Monday, 02 September 2013 10:12 |
विकास नारायण राय पहली नजर में दोनों प्रश्न असंबद्ध नजर आ सकते हैं। पर दोनों के पीछे एक ही लैंगिक मनोवृत्ति की भूमिका को देख पाना मुश्किल नहीं है। दिल्ली, मुंबई के हैवान अपने गांवों, कस्बों में भी वही सब कर रहे होते हैं, जो करते वे अब पकड़े गए हैं। वे इतने दुर्लभ लोग भी नहीं; उनके जैसे बहुतेरे अपने-अपने स्तर पर स्त्री-उत्पीड़न के 'सहज' खेल में लगे होंगे। गांवों, कस्बों में ये बातें प्राय: दबी रह जाती हैं। यहां तक कि महानगरों में भी ज्यादातर मामले सामने नहीं आ पाते; विशेषकर अगर पीड़ित किसी झुग्गी या चाल की रिहायशी हो तो उसे चुप कराना और भी आसान होता है। पैसे का प्रलोभन, गुंडा-शक्ति का प्रभाव, लंबी-खर्चीली-थकाऊ कानूनी प्रक्रिया, प्राय: इस काम को हैवानों के पक्ष में संपन्न कर जाती हैं। रसूख वाले आरोपियों की लंबे समय तक चलती रहने वाली वैधानिकता के पीछे भी इन्हीं कारणों का सम्मिलित हाथ होता है। उनके शिकार प्राय: उनके अपने भक्त ही हुआ करते हैं, जिनका मानसिक अनुकूलन अन्यथा गुरु की 'कृपा' से अभिभूत बने रहने का होता है। लिहाजा, उन्हें दबा पाना और आसान हो जाता है। इसमें समान रूप से अभिभूत अन्य भक्तों का समूह भी भूमिका अदा करता है। ऊपर से उन भक्त-समूहों को चुनावी या समाजी भेड़ों के रूप में देखने वाले निहित स्वार्थों के स्वर भी इसमें शामिल हो जाते हैं। आसाराम के मामले में धीमी कानूनी कार्रवाई पर राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों और मीडिया समूहों की दबी-जुबानी इन्हीं प्रभावों का परिणाम है। भारतीय समाज में स्त्री के विरुद्ध हिंसा को लेकर हलचल की कमी नहीं है। जरूरत है इसे सही और प्रभावी दिशा देने की। यह समझ बननी ही चाहिए कि पुरुष पर निर्भरता के रास्ते स्त्री को सुरक्षित नहीं बनाया जा सकता। स्त्री विरोधी हिंसा से मुक्ति का रास्ता स्त्री की स्वाधीनता से होकर ही जाएगा। लैंगिक स्वाधीनता के मुख्य तत्त्व होंगे: संपत्ति और अवसरों में समानता; घर-समाज-कार्यस्थल पर निर्णय प्रक्रियाओं में स्त्री की बराबर की भागीदारी; सार्वभौमिक यौन-शिक्षा की अनिवार्यता; कानून-व्यवस्था में लगे तमाम राजकर्मियों, विशेषकर पुलिस और न्यायिक अधिकारियों का हर रूप में (व्यक्तिगत, सामाजिक, पेशेवर) स्त्री के प्रति संवेदनशील होने की पूर्व-शर्त; महानगरीय जीवन में गांवों-कस्बों से किसी भी स्तर पर औचक प्रवेश करने वालों के लिए अनिवार्य 'परिचय कार्यशाला', और एक ऐसी कानूनी प्रक्रिया जिसमें पीड़ित को न्याय के दरवाजों (थाना, कचहरी, क्षतिपूर्ति आदि) पर धक्के न खाने पड़ें, बल्कि न्याय के ये आयाम स्वयं पीड़ित के दरवाजे पर चल कर आएं और समयबद्धता की जवाबदेही से बंधे हों। दरअसल, अपराध न्याय-व्यवस्था की एजेंसियों की पेशेवर कार्यकुशलता के दम पर इसे संभव नहीं किया जा सकता। लैंगिक सोच के स्तर पर वहां भी आसारामी तर्क हावी हो जाते हैं। मुंबई पुलिस आयुक्त ने एक टीवी बहस में मुंबई बलात्कार कांड की पीड़ित लड़की की यौनिक असुरक्षा के लिए उसकी लैंगिक स्वाधीनता को जिम्मेदार ठहराया। उनकी नजर में लड़की का पुरुष-मित्र के साथ होना ही उस पर हुई यौनिक हिंसा का कारण है। प्रतिप्रश्न बनता है कि अगर लड़की अपने भाई, पिता या सहकर्मी के साथ होती तो क्या शिकार होने से बच जाती? आसाराम ने दिल्ली में सोलह दिसंबर के बलात्कार कांड की शिकार बनी लड़की की इसलिए भर्त्सना की थी कि उसने बलात्कारियों के हाथ में राखी बांध कर उन्हें भाई क्यों नहीं बना लिया। आसाराम का यह तर्क और लैंगिक स्वाधीनता को कोसता पुलिस आयुक्त का तर्क एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसीलिए सबसे बढ़ कर, राज्य के लिए नीति और योजना के स्तरों पर लैंगिक समानता का सिद्धांत लागू करना अनिवार्य हो, और परिवार और समाज भी स्त्री की यौनिक पवित्रता की मरीचिका का पीछा करना छोड़ उसके सशक्तीकरण पर स्वयं को केंद्रित करें। अनुभवी प्रतिबद्ध समाजकर्मियों का- पेशेवर न्यायविदों-नौकरशाहों-राजनेताओं का नहीं- एक अधिकारप्राप्त स्वायत्त प्राधिकरण इस जटिल और बहुस्तरीय सामाजिक, कानूनी, विधायी, प्रशासनिक प्रक्रिया की निगरानी और मार्गदर्शन करे।
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Monday, September 2, 2013
कैसे थमेगी स्त्री विरोधी हिंसा
कैसे थमेगी स्त्री विरोधी हिंसा
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