Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Friday, September 15, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-25 विषमता की अस्पृश्यता के पुरोहित तंत्र के विरुद्ध समानता और न्याय की आवाज ही रवींद्र रचनाधर्मिता है। . ”এ দুর্ভাগা দেশ হতে হে মঙ্গলময় /দূর করে দাও তুমি সর্ব তুচ্ছ ভয়-/ লোক ভয়, রাজভয়, মৃত্যু ভয় আর/দীনপ্রাণ দুর্বলের এ পাষাণভার।'——- :: রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর धार्मिक राष्ट्रवाद के आधार पर देश का विभाजन हो गया धार्मिक पहचान की दो राष्ट्रीयताओं के सिद्धांत के तहत औ

रवींद्र का दलित विमर्श-25

विषमता की अस्पृश्यता  के पुरोहित तंत्र के विरुद्ध समानता और न्याय की आवाज ही रवींद्र रचनाधर्मिता है।

. "এ দুর্ভাগা দেশ হতে হে মঙ্গলময় /দূর করে দাও তুমি সর্ব তুচ্ছ ভয়-/ লোক ভয়, রাজভয়, মৃত্যু ভয় আর/দীনপ্রাণ দুর্বলের এ পাষাণভার।'——- :: রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর

धार्मिक राष्ट्रवाद के आधार पर देश का विभाजन हो गया धार्मिक पहचान की दो राष्ट्रीयताओं के सिद्धांत के तहत और आज फिर उसी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद से हम भारत को डिजिटल इंडिया बनाने की मुहिम में शामिल हैं।

इसके विपरीत आस्था का  लोकतंत्र इस्लामी शासन से भी पहले बौद्ध,हिंदू और जैन भक्ति आंदोलन की साझा विरासत सातवीं आठवीं सदी से बनती रही है और 14 वीं सदी के बाद सूफी संत आंदोलन के साथ पूरे देश की लोक संस्कृति में बदल गया यह आस्था का लोकतंत्र और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता के एकताबद्ध स्वतंत्रता संग्राम की जमीन भी यह है।यही हमारी साझा विरासत है।


पलाश विश्वास

विषमता की अस्पृश्यता  के पुरोहित तंत्र के विरुद्ध समानता और न्याय की आवाज ही रवींद्र रचनाधर्मिता है।इसीलिए उत्पीड़ित अपमानित मनुष्यता के लिए न्याय और समानता की उनकी मांग उनकी कविताओं,गीतों,उपन्यासों और कहानियों से लेकर गीताजंलि के सूफी बाउल आध्यात्म और रक्त करबी और चंडालिका जैसी नृत्य नाटिकाओं का मुख्य स्वर है।

उनकी प्रार्थना अपने मोक्ष के लिए नहीं है यह जनगण की मुक्तिकामना हैः


ए दुर्भागा देश होते हे मंगलमय

दूर करे दाओ तुमि सब तुच्छ भय,-

लोकभय,राजभय,मृत्युभय आर

दीन प्राणेर दुर्बलेर ए पाषाणभार,

एर चिरपेषण यंत्रणा धुलितले

एई नित्य अवनति ,दण्डे पले पले

एई आत्म अवमान,अंतरे बाहिरे

एई दासत्वेर रज्जु,त्रस्त नतसिरे

सहस्रेर पदप्रांत तले बारंबार

मनुष्य मर्यादा पर्व चिर परिहार




स्वदेश जिज्ञासा के संदर्भ में रवींद्रनाथ कहते थे कि वे राजनेता नहीं है।

देश और समाज के बारे में रवींद्रनाथ की धारणाएं अपमानित मनुष्यता को देखने के बाद बनी है।वे कहते थे कि मानवीय संबंधों के सामग्रिक विकास का प्रयत्न ही उनके जीवन का चरम लक्ष्य है।

विषमता की अस्पृश्यता  के पुरोहित तंत्र के विरुद्ध समानता और न्याय की आवाज ही रवींद्र रचनाधर्मिता है।

