गोपाल प्रधान
जनसत्ता 18 दिसंबर, 2011 : हिंदी आलोचना पर होने वाली हर सभा-संगोष्ठी में उसकी दुर्गति का रोना बहुत रोया जाता है। एक हद तक यह उचित भी है। दुनिया की अनेक भाषाओं में आलोचना की उतनी मजबूत परंपरा नहीं रही है, जितनी हिंदी में। मसलन, रूसी भाषा में उपन्यासकारों का इतना दबदबा रहा है कि उनके आगे हम रूसी आलोचकों का नाम भी नहीं सुनते। हिंदी में आलोचना की एक मजबूत परंपरा रही है और आलोचकों की राय का वजन रचनाकारों की राय से कम नहीं रहा है। न सिर्फ इतना, बल्कि आलोचना बहुत कुछ रचना की तरह ही पठनीय और प्रशंसित रही है, इसीलिए उसका पतन चिंता का कारण बन जाता है। हिंदी आलोचना में विचारधारात्मक सवालों पर गरमागरम बहसों ने उसे समाज या राजनीति के विभिन्न विमर्शों से जोड़े रखा, भले इस स्थिति पर साहित्य की स्वायत्तता और उसकी पवित्रता के पक्षधर जितना भी हो-हल्ला मचाते रहे हों।
आलोचना की बुरी हालत का एक प्रमाण पुस्तक समीक्षा की हालत है। उदारीकरण का सबसे गहरा असर इस पर पड़ा है। नए समीक्षकों ने भी संबंध न बिगड़ने देने का आसान रास्ता खोज निकाला है कि वे किसी रचना की समीक्षा के नाम पर या तो किताब का सार प्रस्तुत कर देते या अतिशय प्रशंसा की झड़ी लगा देते हैं। अगर ध्यान से देखें तो आलोचना और समीक्षा में कम से कम अर्थ के मामले में कोई भेद नहीं होता इसीलिए समीक्षा में भी रचना की जांच गहराई से करके मूल्य निर्णय देने में बुराई तो नहीं ही है, बल्कि इससे समीक्षा का मान ही उन्नत होता है। उदारीकरण ने पद और पुरस्कार की अंधी दौड़ भी पैदा की है, जिसके चलते साहस के साथ सच कहने का माद्दा कमजोर हुआ है। पुरस्कार भी 'कौन बनेगा करोड़पति' की राशि में बढ़ोतरी के साथ-साथ या तो वजनी हो रहे हैं या उनके वजनी होने की आशा पैदा हो रही है। अब तो यह कर्म बहुत कुछ इवेंट मैनेजमेंट की तरह होता जा रहा है।
अगर हिंदी आलोचना को उसके वर्तमान ठहराव से बाहर निकालना है तो आलोचना की शास्त्रीय परंपरा की शक्ति की खोज करनी होगी। यह काम इस समय और भी महत्त्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि बदले हुए हालात बहुत कुछ उसी वातावरण की याद दिलाते हैं, जिसमें हिंदी आलोचना अलंकार विवेचन से बाहर निकल कर सामाजिक अर्थवत्ता की पहचान की ओर मुड़ी थी। उसका यह हस्तक्षेप बहुत कुछ आजादी की लड़ाई से जुड़ा था और भले ही इस बात को अस्वीकार किया जाए, लेकिन आज दोबारा नए तरह की गुलामी लादने की कोशिश और उसके विरुद्ध घनघोर प्रतिरोध की मौजूदगी से इनकार नहीं किया जा सकता। यह नया माहौल एक अन्य कारण से भी नई चुनौती लेकर आ रहा है। जिस नाम पर यह पुन:उपनिवेशीकरण हो रहा है उसे भूमंडलीकरण कहते हैं और यह प्रक्रिया एकायामी नहीं है। इसमें सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक बदलाव अलग-अलग नहीं, एक दूसरे के साथ जुड़ कर, इकट््ठा हो रहे हैं। यह एक संदर्भ है, जिसमें हम अपनी शानदार परंपरा का पुनर्मूल्यांकन करते हुए उससे नई ताकत ग्रहण कर सकते हैं। इस तरह के मूल्यांकन में एक बड़ी बाधा आजादी के बाद के वर्षों में विकसित हुआ हमारा नजरिया है, जिसमें हम चीजों को उनकी समग्रता में न देख कर अध्यापकीय आदत के मुताबिक खंडों में बांट कर देखने लगे हैं।
इस आदत के बारे में थोड़ा सोचने की जरूरत है, क्योंकि ज्ञान तो पहले एक ही था। पहले के चिंतकों को देखें तो एक ही आदमी दार्शनिक भी है, वही अर्थशास्त्री है, वही वनस्पति विज्ञानी भी है। आप अरस्तू को प्रत्येक विषय की शुरुआत में पढ़ते हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि ये सारे अनुशासन जिस
