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Monday, June 15, 2015

मोदी का मुस्लिम नेताओं से संवाद एक मायाजाल -राम पुनियानी

15 जून 2015

मोदी का मुस्लिम नेताओं से संवाद एक मायाजाल

   -राम पुनियानी

लगभग एक सप्ताह पहले, नरेन्द्र मोदी ने विभिन्न मुस्लिम समूहों के लगभग 30 प्रतिनिधियों से बातचीत की। यद्यपि इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है तथापि कहा जाता है कि मोदी ने इन नेताओं से कहा कि वे उनके लिए हमेशा उपलब्ध हैं। "आप लोग आधी रात को भी मेरा दरवाजा खटखटा सकते हैं", उन्होंने कहा। जो मुस्लिम नेता मोदी से मिले, उनमें से कई आरआरएस के नजदीक हैं और संघ द्वारा स्थापित 'मुस्लिम राष्ट्रीय मंच' से जुड़े हुए हैं। इस बैठक का खूब प्रचार हुआ परन्तु यह मोदी की अल्पसंख्यक समुदाय के नेताओं के साथ पहली मुलाकात नहीं थी। सवाल यह है कि यह संवाद केवल एक दिखावा था या मुस्लिम समुदाय की समस्याओं को सुलझाने का संजीदा प्रयास। क्या मोदी के शब्दों को गंभीरता से लिया जा सकता है? क्या वे सचमुच देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय की बेहतरी के बारे में चिंतित हैं? क्या वे देश की बहुवादी संस्कृति की रक्षा करना चाहते हैं? मुस्लिम समुदाय में भी कई ऐसे नेता हैं जो पुराने अनुभवों को भुला कर एक नयी शुरुआत, एक नया संवाद शुरू करना चाहते हैं। क्या यह संभव है?

मोदी, आरएसएस के प्रशिक्षित प्रचारक हैं, जिन्हें डेप्युटेशन पर भाजपा में भेजा गया है। उनकी विचारधारा क्या है, वे यह कई बार साफ कर चुके हैं। लोकसभा के 2014 चुनाव के प्रचार के दौरान उन्होंने कहा था कि वे जन्म से हिन्दू हैं और राष्ट्रवादी हैं, इसलिए वे हिन्दू राष्ट्रवादी हैं! वे समय-समय पर आरएसएस के मुखिया से विचार-विनिमय करते रहते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि दोनों के बीच कुछ मामूली मतभेदों के बावजूद, संघ ही भाजपा की नीतियों का अंतिम निर्धारक है। गुजरात के मुख्यमंत्री बतौर, मोदी ने उनकी राजनीति की प्रकृति एकदम स्पष्ट कर दी थी। उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में गुजरात को 'हिन्दू राष्ट्र की प्रयोगशाला' कहा जाता था। उन्होंने गुजरात कत्लेआम को औचित्यपूर्ण ठहराने के लिए न्यूटन के 'क्रिया-प्रतिक्रिया' के गतिकी के तीसरे नियम का हवाला दिया था। दंगों के बाद पीडि़तों के लिए स्थापित राहत शिविरों को बहुत जल्दी बंद कर दिया गया और मोदी ने उन्हें 'बच्चे पैदा करने वाली फैक्ट्रियां' बताया था।

दंगों के फलस्वरूप, गुजरात के समाज का सांप्रदायिक आधार पर जो ध्रुवीकरण हुआ, उसकी मदद से मोदी ने लगातार तीन चुनावों में विजय हासिल की। दंगों के घाव भरने और दोनों समुदायों के बीच सौहार्द कायम करने की इस बीच कोई कोशिश नहीं हुई। अल्पसंख्यक अपने मोहल्लों में सिमटते गए। अहमदाबाद का मुस्लिम-बहुल जुहापुरा इलाका, मोदी की बाँटनेवाली राजनीति का प्रतीक है। जिन लोगों ने निर्दोषों का खून बहाया था उन्हें महत्वपूर्ण पदों से नवाजा गया। मायाबेन कोडनानी को मंत्री पद मिला। उस दौर में फर्जी मुठभेड़ें आम थीं और इन्हें अंजाम देने वाले, सत्ता के गलियारों में सम्मान की दृष्टि से देखे जाते थे। धीरे-धीरे मोदी ने अपनी भाषा और अपने शब्दों को "स्वीकार्य" स्वरुप देना शुरू किया। वे हिंदुत्व के जिस अतिवादी संस्करण के प्रणेता थे, उसे "मोदित्व' कहा जाने लगा।  

