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Monday, October 31, 2011

सरलता के नाम पर

प्रभु जोशी 
जनसत्ता, 31 अक्तूबर, 2011 : भारत सरकार का गृह मंत्रालय, जिसे अतीत में जाने क्या सोच कर देश में 'राष्ट्रभाषा' के व्यापक प्रचार-प्रसार का जिम्मा सौंपा गया था। पिछले दिनों एकाएक नींद से जागा और उसने देश के साथ आजादी के बाद का सबसे क्रूर मजाक किया कि राजभाषा हिंदी को आम जन की भाषा बनाने का फरमान जारी कर दिया, इसलिए कि उसकी निगाह में वह 'कठिन' और 'अबोधगम्य' है। लगभग आधी सदी से जो शब्द परिचित चले आ रहे थे, पता नहीं किस इलहाम के चलते वे तमाम शब्द अचानक अबोधगम्य और कठिन हो उठे। काफी चतुराई भरा परिपत्र जारी करते हुए, समस्या-समाधान के लिए गालिबन सलाह दी जा रही हो कि हिंदी में 'उर्दू-फारसी-तुर्की' के शब्दों का सहारा लिया जाए और साथ ही आवश्यकता अनुसार अंग्रेजी के शब्दों को भी शामिल किया जाए। अंग्रेजी को सबसे पीछे, उर्दू-फारसी की आड़ में खड़ा कर दिया गया। लेकिन यह साफ दिखाई दे रहा था कि 'खास आदमी' की दृष्टि से 'आम आदमी' के लिए भाषा की छल-योजित 'पुनर्रचना' की जा रही है। इससे उनके भाषा-विवेक की वर्गीय पहचान तो प्रकट होती ही है, यह भी पता चलता है 'वित्त-बुद्धि' की सरकार की सांस्कृतिक-समझ कितनी खोखली है। 
परिपत्र में बताया गया है कि मंत्रालय की केंद्रीय हिंदी समिति की प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में संपन्न बैठक के बाद यह निर्णय किया गया। छोटे परदे की खबरों में कभी भी हिंदी में बोलते नहीं दिखाई देने वाले प्रधानमंत्री की हिंदी बैठक की कल्पना भर की जा सकती है कि वह कैसी होती होगी। बहरहाल, कोई निश्चित प्रतिमान तो नहीं बनाया गया है कि राजभाषा को 'सरल' बनाते समय अंग्रेजी शब्दों का प्रतिशत क्या होगा, लेकिन परिपत्र की दृष्टि में भोजन की जगह लंच, क्षेत्र की जगह एरिया, महाविद्यालय के बजाय कॉलेज, वर्षा-जल के बजाय रेन-वॉटर, नियमित की जगह रेगुलर, श्रेष्ठतम पांच के स्थान पर बेस्ट फाइव, आवेदन की जगह अप्लाई, छात्रों के बजाय स्टूडेंट्स, उच्च शिक्षा के बजाय हायर एजुकेशन आदि का प्रयोग भाषा के सरलीकरण में सहायक होगा। उनका यह भी कहना है कि इससे भाषा में 'प्रवाह' बना रहेगा। आप बखूबी अंदाजा लगा सकते हैं कि यह प्रवाह अंतत: भाषा को किस दिशा में ले जाएगा। परिपत्र में यह 'सत्य' भी उद््घाटित किया गया है कि 'साहित्यिक भाषा के इस्तेमाल से उस भाषा-विशेष की ओर से आम-आदमी का रुझान कम हो जाता है और उसके प्रति मानसिक-विरोध बढ़ता है।' 
हकीकत यह है कि उर्दू-फारसी-तुर्की के शब्दों को शामिल किए जाने की बात तो बहाना भर है, उनका असल मंसूबा सिर्फ अंग्रेजी के शब्दों को शामिल करने का है। परिपत्र में जो अनुकरणीय उदाहरण दिए गए हैं, उनसे साफ है कि वे हिंदी को किस ओर हांकना चाहते हैं। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पाते ही पिछले कई वर्षों से हिंदी अखबारों के महानगरीय संस्करणों में यह रूप चलाया जा रहा है। लेकिन वे इसे साफ-साफ हिंग्लिश नहीं कहना चाहते। जबकि वे हिंदी को हिंग्लिश में बदलने का संकल्प ले चुके हैं और ऐसा करना उनके लिए इसलिए भी जरूरी है कि उनकी यह विवशता है। चूंकि भारत में विदेश से हासिल होने वाली आवारा पूंजी की यह अघोषित शर्त है। यह पूंजी केवल पूंजी की तरह नहीं आती, वह सांस्कृतिक माल के लिए जगह बनाती हुई आती है। अंग्रेजी अखबारों ने इस 'नेक इरादे' को तुरंत पढ़ लिया और उनकी बांछें खिल गर्इं। उन्होंने इस परिपत्र के स्वागत में प्रथम पृष्ठ की खबर बनाते हुए कहा कि सरकार ने देर आयद दुरुस्त आयद की तरह खुद को 'अमेंड' किया और आखिरकार देश के विकास के पक्ष में हिंग्लिश के लिए रास्ता खोल दिया है।
बहुराष्ट्रीय निगमों की सांस्कृतिक अर्थनीति के द्वारा भारत में भूमंडलीकरण के शुरू होते ही लगातार इस बात की वकालत की जाती रही है कि अंग्रेजी किसी भी तरह देश की प्रथम भाषा का वैध स्थान प्राप्त कर ले। इसके लिए उन्होंने विश्व हिंदी सम्मेलन की तर्ज पर उससे भी कहीं ज्यादा धूम-धड़ाके वाला एक आयोजन (जो 'माइका' द्वारा प्रायोजित था) मुंबई में किया, जिसमें गिरहबान पकड़ कर भारतीयों को बताया जाता रहा कि भारत का भविष्य हिंदी में नहीं, हिंग्लिश में है। और इससे नाक-भौं सिकोड़ने की जरूरत नहीं, क्योंकि इसमें भी शेक्सपियर पैदा हो जाएगा, और तीस वर्षों बाद यह दुनिया की सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा होगी।
कौन नहीं जानता कि अपनी संख्या के कारण, भारतीय जो भी भाषा बोलेंगे वह दुनिया की सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा कहलाएगी ही। दूसरी बात अंग्रेजी दूसरा शेक्सपियर पैदा नहीं कर पाई, फिर हिंग्लिश कैसे पैदा कर देगी? फिर, एक दूसरा शेक्सपियर भारत में पैदा हो जाएगा, क्या इस कपोल-कल्पना में उस भाषा को मार दें, जिसने वह यात्रा मात्र चौसठ वर्षों में पूरी कर ली जिसे पूरी करने में अंग्रेजों को पांच सौ वर्ष लगे?
बहरहाल, पेंगुइन प्रकाशन ने इस पूरे प्रायोजित अभियान पर केंद्रित लगभग दो सौ पृष्ठों की एक पुस्तक भी छापी है, ताकि भारत के उन काले अंग्रेजों को तर्कों के वे तमाम धारदार अस्त्र मिल जाएं, जिनका वे जरूरत पड़ने पर अचूक इस्तेमाल जहां-तहां बहस-मुबाहिसों में कर सकें, क्योंकि निश्चय ही देर-सबेर गोबरपट््टी के लद्धड़ लोग एक दिन राष्ट्रभाषा के नाम पर एकजुट होकर हो-हल्ला मचाएंगे। तब सार्वजनिक मंचों और छोटे परदे पर भाषा को लेकर होने वाली मुठभेड़ों में ये तर्क ही उन्हें इमदाद का काम करेंगे। 
दूसरी ओर हिंदी के सामान्य से अखबारों ने भी आमतौर पर और उन अखबारों ने, जिन्होंने प्रत्यक्ष   विदेशी निवेश पर अपना साम्राज्य


खड़ा किया है, छिपाए न छिपने वाली खुशी के साथ परिपत्र की अगवानी की। बड़े-बडेÞ संपादकीय के साथ उन्होंने अपने पाठकों को बताया कि जो काम इस सरकार ने कर दिखाया, वह उसकी शक्तिशाली राजनीतिक इच्छा का प्रमाण है। यह एक बहुप्रतीक्षित और अनिवार्य कदम था। हालांकि उन्होंने इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा कि उनकी टिप्पणी में भूले से भी कहीं 'हिंग्लिश' शब्द न आ जाए।
लेकिन भाषा की ऐतिहासिक-सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक भूमिका के परिप्रेक्ष्य को गहराई से समझने वाले लोग मानते हैं कि तीन सौ वर्षों की गुलामी के दौर में भारतीय भाषाओं का जितना नुकसान अंग्रेजों ने नहीं किया, उससे ज्यादा नुकसान गृह मंत्रालय इस परिपत्र के जरिए करने वाला है। क्योंकि वे जानते हैं कि यह हिंदी ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं को भी जल्द विघटित कर देगा। ये भाषाएं संविधान की आठवीं अनुसूची वाली भाषाएं हैं। वहां भी यह फरमान तमिल को 'तमलिश' बांग्ला को 'बांग्लिश' बनाने का काम करेगा। वैसे इन भाषाओं के अखबार भी यह काम शुरू कर चुके हैं। यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि दक्षिण की भाषाएं वैकल्पिक शब्दावली की तलाश में उर्दू-फारसी-तुर्की की तरफ नहीं जातीं, चूंकि वे अपना रक्त-संबंध संस्कृत से ही बनाती आई हैं। लेकिन इनके बोलने वालों के भीतर छिपे अंग्रेजी के दलाल यह दलील देंगे कि जब भारत सरकार ़द्वारा हिंदी को हिंग्लिश बनाया जा रहा है, तब तमिल को तमिलिश बनाने का रास्ता अविलंब खोल दिया जाना चाहिए, ताकि उसका भी आम आदमी के हित में 'सरलीकरण' हो सके। 
कुल मिला कर, इस महाद्वीप की सारी भाषाओं के निर्विघ्न विसर्जन का हथियार सिद्ध होगा यह परिपत्र। प्रकारांतर से यह उसी औपनिवेशिक विचार को मूर्त्त रूप देना है, जिसमें यह माना गया कि भाषा-बहुलता मानवता पर दंड है। अत: सभी भाषाएं खत्म हों और केवल एक पवित्र अंग्रेजी भाषा बची रहे। हिंदुस्तान अपनी भाषा-बहुलता के कारण वैसे ही पाप की काफी बड़ी गठरी अपने सिर पर उठाए चला आ रहा है! भाषा संबंधी ऐसी 'पवित्र वैचारिकी' भारत सरकार के गृह मंत्रालय के प्रति स्वयं को निश्चय ही बहुत कृतज्ञ अनुभव कर रही होगी। 
हिंदी की भलाई का मुखौटा लगा कर सत्ता में बैठे ये लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि भाषाएं कैसे मरती हैं और उन्हें किसके फायदे के लिए मारा जाता है। बीसवीं सदी में अफ्रीका की तमाम भाषाओं का खात्मा करके उनकी जगह अंग्रेजी को स्थापित करने की रणनीति क्या थी यह इनको बखूबी पता है। वही कुचाल उन्होंने यहां भी चली है। 
जी  हां, वह रणनीति थी 'स्ट्रेटजी आॅफ लैंग्विज-शिफ्ट'। इसके तहत सबसे पहले चरण में शुरू किया जाए-'डिस्लोकेशन आॅफ वक्युब्लरि'। अर्थात स्थानीय भाषा के प्रचलित शब्दों को अंग्रेजी के शब्दों से विस्थापित किया जाए। यह विस्थापन शांतिपूर्ण हो। वरना उस भाषा के लोगों में विरोध पनप सकता है। धीरे-धीरे अंग्रेजी के शब्दों से विस्थापन करते हुए, इसका प्रतिशत सत्तर और तीस का कर दिया जाए। यानी सत्तर प्रतिशत शब्द अंग्रेजी के हो जाएं और तीस प्रतिशत स्थानीय भाषा के रह जाएं। एक सावधानी यह भी रखी जाए कि इसके लिए एक ही पीढ़ी को अपने एजेंडे का हिस्सा बनाएं। जब उस समाज की परंपरागत-सांस्कृतिक शब्दावली, जिससे उसकी भावना जुड़ी हो, अपदस्थ करने पर अगर उस समाज में इसकेप्रति कोई प्रतिरोध न उठे तो मान लीजिए कि वे इस भाषागत बदलाव के लिए तैयार हैं। इसके बाद वे स्वेच्छा से अपनी भाषाएं छोड़ देंगे। 
बस इसी निर्णायक समय में उसकी मूल लिपि को हटा कर उसकी जगह रोमन लिपि कर दीजिए। यानी भाषा की अंतिम  कपाल क्रिया। इन दिनों विज्ञापन व्यवसाय, मीडिया और इसी के साथ उन समाजों और राष्ट्रों की सरकारों पर विश्व व्यापार संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसे वित्तीय संस्थान यह दबाव डालते हैं कि अंगेजी भाषा के प्रसार में सरकारी संगठनों की भूमिका बढ़ाई जाए। इनके साथ हमारा प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया गठजोड़ करता हुआ यह बताता भी आ रहा है कि देवनागरी छोड़ कर रोमन लिपि अपना ली जाए। 
अंग्रेज शुरू से भारतीय भाषाओं को पूर्ण भाषा न मान कर 'वर्नाकुलर' कहा करते थे। फिर, हिंदी को तब खड़ी बोली ही कहा जा रहा था। लेकिन एक गुजराती-भाषी- मोहनदास करमचंद गांधी- ने इसे अंग्रेजी हुकूमत के प्रतिरोध की सबसे शक्तिशाली भाषा बना दिया और नतीजतन एक जन-इच्छा पैदा हो गई कि इसे हम 'राष्ट्रभाषा' बनाएं। लेकिन औपनिवेशिक दासता से दबे दिमागों के कारण यह राष्ट्रभाषा के बजाय केवल 'राजभाषा' बन कर रह गई।
हममें राजभाषा अधिकारियों की भर्त्सना करने की पुरानी आदत है, जबकि हकीकत में वे सरकारी केंद्रीय कार्यालयों के सर्वाधिक लाचार कारिंदे होते हैं। उन्हें ज्यादातर दफ्तरों में जनसंपर्क के काम में लगाए रखा जाता है। कार्यालय प्रमुख की कुर्सी पर बैठा अफसर राजभाषा अधिकारी को सिर्फ हिंदी पखवाड़े में पूछता है और उसे संसदीय राजभाषा समिति- जो दशकों से खानापूर्ति के काम आती रही है- के सामने बलि का बकरा बना दिया जाता है। यह परिपत्र भी उन्हीं के सिर पर ठीकरा फोड़ते हुए बता रहा है कि हिंदी के जो शब्द कठिन हैं इनकी ही अकर्मण्यता के कारण हैं। जबकि इतने वर्षों में पारिभाषिक शब्दावली का मानकीकरण खुद सरकार द्वारा नहीं किया गया। हर बार बजट का रोना रोया जाता रहा। कैसी विडंबना है कि भारत सरकार एक अरब बीस करोड़ लोगों को अंग्रेजी सिखाने की महा-खर्चीली योजना का   संकल्प लेती है, लेकिन साठ सालों में वह देश को मुश्किल से हिंदी के हजार-डेढ़ हजार शब्द नहीं सिखा पाई। और उन्हें सरल बनाने के नाम पर वह अंग्रेजी के सामने आत्मसमर्पण कर रही है।

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