इसीलिए देश और समाज की उनकी धारणाएं फासिज्म के राष्ट्रवाद तक सीमाबद्ध नहीं है।युद्ध के विरुद्ध विश्वशांति के लिए वे जिस फासीवादी नाजी अंध राष्ट्रवाद का विरोध कर रहे थे,दो दो विश्वयुद्धों के विध्वंस के बाद आज भी उसी फासिस्ट नाजी अंध राष्ट्रवाद की वजह से पूरी दुनिया युद्ध और गृहयुद्ध के शिकंजे में है और आधी दुनिया शरणार्थी है।

समाज और देश की रवींद्रनाथ की धारणाएं हिंसा और घृणा के विरुद्ध देश काल की सीमायें तोड़कर सारे विश्व के परिप्रेक्ष्य में विकसित हुई और उनका मनुष्य राष्ट्रीयता की सरहदों की कैद तोड़कर गीतांजलि का विश्व मानव बन गया।

रवींद्र नाथ ने लिखा हैः

विश्वसाथे योगे जेथाय विहार

सेईखाने योग तोमार साथे आमारो

यही रवींद्र दर्शन का मूल तत्व है।

प्रशांत चंद्र महलानबिश ने रवींद्र नाथ ओ विश्वमानवताबोध निबंध इसी दृष्टिकोण से लिखा है।

प्रशांत चंद्र महलानबिश ने लिखा हैः भारत के ह्रदयगत इस भाव की अभिव्यक्ति के लिए रवींद्रनाथ ने बांग्लाभाषा में एक नया शब्द का प्रयोग किया-विश्वमानव..विश्वमानव मनुष्यों के सभी आदर्शों का आधार है।उनके मुताबिक रवींद्रनाथ के लिखे भारत वर्ष में रवींद्र की राष्ट्र और स्वदेशी समाज के स्वदेश की अवधारणाएं मिलती हैं।पाश्चात्य नेशन या राष्ट्र के विरुद्ध हैं रवींद्रनाथ क्योंकि पश्चिम का राष्ट्र निजी हितों को साधने का साधन है।

रवींद्रनाथ के मुताबिक रिनेशां और एनलाइटेनमेंट के जरिये विज्ञान और तकनीक की मदद से पूंजीवाद का जितना व्यापक विस्तार होता गया,उसने राष्ट्र  व्यवस्था का निजी हितों को साधन के लिए उतना ही इस्तेमाल किया है।

आज के कारपोरेट राष्ट्र और धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का सच भी यही है।

इसीलिए पूंजीवाद के निजी हितों के लिए इस्तेमाल होने वाले राष्ट्र भारत को बनाने के सिरे से लगातार विरोध जीवन के अंत तक रवींद्रनाथ विषमता की व्यवस्था के प्रतिरोध बतौर करते रहे।

नेशनल शब्द पर रवींद्रनाथ को तीखी आपत्ति थी।

नवबंगेर आंदोलन शीर्षक निबंध में उन्होंने लिखाःएकदिन तड़के जागकर अचानक चारों तरफ देखा नेशनल पेपर,नेशनल मेला,नेशनल संग,नेशनल थिएटर-नेशनल की आंधी से ग्रसित दसों दिशाएं।औपनिवेशिक शासन के अधीन उधार की यह राष्ट्रीयता हमारी अपनी समाज व्यवस्था से मेल नहीं खाती।

हमारी अपनी समाज व्यवस्था के बारे में उनकी समझ लोक संस्कृति के लोकतंत्र से बनी थी,जिसके तहत आस्था का लोकतंत्र धर्म आधारित राष्ट्रवाद को सिरे से खारिज करता है। इसी धार्मिक राष्ट्रवाद के आधार पर देश का विभाजन हो गया धार्मिक पहचान की दो राष्ट्रीयताओं के सिद्धांत के तहत और आज फिर उसी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद से हम भारत को डिजिटल इंडिया बनाने की मुहिम में शामिल हैं।

