Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Tuesday, June 23, 2015

जो जैसे हांक लें,चूकि हम हुए ढोर डंगर,नागरिक नहीं पलाश विश्वास


जो जैसे हांक लें,चूकि हम हुए ढोर डंगर,नागरिक नहीं
पलाश विश्वास
मेरी महजबीं,माफ करना कि पहली सी मुहब्बत नहीं है।
न दिल में,न दिमाग में।
न वो जुनून है।
न मजनूं बनकर फिरने का जिगर है और न फरहाद हैं हम और न रांझा।
मुहब्बत के लिए कोई जंग नहीं लड़ सकें हम।
मुहब्बत में हर जंग जायज और फिरभी न लड़ सकें हम।
बिना मुहब्बत बिता दी जिंदगी।
अब खाक मुसलमां होंगे तोबा खाक हिंदू होंगे।
हालांकि दस्तूर घर वापसी का है।

घरवापसी तो ढोर डंगरों की हुआ करती थी कभी।
ङिंदुस्तान की सरजमीं पर पालतू पशु सिर्फ पवित्र गोमाता नहीं है।
खेत खलिहान के लिए कायनात से हासिल मुकम्मल जीव जगत की महती भूमिका रही है और हमारे गांवों में,हमारे परिवारों में वे भी कम खास न थे।

कहां हैं वे घर लौटती गाय बैल भैंस बकरियों की दौड़तीं हुई टोलियां अब हमारे स्मार्ट बनते दीख्खे गांवों में,जिनमें झोपड़ियां अगर अब भी बदतमीजी की तरह हैं,तो ढोर डंगर की तरह वे भी खत्म कर दी जायेंगी।

माफ कीजिये हुजुरान,मेहरबान।
हमारा बचपन इन्हीं ढोर डंगरों के बीच बीता है।
हमारी भाषा मातृभाषा जरुर है लेकिन हमारे संवाद इन्हीं ढोर डंगरों की सोहबत से बने हैं।हम बचपन से ध्वनियोंसे बनती भाषा के मुरीद हैं और वैदिकी भाषाशास्त्र से हमारा कभी कोई नाता नहीं रहा है।

हमारा सारा संवाद पहले पहल इन्हीं ढोर डंगरों को संबोधित है।

फिर शायद लौटना होगा गांव।हिंदू जनमजात हूं लेकिन बजरंगी हूं नहीं।
शायद पूंछ भी न हो।
हो न हो,बंदरों का योगाभ्यास तो सधने से रहा।
हमें कभी मालूम न हुआ कि बिना इबादत,बिना सजदा हम कितने हिंदू हैं और कितने हिंदू नहीं हैं।
नहीं मालूम कि हम कितने घर के अंदर हैं और कितने घर के बाहर।
जाति के खोल से न जाने कब बाहर निकल चुका और पेशेवर जिंदगी में जाति पहचान की जरुरत हुई नहीं कहीं हालांकि दुनिया जाति बिन पूछे जाति को ही हमारी पहचान बना दी है।

कोलकाता में औपनिवेशिक समय से यूपी बिहार के सामंती दुश्चक्र और निर्मम जात पांत से पलायन मध्ये यूपी बिहार के जो अछूत लोगों का किस्सा है,उससे हम अलग नहीं है क्योंकि उत्तर आधुनिक भारतीयमुक्त बाजार के देहात में सामंती तामझाम और जाति का गणित अब भी उतना ही जटिल हैं और गोत्र का खेल खूनी है,जिस वजह से मूंछें उगने से पहले और बाद जिस जिसके लिए धड़कता रहा है दिल,उस उससे कभी न कह सका कि आप कितने हसीन हैं।
मुहब्बत है,कह पाना तो चांद तक सीढ़ियां लगाने से मुश्किल रहा है।
वरना हम भी रसगुल्ला छोड़ मधुमेह के मरीज न होते।

मजहब और जाति से अलहदा रह पाने की भी उत्पादन प्रणाली की खास स्थितियां हैं।
उत्पादन प्रणाली के बीतर उत्पादकों के निजी उत्पादन संबंधों के जरिये ही जाति और धर्म के आर पार वर्गचेतना बनती है।

मसलन बालीवूड में शुरु से ही जाति और मजहब को हाशिये पर रखकर शादी व्याह,रोटी बेटी के ताल्लुकात बनते रहे हैं और कौन किसके साथ लिव इन कर रहा है,समाज उसपर अंकुश लगा नहीं सकता।
न्यूक्लियस परिवारों के बहुमंजिली सीमेंट के जंगल में भी समाज किसी की आजादी छीन नहीं सकता।

लेकिन गांव लौटते ही फिर वहीं जाति और धर्म सबसे अहम।
फिरभी मजा यह रहा है कि जाति व्यवस्था के शिंकजे में घनगोर अंध आस्था के माहौल में भी भारतीय देहात में धर्मोन्माद उसतरह नहीं फैला ,जैसा पढ़े लिखे तबकों की उत्पादन प्रणाली में खास और खासमखास हैसियत के नगरों,उपनगरों और महानगरों में।

सरल अंकगणित के हिसाब से जिन्हें कायदे से जात पांत और मजहब के झगड़े से रिहा समझा जाना चाहिए।लेकिन दंगों के सारे रिएक्टर वहीं से रेडियोएक्टिव वाइरल फैला रहे हैं देश दुनिया में।

अब तक बचे हुए हम देहात में कैसे गुजारा कर पायेंगे ,सरदर्द फिलहाल यही है।

बात हमने शुरु की थी ढोर डंगरों की।
बात हमने शुरु की थी खेतों और खलिहानों से।
नोट करने वाली बात यह है कि भारतीय कृषि आजीविकाएं न सिर्फ प्रकृति के नियमों से चली करती रही हैं,बल्कि वे जीव जगत के जीवन चक्र से बंधी हैं।

अब देहात में गोबर भी खरीदना पड़ता है।
दूध दही घी मक्खन मलाई मट्टा न जाने कबसे लोग खरीद रहे हैं।
वे चीजें गावों से गायब हैं।

हरित क्रांति ने खेती के तौर तरीके बदले तो रसायन,उर्वरक,बिजली और मशीनें गांवों में दाखिल होने लगीं और ढोर डंगरों का सफाया हो गया।

साठ सत्तर के दशक में हम किसानों के बच्चों के लिए सबसे अनिवार्य पाठ था ढोर डंगरों की सेहत,उनके मनमिजाज और उनकी भाषाओं का पाठ।

पढ़ाई हो ,न हो,सुबह शाम ढोर डंगरों से जुते रहना बच्चों की दिनचर्या थी और खेती उनके बीच नहीं हो सकती थी।

तभी गोवध निषेध आंदोलन से कांप रही थी राजधानियां।
हमारे बड़े जीजाजी क्षीरोद मंडल और उनके मित्र विवेकदादा दोनों सरस्वती शिशु मंदिर के गुरुजी रहे हैं लंबे समय तक।
सरस्वती वंदना से लेकर गोवध निषेध आंदोलन में उनकी सक्रियता तब अनिवार्य थी।

उसी जमाने में सरस्वती शिसशु मंदिर से सबसे बेहतरीन छात्र के तौर पर हमारे हीरो रहे हैं रुद्रपुर के कस्तूरी लाल तागरा।जो कभी संघ परिवार के लिए आंख का तारा रहे हैं।

कश्तूरी भाई तो सचमुच जहीन निकले और संघ परिवार के शिकंजे से बाहर निकल आये।गनीमत है कि हमारे जीजाजी और उनके मित्र भी सरस्वती वंदना तंत्र से बाहर हैं।

इसी तरह राजेश जोशी बीबीसी और कपिलेश भोज के साथ हमारे साझा दोस्त कवि मदन पांडे भी कभी संघ परिवार के सरस्वती शिशु मंदिर के गुरुजी थे।

वे लिखते पढ़ते हैं।केशरिया रंग का उनपर कभी असर हुआ ही नहीं है।

इनमें से अनेक ,जिनमें हमारे जीजाजी भी रहे हैं,गोवध निषेध आंदोलन में राजपथ पर आंसूगैस और लाठियां भी खा चुके हैंं।

भैंसों,बैलों और बकरियों से बी समान प्यार करने वाले देहात के लोगों पर लेकिन बनिया पार्टी के स्वयंसेवकों का असर कभी नहीं रहा है और न वे गोवध निषेध के लिए सड़कों पर कभी उतरे।

मुझे हरित क्रांति और कृषि संकट की इस धर्मोन्मादी तंत्र मंत्र यंत्र की मुक्त बाजार अरथव्यवस्था के ताने बाने से इसीलिए गहरा नाता समझ में आता है कि जो लोग अंध आस्था और सामंती समाज के बावजूद गोमाता को बचाने कभी संघियों के झांसे में नहीं आये।पण देहात से ढोर डंगरों के सफाये के बाद,गोशाला के गैराज में तब्दील हो जाने के बाद उन्हींके वंशज रामरथ यात्रा शुरु होते न होते यक ब यक घनघोर कारसेवक बजरंगी बन गये।

हमारे बचपन में जो गउ किसम के दोस्त रहे हैं या स्कूलों में सहपाठी,वे अब बजरंगी ब्रिगेड के सिपाहसालार बन गये हैं।

इसीतरह पहाड़ों का कायकल्प भी हो गया।
जिस प्रकृति को हम जनमजात बंधु महबूब जानते हैं,वह इन दिनों कहर बरपा रही है।

जिस मानसून की पीठ पर हम नैनीताल के चीना पिक लरिया कांटा टिफिन टाप और यहां तक कि स्नो ब्यू में और कुमांयू गढ़वाल के तमाम शिऱखरों पर भैंस की सवारी गांठते थे और कभी न घबड़ाते थे मूसलाधार से,वही मानसून अब बवाल है।

तराई में हम हफ्ते दस दिन लगातार मूसलाधार देखते रहे हैं और तब भी पहाड़ों की नदियां अनबंधी थीं और बाढ़ें घर तक चली आती थीं।

तब भी जंगल थे और बाघ भालुओं के दर्सन होते रहते थे।तब भी हमारी गोशालाओं में गाये भैंसे थीं और बकरियों के लिए अलग इंतजाम था।

अब पहाड़ों में कोई नदी अनबंधी नही हैं।
सीढ़ीदार खेतों में,बुग्यालों में सीमेंट के जंगल हैं और काट दिये गये हैं सारे के सारे जंगल चिपको के प्रबल पर्ताप के बावजूदो।

थोकदार, पटवारी और पुजारी और गोल्लज्यू जैसे ग्राम देवता से लेकर लाखों लाख देवदेवियों के अखंड देवभूमि में अब प्रोमोटरों,बिल्डरों और माफिया का राज है पहाडों से लेकर तराई भाबर तक,तराई भाबर से मैदानों तक और राजधानियों तक।

बाकायदा त्रिकोणमिति के समीकरणों के संतुलन की तरह कयामतों और आपदाओं के हिस्सेदार पट्टीदार गोतदार भी हम हो गये।

जैसे मैदानों में भूमि उपयोग बदल गया है।वैसे ही पहाड़ों में भी भूमि उपयोग अब वाणिज्यिक है।

जैसे मैदानों में ढोर डंगर हैइच नको,वैसन ही पहाड़ों में भी लालतू पशु विदेशी कुत्ते हैं।

अब गोमाता सर्वोच्च देवी हो गइलन बाड़ा।बूझै कि नाहीं।

बूझलो तनिको जो भी बुरबक बनेला के राजधानी सिर्फ मुहम्मद तुगलक ने नहीं बदली।

महाजिन्न की राजधानी भी बदल गयी है देश की अर्थव्यवस्था की तरह जहां भूमि सिर्फ शहरीकरण और औद्योगीकरण के लिए है।

जंगल सिर्फ विस्तापन और सलवाजुड़ुम के लिए है और सारे समुद्रतट परामाणु ऊर्जा के नाम तो सारी नदियां या तो बिक गयीं या फिर बंध गयी।

पूरा देश अब डूब है और किसान सारे के सारे थोक दर पर रोजाना खुदकशी कर रहे हैं।

भला हो उस हरित क्रांति का जिसने गोमाता को सर्वोच्च देवी बनाकर हमारे ढोर डंगरों का सफाया कर दिया।
वरना घर वापसी की हालत में ढोर डंगर अब भी होते तो हम पानी कहां उन्हें पिलाते।
तालाब पोखर और कुंएं तक नहीं हैं कहीं।
झीलों पर उपनगर बसे हैं।
फिर हम चारा कहां से लाइबे करते हो।

अभी शाम को आंके लगीं तो गजबो एक सपना देखा भौत दिनों के बाद क्योंकि महानगरों में सपने देखने का रिवाजो नहीं है।

हमने देखा कि रेस के किसी अव्वल घोड़े पर सवार कहीं हम गये ठहरे किसी कार्यक्रम में,जहां सुंदर कन्याओं की दाढ़ियां भी हैं और तमामो आइकन शूटिंग छोड़े बबइठल बा।

गपशप मस्ती खूबै हुई गयो जैसे कि आजकल शिमला और जयपुर में हुइबे करै हैं।तेज बत्तीवाला कटकटला अंधियारे का महाजिन्न की मंकी बातें भी हुई गयो और योग का कामो तमाम।

तबही ख्याल हुई गया कि अबहुं नौकरी मा बाड़न।दफ्तर वखत पर न पहुंचबे तो लेट मारक हुई जाई।

एक तो कटकटेला अंधियारा और बिन बेचे उ ससुर घोड़ा गायब।
न कोई बत्ती और न धारदार तलवार कोई।

कटकटेला अंधियारा और सविता बाबू के संगीत से नींद टूट गयी तो ख्वाबों का हिसाब किताबो खत्म।

চল বান্দর হই !!
Sardendu Uddipan writes a excellent piece,let us be MONKEY!
 মানুষের বিবর্তনের ইতিহাসকে একটি ফিউশনের উপর দাঁড় করাতে চায়? ঢপের চপের একটা পরিধিতো থাকা উচিৎ, যে পর্যন্ত সে ফুলতে পারে?
তার পর হয় ফটাস-ফুট
না হয় পুড়ে ছাই!
বিশ্বের বাজারে এই চপ বিক্রি করার বয়সতো কম হল না!
আর এই চপের ব্যবসায় যে মুনাফা নেই তা তো ভারতের হালহকিকত দেখলেই বোঝা যায়।
বিশ্বমানের কোন উৎপাদন নেই যা দিয়ে দেশ চালানো যায়।
প্রতিটি ভারতবাসীর মাথায় ঋণের বোঝা।
৩ জন মানুষের ১ জন অপুষ্টির শিকার।
প্রতিদিন ৬০০০ শিশুর মৃত্যু।
১০০ জন মানুষের মধ্যে ১০-১৫জন ভিখারি
(বর্ধমানের কালনা-১ এবং কালনা-২ ব্লকের একটি সমীক্ষা থেকে পাওয়া)
৬০% উপর মায়েরা এনিমিয়ার শিকার।
লাগাতার কৃষকের মৃত্যু।
ঘরে ঘরে বেকার।
চারিদিকে মানুষের নিধন যজ্ঞ।
পঞ্চভূতের সবটাই এখন কোম্পানির হাতে।
কর্পোরেটদের হাতে মানুষের জিয়ন কাঠি।
তারাই হর্তা-কর্তা-বিধাতা।
আসলে ঢপ আর চপ এই দুইয়ের পারম্পরিক যোগাভ্যাসে সংখ্যাগরিষ্ঠ মানুষকে যে ইতর প্রাণীতে পরিণত করা যায় তা যোগ অযোগের ধর্মগুরু, চলাচামুন্ডা এবং তাদের বশংবদ নেতা-গোতা, মন্ত্রী-সন্ত্রীরা বুঝে নিয়েছেন। এরা বুঝে নিয়েছেন যে ভারতের সংখ্যা গরিষ্ঠ মানুষ এখনো ঢপের চপের নেশায় বুদ হয়ে আছে। বিজ্ঞান যুক্তিবাদ এখনো ভারতের মানুষকে সেভাবে সজাগ করতে পারেনি। ভারতের অধিকাংশ মানুষ এখনো আত্মা-পরমাত্মা-প্রেতাত্মা, ইহলোক-পরলোক, স্বর্গ-নরক, দেব-দেবী, মন্ত্র-তন্ত্রের উপর ভরসা রাখে।
সুতরাং ঢপ যোগাভ্যাসের জন্য কোটি কোটি টাকা খরচ কর।
যোগাভ্যাসের সাথে বর্ণাশ্রম, অন্ধবিশ্বাস ও স্বর্গীয় আবেগ জারিত কর।
বিশ্বের বাজারে এই পাচন বিক্রি না হলেও দেশের মানুষ তা গিলবে।
আর দেশের মানুষকে গেলাতে পারলেই তাদের মস্তিষ্কের মধ্যে "ঢপতন্ত্র" দীরঘস্থায়ী হবে।
দীর্ঘস্থায়ী হবে ফিউশন।
চল বান্দর হই।
মানবিক ভাগিদারী ছেড়ে যোগ শিবিরে জাহির করি "মুই কী হনু" !

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors