे की ओर ताकता रहा।

रघुपति ने कहा, "मैं क्या झूठ बोल रहा हूँ?"

क्षत्रराय ने कहा, "बोलिए, क्या करूँ?"

रघुपति - "ध्यानपूर्वक बात सुनो। तुम्हें माँ के दर्शन के लिए गोविन्द माणिक्य का रक्त लाना होगा।"

नक्षत्रराय ने मन्त्र के समान दोहराया, "माँ के दर्शन के लिए गोविन्द माणिक्य का रक्त लाना होगा।"

रघुपति नितांत घृणा के साथ बोल उठा, "ना, तुमसे कुछ नहीं होगा।"

नक्षत्रराय ने कहा, "क्यों नहीं होगा? जो बोला है, वही होगा। आप तो आदेश दे रहे हैं?"

रघुपति - "हाँ, मैं आदेश दे रहा हूँ।"

नक्षत्रराय - "क्या आदेश दे रहे हैं?"

रघुपति ने झुँझलाते हुए कहा, " माँ की इच्छा है, वे राज रक्त का दर्शन करेंगी। तुम गोविन्द माणिक्य का रक्त दिखा कर उनकी इच्छा पूर्ण करोगे, यही मेरा आदेश है।"

रघुपति - "सुनो वत्स, तब तुम्हें एक और शिक्षा देता हूँ। पाप-पुण्य कुछ नहीं होता। पिता कौन है, भाई कौन है, कोई ही कौन है? अगर हत्या पाप है, तो सारी हत्याएँ ही एक जैसी हैं। लेकिन कौन कहता है, हत्या पाप है? हत्याएँ तो हर रोज ही हो रही हैं। कोई सिर पर पत्थर का एक टुकड़ा गिर जाने से मर रहा है, कोई बाढ़ में बह जाने से मर रहा है, कोई महामारी के मुँह में समा कर मर रहा है, और कोई आदमी के छुरा मार देने से मर रहा है। हम लोग रोजाना कितनी चींटियों को पैरों तले कुचलते हुए चले जा रहे हैं, हम क्या उनसे इतने ही महान हैं? यह सब क्षुद्र प्राणियों के जीवन-मृत्यु का खेल खंडन योग्य तो नहीं है, महाशक्ति की माया खंडन योग्य तो नहीं है। कालरूपिणी महामाया के सम्मुख प्रतिदिन कितने लाखों-करोड़ों प्राणियों का बलिदान हो रहा है - संसार में चारों ओर से जीवों के शोणित की धाराएँ उनके महा-खप्पर में आकर जमा हो रही हैं। शायद मैंने उन धाराओं में और एक बूँद मिला दी। वे अपनी बलि कभी-न-कभी ग्रहण कर ही लेतीं, मैं बस इसमें एक कारण भर बन गया।"

तब जयसिंह प्रतिमा की ओर घूम कर कहने लगा, "माँ, क्या तुझे सब इसीलिए माँ पुकारते हैं! तू ऐसी पाषाणी है! राक्षसी, सारे संसार का रक्त चूस कर पेट भरने के लिए ही तूने यह लाल जिह्वा बाहर निकाल रखी है। स्नेह, प्रेम, ममता, सौंदर्य, धर्म, सभी मिथ्या है, सत्य है, केवल तेरी यह रक्त-पिपासा। तेरा ही पेट भरने के लिए मनुष्य मनुष्य के गले पर छुरी रखेगा, भाई भाई का खून करेगा, पिता-पुत्र में मारकाट मचेगी! निष्ठुर, अगर सचमुच ही यह तेरी इच्छा है, तो बादल रक्त की वर्षा क्यों नहीं करते, करुणा स्वरूपिणी सरिता रक्त की धारा बहाते हुए रक्त-समुद्र में जाकर क्यों नहीं मिलती? नहीं, नहीं, माँ, तू स्पष्ट रूप से बता - यह शिक्षा मिथ्या है, यह शास्त्र मिथ्या है - मेरी माँ को माँ नहीं कहते, संतान-रक्त-पिपासु राक्षसी कहते हैं, मैं इस बात को सहन नहीं कर सकता।"

उसी समय जीवंत तूफानी बारिश की बिजली के समान जयसिंह ने अचानक रात के अंधकार में से मंदिर के उजाले में प्रवेश किया। देह लंबी चादर से ढकी है, सर्वांग से बह कर बारिश की धार गिर रही है, साँस तेजी से चल रही है, चक्षु-तारकों में अग्नि-कण जल रहे हैं।

रघुपति ने उसे पकड़ कर कान के पास मुँह लाकर कहा, "लाए हो राज-रक्त?"

जयसिंह उसका हाथ छुड़ा कर ऊँचे स्वर में बोला, "लाया हूँ। राज-रक्त लाया हूँ। आप हट कर खड़े होइए, मैं देवी को निवेदन करता हूँ।"

आवाज से मंदिर काँप उठा।

काली की मूर्ति के सम्मुख खड़ा होकर कहने लगा, "तो क्या तू सचमुच संतान का रक्त चाहती है, माँ! राज-रक्त के बिना तेरी तृषा नहीं मिटेगी? मैं जन्म से ही तुझे माँ पुकारता आ रहा हूँ, मैंने तेरी ही सेवा की है, मैंने और किसी की ओर देखा ही नहीं, मेरे जीवन का और कोई उदेश्य नहीं था। मैं राजपूत हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मेरे प्रपितामह राजा थे, मेरे मातामह वंशीय आज भी राजत्व कर रहे हैं। तो, यह ले अपनी संतान का रक्त, ले, यह ले अपना राज-रक्त।" चादर देह से गिर पड़ी। कटिबंध से छुरी बाहर निकाल ली - बिजली नाच उठी - क्षण भर में ही वह छुरी अपने हृदय में आमूल भोंक ली, मृत्यु की तीक्ष्ण जिह्वा उसकी छाती में बिंध गई। मूर्ति के चरणों में गिर गया; पाषाण-प्रतिमा विचलित नहीं हुई।

(साभारःहिंदी समय,महात्मा गांधी अतरराष्ट्रीय विश्वविदयालय,वर्धा ,http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=2377&pageno=1)

  




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