Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Sunday, May 26, 2013

बंगाल में छत्तीस गढ़ की तरह माओवादी हमला कभी भी संभव!

बंगाल में छत्तीस गढ़ की तरह माओवादी हमला कभी भी संभव!


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


छत्तीसगढ़ में माओवादी महले नियमित होते रहे हैं। इसके बावजूद केंद्र और राज्यसरकार में समन्वय के ्भाव और राजनीतिक भेदभाव की वजह से कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में सुरक्षा इंतजामात की खामियों के चलते प्रदेश कांग्रेस का पूरा नेतृत्व मारा गाय और दो दो पूर्व मुख्यमंत्री हमले में बुरीतरह जख्मी हो गये।छत्तीसगढ़ में हुए नक्सली हमले से प्रदेश कांग्रेस को तगड़ा झटका लगा है। हमले में आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सीएम पद के दावेदार माने जा रहे महेंद्र कर्मा की मौत हो गई, जबकि वरिष्ठ कांग्रेसी नेता विद्याचरण शुक्ल जख्मी हो गए हैं। ये सभी नेता आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर परिवर्तन यात्रा निकाल रहे थे-और इनका प्रदेश की सियासत में बड़ा रुतबा था।महेंद्र कर्मा की हत्या को नक्सलियों के बदले की बड़ी कार्रवाई कहा जा सकता है, क्योंकि 2005 में महेंद्र कर्मा ने ही नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडुम आंदोलन शुरू किया था। बाद में सलवा जुडुम के लड़ाकों को राज्य सरकार ने स्पेशल पुलिस ऑफिसर के तौर पर भर्ती कर उसे सरकारी जामा पहनाने की कोशिश की। लेकिन इसकी आलोचना भी होनी शुरू हो गई।


भारत में नक्सल माओवादी आंदोलन की जन्मभूमि लेकिन बंगाल है।भारत में नक्सली हिंसा की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से हुई जिससे इस आंदोलन को इसका नाम मिला।हालांकि इस विद्रोह को तो पुलिस ने कुचल दिया लेकिन उसके बाद के दशकों में मध्य और पूर्वी भारत के कई हिस्सों में नक्सली गुटों का प्रभाव बढ़ा है। इनमें झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य शामिल हैं।माना जाता है कि भारत के कुल छह सौ से ज्यादा जिलों में से एक तिहाई नक्सलवादी समस्या से जूझ रहे हैं।नक्सलियों का कहना है कि वो उन आदिवासियों और गरीबों के लिए लड़ रहे हैं जिन्हें सरकार ने दशकों से अनदेखा किया है।माओवादियों का दावा है कि वो जमीन के अधिकार और संसाधनों के वितरण के संघर्ष में स्थानीय सरोकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं।माओवादी अंततः 'एक कम्युनिस्ट समाज' की स्थापना करना चाहते हैं, हालांकि उनका प्रभाव आदिवासी इलाकों और जंगलों तक ही सीमित है।


कोयला खानों से विस्फोटक चुराकर वे कभी भी बारुदी सुरंग या बम विस्फोट के जरिये कहीं भी बड़ी वारदात को अंजाम दे सकते हैं। नेपाल या बांग्लादेश सीमापार से विदेशी मुद्रा और विदेशी हथियार माओवादियों की सबसे बड़ी ताकत है। चिटफंड कंपनियों का पैसा उनतक पहुंचता है। फिर सत्ता हासिल करने के लिए अलग अलग राजनीतिक दल समय विशेष पर माओवादियों के साथ खुला और भूमिगत मंच बनाते हैं।


जंगल महल में फिलहाल अमन चैन का दावा किया जा रहा है। पर माओवादियों के बंगाल में फिर से गोलबंदी की खबर ​​हैं।दूसरी ओर, आपरेशन लालगढ़ का भी पटाक्षेप नहीं हुआ है।वर्ष 2009 में कोलकाता से महज़ 250 किलोमीटर दूर लालगढ़ जंगल महल  पर नक्सलियों ने कब्ज़ा कर लिया था जो कई महीनों तक चला। माओवादियों ने लालगढ़ को भारत का पहला "स्वतंत्र इलाका" घोषित किया लेकिन आखिरकार सुरक्षा बल इस विद्रोह को दबाने में कामयाब रहे।माओवादियों के प्रमुख नेता क्लिक करें किशनजी की नवंबर 2011 में पश्चिम बंगाल में सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में मौत को माओवादियों के लिए एक बड़ा झटका और सुरक्षाबलों के लिए एक बड़ी जीत के तौर पर देखा गया।सत्ता संभालने के बाद ममता ने कई बार जंगलमहल का भी दौरा किया। माओवादियों के लिए कल्याणकारी योजनाएं लागू कीं। कुछ बड़े नक्सली नेताओं ने इसे देखते हुए आत्मसमर्पण भी किया, लेकिन सच्चाई यह है कि माओवादी नेता किशनजी के मुठभेड़ में मारे जाने के बाद माओवादियों के समर्थक बुद्धिजीवी ममता से दूर हटे हैं।


तृणमूल सांसद कबीर सुमन तो बार बार कहते रहे हैं कि बंगाल में भूमि आंदोलन माओवादियों ने ही शुरु किया ौर माओवादियों के सक्रिय समर्थन से ही दीदी की मां माटी मानुष की सरकार सत्ता में आयी।इन दो वर्षो में सवाल पूछने पर किसान को जेल भेजने, कार्टून विवाद, रेल भाड़ा बढ़ने ने अपने रेलमंत्री को बदलना, केंद्र से समर्थन वापस लेना, कई विवादास्पद बयानों आदि से ममता को आलोचना भी झेली पड़ी। बावजूद इसके ममता के तेवर जस के तस बरकारार रहे।



पड़ोसी झारखंड और ओड़ीशा में माओवादियों के मजबूत आधारक्षेत्र हैं। वे बंगाल में किसी भी वारदात को अंजाम देकर पड़ोसी राज्य के अपने ठिकाने में लौट सकते हैं। लेकिन संभावित खतरों से निपटने के लिए राज्य का ढीला ढाला सुरक्षा इंतजाम पर्याप्त नहीं है।केंद्रीय एजंसियों की सूचना पर ही निर्भर है राज्य पुलिस इसलिए एलर्ट के बाद सुरक्षा का कोई नामोनिशान नहीं होता।


सबसे बड़ी बात तो यह है कि राज्य चुनाव आयोग की सुरक्षा चेतावनी को नजरअंदाज करके पंचायत चुनाव में केंद्रीय वाहिनी तैनात न करने पर तुली हुई है राज्य सरकार। खासकर जंगल महल और दूसरे संवेदनशील इलाकों में पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम के लिए राज्य पुलिस के पास आवश्यक वाहिनियां हैं ही नहीं। अदालती निर्देश के तहत बिना पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम के जो पंचायत चुनाव हो रहे हैं,  उसमें राजनीतिक संघर्ष और हिंसा के अलावा छत्तीसगढ़ में ताजा माओवादी हमले से बुलंदहौसला माओवादी बंगाल में क्या गुल खिला सकते हैं, यह भी चिंता का विषय है।


इस हमले के खिलाफ छत्तीसगढ़ में सुरक्षाबलों की जवाबी कार्रवाई होनेवाली है, उसका बंगाल, बिहार, झारखंड और उड़ीशा में भी असर होना है। जाहिर है कि पंचायत चुनाव में पर्याप्त ही नहीं, बल्कि अतिरिक्त सुरक्षा इंतजाम वक्त का तकाजा है और राज्य सरकार इसके लिए सोतचने को कतई तैयार नहीं है।


बंगाल सरकार जंगल महल में अमन चैन का राग अलाप रही है जबकि त्य़ यह है कि छत्तीसगढ़ में इस हमले के पीछे भी अमनराग ही रहा है क्योंकि छत्तीसगढ में कल इतने बडे पैमाने पर राजनीतिक नरसंहार ऐसे समय हुआ, जब राज्य में नक्सली हिंसा की घटनाओं में लगातार कमी आ रही थी और मारे जाने वालों की संख्या भी दिनों दिन कम हो रही थी।


गृह मंत्रालय के आंकडों पर नजर डालें तो पाएंगे कि भाकपा-माओवादी कैडरों ने राज्य में 2012 में हिंसा की लगभग 370 वारदात कीं । 2011 में नक्सल हिंसा की घटनाओं की संख्या 465 थी जबकि 2010 का आंकडा 625 था।


मंत्रालय के मुताबिक छत्तीसगढ में नक्सल हिंसा में माओवादियों के हाथ मारे जाने वालों की संख्या में भी लगातार गिरावट दर्ज हो रही थी। 2010 में नक्सलियों के हाथ 343 लोग मारे गये, जिनमें 172 सुरक्षा जवान थे। 2011 में आंकडा घटकर 204 पर सिमट गया। मारे गये 204 लोगों में से 80 सुरक्षा जवान थे। 2012 में आंकडों में और गिरावट दर्ज की गयी और मारे जाने वाले लोगों की संख्या घटकर 109 रह गयी, जिसमें सुरक्षा जवानों की संख्या 46 थी।


अगर 2013 के आंकडों पर नजर डालें तो छत्तीसगढ में 31 मार्च तक नक्सल वारदात की संख्या केवल 59 रही, जिनमें 14 लोग मारे गये। तुलना करें तो 31 मार्च 2013 तक की वारदात के मुकाबले 31 मार्च 2012 तक की वारदात कहीं अधिक यानी 91 थी और मारे गये लोगों की संख्या 17 थी।


राज्य मंत्रिमंडल में शिल्पांचल के इकलौते मंत्री मलय घटक को माओवादी द्वारा धमकी मिलने के बाद इलाके में हड़कंप मचा हुआ है। घटना की जानकारी पाते ही सुबह से मंत्री का हालचाल जानने के लिये आसनसोल स्थित उनके आवासीय कार्यालय में समर्थकों का हुजूम उमड़ पड़ा। दूसरी ओर माओवादियों की धमकी को देखते हुए कृषिमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी कर दी गयी है।


शनिवार की शाम मंत्री अपने आवास पर आने के बाद डाक देख रहे थे, उसी में एक पत्र माओवादी संगठन इंडिया पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का भी था। पत्र पश्चिम बंगाल के ही खड़गपुर शहर से गत 13 मई को रजिस्ट्री की गयी थी। जो 15 मई को आसनसोल डाकघर पहुंचा। चूंकि मंत्री मलय घटक कोलकाता में थे। इसलिये शनिवार को उनके आने के बाद पत्र खोला गया तब जाकर धमकी की जानकारी मिली।


पत्र खड़गपुर रेलवे स्टेशन निवासी एन रामाराव की ओर से लिखी गयी है, जिसमें कहा गया है कि तृणमूल कांग्रेस ने माओवादियों से धोखेबाजी की है। विधानसभा चुनाव में उनसे सहयोग लेकर सत्ता में पहुंचने के बाद ममता बनर्जी ने उनके नेता किशनजी को मरवा दिया। माओवादियों पर अत्याचार बढ़ गया है। वह लोग चाहते है कि मलय घटक तृकां से अपना संपर्क तोड़ लें। अगर वह संपर्क नहीं तोड़ेंगे तो उन्हें सपरिवार जान से हाथ धोना पड़ेगा।


हिन्दी में लिखे पत्र में इंडिया पीपुल्स लिबरेशन आर्मी व‌र्द्धमान वेस्ट बंगाल लिखा हुआ है। हालांकि मंत्री मलय घटक ने कहा कि इस तरह का पत्र मिलने से उनकी दिनचर्या पर कोई फर्क नहीं पड़नेवाला है। मंत्री ने बताया कि उन्होंने इसकी जानकारी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, गृह मंत्रालय एवं पुलिस आयुक्त को भी दे दी है। इधर एडीसीपी सेंट्रल सुरेश कुमार चादिवे ने बताया कि घटना की जांच की जा रही है। मंत्री की सुरक्षा पहले से कड़ी कर दी गयी है।


No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors