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Monday, July 12, 2010

बीच सफ़हे की लड़ाई

हाशिया


बीच सफ़हे की लड़ाई

गरीब वह है, जो हमेशा से संघर्ष करता आ रहा है. जिन्हें आतंकवादी कहा जा रहा है. संघर्ष के अंत में ऐसी स्थिति बन गई कि किसी को हथियार उठाना पड़ा. लेकिन हमने पूरी स्थिति को नजरअंदाज करते हुए इस स्थिति को उलझा दिया और सीधे आतंकवाद का मुद्दा सामने खड़ा कर दिया. ये जो पूरी प्रक्रिया है, उन्हें हाशिये पर डाल देने की, उसे भूल गये और सीधा आतंकवाद, 'वो बनाम हम ' की प्रक्रिया को सामने खड़ा कर दिया गया. ये जो पूरी प्रक्रिया है, उसे हमें समझना होगा. इस देश में जो आंदोलन थे, जो अहिंसक आंदोलन थे, उनकी क्या हालत हमने बना कर रखी है ? हमने ऐसे आंदोलन को मजाक बना कर रख दिया है. इसीलिए तो लोगों ने हथियार उठाया है न?

अरुंधति राय से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत.

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  • हंस के संपादक राजेंद्र यादव को एक और चिट्ठी

    Posted: Mon, 12 Jul 2010 13:07:00 +0000
    दिल्ली में होने जा रहे हंस के सालाना जलसे पर जनज्वार ने कुछ सवाल उठाये थे. उन सवालों पर ज्यादातर पाठकों ने सहमति जाहिर की. मसला जलसे पर न अटके और बात साहित्य के सरोकारों तक पहुंचे, इसके मद्देनज़र जनज्वार अगला लेख युवा पत्रकारविश्वदीपक का प्रकाशित कर रहा है. लेख के साथ एक तस्वीर भी प्रकाशित की जा रही है जो वामपंथी लेखकों के मौजूदा सरोकारों की घनीभूत अभिव्यक्ति है. उम्मीद है कि लेख और तस्वीर दोनों ही बहस को एक नए धरातल पर पहुंचाने का जरिया बनेंगी-अजय प्रकाश.

    आदरणीय राजेंद्र जी,

    पहले 'जनज्वार' से जानकारी मिली और फिर 'समयांतर' से इसकी पुष्टि हुई कि आप इस बार 'हंस' की सालाना गोष्ठी में छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन को बोलने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं। 'हंस' अपनी स्थापना की सिल्वर जुबली मना रहा है-ये हम सब के लिए खुशी की बात है, लेकिन अपनी पच्चीसवीं सालगिरह पर आप 'हंस' को ये तोहफा देंगे इसकी उम्मीद नहीं थी। अब जबकि 'हंस' अपनी भरी जवानी को महसूस कर सकता है इस तरह इसे 'को-आप्ट' होने की प्रक्रिया में ले जाने का क्या मतलब?

    'प्रगतिशील चेतना के वाहक' के तौर पर 'हंस' निश्चित रूप से आपका व्यक्तिगत प्रयास है, पर ये इस देश की संघर्षशील जनता की आकाक्षांओं का प्रतिबिंब भी है। इस पत्रिका के जरिए आप उन लाखों के संघर्ष से तादात्मय बिठाने में सफल रहे हैं जिन्हे हर समय की सत्ता ने हाशिए पर धकेल रखा है। यही वो बिंदु है जहां आपकी चेतना एक पहचान पाती हैं, लेकिन इस बार आपने 'हंस' की गोष्ठी में विश्वरंजन को आमंत्रित कर खुद को उन्ही लोगों की जमात में शामिल कर दिया है जो ये मानते हैं कि बीच का भी कोई रास्ता होता है, कि माओवादियों और सरकार के बीच संघर्ष का मुख्य मुद्दा 'विकास' है! सरकार पिछले साठ सालों से उपेक्षित हिस्से का विकास करना चाहती है और माओवादी विकास के खिलाफ हैं!

    कमजोरों के खून से सने इन तर्कों के पीछे की मंशा आप नहीं समझते ऐसा नहीं है! फिर राज्य प्रायोजित हिंसा के सबसे बड़े कमांडर को मंच देकर आप क्या साबित करना चाहते हैं? क्या आपको लगता है कि सरकार के पास अभी भी अपनी सफाई में कुछ कहने को बाकी है? भारतीय राज्य की नेक नीयत पर अगर आपको इतना ही भरोसा है तो फिर आप जो चाहें कर सकते हैं, लेकिन सवाल ये है कि क्या विश्वरंजन जैसे लोगों को मंच देने के बाद आपकी साख यथावत रहेगी? जिस छवि को आपने व्यक्तिगत रिश्तों की कुर्बानी और साहित्य की स्थापित वैचारिक सत्ताओं के खिलाफ संघर्ष करके अर्जित किया है उसको मिट्टी में  मिलाने में क्यों तुले हैं आप?

    संभवत: आप मानते हैं कि विश्वरंजन जैसे हत्यारों को मंच देकर आप राज्य प्रायोजित हिंसा के विरोधाभास को उजागर कर पाएंगे- तो ऐसा नहीं है। आप जानते हैं विश्वरंजन बीजेपी की फासीवादी सरकार के चहेते हैं, इसलिए नहीं कि वो बहुत काबिल अधिकारी हैं बल्कि इसलिए कि बीजेपी की नस्लवादी और बुनियादी तौर पर हिंसक सोच को अमल में लाने और वैधता प्रदान करवाने के लिए विश्वरंजन अधिकारी की सीमा से बाहर जाकर व्यक्तिगत प्रयास भी करते हैं। इसी तरह वो कांग्रेस के भी विश्वसनीय हैं। वजह यहां भी साफ हैं। मध्यवर्ग की राजनीति करते-करते कांग्रेस जिस हिंस्र-कॉर्पोरेट-डेमोक्रेसी को एक मॉडल के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में है विश्वरंजन उसके लिए मैंदान साफ कर रहे हैं।

     ये अनायास नही है कि अरुंधति भारतीय राज्य को 'बनाना रिपब्लिक' की संज्ञा देती है। क्या आप भारतीय लोकतंत्र के क्लप्टोक्रेसी में तब्दील होने को नहीं समझ पा रहे हैं? या जानबूझकर इससे अनजान बने हुए हैं? भारतीय लोकतंत्र की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है कि जिस संख्या बल के आधार पर ये दुनिया के सबसे बड़े और विविध लोकतंत्र होने का दंभ भरता है वही अब इसके निशाने पर है। भारतीय राज्य अब अपने ही आदमियों की हत्या पर आमादा है। और आप हत्यारों के सरदार को मंच देने के लिए बेताब हैं!


    आप जानते हैं कि अमेरिकी कारपोरेट-साम्राज्यवाद के छोटे उस्ताद के तौर पर भारत ने कल्याणकारी राज्य होने की चाहत खो दी है। अब भारतीय राज्य की चिंता ये नहीं है कि हमारे जनगण का जीवन कैसा है, बल्कि उसकी चिंता अब ये है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश के लिए कैसे माहौल उपल्ब्ध कराया जाय, कैसे मिशन-चंद्रयान को पूरा किया जाय और कैसे अमेरिकी कंपनियों के लिए भारत के बाजार को हरम में तब्दील कर दिया जाय!

    लेकिन इससे भी शातिराना मंशा ये है कि इस पूरी साजिश को विकास के लुभावने नारे की शक्ल में पेश किया जा रहा है। विश्वरंजन जैसे लोग आज २०१० में वही भूमिका अदा कर रहे हैं जिसकी कल्पना औपनिवेशिक काल में मैकाले ने की थी। अमेरिकी सैन्य साम्राज्यवाद के लिए अनुकूल माहौल तैयार करवाने वाले वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर हम विश्वरंजन को चिन्हित करते हैं। और आप इसे उस बौद्धिक सरकारी प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में हैं जो कवि है और इसीलिए प्रगतिशील भी है? सही भी है? आपकी भावभंगिमा से लगता है कि आप उस हिंसक और कठोर सामंत के साथ है जिसे कल्याण की मंशा के तहत जनता पर चाबुक चलाने का दैवी अधिकार प्राप्त होता है!

    आप ये कह सकते हैं कि 'लोकतंत्र' की परंपरा में विरोधी को भी बोलने की आजादी है और विचारों का संघर्ष दरअसल एक स्वस्थ्य परंपरा है। ये तर्क 'सुअरबाड़े' (चिदंबरम ने दंतेवाड़ा की घटना के बाद माओवाद के मसले पर संसद में बयान देते वक्त इस शब्द को कोट किया था) में तब्दील हो चुकी संसद के बारे में भी कहा जाता है, लेकिन आजादी के वर्तमान ढांचे के अंदर सत्ता और विपक्ष जो खेल खेलता है उससे आप अच्छी तरह वाकिफ है।

    सर, वक्त कम है और शिकायतें ज्यादा। नुकीली चुभती हड्डियों और आंसुओं के अलावा हमारे पास कुछ नहीं...इसी से हमारा प्रतिरोध खड़ा हो रहा है। मनमोहन और सोनिया के राज में जिस दलाल-हत्यारे वर्ग का उदय हुआ है उसे आप जस्टीफाई कैसे कर सकते हैं? सलवा जुडूम के दौर में हुई हत्याओं, बलात्कारों और मासूमों के कत्ल के बारे में विश्वरंजन की भूमिका को लेकर अगर अभी भी आपके मन में संदेह की गुंजाइश है तो फिर आपसे संवाद की कोई जमीन नहीं बचती है। (In Maoist Country, by Gautan Navlaka and John Myrdal, Economic and political weekly april 17-31, 2010 में गौतम नौलखा ने लिखा है कि सलवा जुडूम के दौर में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 640 गांव बंदूक की नोंक पर खाली कराए गए, 3 लाख 50 हजार यानि दंतेवाड़ा जिले की आधी जनसंख्या अपना घर बार छोड़ने के लिए मजबूर हुई है, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, बहू बेटियों को मार दिया गया.

    आप उन कुछ दुर्गों में  हैं जो अभी तक ढहे नहीं है. फिर भी आप ढहने को  तैयार हैं तो हमारे पास इस विध्वंस को  मंजूर करने के अलावा कोई विकल्प नहीं।


    आपका
    विश्वदीपक 

    और एक तसवीर, ताकि सनद रहे 
    यारी देख ली, अब ईमान खोजें : दाहिने से खगेंद्र ठाकुर,  नामवर सिंह,  किताब विक्रेता अशोक  महेश्वरी, डीजीपी विश्वरंजन, कवि अरुण कमल और आलोकधन्वा : चचा आलोक आप  गाय घाट पर माला जपते,  तो भी अपने बुजुर्गों  हम शर्मिंदा न होते.


    अग्रसारित- उन सुधीजनों को जिन्हें मुल्क के बेहतरी की चिंता है.

    अजय प्रकाश के ब्लॉग जनज्वार से साभार
  • नामवर और चंद्रबली को छोड़ हिंदी अज्ञानियों से भरी पड़ी है

    Posted: Wed, 07 Jul 2010 12:38:00 +0000
    गिरीश मिश्र ने यह पत्र हरिवंश को प्रभात खबर में रविभूषण के आलेख हिंदी आलोचना का नया बखेड़ा के प्रकाशन के बाद उस पर प्रतिक्रिया के रूप में लिखा था. मूलतः अंगरेजी के इस पत्र के संपादित अंशों को हिंदी में अनुवाद करके प्रभात खबर ने अपने पत्रोंवाले स्तंभ में कुछ दिनों पहले प्रकाशित किया था. हम यहां प्रभात खबर में प्रकाशित पत्र, उस पर अखबार की ओर से लगाई गई टिप्पणी तथा गिरीश मिश्र का मूल अंगरेजी पत्र पोस्ट कर रहे हैं.

    31 मई, 2010 को चतुर्दिक स्तंभ के अतंर्गत प्रकाशित स्तंभकार रविभूषण के आलेख 'हिंदी आलोचना का नया बखेड़ा' पर गिरीश मिश्र का पत्र प्राप्त हुआ है. विषय की गंभीरता के मद्देनजर हम इसे प्रकाशित कर रहे हैं. यद्यपि पत्र में लिखित कुछ अशालीन शब्द और वाक्य हटा दिये गये हैं, परंतु पत्र की मूल भावना यथावत रखने की कोशिश की गयी है. इस विषय पर अब और आगे किसी भी किस्म की टिप्पणी प्रकाशित करना हमारे लिए संभव नहीं होगा.
    -संपादक (प्रभात खबर)

    संपादक महोदय,
    मुझे अभी-अभी एक आलेख मिला है. इसका शीर्षक है हिंदी आलोचना का नया बखेड़ा. इसे रविभूषण ने लिखा है. यह आपके समाचारपत्र में 31 मई, 2010 को प्रकाशित हुआ है.
    ऐसा प्रतीत होता है कि यह कुछ वर्ष पहले मेरे द्वारा अपने मित्र डॉ पीएन सिंह, गाजीपुर को लिखे एक निजी पत्र में उठाये गये मुद्दों का खंडन है.  हाल में इस पत्र का हिंदी अनुवाद वाराणसी से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका साखी में छपा है.
    ऐसा लगता है कि रविभूषण इतने अधीर हो गये कि मेरे द्वारा साखी पत्रिका में उठाये गये मुद्दों का खंडन करने के बजाय आपके साथ संबंधों का दुरुपयोग कर आपके समाचारपत्र में एक लंबा आलेख लिखकर मुझ पर दुर्भावनापूर्ण हमला किया, जबकि मेरा मूल पत्र आपके पाठकों की पहुंच में नहीं है. आप मुझसे सहमत होंगे कि यह पूर्णतया अनुचित है और एक ईमानदार संपादक के रूप में आपको इसकी अनुमति नहीं देनी चाहिए थी.
    जिस जल्दीबाजी में उन्होंने यह आलेख लिखा है, और जिस तरह से उन्होंने मेरे मेरे तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया है- इसे देख कर यही लगता है, कि उन्हें ऐसा लिखने के लिए किसी ने उकसाया है या गलत तरीके से प्रेरित किया है.
     मैं पांव पूजने की संस्कृति में विश्वास नहीं रखता हूं. मैं तथ्यों और तर्कों के साथ अपनी बात कहने में विश्वास रखता हूं. मैंने हमेशा से ही डॉ रामविलास शर्मा के साहित्येतर लेखन को आधारहीन कहा है. मैंने ऐसा कई बार डॉ शर्मा के सामने भी कहा है, जब वे जीवित थे. वैसे, डॉ शर्मा और उनके छोटे भाई राम शरण शर्मा 'मुंशी' के साथ मेरे मधुर संबंध रहे हैं. राम शरण ने मेरे द्वारा अनुदित बहुत सारी पुस्तकों का संपादन किया है. आपके स्तंभकार इसकी पुष्टि कर सकते हैं. डॉ शर्मा के जीवित रहते मैंने उनकी पुस्तक भारत में अंगरेजी राज की आलोचना लिखी थी. यह आलोचना पत्रिका में छपी थी. तब डॉ शर्मा ने इस संदर्भ में कुछ आलोचनाओं को स्वीकार करते हुए मुझे एक पत्र लिखा था. उनके द्वारा किया गया मार्क्स की 'पूंजी' (भाग-2) का अनुवाद भयावह है.  इसके बारे में उन्होंने अपने एक प्रशंसक को लिखे एक पत्र में  बताया कि मास्को के लोगों ने उनके अनुवाद को पूरी तरह से बदल डाला था. तब मैंने सवाल उठाया था कि वे क्यों नहीं सार्वजनिक तौर पर इस काम से खुद को अलग कर लेते हैं. मैं इस बातपर दृढ़ हूं कि वे एक महान साहित्यकार होंगे, लेकिन जहां तक क्लासिकल इकोनॉमिक्स, इसके पहलुओं, मान्यताओं और इसकी शब्दावली की बात है तो वे इस बारे में कुछ नही जानते थे. आप इस संबंध में डॉ शर्मा के दूसरे महान प्रशंसक विश्वनाथ त्रिपाठी से संपर्क कर सकते हैं, जिनके साथ मेरी इस आशय को लेकर एक बार बहस हुई थी. अंत में उन्होंने छटपटाते हुए कहा था कि पूंजी का वह अनुवाद डॉ शर्मा का है ही नहीं!
    डॉ शर्मा का यह दावा कि आर्य हमारी मातृभूमि के ही हैं, पूरी तरह से गलत है. शायद आप नयन चंदा के नाम से परिचित हों, जिन्होंने वर्षों तक फार इस्टर्न इकोनोमिक रिव्यू का संपादन किया. वर्तमान में वे येल यूनिवर्सिटी से जुड़े हुए हैं. दो वर्ष पहले चंदा की पुस्तक बाउंड टुगेदर छप कर आयी है. इस पुस्तक में वैज्ञानिक तथ्यों के साथ बताया गया है कि मानव का जन्म अफ्रीका में हुआ और यहीं से वह दुनिया भर में फैले. इसी तरह डॉ शर्मा की अनभिज्ञता या असावधानी निराला पर लिखी गयी एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना में साफ दिखाई देती है, जिसमें उन्होंने महिषादल को नेटिव स्टेट बताया है जबकि वह एक जमींदारी एस्टेट था.
    जहां तक मैनेजर पांडेय का सवाल है, तो न सिर्फ उनकी किताब के फ्लैप पर बल्कि उसकी अंदरूनी सामग्री में भी व्याकरण संबंधी अशुद्धियां हैं. सालों पहले मैनेजर पांडेय ने दावा किया था कि महावीर प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक संपति शास्त्र आज भी अर्थशास्त्र के छात्रों के लिए उपयोगी है. इसी तरह बहुत दिन नहीं हुए जब उन्होंने कहा कि फकीरमोहन सेनापति पहले साहित्यकार थे, जिसने स्थायी बंदोबस्ती के विभिन्न पहलुओं के बारे में लिखा था. मैनेजर पांडेय इस बात से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं कि रेवरेंड लाल बिहारी डे का चर्चित उपन्यास बंगाल पीजेंट लाइफ, वर्ष 1870 के पूर्वार्द्ध में छपा था. इसकी प्रशंसा किसी और ने नहीं बल्कि चार्ल्स डार्विन जैसे प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने की थी. इसका पहला संस्करण गोविंद सामंत के नाम से छपा था.
    मैं ऐसे कई उदाहरण दे सकता हूं कि जिससे पता चलता है कि हिंदी का वर्तमान साहित्यिक संसार अज्ञानियों से भरा पड़ा है. प्रोफेसर नामवर सिंह और प्रोफेसर चंद्रबली सिंह जैसे लोग बहुत दुर्लभ हैं.
    किसी मुद्दे पर अधिकांश लोगों की राय के हिसाब से अपनी राय नहीं बनाता हूं. कम से कम तब तक नहीं, जब तक कि मैं इसकी सत्यता की पुष्टि न कर लूं. इसी तरह मेरे प्रिय मित्र डॉ पीसी जोशी ने डॉ शर्मा के बारे में जो कहा है, वह अलग है. ऐसा प्रतीत होता है कि आपके स्तंभकार को तर्कशास्त्र का ज्ञान नहीं है, चाहे वह हिंदुस्तानी हो या यूनानी. यहां तक कि उन्होंने हरिमोहन झा की कहानियां भी नहीं पढ़ी हैं.
    शुभकामनाओं के साथ
    गिरीश मिश्र

    An Ignoramus as Your Columnist
    I have just received a clipping of an article by some one called Ravibhushan, "Hindi Alochana ka Naya Bakheda", published in your daily dated 31st May.
    This is supposed to be a refutation of the points raised by me in a personal letter to my friend Dr. P.N.Singh of Ghazipur, some years ago. Recently this letter appeared in Hindi translation in a journal Sakhi, published from Varanasi.
    It seems Mr. Ravibhushan became so impatient that, instead of refuting the points raised by me in Sakhi, misused his connections with you to launch a full length malicious attack on me in your paper most of whose readers do not have an access to my original letter. This, you will agree with me, is totally unfair and as an honest editor you should not have allowed it.
    Any way, this gentleman appears to be a hireling for somebody or the other because of the hurry he has shown and distortions of my views he has introduced.
    Let me say at the outset that I do not believe in the culture of feet-touching and bowing with folded-hands. I go by facts and principles of logic. I have always regarded the non-literary writings of Dr. Ram Bilas Sharma as rubbish. I had said it umpteen times even in his face when he was alive. By the way, I had very good personal relations with him and his younger brother Ram Sharan Sharma "Munshi" who was associated with PPH for many decades and edited a number of books translated by me. Your columnist can even now verify this. I had voiced my criticisms in a review article on his book "Bharat Mein Angrezi Raj" in Alochana while he was alive and he wrote a letter to me acknowledging some of the criticisms. Second, his translation of Marx's Capital, Vol. II is horrifying, which he explained in a letter to one of his admirers, saying that his translation was completely altered by the Moscow people. I then raised the question why he did not publicly dissociate himself with it. I assert, he might have been a great literary writer but he was cipher so far as classical economics and nuances of its concepts and terminology were concerned. You may ask Vishwanath Tripathy, another great admirer of Dr. Sharma with whom I had a tiff and in the end he wriggled out saying that the published translation was not that of Dr. Sharma!
    Dr. Sharma's assertion that the Aryans are products of this holy land of ours is completely false. You may be familiar with the name of Nayan Chanda who for many years edited the Far Eastern Economic Review and is now associated with the prestigious Yale University. Chanda's book "Bound Together", published a couple of years ago, has on the basis of scientific facts and figures showing that mankind originated in Africa and from where it spread to various parts of the world in waves over hundreds of thousands of years.
    Dr. Sharma's ignorance or carelessness is obvious in his magnum opus on Nirala. He terms Mahishadal as a native state. In fact it was a zamindari estate.
    As far as Manager Pandey is concerned not only the flap of his book but the text also contains grammatical errors. This "great" critic is no less an ignoramus than your columnist. Years ago he had asserted that Mahavir Prasad Dwivedi's book Sampatti Shastra was still useful for economics students as a source of knowledge. Not many years ago, he asserted that Fakir Mohan Senapati was the first literary writer who had taken up and depicted the various aspects of Permanent Settlement. He was completely unaware of Reverend Lal Behari Day's novel Bengal Peasant Life, published in the first half of 1870s and was praised by none other than legendary Charles Darwin. Its earlier version had appeared as Govinda Samanta.
    I can go on multiplying the instances to show that the present day Hindi literary world is full of ignoramuses and the people like my friends such as Prof. Namwar Singh and Prof. Chandra Bali Singh are very rare.
    I do not go by what the majority of the people say on any topic unless I verify its veracity because in logic there is a fallacy called argumentum ad populum. Hence what my dear friend Dr. P. C. Joshi has said about Sharma is beside the point. It appears that your columnist has no training in logic whether Indian or Greek. He has not even read Hari Mohan Jha's stories.
    With best wishes,
    Girish Mishra,
    M-112 Saket, New Delhi-110017
    Tel. 09811265654         

  • यह आपकी सेना है मिस्टर चिदंबरम

    Posted: Sun, 04 Jul 2010 11:49:00 +0000
    यह आपकी सेना है मिस्टर चिदंबरम
    (और वे इस देश के लोग हैं)
     

    रेयाज उल हक 
    एक तसवीर बहाव को मोड़ सकती है. एक तसवीर, जो एक राष्ट्र को अपनी जड़ता को तोड़ते हुए खुद से पूछने पर मजबूर कर सकती है कि हम बार-बार हो रही ऐसी कितनी आधिकारिक मूर्खताओं को स्वीकार कर सकते हैं और एक विकसित राष्ट्र बनने की खोज में इसे जायज ठहरा सकते हैं और उचित प्रक्रियाओं और मर्यादा को निरंकुश तरीके से नकारने को नजरअंदाज कर सकते हैं. एक तसवीर हमारी आत्मा को जगा सकती है, एक आखिरी झटका, एक फूंक जो किसी सभ्य समाज और एक पूरी तरह बर्बर समाज की मान्यताओं को अलग करनेवाली बारीक लकीर को मिटा सकती है.

    न्गूयेन न्गोक लोन बहुत कम लोगों को याद हैं. लेकिन यह तसवीर बहुत सारे लोगों को याद है. जिस आदमी- एडी एडम्स -ने इस तसवीर को खींचा था, उसे पुलित्जर पुरस्कार मिला था. इस तसवीर ने एक युद्ध की दिशा को मोड़ दिया था. वह युद्ध था- वियतनाम युद्ध.


    और यह युद्ध हमारे अपने देश में हमारे अपने लोगों के खिलाफ चल रहा है. यह तसवीर हमारे अपने देश की है.

    एक साल पहले हम लालगढ़ के गांवों में थे, जहां औरतें हमें बता रही थीं कि कैसे  वे पहली बार आजादी महसूस कर रही थीं. कि कैसे ब्रिटिश शासनकाल से ही उनके पुरखे गुलामी की जिंदगी जी रहे थे और पहली बार उनकी जिंदगी में ऐसे दिन आए हैं जिनके बारे में किसी से बता सकते थे कि वे अपने दिन और रातें अपने तरीके से गुजार रहे हैं.

    यह आजादी उनके लिए वोट देने की आजादी भर नहीं थी. यह वह आजादी थी, जिसमें सुबह शौच के लिए जंगल में जाने के बाद किसी पुलिसवाले के मिलने और तंग किए जाने का डर नहीं था. यह ऐसी आजादी थी, जिसमें जंगल से लकड़ी लेकर लौटते हुए जांच के नाम पर साड़ी खुलवा कर यह पता लगाए जाने का डर नहीं था कि वे महिला ही हैं या इस वेष में कोई पुरुष. उनके लिए रातें इतनी ज्यादा सुकून भरी हो गई थीं कि उन्हें जांच के नाम पर कभी भी और किसी भी समय घर में घुस कर सारा सामान तथा अनाज बिखेर देने और मारपीट करनेवाले पुलिस या अर्धसैनिक बलों का आना सुदूर अतीत का बुरा सपना-सा लगने लगा था. इस आजादी का उनके जानवरों के लिए यह मतलब था कि उनके चरते हुए पकड़े जाने का डर नहीं रह गया था. राष्ट्रीय रोजगार गारंटी तथा पंचायत के दूसरे कामों में लोगों को अब पूरी और बिना किसी धांधली के मजदूरी मिलने लगी थी. सरकारी कर्मचारी अब उनसे रिश्वत मांगने के पहले सोचने लगे थे. इंदिरा आवास के आवेदन जल्दी और बिना किसी घूस के पूरे होने लगे थे. चप्पलवाली पुलिस (सीपीएम की सशस्त्र वाहिनी, हरमाद वाहिनी को लोगों ने यही नाम दिया था) और ब्रिटिश (भारत के अर्धसैनिक बल) का अब गांववालों को डर नहीं रह गया था. जंगल अब फिर से उनका अपना हो गया था. उनके घर के सामने का तालाब अब उनका अपना हो गया था. उनकी लड़कियां पहले के मुकाबले निर्भीक हो गई थीं. उनके लड़के ज्यादा सुरक्षित हो गए थे. उनके मर्दों के पकड़े और मारे जाने का खतरा खत्म हो गया था. अपने चौक-चौराहों और रास्तों पर उनका राज था.

    मिस्टर चिदंबरम, पिछले साल जून की 19 तारीख तक यह पीसीएपीए का लालगढ़ था.

    और इसके एक साल बाद की ये खबरें और तसवीरें हैं...अर्धसैनिक बलों और पुलिस द्वारा जानवरों की तरह टांग कर ले जाई जाती आदिवासी युवती की तसवीर. छत्तीसगढ़ में (आपके कारपोरेट मालिकों के लिए) इलाका हथियाने गई आपकी सेना और पुलिस द्वारा आदिवासी युवतियों के बलात्कार की खबर...और यह भी कि उन्हें अपनी जीत की निशानी के तौर पर पेश किया गया.
    बेशक...पुलिस और आपके जवान गलत नहीं हैं. वे जीत की निशानियां ही हैं. आपकी और आप जिस व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसकी जीत की निशानियां यही हो सकती हैं. पूर्वोत्तर (मनोरमा देवी...), कश्मीर (शोपियां...) से लेकर जहानाबाद, लालगढ़, उड़ीसा, बस्तर तक आपकी व्यवस्था के तहत जीत की निशानियां यही तो रही हैं.

    इन पर आपकी व्यवस्था को गर्व रहा है, क्योंकि हम नहीं जानते कि इनके लिए कभी कोई माफी मांगी गई. कोई शर्मिंदगी. कोई बयान.
    कुछ नहीं.

    यह है सभ्यता, न्याय, विकास और लोकतंत्र के आपके उसूलों से संचालित आपकी सेना और पुलिस जो इन इलाकों में दशकों से 'शांति' और 'लोकतंत्र' 'स्थापित' करती रही है. शायद इसे स्थापित करने का तरीका भी यही है. यह सभ्यता है, मि चिदंबरम.

    लेकिन फर्क इतना साफ है कि कोई भी उसे देख सकता है. आपकी सेना के पहुंचने के पहले पीसीएपीए ने लालगढ़ के गांवों में ऐसे काम किए थे, जिन्हें आपकी व्यवस्था पिछले साठ सालों में कभी नहीं कर पाई...पूरे देश में नहीं कर पाई. वे भूमिहीनों को जमीन का वितरण कर रहे थे, उन्हें जमीन की उर्वरता के अनुसार बीज और खाद बांट रहे थे. उन्होंने नहरें बनाई थीं और खेतों तक पानी ले जाने की व्यवस्था उनके पास थी. उन्होंने शासन और विकास के नए मायने गढ़े थे. वे भारत को एक नया जनवाद सिखा रहे थे. उनकी ग्राम कमेटियों में आधे पद महिलाओं के लिए आरक्षित थे, जिनके बिना कमेटियां गठित नहीं हो सकती थीं. और लगभग 1200 गांवों में उनकी कमेटियां कायम हुई थीं. पीसीएपीए की अपनी महिला शाखा थी और उसके फैसलों का उल्लंघन गांव के मर्द भी नहीं कर सकते थे. उन्होंने पूरे विद्रोही इलाके में शराबबंदी की घोषणा की थी और यह 19 जून तक लागू रही थी. पीसीएपीए आपकी व्यवस्था द्वारा विश्व बैंक के पैसे से लगाए गए यूक्लिप्टस के पेड़ों से होड़ ले रहा था, जिन्होंने जमीन को बंजर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. पीसीएपीए फर्जी लाइसेंस पर चल रहे स्पंज आयरन कारखानों से हो रहे भारी प्रदूषण, फसलों पर दुष्प्रभाव, जानवरों में बीमारी के खिलाफ लड़ रहा था.

    तब लालगढ़ की कोई भी शाम बिना दर्जनों मीटिंगों के नहीं गुजरती थी. पारंपरिक हथियारों से लैस आदिवासी महिलाएं और पुरुष, बूढ़े और बच्चे हर गांव में मीटिंगें करते, आपस में राय मशविरा करते, आगे की कार्रवाइयों के बारे में तय करते. वे राजनीति कर रहे थे लेकिन वैसी राजनीति नहीं जो मौसमी वायदों और विश्वासघातक कार्रवाइयों पर टिकी हुई होती है जिसके हम भारत में आदी बना दिए गए हैं. बल्कि उनकी राजनीति उनकी अपनी जनवादी राजनीतिक कार्वाइयां थीं, जिनमें महज वादे और मांगें नहीं थीं- योजनाएं थीं और उनका कार्यान्वयन था. हर ग्राम कमेटी अपने गांव के सबसे गरीब और वंचित तबके की जरूरतों के हिसाब से गांव की जरूरतें तय करती- कहां नहर बननी है, कहां पुल की मरम्मत होनी है, कहां सड़क बिछाई जानी है, कहां तालाब की खुदाई करनी है, कहां खेतों को फसल के लायक तैयार करना है.

    इसके बाद इस पर अनुमानित खर्च के ब्योरे के साथ इस मांग को ऊपर की कमेटी में भेजा जाता. फिर ऊपर की कमेटी आकर गांववालों से बातचीत करती और खर्च का आकलन करती. इसके बाद उसी गांव और दूसरे गांवों के चंदे और श्रमदान से योजना पर काम शुरू होता, जिसकी निगरानी पीसीएपीए करती. इन कामों में मजदूरों को मजदूरी दी जाती और मशीनवालों को किराया. इस विकास को आपके सेंसेक्स और वृद्धि दर से कोई लेना-देना नहीं था, इसलिए यहां उपयोग में लाई जा रही सबसे भारी तकनीक ट्रैक्टर थे.

    नई बनी और खाली पड़ी इमारतों में अस्पताल चलाए जा रहे थे और उन इलाकों में पहली बार लोगों को डॉक्टरी इलाज हासिल हो रहा था, जहां कभी डॉक्टर का चेहरा नहीं देखा गया था.

    मि चिदंबरम, आपने कभी अलचिकी भाषा का नाम सुना है? मुझे यकीन है आपने नहीं सुना होगा. कई दूसरों ने भी नहीं- जो आपकी भाषा के शोर में दबे हुए हैं. यह लालगढ़ में बसनेवाली आबादी की अपनी भाषा है. पहली बार इस भाषा को थोड़े शुभचिंतक मिले थे, इसपर लालगढ़ में गंभीरता से काम शुरू हुआ था और लगने लगा था कि यह भाषा पहले की तरह अबोली-अनसुनी नहीं रह जाएगी.

    लेकिन उसे चुप करा दिया गया. लालगढ़ को माओवादियों से 'आजाद' कराने पहुंची आपकी सेना ने पुराने दिन लौटा दिए. वे दिन, जिनके लिए इस भाषा में एक ही शब्द था-गुलामी के दिन. वे दिन जब स्कूल सैनिक छावनी बना दिए जाते थे और अस्पताल यातना शिविर. यह आपकी पुलिस है जिसने छत्रधर महतो जैसे जननेता को पत्रकारों का भेष धर कर गिरफ्तार किया. यह आपकी सेना है, जिसने आदिवासियों के प्यारे नेता लालमोहर टुडू को उनके परिजनों के सामने घर में घुस कर हत्या की और कहा कि वे मुठभेड़ में मारे गए हैं. यह आपकी व्यवस्था है, जो बूढ़ी और निर्दोष महिलाओं को खतरनाक आतंकवादी कह कर जेलों में बंद करती है. यह आप हैं, जो ये कहते हैं कि आपके पास ऐसी कारर्वाइयों का नैतिक अधिकार है.
    बेशक, आपको अधिकार है मिस्टर चिदंबरम. इसका आपको नैतिक अधिकार है कि आप देश के करोड़ों लोगों को भूख से मरने के लिए उनके हाल पर छोड़ दें. बेशक आपकी व्यवस्था ने यह अधिकार हासिल किया है कि वह दो लाख किसानों की आत्महत्या को सेंसेक्स की ऊंचाई और वृद्धि दर की तेजी के लिए जायज ठहराए. यही नैतिक अधिकार आपको इतनी मजबूती देता है कि आप हर साल लाखों बच्चों की भूख और बीमारी से मौत को निजी डॉक्टरों, दवा कंपनियों और जमाखोरों के मुनाफे के हित में बरदाश्त कर जाएं.

    शायद यह एक संवैधानिक और लोकतांत्रिक सभ्यता के लिए अनिवार्य कीमत है, जो चुकाई ही जानी चाहिए. और इस कीमत को सबसे अधिक उन्हें ही चुकाना चाहिए जो सबसे 'असंवैधानिक', सबसे 'अलोकतांत्रिक' और सबसे 'असभ्य' हैं. वे बर्बर लोग, जिनकी पहचान कराने के लिए आपको अनेक बार राष्ट्रीय-क्षेत्रीय अखबारों के आधे-आधे पन्ने खर्च करने पड़े हैं. एक लोकतांत्रिक सरकार की आखिर अपनी कुछ जिम्मेदारियां भी होती ही हैं.

    लेकिन मि चिदंबरम, आपने इन विज्ञापनों में छपे भूख और बदहाली से कंकाल बन गए शरीरों के बारे में कभी आपने कोई नैतिक अधिकार महसूस किया है कि नहीं? वे इसी देश के नागरिक हैं, उन्हें इतना बदहाल बनाए रखने की जिम्मेदारी क्या आपकी व्यवस्था की नहीं है? जब वे जीवित थे, तब उन पर आपकी व्यवस्था ने कितने रुपये खर्च किए थे? उनके घर के छप्परों पर आखिरी बार फूस कब चढ़ी थी? उनकी हांडी में आखिरी बार चावल कब बना था? उनके घर में आखिरी बार कब बीमारी का इलाज हुआ था? ...और इसी सरकार ने उनकी लाशों के विज्ञापनों पर लाखों रुपये खर्च किये हैं.. सचमुच हमारी सरकार का नैतिक मनोबल बहुत ऊंचा है.

    आपके सैनिकों ने महिलाओं के साथ बलात्कार किया है. उन्हें सूअरों की तरह बांस पर बांध कर ले जाया गया है. उन्हें अपनी जीत की निशानी के तौर पर प्रदर्शित किया है. हम नहीं जानते कि आपकी नैतिकता की मनुस्मृति इसके बारे में क्या कहती है, लेकिन इसका भी आपको नैतिक अधिकार जरूर होगा.

    यह ऐसा नैतिक अधिकार है, जो विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, वेदांताओं, रिलायंसों, जिंदलों, एनरॉनों और टाटाओं के दफ्तरों में गढ़ा जाता है और लुभावने पदों तथा वेतन के साथ पेश किया जाता है. नैतिकता का यह मानदंड मानवीय त्रासदियों (भोपाल गैस कांड) के लिए जिम्मेदार अपराधियों, जनता के पैसे (एनरॉन) और संसाधनों की आपराधिक लूट (सेज और सैकड़ों एमओयू) के पक्ष में खड़ा करता है. यह नैतिकता जनता पर युद्ध को थोपती है और जनसंहारों को जायज ठहराती है.
    मि चिदंबरम, वे लोग जो छत्तीसगढ़ से लेकर बिहार, झारखंड, उड़ीसा और लालगढ़ में उजाड़े और मारे जा रहे हैं, वे आपके लोग नहीं हैं. यह आपका देश नहीं है. आपका देश तो वे बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं, जिनके लिए आप काम करते रहे हैं. यह देश उनका है जिनकी यह जमीन, नदियां, पेड़, जंगल, खेत और घर हैं. जो इस देश के बारे में, इसके वर्तमान और भविष्य के बारे में सोचते हैं. यह उनका देश है, जो जानवरों की तरह बांस पर ढोए जाने, बलात्कार किए जाने, अपनी आखिरी चीज भी लूट लिए जाने, अपना घर जला दिए जाने और अपनी जमीन से खदेड़ दिए जाने के खिलाफ लड़ रहे हैं.
    वे सभी, जिनके पास एक नई दुनिया का सपना है.

