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Thursday, December 30, 2021

बन्द कल- कारखानों की मजदूर बस्तियों की प्रेम कथा

 प्रवास वृत्तांत- मजदूर बस्ती के एक बेरोजगार कलाकार की ट्रेन से कटकर मौत,एक प्रेमकथा का दुःखद अंत


पलाश विश्वास





बंगाल में 35 साल के वाम शासन में आज़ाद भारत की उद्योग विरोधी शहरीकरण के कारपोरेटपरस्त मुक्तबाजारी अर्थ व्यवस्था में 56 हजार कल कारखाने बन्द हो गए। ममता बनर्जी के परिवर्तन आंदोलन और वाम तख्ता पलट का यह सबसे बड़ा मुद्दा था। 


विडम्बना यह है कि तीसरी बार निरंकुश मुख्यमंत्रित्व के ममता बनर्जी के राजकाज में शहरीकरण और निजीकरण का यह सिलसिला तेज हुआ और कोलकाता और हावड़ा के तमाम कलकारखानों की जमीन पर बहुमंजिली आवासीय कालोनियां और बाजारों की रौनक है,जहां ब्रिटिश हुक़ूमत के दो सौ साल के औद्योगिकीकरण के कारण बंगाल में आ बसे भारत भर के मजदूरों की बस्तियां गरीबी,बेरोज़गारी और बेदखली की शिकार हैं।


बांग्ला के मशहूर कथाकारों समरेश बसु और माणिक बन्दोपध्याय का कथा संसार इसे मेहनतकश तबके का जीवन संघर्ष और प्रवास वृत्तांत है। 


हाल में हमारे लिक्खाड़ मित्र  H L Dusadh Dusadh जो ऐसे ही एक मजदूर बस्ती से उठकर देश के अनूठे लेखक बन गए हैं,ने इन बस्तियों पर लिखा है। उनका जीवन संघर्ष भी इन दलित बस्तियों की आत्मकथा है,जो उन्होंने लिखी नहीं है। मैंने उनसे लिखने को कहा है।


भारतीय समाज मुगल साम्राज्य तक जिस मनुस्मृति शासन की कैद रहा है,उससे मुक्ति का संघर्ष अंग्रेजी राज में हुए औद्योगिकीकरण से बदले उत्पादन संघर्ष से ही शुरू हुआ,जो बंगाल के सूफी बाउल फकीर मतुआ दलित नवजागरण, महात्मा ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु, अयंकाली,अम्बेडकर और पेरियार के आंदोलनों से तेज़ हुआ।


 भारत विभाजन के फलस्वरूप जनसंख्या स्थानांतरण के जरिये मनुस्मृति समर्थकों ने देश की जनसंख्या विन्यास को सिरे से बदलकर दलित नवजागरण की विरासत को खत्म करके अम्बेडकर मिशन,लिंगायत मतुआ आंदोलन और आदिवासी भूगोल का भगवाकर्ण को तोड़ डाला और जाति व्यवस्था तोड़ रहे औद्योगिकीकरण की जगह जनसंख्या की राजनीति के तहत अस्मिताओं के युद्ध में जाति को इतिहास के अमित  शिला लेख में तब्दील कर दिया।


बंगाल, मद्रास और बम्बई अंग्रेजी हुकूमत के दौरान औद्योगिकीकरण के केंद्र थे।


 देशभर के दलित, पिछड़े लोग सिर्फ रोजगार की तलाश में ही नहीं बल्कि गांव में सवर्णों की बंधुआ मजदूरी, अस्पृश्यता और नरसंहार से बचने के लिए इन्हें अपना शरणस्थल बना लिया था। 


ये मजदूर बस्तियां देश की ऐसी दलित बस्तियां थीं, जो सामंती अत्याचार और उत्पीड़न से मुक्त थीं।


 औद्योगिकीकरण के अवसान के बाद भी मध्य बिहार जैसे नरसंहारी इलाकों से सिर्फ जान बचाने के लिए इन महानगरों की मजदूर बस्तियों की भीड़ बढ़ती रही,जिसमें बड़ी संख्या में भारत विभजन के शिकार बंगाली विस्थापित और देश के आदिवासी भूगोल में बेदखली और विस्थापन के शिकार लोग बड़ी संख्या में शामिल हो गए। कोरोना इन बस्तियों के सफाये का हथियार हो गया।


 कोलकाता,मुंबई, चेन्नई के अलावा देश के सभी बड़े छोटे शहरों की नई जनसंख्या का विन्यास इन्हीं उखड़े हुए सतह के लोगों की बसासत से बना है।


कोलकाता के सारे उपनगर इसीतरह बने झाने शहरीकरण और बाजारीकरण की सुनामी में बाकी देश की मजदूर बसत्यों और आदिवासी गांवों की तरह ये दलित पिछड़े भी उखाड़े जा रहे हैं।


