क्योंकि हमने संविधान सभा के लिए पूर्वी बंगाल से बाबा साहब भीमराव अंबेडकर को चुना,हमें बाघ का चारा बना दिया गया।
आम जनता की कोई समस्या नहीं है क्योंकि...
पलाश विश्वास
मेरे पिताजी पुलिनबाबू ने हर विस्थापित के सही पुनर्वास की मांग लेकर कसम खाई थी कि जब तक एक भी विस्थापित का पुनर्वास बाकी रहेगा,वे पैंट कमीज नहीं पहनेंगे।
बाकी जीवन के पूरे पचास साल उत्तराखण्ड की सर्दी में भी उन्होंने सिर्फ एक धोती और चादर के सहारे बिता दिए। रीढ़ की हड्डी में कैंसर के साथ मृत्यु शय्या तक उनकी लड़ाई जारी रही।लेकिन 90 प्रतिशत विस्थापितों का पुनर्वास नहीं हुआ।आज देश के अंदर विस्थापितों की संख्या बाहर से आये विस्थापितों से कई गुना ज्यादा है।वे जीवित होते तो उन सभी के लिए उनकी लड़ाई आज भी जारी रहती।
करोड़ों विस्थापितों के हक हकूक, नागरिकता, मातृभाषा, पुनर्वास,आरक्षण और बुनियादी सुविधाओं के लिए लड़ते हुए वे भारत ही नहीं, पूर्वी पाकिस्तान और स्वतंत्र बांग्लादेश की जेलयात्राएँ भी की।
सालों मुकदमे झेले। अपनी जमीन तक बेच दी।घर में कुर्की जब्ती तक हो गयी।
देशभर के विस्थापित पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हें जानते हैं ।उनकी नज़रों में मेरी अपनी कोई हैसियत नहीं है,सिवाय इसके कि मैं पुलिनबाबू का बेटा हूँ।
उन सभी की अपेक्षा रही है कि मैं भी अपने पिता की तरह उनके लिए लड़ता रहूं। इसीलिए पत्रकारिता की नौकरी से रिटायर होने के बाद कोलकाता छोड़कर में उन्हीं के बीच आ गया। लेकिन उनमें से कोई मेरे साथ खड़ा नहीं है और हर कोई चाहता है कि पिताजी की तरह हम अकेले उनकी लड़ाई लड़ते रहे।वे खुद लड़ने के लिए तैयार नहीं है।बोलने के लिए भी नहीं।अपनी तकलीफ बताने के लिए भी नहीं।
पीलीभीत के गांवों में भी हर व्यक्ति पुलिनबाबू को जानता है और उनकी शिकायत हर विस्थापित की तरह यही है कि पुलिनबाबू का बेटा उनके लिए उनकी तरह क्यों नहीं लड़ता?
बेहद वाजिब सवाल है।
मैं खुद को उनका अपराधी भी मानता हूं।
मेरे पिता सिर्फ कक्षा दो तक पढ़े लिखे थे। कक्षा दो से प्रधानमंत्री,मुख्यमंत्री और राज्य सरकारों,प्रशसन को रोज उनके लिखे ज्ञापन मुझे ही लिखने होते थे।
बड़ा होते होते पिताजी से हमारे घनघोर राजनीतिक मतभेद हो गए।इतने ज्यादा की उन्होंने सार्वजनिक रूप से कई बार मुझे त्याग देने की घोषणा की।हममें राजनीतिक क्या, साहित्य जैसे विषय पर भी चर्चा नहीं होती थी।
इसके बावजूद नैनीताल से एमए पास करने तक उनके लिखे सारे पत्रों को मैंने ही लिखा।उनकी लड़ाई के सारे दस्तावेज भी मैंने ही तैयार किये।उनकी प्रतिबद्धता और सरोकार से हमारे हमेशा ताल्लुक रहा है।
बचपन से मुझे हर इलाके की हर समस्या मालूम है।जिसका गहरा असर मेरे लेखन पर भी हुआ।
मैं साहित्य का छात्र था। साहित्य के लिए मैंने सारी महत्वाकांक्षाएं छोड़ी। साहित्यकार और प्राध्यापक बनना मेरी एकमात्र महत्वाकांक्षा थी।लेकिन जनपक्षधरता और लड़ाई की विरासत ने मुझे सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार बना दिया,जिसका मुझे कोई अफसोस भी नहीं है।
14 जून 2001 के बाद मैं रिटायर होने से पहले दो या तीन बार घर आया हूँ। बहनों और दूसरे रिश्तेदारों के घर भी नहीं गया। पीलीभीत में अपनी सगी बहन के घर 32 साल बाद कल गया। गोबियासराय और शक्तिफार्म में अपनी बहनों के घर कभी नहीं गया।
मैं इन 20 सालों में कश्मीर से कन्याकुमारी, कच्छ से नागालैंड मणिपुर तक हर विस्थापित और आदिवासी इलाकों में पुलिनबाबू के पदचिन्ह पर दौड़ता रहा हूँ।
नौकरी की सारी छुट्टियां इसी दौड़ में खपा दी।
कविता,कहानी ,उपन्यास लिखना छोड़ दिया। क्योंकि पिताजी की कही हर बात मुझे याद आती रही और कहीं उनके चाहने वाले लोग मुझे पुकारते रहे।
लेकिन हाजरा चंदुआ और माला टाइगर प्रोजेक्ट इलाके के गांवों में में पहली बार गया। इतनी बुरी हालत विस्थापित गांवों की मैंने कहीं नहीं देखी।
उससे ज्यादा निराश इस बात को लेकर हुई कि एक हजार से आजादी की लड़ाई लड़ने वाले हमारे पुरखों के ये कैसे उत्तराधिकारी हैं जो सामने खड़े होकर अपनी बात भी न कह सके? सभी राज्यों में,पश्चिम बंगाल में भी यही हाल है। ये लोग दिलोदिमाग,जिगर से भी अलहदा हैं।
जंगल और बाढ़, टाइगर प्रोजेक्ट से घिरे इलाके में पुनर्वासित पीलीभीत के बंगालियों को ढाई से पांच एकड़ जमीन मिली है।जहां गन्ना के अलावा कुछ नहीं उगता।
न स्कूल है और न कालेज,न अस्पताल,न सड़क और न जमीन पर मालिकाना हक है। बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं।गांव के गांव डूब हैं,बाढ़ से घिरे द्वीप की तरह।
एक साल में 14-14 लोगों को बाघ खा जाता है। इससे उन्हें परेशानी नहीं हैं।
मजे की बात है कि बाबा साहेब अम्बेडकर को संविधान सभा के लिए चुनने वाली, कोरेगांव में पेशवा को महारों के हराने की तरह बंगाल के जुल्मी नवाब सिराजदुल्ला को पलाशी की लड़ाई नें हराने वाली और अगले ही दिन से ब्रिटिश हुकूमत और जमींदारों के खिलाफ दो सौ साल तक लड़ने वाली,तेभागा और नक्सलबाड़ी आंदोलन में कुर्बानी देने वाली नमोशूद्र जाति के लोग हैं यहां के विस्थापितों में 95 फीसद लोग, उत्तराखण्ड और अन्यत्र की तरह 40-50 प्रतिशत नहीं।
शेर को मालूम ही नहीं कि वह शेर है।सिर्फ पूंछ यानी जाति बची रह गयी है।
न लड़ाई है, न साहस है, न नेतृत्व है, न मातृभाषा है,न शिक्षा और संस्कृति।
ये कैसे लोग हैं?
शेर न सही ,ये तो गधे या गीदड़ भी नहीं रहे।
माला कालोनी टाइगर प्रोजेक्ट से घिरा मुख्य गांव है। माला बाजार में सभी आठ कालोनियों के लोग जुटते हैं ।जिनमें से सात गांवों के लोग अक्सर बाघ के शिकार हो जाते हैं।
चंदिया हाजरा और माला इलाके के पढ़े लिखे लोग सुर नेता कहते हैं कि बंगालियों की कोई समस्या नहीं है। क्योंकि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री। क्योंकि हिंदुओं की पार्टी भाजपा सत्ता में हैं।
क्योंकि सरकार ने राम मंदिर बना दिया है और धारा 370 हटा दी है।
माला बाजार में जनसंवाद और अन्यत्र भी हमने कहा कि माना कि सरकार बहुत अच्छी है तो आपको भूमिधारी हक क्यों नहीं मिलता? आपके बच्चों को छात्रवृत्ति क्यों नहीं मिलती? नौकरी क्यों नहीं मिलती? सड़कें क्यों नहीं है? कालेज अस्पताल क्यों नहीं है?
बहुत भोलेपन से वे कहते हैं कि सरकार हमें भारत का नागरिक नहीं मानती। हमें आरक्षण नहीं मिलता। हमें स्थायी निवास प्रमाणपत्र नहीं मिलता।
यह भी उनके लिए कोई समस्या नहीं है।
फिर वे कहते हैं कि आप अपने पिता की तरह हमारी आवाज क्यों नहीं उठाते?
हम पूछते कि आप जिन्हें वोट देकर विधायक,सांसद चुनते हैं,उनसे सवाल क्यों नहीं करते?
सब मिलकर लखनऊ न सही,दिल्ली न सही,पीलीभीत जिला मुख्यालय जाकर प्रदर्शन क्यों नहीं करते?
फिर भोलेपन से वे कहते हैं,हमारा कोई नेता नही है।
आम लोग खुश हैं कि उन्हें मुफ्त राशन मिलता है।उज्ज्वला गैस मिलती है। महंगाई और किसान आंदोलन पर उनकी कोई राय नहीं है।
नेता खुश हैं कि उनकी सांसद मेनका गांधी राजपरिवार से हैं और उनकी गाड़ी में वे घूमते हैं।
हमने कहा कि नेता की बात छोड़ें, रजनीति की बात छोड़े, आप अपनी समस्या कैमरे के सामने सामूहिक तौर पर कहें,हम अनसुनी आवाज के जरिये देशभर में आपकी आवाज उठा देंगे।
अचानक जैसे गोली चल गई।
भीड़ देखते देखत तितर बितर हो गयी।
गोयल कालोनी में जहां बाघ के शिकार लोगों के लिए मुवावजा मांगने की जुर्म में डेढ़ सौ लोगों को गितफ्तार किया गया,दर्जनों स्त्री पुरुष से बेरहमी से मारपीट की गई, लोगों के खिलाफ अभी मुकदमा चल रहे है,उस गांव में आते जाते,खेत पर काम करते लोगों को बाघ खा जाता है,पूरा गांव गाड़ी लेकर घूमने के बावजूद कोई एक व्यक्ति भी हमसे बात करने को तैयार नहीं हुआ।
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