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Thursday, December 30, 2021

बन्द कल- कारखानों की मजदूर बस्तियों की प्रेम कथा

 प्रवास वृत्तांत- मजदूर बस्ती के एक बेरोजगार कलाकार की ट्रेन से कटकर मौत,एक प्रेमकथा का दुःखद अंत


पलाश विश्वास





बंगाल में 35 साल के वाम शासन में आज़ाद भारत की उद्योग विरोधी शहरीकरण के कारपोरेटपरस्त मुक्तबाजारी अर्थ व्यवस्था में 56 हजार कल कारखाने बन्द हो गए। ममता बनर्जी के परिवर्तन आंदोलन और वाम तख्ता पलट का यह सबसे बड़ा मुद्दा था। 


विडम्बना यह है कि तीसरी बार निरंकुश मुख्यमंत्रित्व के ममता बनर्जी के राजकाज में शहरीकरण और निजीकरण का यह सिलसिला तेज हुआ और कोलकाता और हावड़ा के तमाम कलकारखानों की जमीन पर बहुमंजिली आवासीय कालोनियां और बाजारों की रौनक है,जहां ब्रिटिश हुक़ूमत के दो सौ साल के औद्योगिकीकरण के कारण बंगाल में आ बसे भारत भर के मजदूरों की बस्तियां गरीबी,बेरोज़गारी और बेदखली की शिकार हैं।


बांग्ला के मशहूर कथाकारों समरेश बसु और माणिक बन्दोपध्याय का कथा संसार इसे मेहनतकश तबके का जीवन संघर्ष और प्रवास वृत्तांत है। 


हाल में हमारे लिक्खाड़ मित्र  H L Dusadh Dusadh जो ऐसे ही एक मजदूर बस्ती से उठकर देश के अनूठे लेखक बन गए हैं,ने इन बस्तियों पर लिखा है। उनका जीवन संघर्ष भी इन दलित बस्तियों की आत्मकथा है,जो उन्होंने लिखी नहीं है। मैंने उनसे लिखने को कहा है।


भारतीय समाज मुगल साम्राज्य तक जिस मनुस्मृति शासन की कैद रहा है,उससे मुक्ति का संघर्ष अंग्रेजी राज में हुए औद्योगिकीकरण से बदले उत्पादन संघर्ष से ही शुरू हुआ,जो बंगाल के सूफी बाउल फकीर मतुआ दलित नवजागरण, महात्मा ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु, अयंकाली,अम्बेडकर और पेरियार के आंदोलनों से तेज़ हुआ।


 भारत विभाजन के फलस्वरूप जनसंख्या स्थानांतरण के जरिये मनुस्मृति समर्थकों ने देश की जनसंख्या विन्यास को सिरे से बदलकर दलित नवजागरण की विरासत को खत्म करके अम्बेडकर मिशन,लिंगायत मतुआ आंदोलन और आदिवासी भूगोल का भगवाकर्ण को तोड़ डाला और जाति व्यवस्था तोड़ रहे औद्योगिकीकरण की जगह जनसंख्या की राजनीति के तहत अस्मिताओं के युद्ध में जाति को इतिहास के अमित  शिला लेख में तब्दील कर दिया।


बंगाल, मद्रास और बम्बई अंग्रेजी हुकूमत के दौरान औद्योगिकीकरण के केंद्र थे।


 देशभर के दलित, पिछड़े लोग सिर्फ रोजगार की तलाश में ही नहीं बल्कि गांव में सवर्णों की बंधुआ मजदूरी, अस्पृश्यता और नरसंहार से बचने के लिए इन्हें अपना शरणस्थल बना लिया था। 


ये मजदूर बस्तियां देश की ऐसी दलित बस्तियां थीं, जो सामंती अत्याचार और उत्पीड़न से मुक्त थीं।


 औद्योगिकीकरण के अवसान के बाद भी मध्य बिहार जैसे नरसंहारी इलाकों से सिर्फ जान बचाने के लिए इन महानगरों की मजदूर बस्तियों की भीड़ बढ़ती रही,जिसमें बड़ी संख्या में भारत विभजन के शिकार बंगाली विस्थापित और देश के आदिवासी भूगोल में बेदखली और विस्थापन के शिकार लोग बड़ी संख्या में शामिल हो गए। कोरोना इन बस्तियों के सफाये का हथियार हो गया।


 कोलकाता,मुंबई, चेन्नई के अलावा देश के सभी बड़े छोटे शहरों की नई जनसंख्या का विन्यास इन्हीं उखड़े हुए सतह के लोगों की बसासत से बना है।


कोलकाता के सारे उपनगर इसीतरह बने झाने शहरीकरण और बाजारीकरण की सुनामी में बाकी देश की मजदूर बसत्यों और आदिवासी गांवों की तरह ये दलित पिछड़े भी उखाड़े जा रहे हैं।


हम कोलकाता में 27 साल तक इन्ही लोगों के साथ और इन्ही के बीच रहे भद्रलोक बिरादरी से घिरे हुए। हम सोदपुर के जिस गोस्टो कानन मजदूर बस्ती में रहे हैं,वहां से एक प्रेमकथा के दुःखद अंत की कथा आज हम तक पहुंची। कोरोनाकाल में बेरोजगार एक कलाकार दम्पति की प्रेमकथा का दुःखद अंत बाजार से लौटते हुए पति के ट्रेन से कट जाने से हो गयी। उसका नाम है सुमित।


 उसकी पत्नी मुहल्ले की ही लड़की है,जिसने 14 साल की उम्र में उसके साथ भागकर शादी कर ली थी और दोनों पति पत्नी पिछले 10- 12 साल से कोलकाता और आस पड़ोस के राज्यों में स्टेज शो के जरिये नाच गा कर गुजर बसर करते थे। कोरोना नई जिसे बन्द कर दिया।


दोनों को बड़ा होते हुए हमने अपनी आंखों के सामने देखा। हम उनके प्यार को भूल नहीं पाए।


इन तमाम लोगों की रोजमर्रे की ज़िंदगी,बीमारी , आपदा,शोक  में  घर, अड़पटल से लेकर श्मशानघाट तक सविताजी और हम शामिल थे। वे हमारी तरह वैचारिक नहीं,लेकिन हमसे कहीं ज्यादा मनुष्य हैं। यही प्रेम है।


वे दोनों बेदखली की लड़ाई की अगुवाई भी करते थे।


यह मजदूर बस्ती हमारे किराये के घर की खिड़की से खुलती थी।


 सुबह होते ही उन सभी से मुलाकात हो जाती थी जो कभी सोदपुर के मशहूर काँचकल में मजदूर थे।


 दफ्तर निकलते वक्त या देर रात या सुबह तड़के घर लौटते वक्त हिंदी स्कूल के आसपास किसी न किसी से बातचीत ही जाती थी। उन्हें हमारी फिक्र थी। है।


 घर घर से होली के गुजिये और छठ के ठेकुए आ जाते थे। वे सभी हमारे परिवार में शामिल थे,जिनमे सोदपुर के तमाम सब्जीवाले, मछलिवाले भी हुआ करते थे या फिर हॉकर।ये सभी कोलकाता के सभी उपनगरों के बन्द कल करखानों के बेरोजगार मजदूर थे।


अमित और सुमित दो भाई थे।सुमित छोटा भाई। उनके दादा जी हरियाणा के यादव थे। पिता किशोर भी मजदूर थे। उनकी मां लीला पूर्वी बंगाल की विस्थापित थी। 


इनमें ब्राह्मण और ठाकुर जैसे सवर्ण  यूपी,बिहार के लोग भी थे लेकिन पीढ़ियों से साथ रहते रहते उनके बीच जाति गायब सी हो गयी थी। औद्योगिकरण से शहरीकरण का यह मुक्तबाजार हर मायने में मनुस्मृति राज है।


करीब 15 साल पहले भी हक हकूक की वर्गचेतना से लैस थी ये तमाम मजदूर बस्तियां मनुस्मृति से मुक्त। 


कल कारखाने बन्द होने से पॉश कालोनियों से घिरकर फिर ये लोग मनुस्मृति के शिकंजे में है और इसी वजह से बंगाल भी बाकी देश की तरह गोबर पट्टी में तेज़ी से शामिल होता जा रहा है और वहां वाम का कोई नामलेवा बचा नहीं। लगता नहीं कि कोलकाता ज़िंदा भी है।


सुमित की पत्नी बहुत प्यारी बच्ची है। अब शायद 25-26 की हो गयी होगी।वह भी अपनी सास की तरह बंगाली थी। स्टेज शो करके घर लौटने पर सविता जी से जरूर मिलने आती थी। 


हमारी उस बिटिया से मिलने की अब कोई संभावना हालांकि नहीं हैं लेकिन बहुत बेचैन है कि कभी मुलाकात हो गयी तो उसके दुःख का सामना कैसे हम करेंगे। बूढ़े होने की एक मजबूरी यह भी है कि हम बच्चों की तरह आंसू भी बहा नहीं सकते।


शव वाहिनी गंगा मैया की गोद में इन लावारिश बस्तियों की लाशें भी शामिल हैं,यह भी सनद रहे।


सौ करोड़ या दो सौ करोड़ मुफ्त टीकों या बूस्टर खुराक से इन बेदखल होती मजदूर बस्तियों की लाइलाज महामारियों का इलाज होगा?


