क्या एक सैन्य राष्ट्र के निर्माण के लिए नेताजी की छवि का इस्तेमाल हो रहा है?
आज धनबाद से सीएफआरआई के सेवानिवृत्त अधिकारी और हमारे पुराने मित्र gautam Goutam Goswami का फोन आया। नेताजी धनबाद के पास गोमो जंक्शन होकर कोलकाता से अफगानिस्तान पहुंचे थे ।यह कथा वरिष्ठ लेखक Sudhir Vidyarthi ने सिलसिलेवार लिखी है।
धनबाद से नेताजी का रिश्ता बहुत पुराना है। राँची के एक बांग्ला दैनिक में नेताजी जयंती पर नेताजी के धनबाद लिंक पर उनका सम्पादकीय छपा।
मुझे फोन करके उन्होंने पूछा कि क्या मैंने वह लेख पढ़ लिया है। लेख मैंने पढ़ लिया था।
फिर उन्होंने पूछा कि उत्तराखण्ड में इतनी बड़ी संख्या में बंगाली रहते हैं,उनका बांग्ला भाषा और साहित्य से क्या सम्बन्ध है? क्या उत्तराखण्ड में बांग्ला पत्र पत्रिकाएं आती हैं? मैंने कहा कि भारत विभजन के बाद जो पीढ़ी आई थी,उसका सम्बन्ध था।
मेरे पिता दैनिक बांग्ला अखबार के साथ देश पत्रिका के नियमित ग्राहक थे।हिंदी पत्रपत्रिकाओं के भी।
हमारे घर तब मराठी,असमिया और उड़िया के पत्र पत्रिकाएं भी आती थी।
तब पूर्वी बंगाल के हर विभाजन पीड़ित परिवार के अपढ़ अधपढ घर में भी कम से कम बंकिम,शरत,रवींद्र और नजरुल इस्लाम की लिखी किताबें होती थीं।
तराई के जंगल में तब न रेडियो था और न टीवी। शिक्षा भी नहीं थी। यातायात के साधन भी नहीं थे। लोग कच्चे मकान में कीचड़ पानी में रहते थे। बाघ घूमते थे।
अब सबकुछ है,लेकिन पढ़ने लिखने की संस्कृति नहीं हैं। लोक छवियां सिरे से गायब हैं।
गीत संगीत चित्रकला कुछ भी नहीं है।सिर्फ लाउडस्पीकर और डीजे हैं।आत्मघाती राजनीति है और बाजार है।
फिर मैंने कहा कि बंगाल के बाहर बसे 22 राज्यों के भारत विभाजन के शिकार मेरे करोड़ो परिजन अपनी मातृभाषा, संस्कृति और पहचान से कट गए हैं।
बांग्ला क्या हिंदी या किसी दूसरी भाषा या साहित्य से उनका कोई मतलब नहीं है। बस ,वे ज़िंदा हैं।
फिर मैंने मित्र अजित राय की चर्चा की जो धनबाद के थे और जिन्होंने दर्जनों बांग्ला किताबें लिखीं। इनमें धनबाद और झारखंड का इतिहास,झारखण्ड आंदोलन का इतिहास, कामरेड एके राय की जीवनी जैसी पुस्तकें शामिल हैं। बंगाल में हमने कभी कोई चर्चा नहीं देखी।
धनबाद में आसनसोल से ज्यादा बंगाली रहते हैं और आसनसोल के बाद पहला रेलवे स्टेशन हैं धनबाद।
झारखण्ड के हर शहर में विस्थापित नहीं,भद्रलोक बंगाली बड़ी संख्या में है। बिहार में भी यही हाल है।
झारखंड और बिहार में, असम और त्रिपुरा में सभी बंगाली बांग्ला भाषा और साहित्य से जुड़े हैं। बांग्ला के अनेक महान लेखकों,कवियों की बिहारी झारखंडी पृष्ठभूमि है। लेकिन बंगाल को इन राज्यों की भद्रलोक बंगालियों की भी कोई परवाह है तो पूर्वी बंगाल के करोड़ों दलित विस्थापितों की उन्हें क्या और क्यों परवाह होगी?
क्या बांग्ला में बिहार,झारखण्ड,असम,ओडीशा और त्रिपुरा में रचे जा रहे बांग्ला साहित्य की खोज खबर ली जाती है। क्या बंगाल के लोग अजित राय जैसे लेखक को भी जानते हैं?
जिस बांग्ला साहित्य में, जिन बांग्ला पत्र पत्रिकाओं में हमारे लोगों की त्रासदी और हमारे अस्तित्व को भुला दिया गया है,उनसे हम क्यों जुड़े रहेंगे?
इसलिए मैंने भी बांग्ला में लिखना छोड़ दिया है।
मैं अगर लेखक हूँ तो सिर्फ हिंदी का लेखक।
फिर नेताजी की चर्चा चली।
गौतम जी ने अचानक कहा कि नेताजी की प्रतिमा की सबसे खास बात है,उनकी सैन्य वेशभूषा और आज़ाद हिंद फौज की उनकी पृष्ठभूमि। यह संघ परिवार के एजंडे के लिए बहुत उपयोगी है।
मैंने इस पर ध्यान नही दिया था।
फौरन एक बड़े अखबार में कुछ अरसे पहले छपे लेलह की याद आ गयी,जिसका शीर्षक था,नेताजी भारत में निरंकुश फासीवादी शासन चाहते थे।
शहीदे आज़म भगत सिंह ,गाँधी और अम्बेडकर के अपहरण से ज्यादा खतरनाक है नेताजी का यह संघी अवतार।
यह भारत को निरंकुश सैन्य राष्ट्र बनाने की तैयारी है।
अब शायद कारपोरेट राज को लगातार महंगा होता जा रहा लोकतंत्र का प्रहसन भी नापसंद है।
फासिज्म का सैन्य राष्ट्र एजेंडा पर है,इज़लिये नेताजी का भी भगवाकरण भी अनिवार्य है।
यह है पराक्रम का असल मायने।
पलाश विश्वास
23 जनवरी 2022