इसके विपरीत आस्था का  लोकतंत्र इस्लामी शासन से भी पहले बौद्ध,हिंदू और जैन भक्ति आंदोलन की साझा विरासत सातवीं आठवीं सदी से बनती रही है और 14 वीं सदी के बाद सूफी संत आंदोलन के साथ पूरे देश की लोक संस्कृति में बदल गया यह आस्था का लोकतंत्र और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता के एकताबद्ध स्वतंत्रता संग्राम की जमीन भी यह है।यही हमारी साझा विरासत है।

सोशल मीडिया पर रवींद्र विमर्श पर भी अंकुश लग रहा है और लिंक,संदर्भ सामग्री शेयर करने में तकनीकी दिक्कतें हो रही हैं।बंगाल में महिषासुर वध उत्सव का जलवा है और अखबार,मीडिया,घर परिवार सबकुछ बाजार में तब्दील है।

आस्था का क्रयशक्ति से क्या संबंध है,यह समझ लें तो आस्था की अर्थव्यवस्था और राजनीति दोनों समझी जा सकती है।

दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन चोल और पल्लव राजाओं ने विशाल और भव्य मंदिर बनाकर दैवीसत्ता को राजसत्ता में निष्णात करने के लिए किया था। जबकि बौद्ध और जैन धर्म के असर में यह भक्ति आंदोलन मनुस्मृति के विरुद्ध और सामंती व्यवस्था के साथ साथ राजसत्ता और दैवीसत्ता के खिलाफ आंदोलन में तब्दील हो गया।

आम जनता की आस्था में लोकतंत्र की संस्कृति की वजह से ही भारत में विविध बहुल  पस्परविरोधी संस्कृतियों का भी एकीकरण संभव हो सका है।इसीसे सामाजिक तानाबाना जनपदों की इसी लोकसंस्कृति से रचा है जिसे आस्था महोत्सव के विविध आयोजनों के मुक्तबाजार की उपभोक्ता संस्कृति ने सिरे से तहस नहस कर दिया है।

इसी अनेकता में एकता की लोकसंस्कृति ने भारतीय जनता के मुक्तिसंग्राम को दिशा दिखायी है और इसीसे भौगोलिक एकता और अखंडता का विकास हुआ है।

धर्मोन्माद में न आस्था है और न धर्म।

यह नस्ली वर्चस्व का अश्लील नंगा कार्निवाल है जिसमें मनुष्य महज उपभोक्ता है,जिसका भक्ति और आस्था से कोई लेना देना नहीं है ।

आस्था का महोत्सव मुक्त बाजार में धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का नस्ली वर्चस्व है  तो यह राजनीति,सत्ता और राष्ट्र के संरक्षण में यह क्रयशक्ति के अश्लील प्रदर्शन की प्रतियोगिता और देशी विदेशी कंपनियों की अबाध मुनाफावसूली है।

यह धर्म की राजनीति और अर्थव्यवस्था दोनों है जो भारतीय दर्शन, आध्यात्म, इतिहास और परंपरा के खिलाफ है तो यह विज्ञान के भी खिलाफ है।

तमिलनाडु,दक्कन और आंध्र तेलंगना में सातवीं आठवीं सदी से आस्था के राजकीय इस्तेमाल के विरुद्ध आंदोलन शुरु हुआ जो 14 वीं और 16 वीं सदी के दौरान पूरे भारत में समता और न्याय का आंदोलन बन गया।

तमिल भाषा में पांच हजार साल का अखंड इतिहास है,जिसमें उत्तर भारत के अंधकार युग में भी दैवीसत्ता और राजसत्ता के खिलाफ आस्था के लोकतंत्र की निरंतराता के ब्यौरे सिलसिलेवार हैं। मसलनः