हमारे पास अपने मोहल्ले और मजदूर बस्ती या उन लोगों की तस्वीरें शायद हों या न हों, खोजना मुश्किल है।आपको माहौल का अंदाज़ा हो,इसलिए दुसाध जी की खींची तस्वीरों का साभार इस्तेमाल कर रहे हैं।


मित्रों, इस कथा का प्रसार जरूर करें । मोक्ष नहीं मिलता लेकिन जाति उन्मूलन और प्रवास के बारे में कुछ लोग नए सिरे से सोचें तो इस निजी शोक का कोई सामाजिक मायने भी शायद निकले।

Wednesday, December 15, 2021

किसान आंदोलन के नतीजे हमेशा सकारात्मक। पलाश विश्वास

 किसान जब भी आंदोलन करते हैं,उसका नतीजा हमेशा सकारात्मक होता है।

पलाश विश्वास






यूरोप के किसानों ने विद्रोह नहीं किया होता तो धर्मसत्ता और राजसत्ता के दोहरे शासन से जनता को मुक्ति न मिलती।न सामंती व्यवस्था का अंत होता।   


फ्रांसीसी क्रांति में मेहनतकश शामिल नहीं होते तो समता,भ्रातृत्व,न्याय और स्वतंत्रता के मूल्य स्थापित होते। रूसी और चीनी क्रांति की कथा सबको मालूम है।


 अखण्ड भारत में दो सौ साल के किसिन आंदोलनों और विद्रोह की विरासत से आज का भारत बना है।


 कृषि समाज सभ्यता और संस्कृति की बुनियाद है।


हाल का किसिन आंदोलन विश्व के इतिहास में सबसे लंबा शांतिपूर्ण और सफल आंदोलन है,जिसने धर्म,जाति, वर्ग,नस्ल और भाषा में विभाजित जनता को एकताबद्ध कर दिया।


 इस आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि धर्म,जाति की राजनीति की हार है।


कल शाम हम बिन्दुखत्ता गए थे। तराई भाबर में किसान आंदोलन से हुई क्रांति की जमीन है बिन्दुखत्ता। 


पूरा पहाड़ वहां बस गया है। 


लालकुआं और पन्तनगर शांतिपुरी के बीच।एक तरफ गोला नदी है तो दूसरी तरफ किच्छा काठगोदाम रेलवे लाइन।


 करीब 50 वर्ग किमी इलाका,जिसे पहाड़ के हर जिले से,कुमायूं और गढ़वाल से भी नीचे उतरे किसानों ने आबाद किया है। 


यह जमीन खम यानी ब्रिटिश राज परिवार की सम्पत्ति है। सुप्रीम कोर्ट ने निर्णयक फैसला दे दिया कि इस जमीन पर सरकर का कोई हक नहीं है।


इससे पहले लालकुआं और गुलरभोज के बीच ढिमरी ब्लॉक में किसान सभा ने 40 गांव बसाए थे।।  उस आंदोलन के नेता थे पुलिन बाबू,हरीश ढूंढियाल,  सत्येंद्र,बाबा गणेश सिंह और चौधरी नेपाल सिंह।


 भारी दमन हुआ था। सेना,पीएसी और पुलिस की मदद से किसानों को वहां से हटाया गया था।


चालीस के चालीस गांव फूंक दिए गए थे। निर्मम लाठीचार्ज के बाद हजारों किसान गिरफ्तार हुए थे। 


तेलंगना के तुरन्त बाद हुए इस आंदोलन से कम्युनिस्ट पार्टी ने पल्ला झाड़ लिया था।


 अस्सी के दशक में शक्तिफार्म इलाके के कोटखर्रा आंदोलन को भी भारी दमन से कुचल दिया गया था।


ढिमरी ब्लॉक की तरह बिन्दुखत्ता को सत्ता कुचल नहीं सकी।जमीनी लड़ाई के साथ अदालती लड़ाई को भी किसानों ने बखूबी अपने हक में अंजाम दिया।


कल हम प्रेरणा अंशु परिवार के पुराने सदस्य कुंदन सिंह कोरंगा की भतीजी की शादी के महिला संगीत कार्यक्रम में पहुंचे। मास्साब की पत्नी गीताजी हमारे साथ थी।


कुंदन की पत्नी रीना ने समाजोत्थान विद्यालय से पढ़ाई की थी। दोनों का प्रेम विवाह हुआ जाति तोड़कर। रीना भी मास्साब के आंदोलनों में शामिल रही हैं।


हमने शाम के  धुंधलके में बिन्दुखत्ता के साथियों को प्रेरणा अंशु की प्रतियां दी। रात में मोबाइल सें कैमरा का काम नहीं होता। तस्वीरें अगली बार।


तराई भाबर और पहाड़ में सड़के खस्ताहाल है। हमने लगभग बिन्दुखत्ता का पूरा इलाका घूम लिया है। फसल से लहलहाते खेतों के बीच सभी गांवों की सड़कें चकाचक न जाने किस हीरोइन के गाल की तरह है।


 कुंदन का तिवारी गांव गोला नदी से सिर्फ दो किमी और शांतिपुरी से पांच किमी दूर है।बहुत अंदर। उसका घर भूरिया की मशहूर दुकान के पाश है।पुरे इलाके में सडकों के साथ किसानों की खुशहाली देखते ही बनती है।


यह किसान आन्दोलन की ताकत है।

इस दुनिया में किसी को कुछ बिना मांगे मिलता नहीं है और बेदखली के खिलाफ प्रतिरोध अनिवार्य है।

तुरन्त तीन काम बदलाव के लिए जरूरी,लक्ष्मण सिंह से हुई बात

पलाश विश्वास



आज सुबह दफ्तर पहुंचते ही धुरंधर विद्वान और घुमक्कड़ डॉ लक्ष्मण सिंह से मुलाकात हो गयी। वे 12 विषयों में यूजीसी नेट की परीक्षएँ पास कर चुके हैं।


 जेएनयू में उन्होंने कला और सौंदर्यशास्त्र से एमए कर रखा है। रूपेश के मित्र हैं नेपाल जाने के रास्ते हम सभी से मुलाकात करने आए।


उनसे विस्तार से बात हुई।उन्होंने जामिया मिलिए से इंटरनेशनल स्टडीज में पीएचडी की है और भारत और नेपाल में दलित पॉलिटिकल आर्ट के विशेषज्ञ हैं। वे भारत,चीन,नेपाल और ईरान के विशेषज्ञ हैं।


हमने उनसे कहा कि देशभर में सबसे जरूरी काम हैं-

1 राजनीतिक होलटाइमर की तर्ज पर इकोनोमिक कॉडर तैयार किये जायें जो जनता को अर्थशास्त्र,आर्थिक नीतियां और प्रबंधन तथा योजना और बजट समझायें। राजनिति और राजकाज पर जनता के अंकुश के लिए यह बहुत जरूरी है


2.सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के वकीलों को भारतीय भाषाओं में कानून के बारे में सिलसिलेवार लिखना चाहिए। आम जनता को कानूनी हक हकूक की जानकारी देनी चाहिए। क्योंकि अदालतों के कामकाज अंग्रेजी में होने से आम लोगो को मुकदमों और कानून की कोई जानकारी नहीं होती।


 3.हर सामाजिक कार्यकर्ता को इकोनॉमिक कॉडर और पर्यावरण एक्टिविस्ट बनना चाहिए।


तभी देश दुनिया को बदलने के लिए जमीन और फिजा तैयार होंगी।


हमने कहा कि सौंदर्य की जड़ें तो लोक में है और सौंदर्यशास्त्र लोक का बहिष्कार करता है।