    हम जानते हैं कि आप कभी इन सबके लिए माफी नहीं मांगेंगे. हमें उम्मीद भी नहीं है. क्योंकि यह आपकी सेना है और यही आपका चेहरा भी है.
  • थोडाई कैंप हमलाः यह चिदंबरी शौर्य नहीं हाराकीरी है

    Posted: Fri, 02 Jul 2010 07:28:00 +0000
    छत्तीसगढ़ डॉट नेट की मेल सेवा के जरिए हमें यह मेल हासिल हुआ है. इसकी भाषा को ठीक कर हम इसे यहां पोस्ट कर रहे हैं.


    चिंतलनार से कल हुये थोडाई कैंप के पास हुआ यह चौथा बडा हमला है जिसमें 27 सैनिक शहीद हुए है,इस हमले के बाद फिर वही कवायद दोहराई जायेगी कि यह नक्सलियों की कायराना हरकत है, इससे सुरक्षा बलों का मनोबल नही कम किया जा सकता है,चूक कहीं हुई है इसे खोजा जायेगा, और कुछ लोग मानवाधिकारवादियों को संबोधित करेंगे कि उन्होने अपना मुंह क्यों नही खोला. फिर वही श्रद्धांजली दोहराई जायेगी जो पिछले चार माह से छत्तीसगढ देख रहा है.
    यह कहना बहुत आसान है कि सुरक्षाबलों को यह यह नही करना चाहिए था, जिसके कारण यह घटना संभव हुई. पिछली शांतियात्रा में डीएसपी शर्मा ने हम लोगों से कहा था कि हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं है क्यों कि यहां का भैगोलिक क्षेत्र इतना विषम है कि आने जाने के दो दो रास्ते आसान नहीं हैं और न ही इतनी लंबी खोजखबर पैदल की जा सकती, यह हमला तो किसी बारूदी सुरंग का भी नहीं बल्कि सामने फायरिंग का है, पिछले 6 माह में सिर्फ सुरक्षा बल ही शिकार हो रहे है, दो से पांच सौ नक्सली एक साथ हमला करने पहुंच जाते है किन्तु हमें पता ही नही चलता. आखिर क्यों ? कारण है कि हमें वहां के स्थानीय आदिवासियों का सहयोग नही मिलता. क्या यह विडंम्बना नही है कि जिनकी रक्षा के लिए सुरक्षा बल वहां गये हैं उनका खुफिया सहयोग हमारे साथ नहीं बल्कि दूसरों के साथ है, दुनिया में जहां कहीं भी गुरिल्ला युद्व लडे़ गये है वह जन समर्थन से ही संचालित किये जाते हैं और लंबे समय तक चलाये जाते रहे हैं. यदि नक्सली पिछले चालीस सालों से इस प्रकार के युद्ध का संचालन कर पा रहे हैं तो निश्चित ही निरंतर आदिवासियों का ठोस समर्थन ही है.
    सही बात तो यही है कि हमारे सुरक्षा बल जंगल वारफेयर में प्रशिक्षित नहीं हैं. भारत ही क्यों दुनिया के कसी भी देश की सेना या बल गुरिल्ला वार के लिए सक्षम नहीं हैं. दरअसल फौज के बलबूते पर नक्सलियों से नहीं निबटा जा सकता है. वह जिस रणनीति को अपना रहे हैं, वह राज्य के विरूद्व सीधे युद्व की नहीं है. फौज केवल सीधे युद्व के संचालन में दक्ष होती है. सेना का इस्तेमाल पूर्वी भारत और कश्मीर में पिछले पचास सालों से किया जा रहा है, वहां अभी तक कोई निर्णायक लडाई नहीं जीती जा सकी है.
    यह युद्व नही हाराकीरी है जिसमें हमारे बहादुर सैनिक मारे जा रहे हैं. जो सरकारें यह लडाई इस फार्म में लड़ रही हैं उनका खुद का कुछ दांव पर नहीं लगा है. इस लडाई की रणनीति को बदलना होगा और सुरक्षाबल या सेना इसका हल नहीं है. पहले हमें उनका विश्वास जीतना होगा जिनकी रक्षा के नाम पर हम वहां गये हैं.
    यह चिदंबरी शौर्य नहीं हाराकीरी है.

    भगत सिंह, रायपुर
  • भोपाल गैस कांडः महानायक और महात्रासदी

    Posted: Thu, 01 Jul 2010 08:23:00 +0000
    पीड़ितों को राहत मिलना चाहिए, हमें भी उन्हें राहत पहुंचानी चाहिए, लेकिन इसकी ओट में अपराधियों और उन्हें बचानेवाली पूरे व्यवस्था को को बच कर जाने नहीं दिया जा सकता. उनकी करतूतों का हिसाब मांगा जाना अभी बाकी है, इसे किसी भी हालत में नहीं भूला जाना चाहिए. मनीष शांडिल्य का आलेख.

    भोपाल गैस कांड पर हो रही बयानबाजी और आरोप-प्रत्यारोप से 'दुखी' होकर बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन ने पिछले दिनों कहा है कि ऐसे लोग जो इस मुद्दे पर वाकई गंभीर है, राजनीति छोड़ व्यक्तिगत तौर पर एक साझा कोष में 10 रुपये का ही दान करना शुरू करे दें तो यह राशि उससे भी ज्यादा होगी, जितने मुआवजे पर पूरी बहस के बीच विचार किया जा रहा है. पहली नजर में उनकी यह अपील किसी को भी संवेदना के ज्वार में बहाकर कुछ दूर तक ले जा सकती है और गैस पीड़ितों के लिए व्यक्तिगत स्तर ही सही कुछ करने के लिए प्ररित कर सकती है. लेकिन अगर महानायक की पेशेवर जिंदगी के पन्नों को पलटकर देखने की कोशिश करें तो यह साफ झलकता दिखाई देता है कि ऊपर वर्णित राजनीति से दुखी अमिताभ खुद किस तरह सत्ता की राजनीति करते रहे हैं. यह राजनीतिक सत्ता पाने की कवायद नहीं है, यह कवायद है आर्थिक व पहचान की सत्ता प्राप्त करने की.
    आज भोपाल गैस पीड़ितों के हमदर्द बने अमिताभ ने खुद 2006 में एवरेडी बैटरी के विज्ञापन के लिए करोड़ों रुपये लिये थे. हो सकता है कि बहुत कम लोगों को यह पता हो कि एवरेडी बैटरी वही यूनियन कार्बाइड बनाती है, जिसकी आपराधिक लापरवाही के कारण आज से 26 साल पहले 20 हजार से ज्यादा लोग मारे गये थे और लगभग 6 लाख जानलेवा रोगों के शिकार हुए थे. इस बैटरी को बेचते वक्त क्या अमिताभ को इसका ध्यान नहीं था कि ऐसा करते हुए वो पीड़ितों और तमाम भारतीयों के भावनाओं के साथ कैसा मजाक कर रहे हैं. ये वही भारतीय हैं जिन्होंने उन्हें सुपर स्टार का दर्जा दिया, महानायक मानकर सर आंखों पर बिठाया, उनके घायल होने पर दुआएं मांगीं. लेकिन भारतीयों का यह महानायक तो मौत के सौदागरों का खजाना और अपनी भी तिजोरी भरने के लिए पर्दे पर चिल्ला रहा था ''गिव मी रेड''. जबकि उसे पता था कि वह ज्यादा-से-ज्यादा भारतीयों के हाथ में जो लाल रंग की बैटरी पहुंचाना चाहता है, उसको बनाने वाली कंपनी के हाथ हजारों भारतीयों के खून से लाल हैं. लेकिन तब बैटरी बेचना उनकी आर्थिक हवस को पूरा करने में सहायक था तो आज गैस पीड़ितों का हमदर्द होना उनकी छवि को चमकाने में कारगर हो रहा है. बहुत आसान है कि जनसंहार करने वालों से करोड़ों लेकर मारे गये लोगों के कल्याण के लिए 10 रुपये दान करने की अपील करना.
    लेकिन उनके इस बयान को ध्यान से पढ़ें तो एक और बात सामने आती है, जो उनकी अब तक की छवि से और वे जिस वर्ग के हैं उसके चरित्र से मेल ही खाती है. उनका बयान इस पूरे मामले के राजनीतिक चरित्र को भोथरा करके भूल जाने का भी आह्वान करता है और इस आपराधिक कृत्य को किसी सामान्य प्राकृतिक आपदा के रूप में सीमित कर देता है, जिससे द्रवित होकर लोगों को विवाद और आरोप-प्रत्यारोप भूल कर आपस में सहायतार्थ उठ खड़े होना चाहिए. इसका एक मतलब यह भी है जिसने अपराध किये उसकी गलतियों को भूल जाएं, उसे बचानेवाली पूरी व्यवस्था (अकेले कांग्रेस या अकेले भाजपा ही नहीं) को भूल जाएं, जिन लोगों ने इतने लोगों की जानों से अब तक खिलवाड़ की उनको छोड़ दें, उन पर कोई विवाद न करें और पीड़ितों के बचाव में आगे आएं. एसा करके हम यहां एक गलती करेंगे, वह यह कि पीड़ितों को राहत पहुंचाने और उनके इंसाफ दिलाने के मामलों को एक साथ मिला देंगे, बल्कि इससे भी बड़ा अपराध यह करेंगे कि उनको न्याय दिलाने की कीमत पर उन्हें राहत पहुंचाने की कोशिश करेंगे. पीड़ितों को राहत मिलना चाहिए, हमें भी उन्हें राहत पहुंचानी चाहिए, लेकिन इसकी ओट में अपराधियों और उन्हें बचानेवाली पूरे व्यवस्था को को बच कर जाने नहीं दिया जा सकता. उनकी करतूतों का हिसाब मांगा जाना अभी बाकी है, इसे किसी भी हालत में नहीं भूला जाना चाहिए. वह भी एसी हालत में जब सरकार परमाणु जवाबदेही विधेयक के जरिये एसी किसी भी भावी दुर्घटना या आपराधिक लापरवाही की स्थिति में दोषी कंपनी को पूरी तरह किसी भी जवाबदेही और मुआवजा देने के दायित्व से बरी करना चाहती है.
    अमिताभ के मामले पर दोबारा लौटते हैं. जाहिर है, वे जिस तरह पूरे मामले पर सोच और लिख रहे हैं, उसके जरिए वे जनता का इस तरह अराजनीतिक तरीके से सोचने के लिए आह्वान कर रहे हैं, जिसका अंततः नतीजा अपराधी कंपनी और उतनी ही अपराधी व्यवस्था के दोषों को नजरअंदाज कर देना होगा.
    ऊपर जिस एवरेडी के विज्ञापन की बात की गई है, वही अकेला मामला नहीं है. अमिताभ अपनी सुविधा के मुताबिक काम और बयानबाजी करते रहे हैं और विवादों में घिरते भी रहे हैं. बोफोर्स विवाद में घिरने के बाद उन्होंने भले ही यह कहते हुए इलाहाबाद लोकसभा सीट छोड़ दी थी कि संसदीय राजनीति उनके बस की बात नहीं. लेकिन सच्चाई तो यह है कि अब अमिताभ अपने व्यक्तिगत हित साधने के लिए बहुत ही चतुराई से अवसरवादी राजनीति करने लगे हैं.