The collection and the canonisation of the Śaiva and the Vaiṣṇava bhakti poetry in the 10th century led to the spread of bhakti as a mass movement. Cuntarar's (between 780–830 CE) work, Ārūr Tiruttoṇṭattokai, originated the Śaiva canon. In his poem, Cuntarar mentioned 62 nāyaṉmārs (saints of Tamil Śaivism). He was added as the Cuntaramūrtttināyaṉar, and a total of 63 nāyaṉmārs decorated as the saints of Śaivism. Nampi Āṇṭār Nampi (1080–100 CE) arranged and anthologised the hymns of Campantar, Appar, and Cuntarar as the first seven holy books and added Māṇikkavācakar's Tirukkōvaiyār and Tiruvācakam as the eighth book. Tirumūlar's Tirumantiram, 40 hymns by two other poets, Tiruttoṇdar tiruvantāti and Nampi's hymns constitute the ninth to eleventh books of the Śaivite canon respectively. Cēkkiḷār's Periya Purāṇaṃ (1135 CE) became the twelfth Tirumuṛai and completed the Tamil Śaivite bhakti canonical literature. This body of works represents a huge corpus of heterogeneous literature covering nearly 600 years of religious, literary and philosophical developments. Kāraikkāl Ammaiyār's songs (500 CE) and the compositions of the Pallava King Aiyaṭikal Kāṭavar Kōn (670–700 CE) were the earliest in the Śaivite canon and Cēkkiḷār's Periyapurāṇam (early 12th century) would be the latest.

Nātamuṉi (10th century), who is considered to be in the line of the very first Vaiṣṇavite ācāryas (teachers), compiled the Vaiṣṇavite bhakti poetry into a huge compendium called Nālāyirativyaprapantam, 'The Four Thousand Divine Works'. The earliest of Vaiṣṇavite poet-saints, Poykaiāḷvār, Pūtatāḷvār and Pēyāḷvār, belong to 650 to 700 CE. The Vaiṣṇavite canon consists of the works of 14 poets, out of which 12 are considered as āḷvārs.

(संदर्भःhttps://www.sahapedia.org/the-dynamics-of-bhakti)

उत्तर भारत की साधु संत सूफी बाउल पीर गुरु परंपरा से जुड़कर वैष्णव आंदोलन और भागवत पुराण में आस्था के लोकतंत्र के तहत ब्रह्म समाज आंदोलन और नवजागरण से पहले औपनिवेशिक ब्रिटिश भारत में आस्था दैवी सत्ता और राजसत्ता के शिकंजे से निकल कर जनपदों की लोकसंस्कृति में तब्दील हो गयी थी,जो अब डिजिटल इंडिया में नस्ली नरसंहारी सत्ता वर्चस्व की विशुद्ध उपभोक्ता संस्कृति है।

उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन के तहत साधु संतों सूफी फकीर बाउलों के क्रांतिकारी विचारों की वजह से पुरोहित तंत्र और सामंतों के वर्चस्ववाले धर्मस्थलों और उत्सवों से  निकलकर सगुण निर्गुण भक्ति के तहत आम जनता को जाति धर्म निर्विशेष आस्था की स्वतंत्रता मिली और तभी से मनुस्मृति व्यवस्था के खिलाफ शूद्रों, अछूतों, आदिवासियों, स्त्रियों का बहुजन आंदोलन शुरु हो गया।

आस्था के इस लोकतंत्र में अपनी आस्था के विपरीत आस्था के विधर्मियों के धर्म और ईश्वर का सम्मान और मनुष्यमात्र से प्रेम की परंपरा का विकास हुआ। निराकार ईश्वर और सर्वेश्वर के सिद्धांत के तहत मनुष्य मात्र को नरनारायण और सेवाधर्म के मानवतावादी धर्म का विकास भी हुआ।

इसके विपरीत धर्म अब कारपोरेट कारोबार है और रवींद्र,नजरुल,लालन फकीर,जयदेव, चैतन्य महाप्रभु,रामकृष्ण,कंगाल हरिनाथऔर स्वामी विवेकानंद के बंगाल में धर्म कर्म का कारपोरेट महोत्सव मनुस्मृति पुनरोत्थान के महोत्सव की राष्ट्रीय झांकी है।


No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors