जीते हुए नेता नहीं करते बहुसंख्य का प्रतिनिधित्व
- SATURDAY, 31 MARCH 2012 21:27
जो जनता के बहुसंख्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता वह नेता चुन लिया जाता है. उसे जन पर हुकूमत का अधिकार मिल जाता है और वह् निश्चित समय अवधि तक तानाशाही करता है. वापस बुलाने का अधिकार है नहीं...
संजय स्वदेश
टीम अन्ना और संसद में जुबानी जंग अब नई नहीं रही. संसद अपनी सर्वोच्चता को लेकर टीम अन्ना के आंदोलन की मांगों को दरकिनार कर रही है तो टीम अन्ना जनता को सर्वोच्च बता उनकी बादशाहत को ठोकर मार रही है. स्कूली पाठ्यक्रम में नागरिक शिक्षा में ही लोकतंत्र का परिचय कराया जाता है. परिभाषा बताई जाती है. लोकतंत्र- जनता की सरकार, जनता के लिए जनता के द्वारा चुनी जाती है. कुल मिलाकर जनता अपने ऊपर शासन स्वयं करती है.
फिर तो देश में जनता सर्वोच्च हुई. लेकिन देश में बहुसंख्य जनता को दरकिनार कर दिया जाता है. जनता ने जब अपने ऊपर अपने शासन के लिए जनप्रतिनिधियों को अधिकार दे दिया तो उन्होंने खुद को सर्वोच्च मान लिया.
जितनी समय अवधि के लिए चुना गया, उसके लिए जनता के प्रतिनिधि कहीं से भी अपने आप को आम नहीं मानते हैं. आम के प्रतिनिधि होकर वे खास बादशाह की तरह व्यवहार करते हैं. ऐसा तब तक होता रहेगा, जब तक जनप्रतिनिधि चुनाव में हारने वाले ढेरों उम्मीदवारों के पीछे खड़ी कुल बहुसंख्यक जनता को सम्मान न मिले.
जीत का ताज पहनने वाले प्रतिनिधि बहुसंख्यक का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं. इसे असानी से समझने के लिए एक उदाहरण है- एक चुनाव क्षेत्र में मान लें कि साठ प्रतिशत मतदान हुआ. मतलब चालीस प्रतिशत जनता तो पहले ही चुनावी मैदान में खड़े उम्मीदवारों के पक्ष में नहीं है. बाकी बची साठ प्रतिशत जनता तो वह चुनावी मैदान में खड़े तमाम उम्मीदवारों में बंट जाती है. जिन्हें सबसे ज्यादा मत मिला वे जीते. उनकी जीत निकटतम प्रतिद्वंदी से हुई. यदि हारने वाले सभी उम्मीदवारों को वोट मिला दिया जाए तो वह जितने वाले उम्मीदवार को प्राप्त कुल मतों की से अधिक होगी.
मतलब जो बहुसंख्यक जनता की पसंद नहीं है, वह प्रतिनिधि चुन लिया गया. उसे जन पर हुकूमत का अधिकार मिल गया. अब निश्चित समय अवधि तक उसकी ही तानाशाही चलेगी. वापस बुलाने का अधिकार है नहीं. यदि यह अधिकार मिल भी गया तो हारे हुए प्रतिनिधि जीते हुए को फिर से शिकस्त देने के लिए तिकड़म लगाते रहेंगे. लिहाजा, उपाय क्या है. एक सुझाव है. सुझाव की सफलता के लिए एक उदाहरण देंखे.
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में अन्य कॉलेज की तरह छात्रसंघ चुनाव होता है. लेकिन यहां की कार्यप्रणाली सभी कॉलेज के छात्र संघों से अलग है. अध्यक्ष पद के लिए जो भी छात्र जीतता है, उसे प्रधानमंत्री कहा जाता है और हारने वाले निकटम प्रतिद्वंदी को नेता प्रतिपक्ष का सम्मान मिलता है. ठीक देश की संसदीय प्रणाली की तरह. छात्रसंघ का जो बजट और कार्य होता है, उसे छात्रसभा में बहस के बाद मंजूरी मिलती है. इसमें नेता प्रतिपक्ष की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है.
इस बहस में प्रस्तावों पर नेता प्रतिपक्ष के विचारों के अनुसार आवश्यक संशोधन भी हो जाते हैं. मतलब हारने वाले निकटतम प्रतिद्वंद्वी के पक्ष में मतदान करने वाले छात्रों का मत भी व्यर्थ नहीं जाता है. उसके पीछे खड़े छात्रों की बात भी सुनी जाती है. लेकिन वहीं जन प्रतिनिधियों के चयन के मामले में स्थिति बिलकुल ही उलट है. यहां हारने वाले निकटतम प्रतिनिधियों का कोई महत्व नहीं है. भले ही वह लाखों वोट पा कर दो-चार मत से ही क्यों न पिछड़ गया हो. कुछ वोटों से जीतने वाला उसका बादशाह बन जाता है.
कहने के लिए तो चुना हुआ प्रतिनिधि पूरी जनता का प्रतिनिधि हो जाता है, लेकिन तार्किक रूप से देंखे तो वह अल्पसंख्यक जनता का ही प्रतिनिधि होता है. अब अल्पसंख्यक जनता के प्रतिनिधि की बातें या विकास कार्य का सुझाव, विकास के लिए जगह का चयन या यूं कहें तो पूरी कार्यप्रणाली में उसकी ही मनमर्जी चलती है. बाकी जनता की भावना को कोई पूछने वाला नहीं है. विरोध करने वाले विरोध करते रहे, जीत से मिली पद के मद में चुर अपेक्षित जनता की सुध लेने जरूरत नहीं समझी जाती है.
क्या हिंदू कॉलेज के छात्र संघ कार्यप्रणाली की नकल अथवा संसदीय कार्यप्रणाली का तर्ज चुनावी क्षेत्र में लागू नहीं किया जा सकता है? कम से कम हारे हुए निकटतम प्रतिद्वंदी को किसी न किसी रूप में महत्व देकर जनता की गरीमा बढ़ाई जा सकती है. क्षेत्र में विकास के प्रस्ताविक कार्यों में हारे हुए प्रतिनिधि से भी अनिवार्य सुझाव व समहति लेने से लोकतंत्र का गौरव नहीं घेटेगा.
संजय स्वदेश रायपुर में पत्रकार हैं और समाचार विस्फोट के संपादक हैं.
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