जब हम हिंदी आलोचना की शास्त्रीय परंपरा पर इस संदर्भ में निगाह डालते हैं तो देखते हैं कि शुरुआती आलोचकों में एक तरह की समग्रता है। रामचंद्र शुक्ल का 'हिंदी साहित्य का इतिहास' आलोचना का महान ग्रंथ है। उसके बारे में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह 'हिंदी शब्द सागर' की भूमिका के बतौर लिखा गया था। बल्कि उनकी आलोचना को उनके शुद्ध साहित्येतर कामों से अलगाया नहीं जा सकता। उन्होंने तब के मशहूर वैज्ञानिक हैकेल की किताब 'रिडल्स आॅफ यूनिवर्स' का हिंदी अनुवाद 'विश्व प्रपंच' नाम से किया था और उसकी लंबी भूमिका में धरती पर जीव की उत्पत्ति से शुरू करके समाज गठन से लेकर दर्शन के विकास तक का ब्योरा पेश किया था। इस क्रम में उन्होंने भूगर्भविज्ञान, समाजशास्त्र और दर्शन सबको आजमाया था।
इसी तरह हजारीप्रसाद द्विवेदी के भक्तिकालीन साहित्य के विश्लेषण से उनके मानव वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य को जुदा नहीं किया जा सकता। रामविलास शर्मा के काम को भी व्यापक दृष्टि वाले इन्हीं विचारकों की परंपरा में देखा जाना चाहिए। इतिहास की गुत्थियों से उनका जूझना उनके साहित्य संबंधी विवेचन से अलग नहीं है और न ही इन सबसे भाषा संबंधी उनका चिंतन है। दरअसल, आजादी की लड़ाई ने तब के आलोचकों के सामने एक बड़ा फलक खोला था। उसने साहित्य के प्रति एक तरह के कर्तव्य परक दृष्टिकोण को जन्म दिया था, जिसकी निंदा आकर्षक जितनी भी लगे, हितकर तो किसी भी तरह नहीं है।
दुर्भाग्यवश आजादी के बाद की निश्चिंतता ने एक तरह के एकांगी नजरिए को जन्म दिया, जिसमें आर्थिक मामले सरकारी अर्थशास्त्रियों के हवाले रहे, राजनीति की उलझनों को नेताओं के भरोसे छोड़ दिया गया और आलोचकों के जिम्मे सिर्फ साहित्य की दुनिया आई। अगर दार्शनिक शब्दावली में कहें तो इससे सोच का अधिभूतवादी रवैया पैदा होता है। इस विरासत ने ही वह तंगनजरी पैदा की है, जिसमें हम किसी पुस्तक को शोध या समाजशास्त्रीय काम कह कर उसे आलोचना की दुनिया से बाहर रखने की हताशा भरी कोशिश करते रहते हैं।
हाल के दिनों में हिंदी नवजागरण या भक्तिकालीन साहित्य संबंधी ऐसे पुख्ता काम प्रकाश में आए हैं, जिन्हें इस तंगनजर आलोचना की हद में शामिल करना मुश्किल महसूस हो रहा है, लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि चौहद्दी बांधने से ज्यादा जरूरी फिलहाल उसे फैलाना है, ताकि विभिन्न ज्ञानानुशासनों से लाभ उठाते हुए हिंदी आलोचना अपने-आपको समृद्ध करे। ज्ञान के अनुशासनों के बीच खड़ी की गई दीवारें हमेशा से इतनी कमजोर रही हैं कि किसी भी अनुशासन से गंभीरता से जुड़े लोग उसका उल्लंघन करते आए हैं। हां यह सही है कि किसी अनुशासन की सीमा की जानकारी उस अनुशासन में गहरे धंसे बगैर नहीं हो सकती। जैसे पदार्थ के भीतर जाने पर अपदार्थ से उसकी गहरी एकता का भान होता है उसी तरह साहित्य के भीतर साहित्येतर समाया हुआ है।
इस नए माहौल के साथ समायोजन पुरानी शिक्षण संस्थाओं के लिए अधिक तकलीफदेह साबित हो रहा है, लेकिन वहीं से इसके सबसे सार्थक और सृजनात्मक प्रतिफलन भी प्रकट होंगे, क्योंकि उनकी जड़ें विभिन्न ज्ञानानुशासनों में गहरी हैं। कुल उत्साह के बावजूद नई संस्थाओं का पल्लवग्राही वातावरण इसमें कोई खास योगदान करता नजर नहीं आ रहा है।
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