सरकारी पैसे पर फ्री थिएटर नहीं चल सकताः बादल सरकार से एक बातचीत
Posted by Reyaz-ul-haque on 5/16/2011 10:57:00 AMबादल सरकार के निधन के बाद शम्सुल इसलाम ने मेल के जरिए सरकार से की गयी अपनी एक बातचीत की कटिंग भेजी है, जो द संडे टाइम्स ऑफ इंडिया के 11 अक्तूबर, 1992 संस्करण में छपी थी. हम यहां इसका अनुवाद पेश कर रहे हैं. इसे हम यहां बादल सरकार के रंगमंच पर जारी बहस के सिलसिले के रूप में पोस्ट कर रहे हैं. इसके पहले हाशिया ने अपने नजरिये के रूप में ब्रह्म प्रकाश द्वारा बादल सरकार का एक आलोचनात्मक आकलन पेश किया था.
आपने तीसरा रंगमंच के सिद्धांत की शुरुआत की और आप अपनी राय बदलते रहे हैं. अब आप फ्री थिएटर को कैसे देखते हैं?
यह सही है, एक बार मैंने तीसरा रंगमंच को शहरी और ग्रामीण रंगमंच के मेल (संश्लेषण) से बने रंगमंच के रूप में सोचा था. लेकिन इस पर काम करते हुए मैंने अपने विचारों को सुधारा. मुझे लगा कि अगर तीसरा रंगमंच को एक वैकल्पिक रंगमंच होना था तो यह किसी का भी संश्लेषण नहीं हो सकता था. पहले मैं यांत्रिक नजरिये का शिकार हो गया था. मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि तीसरा रंगमंच को फ्री थिएटर होने के लिए उसे महंगा, स्थिर और व्यवसायिकरण का शिकार होने से बचना चाहिए. इसे दर्शकों से संवाद बनाने की कोशिश करनी चाहिए.
एक बार जब आप पारंपरिक मंच नाटक (प्रोसीनियम थिएटर) की चीजों से पार पा लेते हैं तो आपको मुख्यतः मानव देह पर निर्भर रहना पड़ता है. इसकी क्षमताओं को गहरे प्रशिक्षण के जरिये विकसित किया जाना चाहिए. फ्री थिएटर को बीते हुए समय की तरह नहीं लिया जा सकता. हमारे लिए किसी कहानी को कहने के बजाय रंग अनुभव अधिक प्रासंगिक होता है. किसी भी हालत में भाषा पर पूरी तरह निर्भर रहने के बजाय शारीरिक अनुभव कहीं अधिक असरदार होता है.
आलोचक महसूस करते हैं कि आपका रंगमंच भाषा या बोले गये शब्दों की कीमत पर महज एक शारीरिक रंगमंच है. वे यह भी कहते हैं कि शारीरिक प्रदर्शन पर अधिक निर्भरता आपके रंगमंच को एक करतब देखने के अनुभव में बदल देती है, जो सिर्फ मध्यवर्ग के दर्शकों को ही संप्रेषणीय होता है. आपका इन टिप्पणियों पर क्या जवाब है?
ऐसी बातें केवल वहीं लोग कहेंगे जिन्होंने कभी हमारे प्रदर्शन नहीं देखे, और जो रंगमंच के बारे में कुछ भी जानना नहीं चाहते. वे हमारी तारीफ भी करते हैं तो गलत वजहों से. लेकिन इस देश में ऐसे ही होता हैः बिना कुछ भी जाने लोग फैसले देते हैं.
असल में हम उसका उल्टा करते हैं, जिसका आरोप हम पर लगाया जाता है. हम थीम के नाट्यालेख से शुरू करते हैं और फिर फॉर्म को विकसित (एक्सप्लोर) करते हैं. हमारे लिए कथ्य रंगमंच का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है. अनेक लोग फॉर्म से शुरू करते हैं और फिर एक विषय या नाट्यालेख को काट-छांट कर उसमें फिट कर देते हैं. हम ऐसा कभी नहीं करते.
इन आलोचकों के साथ एक और समस्या है. वे यह मानना पसंद करते हैं कि आम आदमी किसी प्रस्तुति की बारीकियों पर अपनी राय नहीं रख सकता, कि यह कुलीनों-अभिजातों का विशेषाधिकार है. हमारा अनुभव है कि आम आदमी नाटक के प्रतीकों, भंगिमाओं और आत्मा को उन तथाकथित शहरी बुद्धिजीवियों से अधिक समझता है.
आप अपनी रंगमंचीय कार्यशालाओं की लोकप्रियता के बारे में क्या कहेंगे?
मेरी कार्यशालाओं में कभी भी नाट्यालेख या नाटक पर काम नहीं होता. यह पूरी तरह बेकार होगा. खुल कर कहूं तो मेरी कार्यशालाओं का ऐसा कोई नतीजा नहीं निकलता. उनका कोई अंतिम नतीजा होता ही नहीं. क्योंकि मैं मानता हूं कि एक रंगमंचीय कार्यशाला को भागीदारों को रचनात्मक होने में मददगार होना चाहिए. भागीदारों को रंगमंच को जीना चाहिए और उनकी जिम्मेदारी कही गयी बातों की नकल करना या उसे मान लेना भर नहीं होना चाहिए. रंगमंच पर अकेले निर्देशक का अधिकार नहीं होना चाहिए.
इस प्रक्रिया में क्या बातें निकल कर आती हैं?
उत्तर भारत में तो अधिक नहीं. दिल्ली में मैंने एनएसडी, संभव, एसआरसी रंगमंडल के लिए कार्यशालाएं की हैं. लेकिन इनमें से कोई फ्री थिएटर नहीं करता. आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में इसका उल्टा है. इन राज्यों में फ्री थिएटर एक आंदोलन की शक्ल ले रहा है. इन कार्यशालाओं ने पाकिस्तान के रंगकर्मियों तक की एक फ्री थिएटर आंदोलन शुरू करने में मदद की है.
संस्कृति को राजकीय संरक्षण दिए जाने के मुद्दे पर आपका क्या विचार है?
हम इसके पूरी तरह खिलाफ हैं. हमने कभी भी राज्य या इसकी एजेंसियों से अनुदान या किसी मदद के लिए आवेदन नहीं किया है. अगर हम संरक्षण की मांग करना शुरू करेंगे तो फिर फ्री थिएटर बेमानी हो जाएगा. 20 सालों का हमारा अनुभव रहा है कि आप राज्य के अनुदान के बिना भी जनता के स्वैच्छिक योगदान के जरिए नाटक कर सकते हैं.
वे लोग कितने सही हैं जो यह मानते हैं कि आप मंच नाटकों (प्रोसीनियम) को खत्म करना चाहते हैं?
अगर मैंने कोशिश भी की होती तो तय है कि मैं सफल नहीं हुआ होता. यह तो एक मिथक है जिसका प्रचार किया गया है. सही बात यह है कि मैं मंच नाटकों में भरोसा नहीं करता और न इस पर काम करता हूं. मैं ऐसा क्यों करूंगा जब मैं इसे प्रासंगिक ही नहीं मानता? लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जो लोग मंच नाटक करते हैं वे मेरे दुश्मन हैं.
आपके नाटकों में बार बार खुदकुशी क्यों एक थीम के रूप में आती है?
ऐसा मेरे 50 नाटकों में से केवल तीन नाटकों में हुआ है- पगला घोड़ा, एवम इंद्रजीत और बाकी इतिहास में. यह एक गलत सामान्यीकरण है. और कृपया ध्यान दीजिए कि इन नाटकों में खुदकुशी होने के बावजूद वे निराशावादी नाटक नहीं हैं. वे जीवन से भरे हुए हैं. उनमें खुदकुशी का प्रचार नहीं है. ऐसा इसलिए है क्योंकि यह नाटक के ढांचे में फिट बैठता है.
अनुवादः हाशिया । मूल बातचीत की कटिंग यहां से डाउनलोड करें
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