हम कोलकाता में 27 साल तक इन्ही लोगों के साथ और इन्ही के बीच रहे भद्रलोक बिरादरी से घिरे हुए। हम सोदपुर के जिस गोस्टो कानन मजदूर बस्ती में रहे हैं,वहां से एक प्रेमकथा के दुःखद अंत की कथा आज हम तक पहुंची। कोरोनाकाल में बेरोजगार एक कलाकार दम्पति की प्रेमकथा का दुःखद अंत बाजार से लौटते हुए पति के ट्रेन से कट जाने से हो गयी। उसका नाम है सुमित।


 उसकी पत्नी मुहल्ले की ही लड़की है,जिसने 14 साल की उम्र में उसके साथ भागकर शादी कर ली थी और दोनों पति पत्नी पिछले 10- 12 साल से कोलकाता और आस पड़ोस के राज्यों में स्टेज शो के जरिये नाच गा कर गुजर बसर करते थे। कोरोना नई जिसे बन्द कर दिया।


दोनों को बड़ा होते हुए हमने अपनी आंखों के सामने देखा। हम उनके प्यार को भूल नहीं पाए।


इन तमाम लोगों की रोजमर्रे की ज़िंदगी,बीमारी , आपदा,शोक  में  घर, अड़पटल से लेकर श्मशानघाट तक सविताजी और हम शामिल थे। वे हमारी तरह वैचारिक नहीं,लेकिन हमसे कहीं ज्यादा मनुष्य हैं। यही प्रेम है।


वे दोनों बेदखली की लड़ाई की अगुवाई भी करते थे।


यह मजदूर बस्ती हमारे किराये के घर की खिड़की से खुलती थी।


 सुबह होते ही उन सभी से मुलाकात हो जाती थी जो कभी सोदपुर के मशहूर काँचकल में मजदूर थे।


 दफ्तर निकलते वक्त या देर रात या सुबह तड़के घर लौटते वक्त हिंदी स्कूल के आसपास किसी न किसी से बातचीत ही जाती थी। उन्हें हमारी फिक्र थी। है।


 घर घर से होली के गुजिये और छठ के ठेकुए आ जाते थे। वे सभी हमारे परिवार में शामिल थे,जिनमे सोदपुर के तमाम सब्जीवाले, मछलिवाले भी हुआ करते थे या फिर हॉकर।ये सभी कोलकाता के सभी उपनगरों के बन्द कल करखानों के बेरोजगार मजदूर थे।


अमित और सुमित दो भाई थे।सुमित छोटा भाई। उनके दादा जी हरियाणा के यादव थे। पिता किशोर भी मजदूर थे। उनकी मां लीला पूर्वी बंगाल की विस्थापित थी। 


इनमें ब्राह्मण और ठाकुर जैसे सवर्ण  यूपी,बिहार के लोग भी थे लेकिन पीढ़ियों से साथ रहते रहते उनके बीच जाति गायब सी हो गयी थी। औद्योगिकरण से शहरीकरण का यह मुक्तबाजार हर मायने में मनुस्मृति राज है।


करीब 15 साल पहले भी हक हकूक की वर्गचेतना से लैस थी ये तमाम मजदूर बस्तियां मनुस्मृति से मुक्त। 


कल कारखाने बन्द होने से पॉश कालोनियों से घिरकर फिर ये लोग मनुस्मृति के शिकंजे में है और इसी वजह से बंगाल भी बाकी देश की तरह गोबर पट्टी में तेज़ी से शामिल होता जा रहा है और वहां वाम का कोई नामलेवा बचा नहीं। लगता नहीं कि कोलकाता ज़िंदा भी है।


सुमित की पत्नी बहुत प्यारी बच्ची है। अब शायद 25-26 की हो गयी होगी।वह भी अपनी सास की तरह बंगाली थी। स्टेज शो करके घर लौटने पर सविता जी से जरूर मिलने आती थी। 


हमारी उस बिटिया से मिलने की अब कोई संभावना हालांकि नहीं हैं लेकिन बहुत बेचैन है कि कभी मुलाकात हो गयी तो उसके दुःख का सामना कैसे हम करेंगे। बूढ़े होने की एक मजबूरी यह भी है कि हम बच्चों की तरह आंसू भी बहा नहीं सकते।


शव वाहिनी गंगा मैया की गोद में इन लावारिश बस्तियों की लाशें भी शामिल हैं,यह भी सनद रहे।


सौ करोड़ या दो सौ करोड़ मुफ्त टीकों या बूस्टर खुराक से इन बेदखल होती मजदूर बस्तियों की लाइलाज महामारियों का इलाज होगा?


हमारे पास अपने मोहल्ले और मजदूर बस्ती या उन लोगों की तस्वीरें शायद हों या न हों, खोजना मुश्किल है।आपको माहौल का अंदाज़ा हो,इसलिए दुसाध जी की खींची तस्वीरों का साभार इस्तेमाल कर रहे हैं।


मित्रों, इस कथा का प्रसार जरूर करें । मोक्ष नहीं मिलता लेकिन जाति उन्मूलन और प्रवास के बारे में कुछ लोग नए सिरे से सोचें तो इस निजी शोक का कोई सामाजिक मायने भी शायद निकले।

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