उन्होंने प्रेरणा अंशु के लिए नियमित लिखने का वायदा किया है।


मुजफ्फरनगर में उनका घर है जहां प्रेरणा अंशु नियमित जाती है।उन्होंने बताया कि उनके पिता नियमित प्रेरणा अंशु पढ़ते हैं और उन्हें यह पत्रिका बेहद पसंद है।


पिताजी को प्रणाम।




 आज सुबह दफ्तर पहुंचते ही धुरंधर विद्वान और घुमक्कड़ डॉ लक्ष्मण सिंह से मुलाकात हो गयी। वे 12 विषयों में यूजीसी नेट की परीक्षएँ पास कर चुके हैं।


 जेएनयू में उन्होंने कला और सौंदर्यशास्त्र से एमए कर रखा है। रूपेश के मित्र हैं नेपाल जाने के रास्ते हम सभी से मुलाकात करने आए।


उनसे विस्तार से बात हुई।उन्होंने जामिया मिलिए से इंटरनेशनल स्टडीज में पीएचडी की है और भारत और नेपाल में दलित पॉलिटिकल आर्ट के विशेषज्ञ हैं। वे भारत,चीन,नेपाल और ईरान के विशेषज्ञ हैं।


हमने उनसे कहा कि देशभर में सबसे जरूरी काम हैं-

1 राजनीतिक होलटाइमर की तर्ज पर इकोनोमिक कॉडर तैयार किये जायें जो जनता को अर्थशास्त्र,आर्थिक नीतियां और प्रबंधन तथा योजना और बजट समझायें। राजनिति और राजकाज पर जनता के अंकुश के लिए यह बहुत जरूरी है


2.सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के वकीलों को भारतीय भाषाओं में कानून के बारे में सिलसिलेवार लिखना चाहिए। आम जनता को कानूनी हक हकूक की जानकारी देनी चाहिए। क्योंकि अदालतों के कामकाज अंग्रेजी में होने से आम लोगो को मुकदमों और कानून की कोई जानकारी नहीं होती।


 3.हर सामाजिक कार्यकर्ता को इकोनॉमिक कॉडर और पर्यावरण एक्टिविस्ट बनना चाहिए।


तभी देश दुनिया को बदलने के लिए जमीन और फिजा तैयार होंगी।


हमने कहा कि सौंदर्य की जड़ें तो लोक में है और सौंदर्यशास्त्र लोक का बहिष्कार करता है।


उन्होंने प्रेरणा अंशु के लिए नियमित लिखने का वायदा किया है।


मुजफ्फरनगर में उनका घर है जहां प्रेरणा अंशु नियमित जाती है।उन्होंने बताया कि उनके पिता नियमित प्रेरणा अंशु पढ़ते हैं और उन्हें यह पत्रिका बेहद पसंद है।


पिताजी को प्रणाम।

Tuesday, December 14, 2021

हर पल साबित करना अनिवार्य है कि हम मरे नहीं हैं

 लोग मुझसे पूछते हैं कि अब भी दिन रात काम क्यों करते हैं? 





मेरा जवाब- ज़िंदा हूँ, हर पल यह साबित करना जरूरी है। जरूरी ही नहीं,अनिवार्य,अपरिहार्य है,इसलिए।


मुर्दा शरीर और दिलोदिमाग के साथ जीना कोई जीना हुआ?


आप भी यह नुस्खा आजमाकर देखें तो मौत से डर नहीं लगेगा। स्वस्थ और सकुशल रहेंगे।हम पिछले दो साल से जब भी मौका मिला, अपने लोगों से मिलने के लिए तराई,भाबर और पहाड़ दौड़ते रहे हैं।


सिर्फ राजधानियों की हवा हवाई उड़ान स्थगित है लेकिन खेतों में फिर बचपन की तरह दौड़ रहा हूँ।


इस प्रकृति के रूप रस गन्ध को हर पल पांचों इंद्रियों से महसूस कर रहा हूँ।


27 साल से मधुमेह है।आय का कोई स्रोत नहीं है।क्या फर्क पड़ता है। मुश्किलों से ज़िन्दगी मजेदार बनती है।


शतुरमुर्ग की तरह रेत में सर गड़ाकर जिंदा रहने का कोई मतलब है? हम बचपन से चाहता था कि जो भी हो,मुझे अमीर और वातानुकूलित नहीं बनना।ताकि खुली हवा मिलती रहे हमेशा। चाहता रहा कि मशहूर नहीं बनना ताकि अपनी आजादी भल रहे। अपनी मर्जी से जी सके।


अकेले सफर का भी कोई मजा नहीं है।


साथी ,हाथ बढ़ाइए।


हम सभी हमसफ़र है और इस सफर में सिर्फ पल दो पल का साथ है। स्टेशन आ जाये तो उतर जाना।बेशक पीछे मुड़कर मत देखना।


कभी कभी ऐसा भी होता है कि हम आपके साथ मिलना चाहते हैं,लेकिन मिल नहीं सकते। कहीं जाना चाहते हैं लेकिन जा नहीं सकते।जैसे घर लौटकर अभीतक नैनीताल जाना नहीं हो सका।


फिर डीएसबी कैम्पस में बेफिक्र घूमना न हो सका।


हिमपात के मध्य मालरोड पर दोस्तों के साथ रात भर टहल नहीं सकता और न शिखरों को फिर स्पर्श कर सकता हूँ ।


युद्ध का नियम अनुशासन है।आप जिस मोर्चे पर हों,कयामत आ जाये,आप वह जमे रहे। युद्ध में हीरोगिरी की गुंजाइश नहीं होती।युद्ध हीरो बनाता है।


फिलहाल दिनेशपुर मेरा मोर्चा है।


ज़िन्दगी बहती हुई नदी है। इसे बांधिए नहीं,नदी मर जाएगी। किसीको पता भी नहीं चलेगा।


prernaanshu.com


Mai-


 prernaanshu@gmail.com

Monday, October 18, 2021

Who is responsible for attacks on hindus in Bangladesh?Palash Biswas

 Who is responsible for attacks on Hindus and continuous refugee influx ?

Palash Biswas














We citizens may condemn only. No goverment did act since 15 august 1947 to stop this hate and violence which generated in 1946 with direct action to demand pakistan in kolkata and West Bengal.


In civilized world minorities have no country, no civic or human right.The have been reduced to bonded humanity which has to live in pity,sympathy and an environment of ethnic cleansing.


Refugees belong to this community as we do. Ejected out of history,geography, language,culture and humanity. 


No political representation, no civic or human right . Ruling inhumanity  and regime of graded inequality and predestined injustice deprived us of freedom and sovereignty,evem spinal chord. 


We live as fodders for tigers or just like earthworms,biologically alive but dead walking. 


Communal isaiyon and politics of hate,crime and violence always use these refugees as tools,foot army to accomplish their agenda.


 As it happened in East Bengal,the urdu speaking muslim exodus from Eest Bengal since direct action in 1946 is the root of the continuous persecution and violence in East Bengal. 


They are known as Bihari muslim.


Because Awami league is pro India and secular, hindus in Bangladesh support Awami League whereas the Bihari muslims being Islamist and pro pakistan as the remained generation after generation in East Pakistan and Bangladesh as well,as the played razakar role during war of liberation in 1971 and massacred Bengaluies hindus and muslims as well,gangraped thousands women in association of pakistani army,.


They are the war criminals of Bangladesh,who killed every secular voice,writers,poets,journalists,politicians,

ruling leaders including Mujib to make Bangladesh islamic.


As Hasina hanged the war criminals,

 now they consist the foot army of Islamist BNP,Jihadi Jamat,and Mujahidi. 


Non islamic secular regim has been always the target. As the father of the nation Mujibur Rehman had been killed with his family,not even the little boy Russel was spared. Hasina escaped the massacre as she was abroad.


Whenever Awami league remains in power, the Islamist communal element systematically push the button to begin ethnic cleansing as Pakistani army did in 1970-71.As the did in Bangladesh just now.


Government of India never made it an issue in bilateral or international talks as they do in the case of Pakistan or China.


 The rulers here have nothing to do with Bengali hindus stranded in Bangladesh or migrated in India. 


It is just an emotional issue to stimulate communal polarization to hold on power.


This ruling class has been responsible for the politics of partition, riots,hate,violence and ethnic cleansing,not for only eternal minority persecution.