सन 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान, एक ओर तो वे विकास की बातें करते रहे तो दूसरी ओर बड़ी चतुराई से सांप्रदायिक सन्देश भी देते रहे। उन्होंने बीफ के निर्यात की निंदा की और उसे "पिंक रेवोल्यूशन' बताया। इसका उद्देश्य मुस्लिम अल्पसंख्यकों को बीफ से जोड़ना था। उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि असम की सरकार, बांग्लादेशी घुसपैठियों को बसाहट के लिए वहां पाए जाने वाले एक सींग वाले गेंडों को मार रही है। यह बांग्लाभाषी मुसलमानों पर हमला था। उन्होंने यह भी कहा कि बांग्लाभाषी मुसलमानों को 16 मई को - जिस दिन वे देश के प्रधानमंत्री बन जायेंगे - अपना बोरिया-बिस्तर लपेटने के लिए तैयार रहना चाहिए। यह साम्प्रदायिकता फैलाने का खुल्लमखुल्ला प्रयास था। भाजपा के प्रवक्ता लगातार यह कहते रहे हैं कि बांग्लाभाषी हिन्दू शरणार्थी हैं और मुसलमान, घुसपैठिये। सन्  2014 का चुनाव अभियान मोदी के नेतृत्व में चलाया गया था। उनके चेले अमित शाह ने मुजफ्फरनगर का 'बदला' लेने की बात कही तो गिरिराज सिंह ने फरमाया कि जो मोदी के विरोधी हैं, उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए।

आरएसएस ने पिछले (2014) चुनावों में अपनी पूरी ताकत झोंक दी ताकि प्रचारक मोदी प्रधानमंत्री बन सकें। सत्ता में आने के बाद, परोक्ष व अपरोक्ष ढंग से ऐसे कई सन्देश दिए गए जिनसे विभाजनकारी राष्ट्रीयता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता जाहिर होती थी। आरएसएस से सम्बद्ध विभिन्न संगठन, जो अलग-अलग तरीकों और रास्तों से संघ के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए काम करते हैं, आक्रामक होने लगे और उनकी गतिविधियों में तेजी आई। चर्चों और मस्जिदों पर हमले बढ़ने लगे। दक्षिणपंथी ताकतों को यह लगने लगा कि चूंकि अब देश में उनकी सरकार है इसलिए वे चाहे जो करें, उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मोदी के शासनकाल के पहले छह महीनों में मोदी की नाक के नीचे चर्चों पर हमले हुए और वे चुप्पी साधे रहे। उनका मौन तब टूटा जब अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता के महत्व की याद दिलाई।

हाल (जून 2015) में दिल्ली के पास अटाली में व्यापक हिंसा हुई जहां एक अधबनी मस्जिद को गिरा दिया गया और सैकड़ों मुसलमानों को पुलिस थाने में शरण लेनी पड़ी। इस तरह की घटनाएं देश में जगह-जगह हो रही हैं और इनसे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण मजबूत हो रहा है। गैर-हिन्दुओं पर 'हरामजादे' का लेबिल चस्पा करने वाली मंत्री महोदया अपने पद पर बनीं हुई हैं और निहायत घटिया नस्लीय टिप्पणी करने वाले भी सत्ता के गलियारों में काबिज हैं। हिन्दुत्व के प्रतीक सावरकर और गोड़से का महिमामंडन किया जा रहा है और बहुवाद के पैरोकार नेहरू की या तो निंदा की जा रही है या उनके महत्व को कम करके बताया जा रहा है। गांधीजी को 'सफाईकर्मी' बना दिया गया है और हिन्दू-मुस्लिम एकता के उनके मूल संदेश को दरकिनार कर दिया गया है। केन्द्र सरकार के संस्थानों में ऐसे लोगों को चुन-चुनकर पदस्थ किया जा रहा है जो पौराणिकता और इतिहास में कोई भेद नहीं करते और जातिप्रथा को उचित ठहराते हैं। इनमें भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के नए अध्यक्ष प्रोफेसर सुदर्शन राव शामिल हैं। आरएसएस से जुड़ी शैक्षणिक संस्थाएं सरकार को यह बता रही हैं कि शिक्षा नीति क्या होनी चाहिए और स्कूलों में बच्चों को क्या पढ़ाया जाना चाहिए। हिन्दू संस्कृति को राष्ट्रीय संस्कृति का दर्जा देने की कोशिश हो रही है।

मुस्लिम समुदाय की वास्तविक आवश्यकताएं क्या हैं? उन्हें प्रधानमंत्री से असल में क्या कहना चाहिए? उन्हें सबसे पहले ऐसी नीतियों की जरूरत है जिससे उनमें सुरक्षा का भाव उत्पन्न हो। पिछले तीन दशकों में हुई व्यापक और क्रूर हिंसा ने इस समुदाय पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाला है। हिंसा के अलावा, मुसलमानों के प्रति घृणा का वातावरण बनाया गया और सामूहिक सामाजिक सोच को इस तरह से तोड़ा-मरोड़ा गया जिससे विघटनकारी विचारधारा को बढ़ावा मिले और मुसलमानों पर निशाना साधा जा सके। और यह सब करने के बाद, पीडि़त समुदाय को ही हिंसा का जनक और कारण बताया जाता रहा है! अल्पसंख्यकों के खिलाफ तरह-तरह के दुष्प्रचार हुए और इसके लिए सोशल मीडिया का जमकर उपयोग हुआ। जब तक मुसलमानों के खिलाफ समाज में व्याप्त गलत धारणाएं दूर नहीं की जाएंगी तब तक साम्प्रदायिक हिंसा पर रोक लगाना संभव नहीं होगा।

