Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Saturday, January 15, 2011

जन-मजूरों, हलवाहों-चरवाहों के गायक थे बालेस्‍सर



-- 

जन-मजूरों, हलवाहों-चरवाहों के गायक थे बालेस्‍सर यादव

11 JANUARY 2011 5 COMMENTS

बालेश्‍वर यादव की एक दुर्लभ तस्‍वीर। सूचना: सत्‍यानंद निरुपम। सौजन्‍य: प्रवीण प्रणय।

♦ प्रभात रंजन

जिन दिनों सीतामढ़ी में लंबी मोहरी का पेंट पहनने वाले और बावरी (बाल) बढाकर घूमने वाले स्कुलिया-कॉलेजिया लड़के दरोगा बैजनाथ सिंह के आतंक से छुपते फिरते थे, क्योंकि बैजनाथ सिंह जिस नौजवान के पेंट की मोहरी लंबी देखता वहीं कैंची से काट देता था, जिसकी बावरी बढ़ी देखता मुंडन करवा देता था, उन्हीं दिनों एक गीत सुना था…

बबुआ पढ़े जाला पटना हावड़ा मेल में
गयी जवानी तेल में ना…

उन्हीं दिनों एक बार जब मैं नयी काट का पेंट-शर्ट डालकर ननिहाल गया था तो दूर के रिश्ते के एक मामा ने कहा था,

घर में बाप चुआवे ताड़ी, बेटा किरकेट के खेलाड़ी
लल्ला नाम किया है जीरो नंबर फेल में ना…

बालेश्‍वर के गीत से मेरा यही पहला परिचय था। वैसे यह तो बहुत बाद में पता चला था कि उस गायक का नाम बालेश्‍वर था।

बाद में उस गायक से परिचय कुछ और तब गहराया, जब दूर मौसी के गांव का एक आदमी हमारे यहां कुछ दिन खेती करवाने आया था – विकल दास। शाम को नियम से मठ के पुजारी जी की संगत में भांग खाकर आता और जाड़े की उन रातों में घूर तापते हुए कभी-कभी हम बच्चा लोगों को गीत भी सुनाता। कल मोहल्ला पर बालेश्‍वर की मौत के बारे में निरुपम जी का लेख पढकर उसी का सुनाया एक गीत याद आ गया…

पटना शहरिया में घूमे दु नटिनिया
मोरे हरि के लाल
काले लाल गाल पे रे गोदनवा…
मोरे हरि के लाल…

उसकी अंतिम लाइन याद आयी तो कल भी दिल में हूक सी उठ गयी – ऊंची अटरिया से बोली छपरहिया, आजमगढ़ बालेश्‍वर बदनाम, मोरे हरि के लाल… लेकिन तब यह भी समझ में आ गया था कि बालेश्‍वर की पहुंच कहां तक है। बालेश्‍वर को सुनना उन दिनों हमारे जैसे खुद को शिक्षित समझे जाने वाले परिवारों में बदनामी का ही कारण समझा जाता था। वह तो जन-मजूरों, हलवाहों-चरवाहों का गायक था। हमारे घर में फिलिप्स का टू बैंड रेडियो था। दादी को जब अपने बनिहारों से बिना मेहनताना दिये कोई काम करवाना होता था तो कहती – जरा बाहर एकर सब वाला गीत लगा दे। मैं टी सीरीज का वह कैसेट लगा देता, जिसके ऊपर लिखा था 'बेस्ट ऑफ बालेश्‍वर'। दादी गोला साह की दुकान से मंगवाये गये गोदान का चाय बनातीं और वे बनिहार पेड़ को देखते-देखते जलावन की लकड़ी में बदल डालते या बाहर सूख रहे गेहूं या धान के ढेर को समेटकर दालान में रख देते। कुछ नहीं बस चाय और बालेश्‍वर के दम पर।

खैर, हो सकता है कि यही कारण रहा हो कि धीरे-धीरे बालेश्‍वर के गीत मैं भी सुनने लगा। जिन दिनों बोफोर्स कांड की गूंज थी, तो उसका यह गीत दिल को तब बड़ा सुकून देता था,

नयी दिल्ली वाला गोरका झूठ बोलेला
हीरो बंबई वाला लंका झूठ बोलेला…

गीत में कुछ भी अतिरिक्त नहीं था लेकिन जाने क्या था कि सब समझ जाते कि इसमें किन 'झूठों' की चर्चा हो रही है।

बाद में जब दिल्ली आये तो हिंदू कॉलेज हॉस्टल में मैंने पाया कि मेरे जैसे कुछ और लड़के थे, जिनके पास बालेश्‍वर का कैसेट था। उन दिनों उनके गीत हम विस्थापितों को जोड़ने का काम करते। हॉस्टल में जब लड़के बोब डिलन, फिल कोलिंस के गाने सुनते तो हम बालेश्‍वर के गीत सुनते और उस संस्कृति पर गर्व करते जिसने बालेश्‍वर जैसा गायक दिया। वे अलग दिखने के लिए अंग्रेजी गाने सुनते, हम अलग दिखने के लिए बालेश्‍वर के गीत सुनते…

बाद में जाने कहां वह कैसेट गया… कहां वह विस्थापितों की एकता गयी। सचमुच हम इतने 'शिक्षित' हो गये कि भोजपुरी से, उसके गीतों से पर्याप्त दूरी हो गयी।

मैं सच बताऊं तो बालेश्‍वर को भूल गया था। बीच-बीच में खबर सुनकर यह मान चुका था कि उनकी मृत्यु हो चुकी है। वह तो भला हो ईटीवी बिहार, महुआ जैसे भोजपुरी चैनलों का कि जिसने कुछ कार्यक्रमों में उनको दिखाकर यह इत्मीनान करवा दिया कि वे जीवित हैं। लेकिन कल जब पढ़ा कि बालेश्‍वर नहीं रहे तब जाकर यह लगा कि भोजपुरी की एक बड़ी लोक-परंपरा का सचमुच अंत हो गया। वह परंपरा भोजपुरी के 'बाजार' बनने से पहले खेतों-खलिहानों तक में फैली थी।

मेरे अपने जीवन के उस छोटे-से अंतराल का भी जिसे बालेश्‍वर के गीतों ने धडकाया था।


(प्रभात रंजन। युवा कथाकार और समालोचक। पेशे से प्राध्‍यापक। जानकी पुल नाम की कहानी बहुत मशहूर हुई। इसी नाम से ब्‍लॉग भी। उनसे prabhatranja@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

5 Comments »

Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors