हमें बाघ का चारा बनाया,चाय बागान और कॉफी बगीचों में मजदूर बना दिया गया
1947 से अब तक पूर्वी बंगाल के जिन करोड़ों लोगों का पुनर्वस नहीं हुआ,उनके लिए पुलिन बाबू ने कमीज उतार दी थी
पलाश विश्वास
सुंदरपुर गांव से डॉ अरविंद मण्डल से लौटते हुए समीर दिनेशपुर श्मशान घाट के सामने पालपाड़ा ले गए। उनके किसी रिश्तेदार के पास गए तो वहां जयदेव सरकार मिले, जिनकी उम्र 85 साल है। आज़ादी के वक्त पूर्वी बंगाल के खुलना शहर के पास उनका गांव था। 1947 से उनका परिवार सरहद के आर पार कंटीली बाड़ में कही लटका हुआ है।
ऐसी हालत पूर्वी बंगाल के करोड़ों लोगों की है। जिनका सात दशक के बाद भी पुनर्वास नहीं हुआ।
दिनेशपुर के लोग कहते हैं कि दिनेशपुर की आम सभा में 1956 के आंदोलन से पहले उन्होने कमीज उतार दी थी और कसम खाई थी कि जब तक भारत विभाजन का शिकार एक भी विस्थापित का पुनर्वास बाकी रहेगा,वे कमीज नहीं पहनेंगे।
यह हमारे जन्म से पहले की बात है।
बांग्ला के मशहूर साहित्यकार कपिल कृष्ण ठाकुर के मुताबिक 1950 से पहले बंगाल से बाहर भेजे जा रहे विस्थापितों के हुजूम को सम्बोधित करते हुए उन्होंने यह प्रतिज्ञा हावड़ा स्टेशन पर की थी। भारत विभाजम पर आधारित उनके बहुचर्चित पुरस्कृत उपन्यास उजनतलीर उपकथा के दूसरे खण्ड में पुलिनबाबू की कथा भी शामिल है।
बहरहाल उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी इन्हीं लोगों के लिए बिताई।मरे भी इन्हीं के लिए। पहाड़ों की कड़कती सर्दी में भी वे बिना कमीज हिमालय के योगियों की तरह खाली बदन रहते थे।
उनकी प्रतिज्ञा उनकी मौत के 20 साल बाद आज भी अधूरी रह गयी। बंगालियों की नई पीढ़ी को न पुलिनबाबू की याद है और उनकी कमीज की।न वे हमें पहचानते हैं।
जयदेव सरकार ने बताया कि उनके भाई का पुनर्वास जलपाईगुड़ी के धुपगुदी में हुआ है।दिनेशपुर आने से पहले वे वहीं थे।
जलपाईगुड़ी चायबागानों के लिए मशहूर है और धुपगुड़ी में भी चायबागान हैं।
पिताजी अपने साथियों के साथ 1948 तक बागी घोषित कर दिए गए थे क्योंकि उन्होंने पूर्वी बंगाल से आये सभी विस्थापितों की किसी एक जगह दण्डकारण्य या नैनीताल या अंडमान निकोबार में पुनर्वास देने की मांग की थी,को उनका अपना गृहराज्य यानी होम लैंड बनता।
बंगाल के नेता और भारत सरकार इसके लिए तैयार नहीं थे। तब कम्युमिस्ट पार्टी पूर्वी बंगाल के सभी विस्थापितों को बंगाल में ही बसाने की मांग लेकर आंदोलन कर रही थी।
बंगाल के बाहर होम लैंड की मांग पर पुलिन बाबू की ज्योति बसु से सीधा टकराव ही गया।
कोलकाता के केवदतला महाशनशन में पुलिनबाबू आमरण अनशन पर बैठे तो यह टकराव और बढ़ा। उन्हें उनके साठोयों के साथ ओडीशा के कटक के पास महानदी और माया के बीच चरबेटिया कैम्प में भेज दिया गया,जहां से नैनीताल जिले के गहन अरण्य में उन्हें और दूसरे लोगों को 1949 से 1956 तक बिना सरकारी मदद के बाघों का चारा बना दिया गया।
आज भी पीलीभीत जिले के माला फारेस्ट रेंज में बसाए गए पूर्वी बंगाल के लोग बाघ के चारा बने हुए हैं।
यहीं नहीं, बंगाल में ही सभी बंगाली विस्थापितों को बसाने की मांग के आंदोलन के नेता कामरेड ज्योति बसु की सरकार ने 1979 में सुंदरवन इलाके में हमारे लोगों को जो घने जंगल और पहाड़ी पठारी इलाकों में बसाए गए थे लेकिन वहां खेती असम्भव देखकर वाम आमंत्रण पर ही मरीचझांपी में बसना चाहते थे,को सुंदरवन के बाघों का चारा बना दिया।
बहरहाल जयदेव सरकार की धुपगुड़ी से वापसी की आपबीती से याद आया कि 1948-49 के दौरान रानाघट कैम्प से जब दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी के चाय बागानों में पुनर्वास के बहाने विभाजनपीडितों को चाय मजदूर बनाने की तैयारी हो रही थी, तो पुलिनबाबू और उनके साथियों ने इसका डटकर विरोध किया और मांग की कि या तो सबको जमीन दी जाए या शहरों में कारोबार चलाने के लिए बिजनेस पुनर्वास दिया जाय,जैसा कि ओडीशा के हर छोटे बड़े शहरों में दिया गया और राजस्थान के जोधपुर में भी।
पुलिनबाबू और उनके साथी चाय बागान के कुली नहीं बने।लेकिन दूसरे लोहों को बंगाल के चायबागानों और तमिलनाडु के नीलगिरी जिले के कॉफी बगीचों में कुली जरूर बना दिये गए।
हमारे लोग पूर्वी बंगाल में रह नहीं सके। बांग्लादेश में जो रह गए,वे भी रह नहीं सके। देश के हर बंगाली इलाके के अलावा बांग्लादेश में भी अपने लोगों के लिए खाली हाथ लड़े पुलिनबाबू और वीरगति प्राप्त हुए।
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