इस तरह, पूरी व्यवस्था का ढांचागत हिन्दुत्वीकरण किया जा रहा है और बहुवाद, जो कि भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का केन्द्रीय तत्व था, की कीमत पर सावरकर-गोलवलकर की विचारधारा का प्रसार किया जा रहा है।

मुसलमानों के लिए दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा है आर्थिक दृष्टि से उनका हाशिए पर पटक दिया जाना। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि एक मुस्लिम युवक जीशान अली खान को खुल्लमखुल्ला यह कह दिया गया कि उसके धर्म के कारण उसे नौकरी नहीं दी जा सकती और एक मुस्लिम लड़की मिशाब कादरी को उसका घर खाली करने के लिए कहा गया क्योकि वह एक धर्म विशेष में आस्था रखती थी। ''सबका साथ सबका विकास'' केवल नारा रह गया है और जैसा कि मोदी के सिपहसालार अमित शाह ने किसी और संदर्भ में कहा था, वह केवल एक जुमला था। किसी भी विविधतापूर्ण समाज में वंचित समुदायों की बेहतरी के लिए सकारात्मक कदम उठाना, समाज और राज्य की जिम्मेदारी है। जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने मुस्लिम विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति प्रदान करने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा भिजवाई गई धनराशि को लौटा दिया था। सच्चर समिति की सिफारिशों की तो अब कोई चर्चा ही नहीं करता। जाहिर है कि 'सबका विकास' इस सरकार के लक्ष्यों में कतई शामिल नहीं है।

मुसलमानों का एक तबका यह तर्क दे रहा है कि मोदी का 'हृदय परिवर्तन' हो गया है और अब वे अपनी पार्टी के सांप्रदायिक तत्वों को दबाने की कोशिश कर रहे हैं और आरएसएस की बात सुनना उनने कम कर दिया है। यह भ्रम जानबूझकर फैलाया जा रहा है और इसे फैलाने वालों में ज़फर सरेसवाला और एसएम मुश्रिफ जैसे लोग शामिल हैं। ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब संघ परिवार का कोई न कोई नेता राममंदिर के निर्माण की मांग या धार्मिक अल्पसंख्यकों का अपमान न करे। और यह सब बहुत योजनाबद्ध तरीके से किया जा रहा है। घरवापसी और लवजिहाद के नाम पर भी सांप्रदायिकता की आग को सुलगाए रखने की कोशिश हो रही है। जो लोग 'हृदय परिवर्तन' की बात कर रहे हैं वे यह नहीं जानते कि आरएसएस द्वारा प्रशिक्षित स्वयंसेवक और प्रचारक, विचारधारा की दृष्टि से कितने कट्टर होते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी जैसे व्यक्ति ने भी प्रधानमंत्री बनने के बाद यह कहा था कि वे आरएसएस के स्वयंसेवक पहले हैं और प्रधानमंत्री बाद में।

कुछ आरएसएस समर्थक मुस्लिम नेता, मोदी के साथ जाना चाहते हैं और मोदी ने उन्हें वायदा किया है कि वे उनके लिए आधी रात को भी उपलब्ध रहेंगे। इन लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि एहसान जाफरी के साथ क्या हुआ था। वे मोदी से सहायता की भीख मांगते रहे परंतु मोदी शायद बहरे हो गए थे। जाफरी को क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतार दिया गया। मोदी जहां थे, जाफरी उससे थोड़ी ही दूरी पर थे और उस समय आधी रात नहीं हुई थी।

समाज के अन्य वंचित वर्गों की तरह, मुस्लिम समुदाय को भी यह चाहिए कि वह जागे, आत्मचिंतन करे और बहुवाद व प्रजातंत्र के मूल्यों की रक्षा के लिए संघर्ष करे। मुस्लिम समुदाय को प्रजातांत्रिक ढंग से आंदोलन चलाने होंगे ताकि समुदाय के सदस्यों के नागरिक अधिकार सुरक्षित रह सकें। मूलाधिकारों के उल्लंघन का कड़ाई से विरोध किया जाना चाहिए। इस मामले में वे अंबेडकर से प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं जिन्होंने प्रजातांत्रिक रास्ते पर चलकर दलितों की बेहतरी के लिए काम किया। मुस्लिम समुदाय को चाहिए कि वो गांधी और मौलाना आजाद की राह पर चले, जो विविधता का अपनी दिल की गहराई से सम्मान करते थे न कि केवल दिखावे के लिए। मुसलमानों के लिए बिछाए जा रहे जाल में उन्हें नहीं फंसना चाहिए। खोखले शब्दों की जगह उन्हें संबंधित व्यक्तियों के कार्यों और उसकी विचारधारा पर ध्यान देना चाहिए। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)



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