Wednesday, October 6, 2021

जोगेंद्रनाथ मण्डल क्यों बने खलनायक? पलाश विश्वास

 स्मृति दिवस पर अखण्ड भारत के कानून मंत्री और बाबासाहब भीम राव अम्बेडकर को पूर्वी बंगाल से    संविधान सभा में भेजने वाले महाप्राण जोगेंद्र नाथ मण्डल को श्रद्धांजलि। 



बंगाल के बाहर 22 राज्यों में जंगल,पहाड़ और पठारी आदिवासी बहुल इलाकों में छितरा दिए गए करोड़ों विभाजनपीडित दलित बंगाली इसी की सजा भुगत रहे हैं।जिन्होंने बाबासाहब को चुना,उनकी नागरिकता नहीं है।उनकी जमीन का मालिकाना हक नहों है।वे बाघों का चारा बना दिये गए। बांग्ला इतिहास भूगोल भाषा संस्कृति से बाहर कर दिए गए और बाबासाहब के सबसे निर्णायक समर्थक होने के बावजूद जन्हें न आरक्षण मिला है और न जीवन के किसी क्षेत्र में प्रतिनिधित्व।


 जिन्होंने भारत का विभजन किया वे मनुस्मृति राज में शासक बन गए। जोगेंद्र नाथ मण्डल खलनायक बना दिये गए और पूर्वी बंगाल के दलित बाघों का चारा। जिनमे 10 प्रतिशत का भी अब्जितक पुनर्वाद नहीं हुआ। 


बाबा साहब को चुनने के कारण उनके हिन्दुबहुल जैशोर,खुलना ,बरीशाल और फरीदपुर जिले पाकिस्तान को देकर उन्हें हमेशा के लिए विस्थापित बना दिया गया।


बचपन में महाप्राण के सहयोगी रहे मेरे पिता पुलिनबाबू से उनके संस्मरण इस अफसोस के साथ सुनते थे कि महाप्राण को सत्तावर्ग के दुष्प्रचार की वजह से उन्होंने के लोगों ने भारत विभजन का खलनायक बना दिया गया जबकि सत्ता हस्तांतरण की सौदेबाजी में न वे कहीं थे और न गांधी। 


जोगेंद्रनाथ मण्डल तो बाबासाहब के सहयोगी थे,जो न विभजन रोक सकते थे और न विभजन कर सकते थे। बंगाल की तीनों अंतरिम सरकारों में दलित मुसलमान गठजोड़ सत्ता में थी। 


अखण्ड बंगाल और अखण्ड भारत में जो सत्ता से बाहर होते,उन्होंने मिलकर विभजन को अंजाम दिया ताकि मजदूर किसानों का राज कभी न हो और भारत में फासिज्म का मनुस्मृति राजकाज हो।


पाकिस्तान के मंत्री पद से इस्तीफा देकर बनागल लौट आये इन्हीं जोगेंद्र नाथ मण्डल से नदिया जिले के रानाघट के पास हरिश्चंद्रपुर गांव में  पुलिनबाबू उनके पकिसयं जाने के फैसले के खिलाफ लड़ बैठे और इतनी तेज बहस हो गयी कि पुलिनबाबू बैठक छोड़कर पूर्वी पाकिस्तान जाकर भाषा आंदोलन में शामिल होकर ढाका में गिरफ्तार होकर जेल चले गए। 


तब अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक तुषारकान्ति घोष ने पूर्वी पाकिस्तान के जेल से उन्हें रिहा करवाया।


न पुलिनबाबू कुछ लिखकर रख गए और न जोगेंद्र नाथ मण्डल बाबा साहब अम्बेडकर की तरह लेखक थे। इज़लिये पूर्वी बंगाल के बारे में हम वही जैनते हैं जो बंगाल के विभाजन और पूर्वी बंगाल के दलितों के सर्वनाश के लिए भारत का विभजन करने वालों ने लिखा।


कोलकाता में जोगेंद्रनाथ मण्डल के बेटे जगदीश चन्द्र मण्डल और महाप्राण और पिताजी के सहयात्री ज्ञानेंद्र हालदार से मिलकर कुछ बातें साफ हुई। 


जगदीश चन्द्र मण्डल ने बड़ी मेहनत से अम्बेडकर और महाप्राण के पत्राचार, उस समय के सारे दस्तावेज इकट्ठा कर जोगेंद्रनाथ मण्डल पर चार खंडों की किताब लिखी और पुणे समझौता व मरीचझांपी नरसंहार पर अलग किताबें लिखी तो बातें खुलने लगी।


इसके बाद नागपुर विश्विद्यालय के डॉक्टर प्रकाश अगलावे की पहल पर संजय गजभिये के महाप्राण पर शोध और उनपर मराठी में लिखी किताब से पूरा किस्सा सामने आ गया। लेकिन आम बंगालियों और खासतौर पर दलित विस्थापितों  की नज़र में महाप्राण अब भी खलनायक है और उत्तर व दक्षिण भारत के लोग तो उन्हें जानते भी नहीं।


यही वजह है कि भारत विभजन की त्रासदी के असल खलनायक ही भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश में निरंकुश शासक बने रहे।


यह भारत के इतिहास की सिंधु सभ्यता के पतन और बौद्ध धम्म के पतन के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी है।




Saturday, September 25, 2021

क्योंकि हमने संविधान सभा के लिए बाबासाहेब को चुना,हमें बाघ का चारा बना दिया।पलाश विश्वास

 क्योंकि हमने संविधान सभा के लिए पूर्वी बंगाल से बाबा साहब भीमराव अंबेडकर को चुना,हमें बाघ का चारा बना दिया गया।

आम जनता की कोई समस्या नहीं है क्योंकि...

पलाश विश्वास


मेरे पिताजी पुलिनबाबू ने हर  विस्थापित के सही पुनर्वास की मांग लेकर कसम खाई थी कि जब तक एक भी विस्थापित का पुनर्वास बाकी रहेगा,वे पैंट कमीज नहीं पहनेंगे। 


बाकी जीवन के पूरे पचास साल उत्तराखण्ड की सर्दी में भी उन्होंने सिर्फ एक धोती और चादर के सहारे बिता दिए। रीढ़ की हड्डी में कैंसर के साथ मृत्यु शय्या तक उनकी लड़ाई जारी रही।लेकिन 90 प्रतिशत विस्थापितों का पुनर्वास नहीं हुआ।आज देश के अंदर विस्थापितों की संख्या बाहर से आये विस्थापितों से कई गुना ज्यादा है।वे जीवित होते तो उन सभी के लिए उनकी लड़ाई आज भी जारी रहती।


 करोड़ों विस्थापितों  के हक हकूक, नागरिकता, मातृभाषा, पुनर्वास,आरक्षण और बुनियादी सुविधाओं  के लिए लड़ते हुए वे भारत ही नहीं, पूर्वी पाकिस्तान और स्वतंत्र बांग्लादेश की जेलयात्राएँ भी की।


सालों मुकदमे झेले। अपनी जमीन तक बेच दी।घर में कुर्की जब्ती तक हो गयी।


देशभर के विस्थापित पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हें जानते हैं ।उनकी नज़रों में मेरी अपनी कोई हैसियत नहीं है,सिवाय इसके कि मैं पुलिनबाबू का बेटा हूँ। 


उन सभी की अपेक्षा रही है कि मैं भी अपने पिता की तरह उनके लिए लड़ता रहूं। इसीलिए पत्रकारिता की नौकरी से रिटायर होने के बाद कोलकाता छोड़कर में उन्हीं के बीच आ गया। लेकिन उनमें से कोई मेरे साथ खड़ा नहीं है और हर कोई चाहता है कि पिताजी की तरह हम अकेले उनकी लड़ाई लड़ते रहे।वे खुद लड़ने के लिए तैयार नहीं है।बोलने के लिए भी नहीं।अपनी तकलीफ बताने के लिए भी नहीं।


 पीलीभीत के गांवों में भी हर व्यक्ति पुलिनबाबू को जानता है और उनकी शिकायत हर विस्थापित की तरह यही है कि पुलिनबाबू का बेटा उनके लिए उनकी तरह क्यों नहीं लड़ता?


 बेहद वाजिब सवाल है। 


मैं खुद को उनका अपराधी भी मानता हूं।


मेरे पिता सिर्फ कक्षा दो तक पढ़े लिखे थे। कक्षा दो से प्रधानमंत्री,मुख्यमंत्री और राज्य सरकारों,प्रशसन को रोज उनके लिखे ज्ञापन मुझे ही लिखने होते थे।


 बड़ा होते होते पिताजी से हमारे घनघोर राजनीतिक मतभेद हो गए।इतने ज्यादा की उन्होंने सार्वजनिक रूप से कई बार मुझे त्याग देने की घोषणा की।हममें राजनीतिक क्या, साहित्य जैसे विषय पर भी चर्चा नहीं होती थी।


इसके बावजूद नैनीताल से एमए पास करने तक उनके लिखे सारे पत्रों को मैंने ही लिखा।उनकी लड़ाई के सारे दस्तावेज भी मैंने ही तैयार किये।उनकी प्रतिबद्धता और सरोकार से हमारे हमेशा ताल्लुक रहा है।


 बचपन से मुझे हर इलाके की हर समस्या मालूम है।जिसका गहरा असर मेरे लेखन पर भी हुआ।


मैं साहित्य का छात्र था। साहित्य के लिए मैंने सारी महत्वाकांक्षाएं छोड़ी। साहित्यकार और प्राध्यापक बनना मेरी एकमात्र महत्वाकांक्षा थी।लेकिन जनपक्षधरता और लड़ाई की विरासत ने मुझे सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार बना दिया,जिसका मुझे कोई अफसोस भी नहीं है।


14 जून 2001 के बाद मैं रिटायर होने से पहले दो या तीन बार घर आया हूँ। बहनों और दूसरे रिश्तेदारों के घर भी नहीं गया। पीलीभीत में अपनी सगी बहन के घर 32 साल बाद कल गया। गोबियासराय और शक्तिफार्म में अपनी बहनों के घर कभी नहीं गया। 


 मैं इन 20 सालों में कश्मीर से कन्याकुमारी, कच्छ से नागालैंड मणिपुर तक हर विस्थापित और आदिवासी इलाकों में पुलिनबाबू के पदचिन्ह पर दौड़ता रहा हूँ। 


नौकरी की सारी छुट्टियां इसी दौड़ में खपा दी।


 कविता,कहानी ,उपन्यास लिखना छोड़ दिया। क्योंकि पिताजी की कही हर बात मुझे याद आती रही और कहीं उनके चाहने वाले लोग मुझे पुकारते रहे।


लेकिन हाजरा चंदुआ और माला टाइगर प्रोजेक्ट इलाके के गांवों में में पहली बार गया। इतनी बुरी हालत विस्थापित गांवों की मैंने कहीं नहीं देखी। 


उससे ज्यादा निराश इस बात को लेकर हुई कि एक हजार से आजादी की लड़ाई लड़ने वाले हमारे पुरखों के ये कैसे उत्तराधिकारी हैं जो सामने खड़े होकर अपनी बात भी न कह सके? सभी राज्यों में,पश्चिम बंगाल में भी यही हाल है। ये लोग दिलोदिमाग,जिगर से भी अलहदा हैं।


जंगल और बाढ़, टाइगर प्रोजेक्ट से घिरे इलाके में पुनर्वासित पीलीभीत के बंगालियों को ढाई से पांच एकड़ जमीन मिली है।जहां गन्ना के अलावा कुछ नहीं उगता।


 न स्कूल है और न कालेज,न अस्पताल,न सड़क और न जमीन पर मालिकाना हक है। बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं।गांव के गांव डूब हैं,बाढ़ से घिरे द्वीप की तरह।


 एक साल में 14-14 लोगों को बाघ खा जाता है। इससे उन्हें परेशानी नहीं हैं।


मजे की बात है कि बाबा साहेब अम्बेडकर को संविधान सभा के लिए चुनने वाली, कोरेगांव में पेशवा को महारों के हराने की तरह बंगाल के जुल्मी नवाब सिराजदुल्ला को पलाशी की लड़ाई नें हराने वाली और अगले ही दिन से  ब्रिटिश हुकूमत और जमींदारों के खिलाफ दो सौ साल तक लड़ने वाली,तेभागा और नक्सलबाड़ी आंदोलन में कुर्बानी देने वाली नमोशूद्र जाति के लोग हैं यहां के विस्थापितों में 95 फीसद लोग, उत्तराखण्ड और अन्यत्र की तरह 40-50 प्रतिशत नहीं।


शेर को मालूम ही नहीं कि वह शेर है।सिर्फ पूंछ यानी जाति बची रह गयी है।


न लड़ाई है, न साहस है, न नेतृत्व है, न मातृभाषा है,न शिक्षा और संस्कृति। 


ये कैसे लोग हैं?


 शेर न सही ,ये तो गधे या गीदड़ भी नहीं रहे।


माला कालोनी टाइगर प्रोजेक्ट से घिरा मुख्य गांव है। माला बाजार में सभी आठ कालोनियों के लोग जुटते हैं ।जिनमें से सात गांवों के लोग अक्सर बाघ के शिकार हो जाते हैं।


चंदिया हाजरा और माला इलाके के पढ़े लिखे लोग सुर नेता कहते हैं कि बंगालियों की कोई समस्या नहीं है। क्योंकि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री। क्योंकि हिंदुओं की पार्टी भाजपा सत्ता में हैं।

क्योंकि सरकार ने राम मंदिर बना दिया है और धारा 370 हटा दी है।


माला बाजार में जनसंवाद और अन्यत्र भी हमने कहा कि माना कि सरकार बहुत अच्छी है तो आपको भूमिधारी हक क्यों नहीं मिलता? आपके बच्चों को छात्रवृत्ति क्यों नहीं मिलती? नौकरी क्यों नहीं मिलती? सड़कें क्यों नहीं है? कालेज अस्पताल क्यों नहीं है?


बहुत भोलेपन से वे कहते हैं कि सरकार हमें भारत का नागरिक नहीं मानती। हमें आरक्षण नहीं मिलता। हमें स्थायी निवास प्रमाणपत्र नहीं मिलता। 


यह भी उनके लिए कोई समस्या नहीं है।


फिर वे कहते हैं कि आप अपने पिता की तरह हमारी आवाज क्यों नहीं उठाते?


हम पूछते कि आप जिन्हें वोट देकर विधायक,सांसद चुनते हैं,उनसे सवाल क्यों नहीं करते?


 सब मिलकर लखनऊ न सही,दिल्ली न सही,पीलीभीत जिला मुख्यालय जाकर प्रदर्शन क्यों नहीं करते?


फिर भोलेपन से वे कहते हैं,हमारा कोई नेता नही है।


आम लोग खुश हैं कि उन्हें मुफ्त राशन मिलता है।उज्ज्वला गैस मिलती है। महंगाई और किसान आंदोलन पर उनकी कोई राय नहीं है।


नेता खुश हैं कि उनकी सांसद मेनका गांधी राजपरिवार से हैं और उनकी गाड़ी में वे घूमते हैं।


हमने कहा कि नेता की बात छोड़ें, रजनीति की बात छोड़े, आप अपनी समस्या कैमरे के सामने सामूहिक तौर पर कहें,हम अनसुनी आवाज के जरिये देशभर में आपकी आवाज उठा देंगे।


अचानक जैसे गोली चल गई।


भीड़ देखते देखत तितर बितर हो गयी।


गोयल कालोनी में जहां बाघ के शिकार लोगों के लिए मुवावजा मांगने की जुर्म में डेढ़ सौ लोगों को गितफ्तार किया गया,दर्जनों स्त्री पुरुष से बेरहमी से मारपीट की गई, लोगों के खिलाफ अभी मुकदमा चल रहे है,उस गांव में आते जाते,खेत पर काम करते लोगों को बाघ खा जाता है,पूरा गांव गाड़ी लेकर घूमने के बावजूद कोई एक व्यक्ति भी हमसे बात करने को तैयार नहीं हुआ।


Friday, September 24, 2021

आप क्यों नहीं लड़ते अपनी लड़ाई?दूसरों की शहादत से आपको मुक्ति नहीं मिलेगी। पलाश विश्वास

 अपनी समस्या के लिए,अपनी मुक्ति की लड़ाई आपको ही लड़नी होगी।


 दूसरा क्यों लड़ेगा?



 हर कोई न पुलिनबाबू है और न शहीदेआजम भगत सिंह।


 नेता के भरोसे क्यों हैं? 


क्यों नहीं बोलते? 


क्यों नहीं लिखते?


अपनी बात खुद क्यों नहीं कहते?


 क्यों मूक विधिर नेत्रहीन भिखारी बनकर गुलामी को अपनी जन्दगी मानते हैं?


लड़े बिना आपकी मुक्ति नहीं है।


आपके लिए कोई मसीहा नहीं आएगा।


अवतार भी सिर्फ वध कार्यक्रम के लिए होते हैं और ईश्वर सिर्फ करोड़पतियों के लिए।


 गरीबों का कोई धर्म नहीं होता।मेहनत और लड़ाई ही गरीबों का धर्म है।


 उनका काम उनका प्रेम और ईश्वर है।




Thursday, September 16, 2021

सरकार बदलने से राजसत्ता नहीं बदलती।पलाश विश्वास

 हमारे सामने कोई राजनीतिक विकल्प नहीं है। फरेब में न फंसे।राजीतिक विकल्प सिर्फ सामाजिक संस्कृतिक आंदोलन से ही बनेगा।पार्टी चुनने से नहीं। 


जड़ों से,जमीन से पहले जुड़ें,जल जंगल जमीन पृथ्वी,प्रकृति और मनुष्यता के पक्ष में खड़े हों। दलितों,आफ़ीवासियों,स्त्रियों और हाशिये के हर व्यक्ति के लिए समता,स्वतंत्रता और न्याय की लड़ाई में शामिल हों।


किसी उजले या दागी चेहरे के पीछे भागकर सिर्फ सुअरों, बंदरों,मुख्यमंत्रियों,मंत्रियों की संख्या बढ़ेगी और आम जनता की तकलीफें भी।


हम किसी राजनीतिक दल के न समर्थक हैं और न विरोधी। हम सिर्फ किसानों,मेहनतकशों और आम जनता के पक्ष में है।


सत्ता बदलने से राजसत्ता नहीं बदलती।


 राजसत्ता तभी बदलेगी,जब समाज बदलेगा। 


राजसत्ता तभी बदलेगी ,जब जल जंगल जमीन और प्राकृतिक संसाधनॉन से लेकर शिक्षा और चिकित्सा जैसी बुनियादी सेवाओं और जरूरटन  पर जनता का हकहकूक भल होगा।


राजसत्ता तब बदलेगी जब जाति, वर्ण,धर्म,नस्ल की सरहदें खत्म होंगी।


राजसत्ता तब बदलेगी, जब राजनीति और अर्थब्यवस्था बदलेगी और खुद जनता बदलेगी।


सबसे पहले अपनी पांचों इंद्रियों को सक्रिय करें।मरे हुए विवेक को जीवित करें।पढ़ें लिखें और सवाल करना सीखें।सवालों का सही हल निकालना सीखें।


मूक बधिर विकलांग जनता, शराब और पैसे के बदले, छोटे छोटे स्वार्थ के लिए लोकतंत्र की बलि देने वाली जनता कुछ नहीं कर सकती।


जनता को बदलने के लिए ही सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलन सत्ता की राजनीति से बहुत ज्यादा जरूरी है।





Monday, September 13, 2021

जब तक एक भी विस्थापित का पुनर्वास बाकी,कमीज न पहनने की कसम खाई थीं पुलिनबाबू ने। पलाश विश्वास

 हमें बाघ का चारा बनाया,चाय बागान और कॉफी बगीचों में मजदूर बना दिया गया


1947 से अब तक पूर्वी बंगाल के जिन करोड़ों लोगों का पुनर्वस नहीं हुआ,उनके लिए पुलिन बाबू ने कमीज उतार दी थी


पलाश विश्वास







सुंदरपुर गांव से डॉ अरविंद मण्डल से लौटते हुए समीर दिनेशपुर श्मशान घाट के सामने पालपाड़ा ले गए। उनके किसी रिश्तेदार के पास गए तो वहां जयदेव सरकार  मिले, जिनकी उम्र 85 साल है। आज़ादी के वक्त पूर्वी बंगाल के खुलना शहर के पास उनका गांव था। 1947 से उनका परिवार सरहद के आर पार कंटीली बाड़ में कही लटका हुआ है।


 ऐसी हालत पूर्वी बंगाल के करोड़ों लोगों की है। जिनका सात दशक के बाद भी पुनर्वास नहीं हुआ।


दिनेशपुर के लोग कहते हैं कि दिनेशपुर की आम सभा में  1956 के आंदोलन से पहले उन्होने कमीज उतार दी थी और कसम खाई थी कि जब तक भारत विभाजन का शिकार एक भी विस्थापित का पुनर्वास बाकी रहेगा,वे कमीज नहीं पहनेंगे। 


यह हमारे जन्म से पहले की बात है।


बांग्ला के मशहूर साहित्यकार कपिल कृष्ण ठाकुर के मुताबिक 1950 से पहले बंगाल से बाहर भेजे जा रहे विस्थापितों के हुजूम को सम्बोधित करते हुए उन्होंने यह प्रतिज्ञा हावड़ा स्टेशन पर की थी। भारत विभाजम पर आधारित उनके बहुचर्चित पुरस्कृत उपन्यास उजनतलीर उपकथा के दूसरे खण्ड में पुलिनबाबू की कथा भी शामिल है।


बहरहाल उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी इन्हीं लोगों के लिए बिताई।मरे भी इन्हीं के लिए। पहाड़ों की कड़कती सर्दी में भी वे बिना कमीज हिमालय के योगियों की तरह खाली बदन रहते थे। 


उनकी प्रतिज्ञा  उनकी मौत के 20 साल बाद आज भी अधूरी रह गयी। बंगालियों की नई पीढ़ी को न पुलिनबाबू की याद है और उनकी कमीज की।न वे हमें पहचानते हैं।


जयदेव सरकार ने बताया कि उनके भाई का पुनर्वास जलपाईगुड़ी के धुपगुदी में हुआ है।दिनेशपुर आने से पहले वे वहीं थे। 


जलपाईगुड़ी चायबागानों के लिए मशहूर है और धुपगुड़ी में भी चायबागान हैं।


पिताजी अपने साथियों के साथ 1948 तक बागी घोषित कर दिए गए थे क्योंकि उन्होंने पूर्वी बंगाल से आये सभी विस्थापितों की किसी एक जगह दण्डकारण्य या नैनीताल या अंडमान निकोबार में पुनर्वास देने की मांग की थी,को उनका अपना गृहराज्य यानी होम लैंड बनता।


 बंगाल के नेता और भारत सरकार इसके लिए तैयार नहीं थे। तब कम्युमिस्ट पार्टी पूर्वी बंगाल के सभी विस्थापितों को बंगाल में ही बसाने की मांग लेकर आंदोलन कर रही थी।


 बंगाल के बाहर होम लैंड की मांग पर पुलिन बाबू की ज्योति बसु से सीधा टकराव ही गया। 


कोलकाता के केवदतला महाशनशन में पुलिनबाबू आमरण अनशन पर बैठे तो यह टकराव और बढ़ा। उन्हें उनके साठोयों के साथ ओडीशा के कटक के पास महानदी और माया के बीच चरबेटिया कैम्प में भेज दिया गया,जहां से नैनीताल जिले के गहन अरण्य में उन्हें और दूसरे लोगों को 1949 से 1956 तक बिना सरकारी मदद के बाघों का चारा बना दिया गया।


आज भी पीलीभीत जिले के माला फारेस्ट रेंज में बसाए गए पूर्वी बंगाल के लोग बाघ के चारा बने हुए हैं।


यहीं नहीं, बंगाल में ही सभी बंगाली विस्थापितों को बसाने की मांग के आंदोलन के नेता कामरेड ज्योति बसु की सरकार ने 1979 में सुंदरवन इलाके में हमारे लोगों को जो घने जंगल और पहाड़ी पठारी इलाकों में बसाए गए थे लेकिन वहां खेती असम्भव देखकर वाम आमंत्रण पर ही मरीचझांपी में बसना चाहते थे,को सुंदरवन के बाघों का चारा बना दिया।


बहरहाल जयदेव सरकार की धुपगुड़ी से वापसी की आपबीती से याद आया कि 1948-49 के दौरान रानाघट कैम्प से जब दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी के चाय बागानों  में पुनर्वास के बहाने विभाजनपीडितों को चाय मजदूर बनाने की तैयारी हो रही थी, तो पुलिनबाबू और उनके साथियों ने इसका डटकर विरोध किया और मांग की कि या तो सबको जमीन दी जाए या शहरों में कारोबार चलाने के लिए बिजनेस पुनर्वास दिया जाय,जैसा कि ओडीशा के हर छोटे बड़े शहरों में दिया गया और राजस्थान के जोधपुर में भी।


पुलिनबाबू और उनके साथी चाय बागान के कुली नहीं बने।लेकिन दूसरे लोहों को बंगाल के चायबागानों और तमिलनाडु के नीलगिरी जिले के कॉफी बगीचों में कुली जरूर बना दिये गए।


हमारे लोग पूर्वी बंगाल में रह नहीं सके। बांग्लादेश में जो रह गए,वे भी रह नहीं सके। देश के हर बंगाली इलाके के अलावा बांग्लादेश में भी अपने लोगों के लिए खाली हाथ लड़े पुलिनबाबू और वीरगति प्राप्त हुए।

Saturday, September 11, 2021

हमारे सपने मरे नहीं,हम इन्ही सपनों के लिए जिएंगे और मरेंगे भी।पलाश विश्वास

 वे आएंगे जरूर,वे हालात बदल देंगे

नवजातकों के लिए


पलाश विश्वास





इस देश में किसी बदलाव की संभावना इसलिए धूमिल है क्योंकि जाति, धर्म,नस्ल ,वर्ग ,भाषा के वर्चस्ववादी ताकतों के खिलाफ, भूमि माफ़िया के खिलाफ बोलने लिखने में बड़े बड़े क्रांतिकारी,जनवादी चूक जाते हैं तो बहुजन विमर्श के लोग पूंजीवाद,साम्राज्यवाद,कारपोरेट राज,मुक्तबाजार और सैन्यीकरण के मुद्दों पर खामोश हो जाते हैं। 


भावनात्मक मुद्दों पर ध्रुवीकरण होता है और बनती हुई जनता फर्जी मुद्दों पर सत्ता के एजेंडे के तहत फंसी रह जाती है। राजनीति सिर्फ मौकापरस्ती है और अर्थशाश्त्र,आर्थिक नीतियों पर कोई सार्वजनिक बात नही होती।


पृथ्वी,पर्यावरण,जलवायु,आपदा प्रबंधन और प्रकृति और प्राकृतिक संसाधन पर चर्चा किये बिना सिर्फ समता,न्याय  और बदलाव के खोखले नारे उछाले जाते हैं। हम अभी मानसिकता के स्तर पर पितृसत्ता के सामंती बर्बर अंधकार युग में है और बाजार की रौनक में हम अंधे हो गए हैं।


किसी सूरज की रोशनी हम तक पहुंचती नहीं है। 

मोबाइल की घण्टियों में सारी उड़ानें खत्म हो गयी हैं और पक्षियों के पंख टूट गए हैं।


जंजीरें और कैद मनभावन है क्योंकि तकनीक ने सारी कायनात को छोटे से छोटे पर्दे में से कर दिया है। जहां कोई इंद्रिया काम नहीं करती।


हम देख नहीं सकते।


हम सुन नहीं सकते।


हम बोल नहीं सकते।


हम सूंघ नहीं सकते।


हम छू नहीं सकते।


दिल दिमाग और देह का गणित,रसायन बदल गया है।


जन्म दिन पर प्रिय कवि की स्मृति को नमन।हमारे सपने नहीं मरे। नहीं मरेंगे।इन्हीं सपनों के लिए हम जिएंगे और मरेंगे भी।


उन्होंने जो लिखा,वह चेतावनी याद है?


सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना

तड़प का न होना

सब कुछ सहन कर जाना

घर से निकलना काम पर

और काम से लौटकर घर आना

सबसे ख़तरनाक होता है

हमारे सपनों का मर जाना

सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है

आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो

आपकी नज़र में रुकी होती है


सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है

जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है

और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है

सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है

जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है...



फिरभी सपना जरूर देखना चाहिए।

ताकि कुछ लोग तो सामने आएं और अभूतपूर्व परिस्थितियों में असाधारण प्रयास से पूरी फिजा बदल दें।


वे अवतार नहीं होंगे। सतह के नीचे किसी महायुद्ध की मोर्चाबंदी कर रहे हैं।


वे आएंगे जरूर। वे हालात भी बदल देंगे।

Thursday, September 9, 2021

इस अग्निपथ पर हमसफ़र मिलना मुश्किल। पलाश विश्वास

 इस अग्निपथ पर हमसफ़र मिलना मुश्किल


समीर भी, हमारी लड़ाई सामाजिक मोर्चे की है।लड़ाई जारी रहेगी।तुम्हारे मेरे होने न होने से कोई फर्क नही पड़ेगा


पलाश विश्वास



कल हमारे छोटे भाई और रिटायर पोस्ट मास्टर समीर चन्द्र राय हमसे मिलने दिनेशपुर में प्रेरणा अंशु के दफ्तर चले गए। रविवार के दिन मैं घर पर ही था। हाल में कोरोना काल के दौरान गम्भीर रूप से अस्वस्थ होने की वजह से उसे जीवन में सबकुछ अनिश्चित लगता है।


इससे पहले जब वह आया था,रूपेश भी हमारे यहां था। उसदिन भी उसने लम्बी बातचीत छेड़ी थी। 


उसदिन उसने कहा था कि गांवों में स्त्री की कोई आज़ादी नहीं होती।हमें उन्हें आज़ाद करने के लिए हर गांव में कम से कम 5 युवाओं को तैयार करना चाहिए। 


हम सहमत थे।


उस दिन की बातचीत से वह संतुष्ट नहीं हुआ। उसके भीतर गज़ब की छटपटाहट है तुरन्त कुछ कर डालने की। आज हमारे बचपन के मित्र टेक्का भी आ गए थे। बाद में मुझसे सालभर का छोटा विवेक दास के घर भी गए।


बात लम्बी चली तो मैंने कहा कि मैं तो शुरू से पितृसत्ता के खिलाफ हूँ और इस पर लगातार लिखता रहा हूँ कि स्त्री को उसकी निष्ठा,समर्पण,दक्षता के मुताबिक हर क्षेत्र में नेतृत्व दिया जाना चाहिए। लेकिन पितृसत्ता तो स्त्रियो पर भी हावी है। इस पर हम प्रेरणा अंशु में सिलसिलेवार चर्चा भी कर रहे हैं। जाति उन्मूलन, आदिवासी,जल जंगल जमीन से लेकर सभी बुनियादी मसलों पर हम सम्वाद कर रहे हैं ज्वलन्त मसलों को उठा रहे हैं।


हमारे लिए सत्ता की राजनीति में शामिल सभी दल।एक बराबर है। विकल्प राजनीति तैयार नहीं हो सकी है। न इस देश में राजनैतिक आज़ादी है। 


सामाजिक सांस्कृतिक सक्रियता के लिये भी गुंजाइश बहुत कम है। 


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है।


स्त्री आज़ादी के नाम पर पितृसत्ता के लिए उपभोक्ता वस्तु बन रही है। क्रयक्षमता उसका लक्ष्य है और वह गांव और किसिन के पक्ष में नहीं ,बाजार के पक्ष में है या देह की स्वतंत्रता ही उसके लिए नारी मुक्ति है तो मेहनतकश तबके की,दलित आदिवासी और ग्रामीण स्त्रियों की आज़ादी,समता और न्याय का क्या होगा?


समीर अम्बेडकरवादी है।


 हमने कहा कि अम्बेडकरवादी जाति को मजबूत करने की राजनीति के जरिये सामाजिक न्याय चाहते हैं,यह कैसे सम्भव है?


साढ़े 6 हजार जातियों में सौ जातियों को भी न्याय और अवसर नहीं मिलता। 


संगठनों,संस्थाओं और आंदोलनों पर,भाषा, साहित्य, सँस्कृति,लोक पर भी जाति का वर्चस्व। 


फिर आपके पास पैसे न हो तो कोई आपकी सुनेगा नहीं।कोई मंच आपका नहीं है।


समीर हरिदासपुर प्राइमरी स्कूल में दूसरी कक्षा में पढता था और उसका मंझला भाई सुखरंजन मेरे साथ। उनका बड़ा भाई विपुल मण्डल रंगकर्मी और सामाजिक कार्यकर्ता थे। जिनका हाल में निधन हुआ।


70 साल पुराना वह हरिदासपुर प्राइमरी स्कूल बंद है। इलाके के तमाम प्राइमरी स्कूल रिलायंस को सौंपे जा रहे हैं। क्या यह कोई सामाजिक राजनीतिक मुद्दा है?


नौकरीपेशा लोगों के लिए समस्या यह है कि पूरी ज़िंदगी उनकी नौकरी बचाने की जुगत में बीत जाती है। चंदा देकर सामाजिक दायित्व पूरा कर लेते हैं। नौकरी जाने के डर से न बोलते हैं और न लिखते हैं।कोई स्टैंड नहीं लेते। लेकिन रिटायर होते ही वे किताबें लिखते हैं और समाज को, राजनीति को बदलने का बीड़ा उठा लेते हैं।


सामाजिक काम के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है। जैसे मेरे पिता पुलिनबाबू ने खोया। हासिल कुछ नहीं होता।


 राजनीति से कुर्सी मिलती है लेकिन सामाजिक सांस्कृतिक काम में हासिल कुछ नहीं होता। इसमें सिर्फ अपनी ज़िंदगी का निवेश करना होता है और उसका कोई रिटर्न कभी नहीं मिलता।


समाज या देश को झटपट बदल नहीं सकता कोई। यह लम्बी पैदल यात्रा की तरह है। ऊंचे शिखरों, मरुस्थल और समुंदर को पैदल पार करने का अग्निपथ है।


इस अग्निपथ पर साथी मिलना मुश्किल है।


जो हाल समाज का है, जो अधपढ अनपढ़ नशेड़ी गजेदी अंधभक्तों का देश हमने बना लिया, युवाओं को तैयार कैसे करेंगे।


मुझे लगता है कि इस मुद्दे पर भी सार्वजनिक सम्वाद जरूरी है।


मेरे भाई,समीर, निराश मत होना।हम साथ हैं और हम लड़ेंगे। लेकिन यह लड़ाई सामाजिक मोर्चे की है और यह संस्थागत लड़ाई है,जिसे जारी रखना है।


तुम्हारे मेरे होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

Wednesday, September 8, 2021

उत्तराखंडी बंगाली समाज के दो डॉक्टर भाई,इनमें से एक सीएमओ

 हमारे उत्तराखंडी बंगाली समाज के दो डॉक्टर भाई, इनमें से एक रिटायर्ड सीएमओ


तृतीय पुरुष स्त्री क्यों,प्रथम क्यों नहीं? आप भी लिखें तो पूरी होंगी सारी अधूरी कथाएं

पलाश विश्वास


पश्चिम बंगाल के भद्रलोक बंगाली बंगाल से बाहर देश के 22 राज्यों में बसे 11 करोड़ बंगालियों को बंगाली नहीं मानते और वे बंगाल के इतिहास भूगोल के बाहर हैं।


 विभाजन के शिकार बंगालियों से उनकी वैसी कोई स














हानुभूति कभी नहीं रही, जैसे सिंधी,भूटानी, तमिल, कश्मीरी,पंजाबी और सिख शरणार्थियों से इन सभी समुदायों के लोगों की रही है।


 इन सभी 22 राज्यों में राजनीति चाहे जो हो,स्थानीय समुदायों के सहयोग और समर्थन से बंगाली समुदाय बंगाल के लोगों के मुकाबले हर मामले में आगे बढ़ रहे हैं,मातृभाषा, बांग्ला संस्कृति, पहचान और आरक्षण से वंचित होने के बावजूद।


ताज़ा उदाहरण रुद्रपुर,उत्तराखण्ड के मनोज सरकार हैं,जिनका पैरा ओलिम्पिक पदक उत्तराखण्ड और 22 राज्यों के विभाजन शिकार बंगालियों के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि हैं।


 उन्हें बंगाल के भद्रलोक बंगाली बंग संतान और बंगाल का बताते हुए जश्न तो मना रहे हैं लेकिन उन्हें उत्तराखण्ड के बजाय बंगाल का बता रहे हैं।


वैसे ही सुष्मिता सेन के विश्व सुंदरी बनने पर बंगाली अखबारों ने उनकी तसवीर और बंग ललना की विश्वजय शीर्षक से मुखपन्ने पर एक ही खबर छापी थी। सुष्मिता दिल्ली की थी।


 उसीतरह जैसे कवि और हिन्दू मानने से भी इंकार करने वाला बंगाली भद्रलोक समाज ने अस्पृश्य  रवींन्द्र नाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार पाने के बाद बंगाली अस्मिता का प्रतीक बना लिया।


असम, त्रिपुरा,ओडीशा,बिहार,झारखण्ड में भी बंगला साहित्य रचा जाता है,जिसे कभी मान्यता नहीं मिलती।


 विभाजन के शिकार बंगाली भी मनोरंजन व्यापारी किन्त्रः साहित्यकार हैं। 


बड़े बड़े पत्रकार हैं। फिल्मकार,संगीतकार, अभिनेता, रंगकर्मी, आईएएस,आईपीएस अफसर, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर,वकील, वगैरह हैं। बंगाल की मदद के बिना। बनागल के लोगों को यह हजम नहीं होता।


दिनेशपुर के गांव सुंदरपुर में ऐसे हो दो डॉक्टर भाई हैं- डॉ अरविंद मण्डल और डॉ जगदीश मण्डल। दोनों हमारे भी भाई हैं।


जिनमे से डॉ जगदीश मण्डल बगेश्वरबके सीएमओ पड़ से रिटायर हुए तो डॉ अरविंद हाल के कोरोनकाल तक राजधानी नई दिल्ली में अपना अस्पताल और क्लीनिक चलाते हुए आम जनताबकी सेवा करते रहे हैं।


 दोनों मुझसे छोटे हैं। 


अरविंद बड़ा है। जब मैं डीएसबी से एमए कर रहा था,तब वह बीएससी कर रहा था। उनके घर हम बचपन से आते जाते रहे हैं। दोनों मुझे बड़ा भाई मानते रहे हैं।


डॉ जगदीश गरीब बच्चों की पढ़ाई का बोझ उठाते हैं और दिनेशपुर में आ लोगों का इलाज करते हैं। दिनेशपुर नें ही उन्होंने अपना घर बना लिया है। दोनों भाइयों की बेटियां भी अस्पतालों में कार्यरत हैं। जो हमारी भी बेटियाँ हैं।


इन दिनों सविता जी थोड़ी अस्वस्थ चल रही हैं और डॉ जगदीश उनका इलाज कर रहे हैं। परसो जब मैं उनके लिए दवा लेने गया तो बोले कि डॉ अरविंद अस्वस्थ हैं और उन्होंने दिल्ली छोड़ दिया है।गांव में हैं और आपको खूब याद कर रहे हैं।


तभी से बेचैन था। दोपहर बाद रिटायर्ड पोस्ट मास्टर समीर मिलने आये इस शिकायत के साथ कि हम सामाजिक परिवर्तन के बारे में उनके विचारों के बारे में नहीं लिखते।


हमने उन्हें बताया कि हमारा कोई इतिहास नहीं है,साहित्य नहीं है, हमारे विचार  हैं  क्योंकि हम अपनी बात खुद नहीं कहते।खुद नहीं लिखते। हम हमेशा  चाहते हैं कि दूसरे लिखे। दूसरे लिख भी दें तो यह उनकी बात होगी। 


तृतीय पुरुष या  होकर जीते रहे हैं हम,प्रथम पुरुष या स्त्री कब बनेंगे?


हमने बताया कि मेरे पिताजी कक्षा दो तक पढ़े थे और कहते थे कि ये हमारे लोग हैं।इनके लिए कोई बाहरी कुछ नहीं करेगा। जो कुछ करना है,मुझे करना है। जो कहना लिखना है ,मुझे लिखना है।चाहे मुझमें काबिलियत हो या न हो,यह अनिवार्य कार्यभार है। इसके लिए जो भी योग्यता,दक्षता जरूरी हैं ,मुझे हासिल करने ही हैं।


हम हर किसी से यही कहते हैं।


 यही प्रेरणा अंशु का मिशन भी है। 


हर व्यक्ति अपनी बात खुद कहें,खुद लिखें, हम उनकी हर सम्भव मदद करेंगे।


इसके बाद डॉ अरविंद के बारे में बताया तो तुरन्त मुझे लेकर रवाना हो गया सुंदरपुर।


बरसों बाद उनके घर गए, जहां अक्सर जाना होता था।वही खेत,वही हरियाली,वही आकाश। 


उसकी पत्नी से बात हुई तो वह मकरंदपुर की बेटी निकली। उसके परिवारवाले भी हमारे परिजन निकले।


हर किसीके बारे में न मैं जानता हूँ और न लिख सकता हूँ। ज़िन्दगी बहुत छोटी होती है। अपनी कथा कभी पूरी भी नहीं होती।हर कथा अधूरी छूट जाती है।


आप लोग भी लिखें तो पूरी होगी सारी कथाएं भी।

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