Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Thursday, September 1, 2016

अब तो टिहरी का घंटाघर भी नहीं बचा है अरुण कुकसाल

अब तो टिहरी का घंटाघर भी नहीं बचा है 
अरुण कुकसाल
'पलायन एक चिंतन अभियान' के तहत 14-15 अगस्त, 2016 को कोटी-कनसार में 'पहाड़: संस्कृति, साहित्य और लोग' गोष्ठी से इतर-

क्षम्य है, उदार है,
सरल, सदाबहार है,
षान्त, सौम्य, दत्तचित, 
ये वृक्ष देवदार है।
-सुभाष तराण

कनसार, डाक बंगले की बाहरी दीवार पर इसके बनने का सन् 1898 लिखा है। और डाक बंगले के बैठक कक्ष में ये कविता पोस्टर कल ही आया है। पर मन कहता है, नहीं, ये कविता तो सन् 1898 और उससे भी आदि समय से यहीं विराजमान है। ये कविता इस बात की गवाह है कि पिछले 118 सालों सेे ये देवदार के पेड इस बंगले की सुरक्षा में अनवरत मुस्तैद खड़े हैं। देवदार के पेडों से निनारूओं के समवेत स्वर भोर, दोपहर और सांय इस कविता का गायन करते हैं।
मसूरी-षिमला पैदल मार्ग के हर 5 पांच किमी. के दायरे में अंग्रेजों ने डाक बंगले बनाये। और हम क्या चीज हैं कि आज उन डाक बंगलों की मरम्मत करने की सार्मथ्य भी नहीं है, हमारे पास। पर मंत्री जी रुकेगें तो डाकबंगलों में ही। हनक और धमक खोखली ही सही, दिखाने में क्या जाता है। एक बार सोचो तो, उत्तराखण्ड में अंग्रेजों की बनायी सारी इमारतों को एक तरफ रख दें तो हमारे पास....... अब तो टिहरी का घंटाघर भी नहीं बचा है। 
जब भी डाकबंगले में कोई जलसा होता है, बुर्जुग षम्सी गूजर को खबर हो जाती है। वह भोर में दूध ले कर हाजिर हो जाता है। इलाका क्या यहां के चप्पे-चप्पे से वह वाकिफ है। पैदाइष ही यहीं हुयी। परदादा की उंगली पकड़कर सहारनपुर से इस ओर आना-जाना जो षुरू हुआ अब उसके नाती-पोतों तक उसी लय-ताल से जारी है। गूजरों के 500 से ज्यादा पषु पल रहे हैं, कोटी-कनसार के जंगलों में। हम पहाड़ियों की तरह दन्न बनकर फल देने जाड़ों में मैदान चले जायेगें। वो तो फिर गरमी की आहट होते ही वापस आते हैं। हम पहाड़ी गए तो गए ऊपर से जीवन भर गरियायेगें पहाड़ को।
सुबह के नाष्ते में समय लग रहा है। पर बातचीत का नाष्ता षुरू हो चुका। मित्रों में बहस जारी है। हिमाचल और उत्तराखण्ड सरकार टौंस नदी पर किसाऊ डैम बनायेगें, बल। 236 मीटर ऊंचे इस बांध से 660 मेगावाट बिजली बनने का दावा है। क्वानू क्षेत्र के कोटा, मैलोत और मंज गांव की सैकडों हैक्टयर सिंचित जमीन पाताल हो जायेगी तब। धान का कटोरा कहा जाता है इस इलाके को। जब मक्का खेतों में खड़ा होता है तो हाथी भी छुप जाय उसमें। इतना घना और ऊंचा। पलायन करना यहां लोग जानते नहीं। पर अब डैम के लिए जबरदस्ती खदेडे़ जायेंगे। डैम किसलिए, बिजली बनाने, न भाई दिल्ली को पानी पहुंचाना है। लोकल लोग डैम विरोध में तेल लगाये लठ्ठों को उठाने को तैयार हो रहे हैं। यही तो गेम है। विरोध जितना तीखा और तीव्र होगा सौदेबाजी उतनी ही हाई लेबिल की होगी।
वक्ताओं के व्याख्यानों में गरमी आने लगी है। ये बात और है कि बारिष की वजह से बाहर के लान से उठकर डाकबंगले के बरामदे में गोष्ठियारों को सिमटकर बैठना पड़ रहा है। फायदा हुआ, मित्रों में अपनत्व की बयार घुटने और कंधे बार-बार छूनेे से बड़ गयी है। बोला जा रहा है कि राज्य बनने के बाद 32 हजार किमी. सडकें बनी पर 32 लाख लोग भी पहाड़ को टाटा/बाय-बाय कह गये हैं। मान लो इन्हीं नयी सडकों से यदि वे सब गये हैं तो 1 किमी. पर 100 आदमी। 1 साल में 2 लाख और 1 दिन में 548 लोग पहाड़ी मुल्क छोड़ गये हैं। 'बेडु पाको बारह मासा, काफल पाको चैता' पर नाचने वाले ठैरे। पर पहाड़ में ठहरना। बबा रे ! और सुन लो भाई-बहिनों, इन 16 सालों में 57 हजार हैक्टयर कृषि भूमि कम होने वाली हुयी पहाड़ में। बंदर बे-दखल कर रहे हैं, किसानों को खेतों से, जैसे कि हम पहाड़ी, बंदरों के खैयकर रहे हांे।
आदमी की सार्मथ्य उसकी 'संस्कृति, साहित्य और लोग' की षक्ल को रचता है। सार्मथ्य आती है, आर्थिक सम्पन्नता से। तो भाईओं और बहिनों, पहाड़ में पल नहीं पाये तो पलायन पा गये हम। अब तुम कुछ भी करो और कहो उसकी धार तो पलायन की ओर ही जायेगी। सर्वत्र वही सुनाई और दिखाई देगा। पहाड़ी संस्कृति का संकटचैथ अगर पंजाबी करवाचैथ में तब्दील हो गया तो उसमें करवाचैथ के पैसे की चमाचम ही तो है।.........जारी

Arun Kuksal's photo.
Arun Kuksal's photo.
Arun Kuksal's photo.

--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors