Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Friday, May 3, 2013

वर्णवादी आरक्षण का सर्वव्यापी दायरा एच एल दुसाध





वर्णवादी आरक्षण का सर्वव्यापी दायरा
एच एल दुसाध
गैर-मार्क्सवादियों से संवाद-13 वर्णवादी आरक्षण...
Dusadh Hari Lal 11:53pm May 2
गैर-मार्क्सवादियों से संवाद-13 
वर्णवादी आरक्षण का सर्वव्यापी दायरा
एच एल दुसाध
कार्ल मार्क्स संभवतः पहला समाज विज्ञानी था जिसने मानव जाति के संघर्ष के मूल अंतर्विरोध की पहचान करने का सबल प्रयास किया और इस दिशा में अपने गहन अध्ययन के निष्कर्ष स्वरूप घोषित किया कि मानव जाति का इतिहास आर्थिक व वर्ग संघर्ष का इतिहास है.किन्तु उनके इस निष्कर्ष से कुछ लोगों को आपत्ति हो भी सकती है,पर यदि दुराग्रहमुक्त होकर हम भारत के इतिहास को परिभाषित करें तो इस बात से कोई इनकार कर ही नहीं सकता कि इसका इतिहास आरक्षण पर केंद्रित संघर्ष का इतिहास है.कारण,धन-सम्पदा सहित और भी जिन-जिन विषयों को लेकर मानव-मानव के में संघर्ष होता रहा है वे सब चीजें वर्णवादी आरक्षण के संग अंतर्गुथित रही हैं.
मसलन सामाजिक मर्यादा को लिया जाय.यह समय-समय पर संघर्ष का सबब बनती रहती है.भारत को छोड़कर शेष विश्व में ही सामाजिक मर्यादा के निर्धारण में व्यक्ति/समूहों की आर्थिक उपलब्धि व उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व की मात्रा ही निर्णायक रोल अदा करती रही है.किन्तु अपवाद स्वरूप भारत में सामाजिक व मानवीय मर्यादा वर्ण-व्यवस्था (हिंदू-आरक्षण) में अन्तर्निहित रही.जो सामाजिक समूह जितना ही उच्चतर वर्ण में अवस्थित रहता है वह उतना ही इस लिहाज़ से समृद्ध रहता है जबकि निम्नस्तर वालों की स्थिति विपरीत रहती है.सामाजिक मात्रा वर्णानुक्रम में आरक्षित रहने के कारण शुद्रातिशूद्र जितना भी धन संग्र कर लें,वे कंगाल बाबाजी या बाबूसाहेब के समक्ष नतमस्तक रहने के लिए बाध्य हैं.इस लिहाज़ से लक्ष्मी पुत्रों की स्थित भी हिंदू ईश्वर के जघन्य अंग (पैर) से जन्मे लोगों से खूब बेहतर नहीं रही.सामाजिक सम्मान जन्मसूत्र से वर्ण विशेष के साथ अंतर्गुथित होने के कारण क्षत्रिय भारतीय जन-अरण्य का सिंह होकर भी दस वर्ष के ब्राह्मण-बालक को पिता तुल्य आदर देने के लिए विवश रहे हैं.सामाजिक मर्यादा वर्णानुक्रम में आरक्षित होने का ही परिणाम है कि पिरामिडनुमा वर्ण-व्यवस्था के शिखर पर अवस्थित एक तबका 'भूदेव'की जन्मजात मर्यादा से भूषित रहा तो सर्व निम्न में अवस्थित लोग 'मानवेतर' बनकर घृणा का पात्र बने रहने लिए आज भी अभिशप्त हैं.सामाजिक मान-सम्मान के निर्धारण में वर्ण-व्यवस्था का इतना अहम रोल रहा कि इसके निम्नतर में अवस्थित लोगों के लिए उच्चतर वालों जैसा नाम रखने का भी अवसर नहीं रहा.
अब जरा धर्म पर आया जाय .भारत के जाति समाज में धर्म अगर संघर्ष का कोई मुद्दा है तो वह भी आरक्षण से परे नहीं रहा .अगर इस देश में ऋषित्व के आकांक्षी विश्वमित्र त्रिशंकू बनने और शम्बूक अपना सर कलम करवाने के लिए अभिशप्त रहे तो उसके मूल में वर्ण-व्यवस्था का आरक्षणवादी चरित्र ही जिम्मेवार है.वर्ण धर्म अर्थात हिंदू-धर्म को छोड़कर अन्यान्य संगठित धर्मों के अनुसरणकारियों को आध्यात्मानुशीलन के पूर्ण अधिकार के साथ-साथ मौलवी ,फादर,ग्रंथी-ज्ञानी इत्यादि बनने का अवसर मुक्त रहा,पर वर्णवादी हिंदू समाज में नहीं.वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत आनेवाले लोगों में पंडा,पुरोहित,शंकराचार्य कौन बनेगा ,यह अधिकार वर्णवादी आरक्षण से जुड़ा है.इस क्षेत्र में आरक्षण सर्वशक्ति के साथ क्रियाशील रहने के कारण ही शूद्र साधक विवेकानंद शिकागो विश्व धर्म सम्मलेन में सर्वश्रेष्ठ धर्मज्ञ का ख़िताब जीतकर भी भारत में किसी धाम का शंकराचार्य न बन सके.यही नहीं धर्म के क्षेत्र में सदियों से जारी आरक्षण के चलते ही वर्ण-व्यवस्था के विधानों द्वारा परिचालित होनेवाले शुद्रातिशूद्रों सहित तमाम महिलाओं,जिनमें द्विजों की स्त्रियां भी हैं,को ही सदियों से जीवन के चरम लक्ष्य, 'मोक्ष' के लिए जरुरी आध्यात्मानुशीलन के अवसरों से वंचित रहना पड़ा.आध्यात्मानुशीलन की जगह मोक्ष के लिए जहां दलित-पिछड़े समुदाय को तीन उच्चतर वर्णों की निष्काम सेवा में प्रवृत रहना पड़ा वहीँ महिलायें पति चरणों में मोक्ष संधान के लिए अभिशप्त रहीं.
आज आध्यात्म के क्षेत्र में बाबा रामदेव,धर्मेन्द्र स्वामी,उमा भारती,ऋतंभरा जैसे ढेरों शूद्र-शुद्राणियों का उदय तथा देवालयों में कोटि=कोटि दलित-पिछड़े समुदाय के भक्त-भक्तिनियों की भीड़ देखकर कोई भी इस बात पर सहजता से विश्वास नहीं करेगा कि हिंदू-धर्म उर्फ वर्ण धर्म के अंतर्गत आनेवाली देश की बहुसंख्य आबादी के लिए ही धार्मिक क्रिया-कलाप पूरी तरह से निषिद्ध रहे.अगर हिंदू धर्मशास्त्रों में कुछ सच्चाई है तो पूजा-पाठ करनेवाले तमाम अद्विजों का नर्क में जाना अवधारित है.कारण,हिंदू धर्मशास्त्रों ने मात्र तीन उपरी वर्णों की निष्काम –सेवा में ही मोक्ष ढूँढने का निर्देश दे रखा है.लेकिन जो लोग ब्राह्मण,क्षत्रिय,और वैश्यों की सेवा छोड़कर राम ,कृष्ण,वैष्णो माता इत्यादि का सेवा कर पुलकित हो रहे हैं ,वे सिर्फ मैकाले की आईपीसी और आंबेडकर के संविधान प्रदत अवसरों का दुरूपयोग कर रहे है.आईपीसी और भारतीय संविधान लागू होने के पूर्व जब देश में मनु का कानून प्रभावी था,तुकाराम,नंदनार,रैदास इत्यादि को अपनी आध्यात्मिक पिपासा शांत करने के लिए वैकल्पिक मार्गों का अवलंबन करना पड़ा था.
बहरहाल हिदू-धर्म में बहुसंख्यक आबादी के लिए आध्यात्मानुशीलन का निषेध तथा अच्छा नाम रखने की मनाही मानव सभ्यता के इतिहास की एक विरल घटना है.जो लोग यह मानते हैं की आर्य विदेशी नहीं थे ,वे अगर ऐसी निर्मम निषेधाज्ञाओं के पीछे क्रियाशील मनोविज्ञान का खुलासा करने की जहमत उठाते हैं तो उन्हें वर्ण व्यवस्था के प्रवर्तकों की विदेशी मानसिकता की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ेगी.वर्णवादी आरक्षण के माध्यम से सारी भौतिक सुविधाएं आरक्षित करने के बाद,पराधीन मूलनिवासियों की भावी पीढ़ी को अपने वंशधरों की निःशुल्क सेवा में लगाने के लिए ही,उन्होंने धर्म शास्त्रों में प्रावधान किया कि शूद्रातिशूद्र मोक्ष के लिए हरि-सेवा नहीं,तीन उच्चतर वर्णों की निष्काम सेवा करें.यदि समग्र मानव जाति के इतिहास का सिंहावलोकन करें तो पता चलेगा कि आर्य साम्राज्यवादियों धर्म की आड़ में जिस निर्ममता और धूर्तता से पराधीन मूलनिवासियों के सस्ता ही नहीं,निःशुल्क श्रम का दोहन किया सम्पूर्ण इतिहास की ही वह बेनाजीर घटना है.
अब धर्म से हटकर नारियों पर ध्यान केंद्रित किया जाय.कहा जाता है कि धन-धरती के बाद सारी दुनिया में सर्वाधिक खून खराबा नारियों के लिए हुआ है.अगर भारत में कभी यह संघर्ष का मुद्दा रहा तो इसके भी तार वर्ण-व्यवस्था से जुड़े हैं.वर्ण-व्यवस्था में प्रतिलोम विवाह की कठोरता पूर्वक निषेधाज्ञा और अनुलोम विवाह की शास्त्र सम्मतता के रास्ते ऐसा प्रावधान रचा गया कि शासक जमात के अगुवा ब्राह्मणों को निज वर्ण के साथ नीचे के तीन वर्ण ;क्षत्रियों को निज वर्ण के साथ नीचे के दो वर्ण और वैश्यों को निज वर्ण के साथ शुद्रातिशूद्र वर्ण की महिलाओं को पत्नी/उप-पत्नि बनाकर यौन लालसा चरितार्थ करने का अवसर सदियों से मुक्त रहा .इस मामले में चौथे वर्णवाले ऊपर के तीन वर्ण के लोगों को इर्ष्या करने के लिए अभिशप्त रहे.यदि देवदासी तथा बहुपत्निवादी –प्रथा के पृष्ठ में क्रियाशील कारणों की तफ्तीश की जाय तो यही पता चलेगा कि हिंदू साम्राज्यवादियों ने अपनी अपार यौन कामना की पूर्ति के लिए ही वर्ण-व्यवस्था में तरह-तरह की विवाह पद्धति व प्रथाओं को जन्म दिया था.
उपरोक्त तथ्यों की रोशनी में यह सुस्पष्ट है कि भारत में अन्तर्विरोध व संघर्ष के सारे मुद्दे-आर्थिक ,राजनीतिक,धार्मिक-सांस्कृतिक–सेक्स और सामाजिक मर्यादा इत्यादि-हिदू-आरक्षण (वर्ण-व्यवस्था) के साथ अंतर्गुथित रहे.चूँकि वर्ण-व्ववस्था विशुद्ध रूप से एक आरक्षण व्यवस्था के रूप में क्रियाशील रही और सदियों से देश वर्ण-व्यवस्था द्वारा परिचालित होता रहा है,इसलिए भारतवर्ष का इतिहास चीख-चीख कर कह रहा है कि इसका इतिहास आरक्षण पर कन्द्रित संघर्ष का इतिहास है.
मित्रों उपरोक्त तथ्यों के आईने में निम्न शंकाएं आपके समक्ष रख रहा हूँ- 
1-जिस तरह भारत के मूलनिवासियों को धन-धरती और शिक्षा के साथ ही धार्मिक क्रियाकलाप व अच्छा नाम तक रखने तक से वंचित किया गया है,क्या समूर्ण मानव जाति के इतिहास में किसी अन्य साम्राज्यवादी ने वैसा बर्बर कार्य अंजाम दिया है?
2-वर्ण व्यवस्था के प्रावधानों के तहत धन-धरती और शिक्षा से वंचित करने के साथ ही जिस तरह शुद्रातिशूद्रों को अध्यात्मानुशीलन व अच्छा नाम रखने तक से रोका गया उसके आधार पर क्या दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तक निर्मम विदेशी थे जिनमें मूलनिवासियों के प्रति रत्ती भर भी आत्मीयता नहीं थी?
3-मोक्ष के लिए शास्त्र और शस्त्र की जोर से जिस तरह तीन उच्चतर वर्णों की निष्काम सेवा में लगाकर,भारत की शासक जातियों ने कई हज़ार सालों तक शुद्रातिशूद्रों के श्रम का प्रायः निःशुल्क दोहन किया गया है,वैसा दृष्टान्त क्या दुनिया के किसी और साम्राज्यवादी सत्ता ने स्थापित किया है? 
4 -उपरोक्त लेख के निष्कर्ष स्वरूप कहा गया है, 'भारत का इतिहास चीख –चीख कर कह रहा है कि इसका इतिहास आरक्षण पर केंद्रित संघर्ष का इतिहास है' क्या आपको इससे आपत्ति है?अगर है तो क्यों? 
तो मित्रों आज इतना ही. मिलते हैं फिर कुछ और नई शंकाओं के साथ.
दिनांक:2 मई,2013 जय भीम-जय भारत

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors