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Tuesday, June 16, 2015

’रघुवंशिन कर सहज सुभाऊ मन कुपंथ पग धरे न काहू।’ तात्पर्य यह कि रघुवंशियों पर इस मामले में कोई ’क्लाॅज’ लागू नहीं होगा।

'रघुवंशिन कर सहज सुभाऊ मन कुपंथ पग धरे न काहू।' तात्पर्य यह कि रघुवंशियों पर इस मामले में कोई 'क्लाॅज' लागू नहीं होगा।
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आज के संवैधानिकों और नियामकों की तरह हमारे पूर्वज भी समर्थों के लिए छेद छोड़ना नहीं भूले हैं। केवल आपात्कालीन धर्म का अनुच्छेद रख देने में तो उनका अपना कोई हित साधित होना था नहीं, इसलिए इतने उपखंड जोड़ते चले गये कि सम्पन्न यजमान को दोषमुक्त होने के तमाम अवसर मिलने लगें और इस बहाने उनकी भी चाँदी होती रहे। इतने ब्राह्मणों को इतने दिन भोजन कराने से यह दोष दूर हो जाएगा। इसके बदले इतनी भारी सोने की आकृति प्रदान करने से जीव¬हत्या के दोष से मुक्ति मिलेगी। बेचारी गाय वैदिक काल में विनिमय का माध्यम क्या रही, उसका दान तो दोष¬मार्जन का ही नहीं सामान्य कर्मकांड का भी प्रमुख अंग बन गया। रही¬सही कसर ब्रह्म¬भोज और पंचो की राय ने पूरी कर दी। एक उपखंड और जोड़ दिया गया जिस पर बस न चले, उस पर कोई नियम लागू नहीं होता। कुत्ता रसोई में घुस जाय तो रसोई अपवित्र हो जाएगी, पर बिल्ली के घुसने से नहीं। कारण, कुत्ता बाहर ही डोलता रहता है, पर बिल्ली, पता नहीं कब, कहाँ से कूद जाय। यही नहीं, यदि मेमना रसोई में घुस जाय तो रसोई अपवित्र हो जाएगी। यदि उसे वहीं पर मार दिया जाय तो उसे भोज्य पदार्थ मान लिया जाएगा और रसोई अपवित्र नहीं मानी जाएगी।

विधान में यहीं तक संशोधन होता तो कोई बात नहीं थी, पर वहाँ तो समर्थों की पूरी की पूरी बिरादरी को छूट दे दी गयी। 'रघुवंशिन कर सहज सुभाऊ मन कुपंथ पग धरे न काहू।' तात्पर्य यह कि रघुवंशियों पर इस मामले में कोई 'क्लाॅज' लागू नहीं होगा। दुष्यन्त महाराज का मन शकुन्तला पर आ गया। ऋषि कन्या थी। पिताश्री भी घर पर नहीं थे। लगा कि ऐसी अवस्था में शकुन्तला पर डोरे डालना उचित होगा क्या? फट से ब्राह्मण बोला - सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाण अन्तःकरण प्रवृत्तयः अर्थात जिस आचरण में संदेह हो उसमें सज्जन व्यक्ति को अपने अन्तःकरण की प्रवृत्ति को ही प्रमाण मानना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि समर्थों को संदेह का लाभ दिया जा सकता है। बस समर्थ हो तो दे दो स्वयं को सज्जन होने का प्रमाणपत्र और करो मनमानी।

सज्जन का अर्थ प्रभुत्व सम्पन्न हो गया। दूसरे शब्दों में क्रय शक्ति। धनबलेन बाहुबलेन च। नियम क्या कर लेगा। क्रय शक्ति नहीं है तो दस बार - समरथ को नहि दोष गुसाईं। रवि पावक सुरसरि की नाहीं का जप करो और मैंने कुछ नहीं देखा कह कर अपने खोल में सिर छुपा लो। फिर चाहे वे जेल में डाल दें या एनकाउंटर करवा दें। क्यों कि उनकी धारणा ही प्रमाण है।

शास्त्रकारों ने सामान्य जनता को भी अवगत करा दिया कि भगवान के पास उनके लिए समय नहीं है। वे गाय और ब्राह्मणों के मामलों में बहुत अधिक व्यस्त हैं। यदि समय मिलेगा तो औरों के बारे में भी सोचेंगे। तब तक प्रतीक्षा कीजिए। 'गोब्राह्मण हिताय के बाद ही जगत् हिताय च' से तो यही ध्वनि निकलती है।

बचपन में भोजन करने के बाद डकार आने पर पिता जी को ही नहीं औरों को भी 'हरिओम् तत्सत' का उच्चारण करते हुए सुनता था। तब मैं तो क्या वे भी इसका अर्थ नहीं जानते थे। डकार के बाद यह वाक्य परंपरा से चला आ रहा था। बस जैसे आम भारतीय मतदान को एक रिवाज की तरह लेता है, उसी प्रकार वे भी इस मंत्र का उच्चारण करते थे। अब समझ में आया यह तो हर डकार के साथ 'यही सच है' कहता है। डकारने का अवसर मिलने पर कोई बिरला ही होगा जिसे अपना ईमान याद आ जाता हो! फिर डकारने के बाद हरिओम् तत्सत कह लेने से डकार भी दोषमुक्त हो जाती है। अब तो पेट इतना बढ़ गया है कि डकार आना भी बन्द हो गया है।


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