    हाल में वे गुजरात सरकार का ब्रांड अंबेसेडर बनने के लिए विवादों में रहे हैं. हकीकत यह है कि हमारा कथित 'महानायक' कोई नैतिक उदाहरण प्रस्तुत करने में विश्वास नहीं रखता. जब उसे अपने कर्ज खत्म करने का जुगाड़ करना होता है तो अमर सिंह के बहाने समाजवादी पार्टी के करीब जाता है और कहता-फिरता है कि यूपी में दम है. दूसरी ओर अपनी और अपने पारिवारिक सदस्यों की फिल्मों को सफल बनाना होता है कभी खुद बाल ठाकरे की छवि को पर्दे पर जीवंत करता है तो कभी उनके सामने दंडवत हो जाता है. यह अमिताभ के अभिनय क्षमता की ही 'खासियत' है कि वो सपा और भाजपा व शिवसेना जैसे धुर विरोधी दलों के जरिये अपने हित पूरे करने में सफल हो जाते हैं. अमिताभ हिंदी फिल्म लागा चुनरी में दाग के प्रदर्शन के पहले अपने पत्नी और बच्चे के फिल्म के व्यवसायिक हितों की रक्षा के लिए हिंदी के समर्थन में अपने दिए बयान से पलटते हुए शिवसेना और मनसे प्रमुख के सम्मुख नतमस्तक हुए थे. हालांकि तब जरूरत थी कि वो हिंदी के समर्थन और संकीर्णता की राजनीति के विरूद्ध अपने बयान पर अडिग रहते. लेकिन तब भी उनका व्यवसायिक और पारिवारिक हित इसके आड़े आ गया था.
    अमिताभ ने भोपाल गैस कांड पर विगत 07 जून को आये बहुप्रतीक्षित फैसले के बाद अपने ब्लॉग पर लिखा था ''कंपनी के प्रबंधकों के लिए केवल जेल में दो साल! दोषियों को इतनी कम सजा मिलने के बाद सभी अचंभित हैं और सदमे व आक्रोश में भी''. यह लिखते वक्त वो यह छुपा गये थे कि अप्रत्यक्ष रूप तो दोषियों की इस सूची में वो भी शामिल हैं. बेहतर तो यह होगा कि अमिताभ गैस पीड़ितों के लिए हमदर्दी दिखाने के साथ अपनी पुरानी गलती के लिए भोपाल की जनता सहित पूरे देश से माफी मांगें. अमिताभ के अगले ब्लॉग पोस्ट या ट्‌विटर संदेश में देश को इसका इंतजार रहेगा.
  • सामाजिक न्याय और लोकतंत्र के विरुद्ध है विदेशी शिक्षण संस्थान अधिनियम

    Posted: Wed, 30 Jun 2010 12:38:00 +0000
    एक सपना बेचा जा रहा है- देश में रह कर विदेशी विश्वविद्यालयों से पढ़ाई और डिग्रियों का सपना. इससे उच्च मध्यवर्ग का एक हिस्सा खुश है और उसके साथ ही दूसरे तबके भी यह उम्मीद पाले हुए हैं कि उनके दिन सुधरेंगे. जो काम यह सरकार नहीं कर पाई, उसे विदेशी विश्वविद्यालय पूरा करेंगे. वे उच्च शिक्षा से वंचित रह गए बाकी के 89 प्रतिशत छात्रों को पढ़ाएंगे. लेकिन जमीनी सच्चाइयां बताती हैं कि यह झूठ है और विदेशी विश्वविद्यालयों को कमाई करने और भारतीय छात्रों को लूटने की इजाजत देने के लिए इस सपने की ओट ली जा रही है. निजी क्षेत्र के लिए दरवाजे खोलते समय एसे ही दावे हर बार किए गए- भूख से बाजार बचाएगा, किसानों को बाजार अमीर बनाएगा, बीमारों की सेहत बाजार सुधारेगा, बच्चों को बाजार पढ़ाएगा. इस कह कर सार्वजनिक वितरण प्रणाली खत्म कर दी गई, किसानों को दी जा रही रियायतें बंद कर दी गईं, स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च में भारी कटौती हुई और सरकारी शिक्षा व्यवस्था को आपराधिक प्रयोगों की प्रयोगशाला बना दिया गया. और नतीजा? भूख से पीड़ित और मर रहे लोगों की संख्या बढ़ रही है. खेती बरबाद हो रही है और किसान आत्महत्या कर रहे हैं. साधारण इलाज से ठीक हो सकनेवाली बीमारियों से भी लाखों लोग (बच्चों समेत) हर साल मर रहे हैं. 6-15 साल के 20 प्रतिशत बच्चे अब भी स्कूल से बाहर हैं औऱ जो स्कूल जाते हैं, उन्हें निम्नस्तरीय शिक्षा हासिल हो रही है. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में किए जा रहे दावे का भी यही हश्र होगा, यह तह है. इसके जो लक्ष्य बताए जा रहे हैं, वे कभी पूरे नहीं हो सकेंगे. लेकिन इसके साथ ही, हम सामाजिक रूप इसकी जो कीमत चुकाने जा रहे हैं और दशकों के संघर्षों के बाद हासिल किए गए अधिकारों को भी (जो वैसे अब भी पूरी तरह लागू नहीं किए जा रहे हैं) खोने जा रहे हैं. दिलीप मंडल की यह आंख खोलती रिपोर्ट, आज के जनसत्ता से साभार.


    भारत में विदेशी शिक्षण संस्थानों के आने का रास्ता साफ होने वाला है। विदेशी शिक्षण संस्थान (प्रवेश एवं संचालन विनियमन) विधेयक 2010 लोकसभा में पेश किया जा चुका है और अब यह विधेयक मानव संसाधन विकास मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति के पास विचार के लिए भेजा गया है। संसदीय समिति की और से समाचार पत्रों में 16 जून को विज्ञापन देकर व्यक्तियों और संस्थाओं से यह कहा गया है कि वे 15 दिनों के अंदर इस विधेयक पर अपनी राय दे सकते हैं।

    इस विधेयक में दो ऐसी बातें हैं, जिसपर गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है। सबसे महत्वपूर्ण और चौंकाने वाली बात यह है कि इस विधेयक में विदेशी शिक्षण संस्थानों पर आरक्षण लागू करने की शर्त नहीं लगाई गई है। यानी ये शिक्षण संस्थान दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और शारीरिक रूप से असमर्थ छात्रों को किसी भी तरह का आरक्षण देने को बाध्य नहीं होंगे। विधेयक की दूसरी बड़ी खामी यह है कि विदेशी संस्थान कितनी फीस लेंगे, इस बारे में उन पर कोई पाबंदी नहीं लगाई गई है। विदेशी शिक्षण संस्थानों पर फीस के मामले में पाबंदी सिर्फ इतनी है कि वे इसका जिक्र अपने प्रोस्पेक्टस यानी विवरणिका में करेंगे और बताएंगे कि अगर छात्र ने बीच में पढ़ाई छोड़ दी तो फीस का कितना हिस्सा वापस होगा।

    सबसे पहले अगर आरक्षण की बात करें तो इस कानून के पास होने के बाद विदेशी शिक्षण संस्थान देश में शिक्षा के एकमात्र ऐसे संस्थान होंगे जो आरक्षण के दायरे से बाहर होंगे। भारत में उच्च शिक्षा का हर संस्थान (अल्पसंख्यक संस्थानों को छोड़कर) आरक्षण के प्रावधानों को मानने के लिए बाध्य है। संसद और विधानसभा इसके लिए कानून बना सकती हैं जिसे सरकारी और गैर सरकारी दोनों तरह के शिक्षा संस्थानों पर लागू किया जा सकता है। यह सरकारी आदेश या अदालत का फैसला नहीं है। यह एक संवैधानिक व्यवस्था है। भारतीय लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था- संसद ने संविधान में 93वां संशोधन करके यह व्यवस्था दी कि राज्य यानी संसद या विधानसभाएं किसी भी शिक्षा संस्थान (चाहे सरकार उसे पैसे देती हो या नहीं) में दाखिले के लिए सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान कर सकती हैं। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 15 (4) के बाद एक नया खंड 15 (5) जोड़ा गया। इस संशोधन से सिर्फ अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को बाहर रखा गया है।

    इस संविधान संशोधन की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि पी ए इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र सरकार और अन्य केस में सुप्रीम कोर्ट के 11 जजों की पीठ ने 2005 में यह आदेश दिया था कि संसद या विधानसभाएं उन शिक्षाण संस्थानों पर आरक्षण लागू नहीं सकतीं, जो सरकार से पैसे नहीं लेतीं। इस आदेश के दायरे में अल्पसंख्यक और अन्य सभी तरह के शिक्षण संस्थानों को रखा गया। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद से ज्यादातर गैर-सरकारी शिक्षण संस्थान आरक्षण के दायरे से बाहर हो गए थे। इस वजह से तत्कालीन सरकार को संविधान में संशोधन करना पड़ा। इस संविधान संशोधन में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों यानी ओबीसी के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था करने का प्रावधान है।

    इसी संविधान संशोधन के बाद केंद्र सरकार ने अपने उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की नई व्यवस्था लागू करने के लिए कानून पास किया। केंद्रीय शिक्षण संस्थान (दाखिले में आरक्षण) कानून, 2006 के तहत केंद्र सरकार के उच्च शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जाति के लिए 15 फीसदी, अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 फीसदी और पिछड़ी जातियों के लिए 27 फीसदी आरक्षण दिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस कानून को दी गई चुनौतियों को खारिज कर दिया है। यह बात महत्वपूर्ण है कि केंद्रीय शिक्षण संस्थान (दाखिले में आरक्षण) कानून, 2006 को लेकर देश की संसद में आम राय थी। देश की राय को जानने के लिए संसद से ज्यादा प्रामाणिक और विश्वसनीय संस्था और कोई नहीं है। इसलिए कहा जा सकता है कि देश की भावना ऐसे कानून के पक्ष में है।

    इस पृष्ठभूमि में देखें तो विदेशी शिक्षण संस्थानों को आरक्षण के दायरे से बाहर रखना 93वें संविधान संशोधन कानून, 2005 का उल्लंघन है। संविधान में संशोधन किए बगैर किसी संविधान संशोधन को बदला नहीं जा सकता है। 93वां संविधान संशोधन स्पष्ट रूप से कहता है कि संसद और विधानसभा अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को छोड़कर तमाम शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जाति जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू कर सकती है। अगर वर्तमान सरकार चाहती है कि कुछ (मौजूदा संदर्भ में विदेशी) शिक्षण संस्थानों को आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जाए, तो इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा। संविधान की धारा 15 (5) में संशोधन किए बगैर सरकार विदेशी शिक्षण संस्थानों को आरक्षण के दायरे से बाहर नहीं रख सकती।
    यह विषय भारत के संघीय ढांचे के लिहाज से भी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि 93वें संविधान संशोधन के तहत विधानसभाओं को यह अधिकार प्राप्त है कि वे सरकारी मदद न लेने वाले शिक्षण संस्थानों में भी आरक्षण लागू कर सकती हैं। विदेशी शिक्षण संस्थान (प्रवेश एवं संचालन विनियमन) विधेयक 2010 की वजह से राज्य सरकारों का यह अधिकार कम हो जाएगा। इस तरह से केंद्र सरकार का यह अधिनियम भारत के संघीय ढांचे के विरुद्ध है। केंद्र सरकार एक सामान्य कानून लाकर राज्य सरकारों के अधिकारों को कम नहीं कर सकती है क्योंकि शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची का विषय है। केंद्र सरकार को या तो इस अधिनियम में संशोधन करना चाहिए और इसमें अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान करना चाहिए या फिर यह अधिनियम वापस लेना चाहिए। 

    केंद्र सरकार का यह कानून अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों (अल्पसंख्यकों समेत) के हितों के विरुद्ध है। इस तरह देश में शिक्षा के कुछ ऐसे केंद्र बन जाएंगे, जो भारतीय संविधान में वर्णित विशेष अवसर के सिद्धांत की अवहेलना करेंगे, क्योंकि संसद में पारित एक कानून उन्हें इसकी इजाजत देगा। साथ ही, विदेशी शिक्षण संस्थान (प्रवेश एवं संचालन विनियमन) विधेयक 2010 में विदेशी शिक्षण संस्थानों की परिभाषा भी ऐसी बनाई गई है कि देश के कई शिक्षण संस्थान या उनके कुछ हिस्से विदेशी शिक्षण संस्थान कहलाने लगेंगे। इस अधिनियम के खंड (1) (1) (ई) में विदेशी संस्थानों की परिभाषा बताई गई है। इसके तहत जो विदेशी संस्थान भारतीय संस्थान के साथ मिलकर या साझीदारी से चलेंगे, वे भी विदेशी शिक्षण संस्थान माने जाएंगे। विदेशी शिक्षण संस्थानों को मिलने वाली छूट (मिसाल के तौर पर आरक्षण लागू न होना) को देखते हुए कई भारतीय शिक्षण संस्थान इसी मकसद से विदेशी शिक्षण संस्थानों के साथ साझीदारी कर सकते हैं। अधिनियम के तहत सरकारी संस्थानों को भी ऐसी साझीदारी करने से रोका नहीं गया है। अधिनियम में इस बात की व्याख्या नहीं की गई है कि किस तरह के भारतीय संस्थान विदेशी संस्थानों के साथ तालमेल कर सकते हैं और किन संस्थानों पर इसके लिए रोक है। इस मामले को खुला रखने का मतलब है कि सरकारी संस्थान भी विदेशी संस्थानों के साथ तालमेल कर सकते हैं। इस तरह एक ऐसा सिलसिला शुरू हो सकता है जो भारत में शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान को खत्म कर देगा।

    सरकार और खासकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय की नीयत पर संदेह इसलिए भी होता है क्योंकि हाल ही में कैबिनेट ने एक ऐसा कानून पारित किया है जिससे केंद्र सरकार के शिक्षण संस्थानों को ओबीसी आरक्षण लागू करने के लिए तीन साल की और मोहलत मिल जाएगी। उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण लागू करते समय केंद्र सरकार ने तीन साल की मोहलत दी थी, क्योंकि कुछ शिक्षण संस्थान एक साथ 27 फीसदी फीसदी आरक्षण लागू करने में असमर्थता जता रहे थे। इस प्रावधान के लागू हुए तीन साल बीत गए हैं। कुछ शिक्षण संस्थानों ने तीन साल की समय-सीमा में भी आरक्षण लागू नहीं किया है। ऐसे शिक्षण संस्थानों के संचालकों पर केंद्रीय शिक्षण संस्थान (दाखिले में आरक्षण) कानून, 2006 के उल्लंघन के आरोप में कार्रवाई की जानी चाहिए। लेकिन ऐसा न करके उन्हें ओबीसी आरक्षण को तीन साल तक और लंबित करने का वैधानिक अधिकार दिया जा रहा है। समय सीमा में आरक्षण लागू न करने पर कार्रवाई न करने से सभी शिक्षण संस्थानों को गलत संदेश भी जाएगा। लेकिन सरकार को इसकी परवाह नहीं है। सरकार ने आरक्षण लागू न करने ना को दंडनीय क्यों नहीं बनाया है, यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए। संवैधानिक प्रावधानों का पालन न करने वालों पर कार्रवाई करने की कोई व्यवस्था होनी चाहिए।

    यह सच है कि वर्तमान में केंद्र और राज्य सरकारें निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण लागू करने से परहेज करती हैं। लेकिन ऐसा करने का कानूनी अधिकार उसके पास है। विदेशी शिक्षण संस्थान अधिनियम राज्य और केंद्र सरकारों को इस अधिकार से वंचित करने का रास्ता साफ कर देगा क्योंकि कोई निजी शिक्षण संस्थान नए कानून का हवाला देकर कोर्ट से यह मांग कर सकता है कि विदेशी शिक्षण संस्थानों की तरह उन्हें भी आरक्षण लागू न करने की छूट दी जाए। आरक्षण के सवाल पर अदालतों का आम तौर पर जो रूख रहा है, उसे देखते हुए निजी शिक्षण संस्थानों की यह बात मान ली जाए, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट पी ए इनामदार केस में यह कह चुकी है कि निजी शिक्षण संस्थानों पर आरक्षण लागू करने की बाध्यता नहीं होनी चाहिए।

    इसी तरह अभी केंद्र और राज्य सरकारों को निजी शिक्षण संस्थानों की फीस को नियंत्रित करने का अधिकार है, जिसका वह अक्सर इस्तेमाल नहीं करती। लेकिन नया अधिनियम उसके हाथ से यह अधिकार भी छीन लेगा। भारत जैसे गरीब देश में सरकारों को फीस के नियंत्रण की दिशा में सक्रिय होना चाहिए। लेकिन सरकार ऐसा करने की जगह अपने हाथ काट लेना चाहती है। विदेशी संस्थानों के भारत में आने के बाद देश में शिक्षा के कुछ अभिजन टापू बन जाने का खतरा बढ़ जाएगा क्योंकि ये संस्थान न तो आरक्षण लागू करेंगे न ही फीस के मामले में किसी के नियंत्रण में होंगे और वे यह सब कानूनी तौर पर करेंगे। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में विस्तार की असीम संभावनाएं हैं। बड़ी संख्या में युवाओं को उच्च शिक्षा के अवसर मिलने चाहिए और इसके लिए बड़ी संख्या में शिक्षण संस्थान खुलने चाहिए। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में विस्तार के नाम पर समता और समानता की संवैधानिक व्यवस्थाओं की धज्जियां उड़ाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। लोककल्याणकारी राज्यों में स्वास्थ्य और शिक्षा की मुख्य जिम्मेदारी सरकार की होती है। इसकी अनदेखी करके भारत लोककल्याणकारी राज्य नहीं बना रह सकता।
  • बुद्धदेव व चिदंबरम क्या लालगढ़ को लालमोहन टुडु बना देना चाहते हैं

    Posted: Wed, 30 Jun 2010 07:05:00 +0000
    महाश्वेता देवी

    लालगढ़ में जब ऑपरेशन ग्रीन हंट का एक वर्ष पूरा हो रहा था, ठीक उसी समय केंद्र और राज्य के सशस्त्र पुलिस बलों ने कथित रूप से आठ माओवादियों को तथाकथित मुठभेड़ में मार गिराया। सुरक्षा जवानों द्वारा मरनेवाले युवक-युवतियों की लाशें बांस में टांगकर ले जाते हुए तस्‍वीरें छपी हैं। इस तरह मरे मवेशियों को ही बांस में बांधकर-लटकाकर ले जाते हुए मैंने अब तक देखा है। उसी तरह मनुष्यों को देखा।

    इसी का नाम लालगढ़ है? गत 15 जून को लालगढ़ अंचल के पिड़ाकाटा से केंद्र और राज्य की संयुक्त सशस्त्र वाहिनी ने सेंट्रल सिरामिक की सीनियर साइंटिस्ट निशा विश्वास, प्रो कनिष्क चौधरी और लेखक मानिक मंडल को गैरकानूनी ढंग से काफी देर तक रोके रखा और अंततः झूठे मामलों में गिरफ्तार कर उन्हें जेल में डाल दिया गया। ये बुद्धिजीवी संख्या में तीन थे, सो धारा 144 के उल्लंघन का आरोप भी उन पर नहीं लगता। फिर उन्हें क्यों गिरफ्तार किया गया? इसी तरह छत्रधर महतो, सुख शांति बास्के, राजा सरखेल और प्रसून चटर्जी को भी गिरफ्तार किया गया था।

    पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सिंगूर और नंदीग्राम की तरह लालगढ़ में जन-विरोधी काम किया, इसीलिए उनके खिलाफ हम सड़क पर उतरे और 'परिवर्तन चाहिए' का नारा दिया था। उस नारे के कारण निश्चित ही ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस को मदद मिली है। ऐसे में, मैं पूछना चाहती हूं कि लालगढ़ में सुरक्षा बलों के आचरण की निंदा ममता बनर्जी क्यों नहीं कर रही हैं?

    लालगढ़ को औद्योगिक समूह और बुद्धदेव के 'हैप्पी हंटिंग ग्राउंड' बनाये जाने की अनुमति वहां के निवासी कभी नहीं देंगे। बुद्धदेव ने वहां 'सेज' बनाना चाहा और केंद्र सरकार ने उसकी सहर्ष अनुमति दी। 'सेज' के लिए ही 352.86 किलोमीटर क्षेत्र में फैले डेढ़ लाख से ज्यादा की आबादी वाले लालगढ़ में ऐसी स्थितियां बनायी जा रही हैं कि आदिवासी खुद ही वह अंचल छोड़कर चले जाएं। माकपा की हर्मद वाहिनी व राज्य पुलिस और केंद्र के अर्द्धसैनिक बल लालगढ़ को सबक सिखाने में लगे हैं। लालगढ़ में 29 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है और 35 प्रतिशत दलितों की। समाज के इस सबसे कमजोर तबके को लंगड़ी मारने को शासन-प्रशासन सदैव तत्पर रहता है।

    सिर्फ लालगढ़ ही नहीं, पूरे देश के आदिवासी इलाके पेयजल, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी नागरिक सुविधाओं से वंचित हैं। उन्हें न बीपीएल कार्ड मिलता है, न राशन कार्ड, न इंदिरा आवास योजना का कोई लाभ मिलता है, न ही जवाहर रोजगार योजना का। सौ दिन के रोजगार की योजना का कोई लाभ लालगढ़ के आदिवासियों को क्यों नहीं मिलता? मैंने लालगढ़ से लेकर झारग्राम, पुरुलिया में 1977-80 के दौरान देखा था कि वहां कितने घने जंगल थे। वाम शासन के तैंतीस साल के राज में अधिकतर जंगल छिन्‍न भिन्‍न हो गये। संरक्षित जंगल इलाकों में ठेकेदारों से वन-विनाश कराया गया। जो जंगल बचा रह गया, उन पर भी जंगलपुत्रों का अधिकार नहीं रह गया। अरण्यजीवी अरण्य को मां मानते हैं। जंगल से ही लकड़ी, पत्ते, फल, मधु आदि संग्रह कर वे सदियों से जीवन-यापन करते आ रहे थे।

    लेकिन अब माओवादियों का भय दिखाकर जंगलपुत्रों को जंगल में ही प्रवेश नहीं करने दिया जाता। इधर साल भर से लालगढ़ पर जो बर्बर अत्याचार हो रहा है, वैसा बंगाल ने निकट अतीत में कभी नहीं देखा। हाल में मारे गये कथित माओवादियों में तीन युवतियां थीं। उनकी लाशें बांस पर लटकाकर ले जाने का अधिकार सुरक्षा बलों को किसने दिया? मैं पूछना चाहती हूं कि बुद्धदेव और चिदंबरम की अशुभ जोड़ी आखिर क्या प्रमाणित करना चाहती है? बुद्धदेव व चिदंबरम क्या लालगढ़ को लालमोहन टुडु बना देना चाहते हैं? लालमोहन टुडु की तरह 56 आदिवासियों को लालगढ़ में सुरक्षा बलों और माकपा की हर्मद वाहिनी ने मार गिराया।

    इस खून-खराबे के लिए मैं गृह मंत्री पी चिदंबरम को दोषी मानती हूं। वह कॉरपोरेट घरानों की तरफदारी कर रहे हैं। वह लालगढ़वासियों से इसीलिए वार्ता नहीं करना चाहते, क्योंकि तब कॉरपोरेट घराने के साथ हुए करार का उन्हें खुलासा करना पड़ेगा। इसलिए मैं वार्ता के पक्ष में हूं। लालगढ़ में माकपा की सशस्त्र वाहिनी और पुलिस वाहिनी की बर्बरता अब असह्य हो उठी है। इसीलिए लालगढ़ से अविलंब सुरक्षा बलों को हटाना चाहिए और यूएपीए नामक काला कानून तत्काल रद्द किया जाना चाहिए। बुद्धदेव और चिदंबरम को फौरन लालगढ़वासियों से बातचीत करनी चाहिए। दूसरा कोई तरीका नहीं है। मैं यह भी मानती हूं कि लालगढ़ में जो बर्बरता चल रही है, उसके खिलाफ समवेत प्रतिवाद होना चाहिए।

    मैं लालगढ़ को लेकर तत्काल पदयात्रा निकाले जाने का आह्वान करती हूं। मैं यह देखकर विस्मित हूं कि जिन्होंने मेरे साथ मिलकर 'परिवर्तन चाहिए' का नारा दिया था, वे भी लालगढ़ के सवाल पर प्रतिवाद नहीं कर रहे। ममता बनर्जी क्यों खामोश हैं? इससे जनता में गलत संदेश जा रहा है। हर क्षेत्र में बुद्धदेव विफल रहे, इसीलिए उनकी सरकार के परिवर्तन की मांग हमने की थी।

    ममता से बंगाल की जनता को बड़ी उम्मीदें हैं। कहीं-कहीं वह उम्मीदों पर खरा भी उतर रही हैं। रेल बस्तियों के बाशिंदों को वह निःशुल्क मकान बनाकर दे रही हैं। पंचायतों की तरह कई पालिकाओं पर भी उनकी पार्टी का बोर्ड बना है। ममता को हर जगह कड़ी निगरानी रखनी होगी कि काम ठीक ढंग से हो रहा है या नहीं? उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि बुद्धदेव ने जनता को लंगड़ी मारी, तो जनता क्या जवाब दे रही है? ममता की पार्टी में भी यदि जनता कोई खामी देखेगी, तो उसकी आलोचना सहने के लिए उन्हें तैयार रहना चाहिए। खामी किसी की हो, उसका नतीजा उन्हें भोगना ही होगा। (अमर उजाला से साभार)
  • नफरत की राजनीति और सर्वे की सांप्रदायिकता

    Posted: Mon, 28 Jun 2010 13:54:00 +0000
     अजय प्रकाश

    दिल्ली स्थित सर्वे कंपनी 'मार्केटिंग एंड डेवेलपमेंट रिसर्च एसोशिएट्स'(एमडीआरए)मौलवियों और मुस्लिम युवा धार्मिक नेताओं से एक सर्वे कर रही है.सर्वे कंपनी ने पूछने के लिए जो सवाल तय किये हैं उनमें से बहुतेरे आपत्तिजनक, खतरनाक और षडयंत्रकारी हैं. सवालों की प्रकृति और क्रम जाहिर करता है कि सर्वे कंपनी के पीछे जो ताकत लगी है उसने मुस्लिम धार्मिक नेताओं की राय पहले खुद ही तय कर ली है और मकसद देश में सांप्रदायिक भावना को और तीखा करना है. नमूने के तौर पर तीन सवालों का क्रम देखिए-


    1. क्या आप सोचते हैं कि पाकिस्तानी आतंकवादी आमिर अजमल कसाब को फांसी देना उचित था या कुछ ज्यादा ही कठोर है?
    2. क्या आप और आपके दोस्त सोचते हैं कि मुंबई केस में कसाब को स्पष्ट सुनवाई मिली है या यह पक्षपातपूर्ण था?
    3. क्या आप सोचते हैं कि मुंबई आतंकवाद के लिए कसाब की फांसी की सजा पर दुबारा से सुनवाई करके आजीवन कारावास में बदल दिया जाये, वापस पाकिस्तान भेज दिया जाये या फांसी की सजा को बरकरार रखना चाहिए?

    एमडीआरए सर्वे कंपनी द्वारा पुछवाये जा रहे इन नमूना सवालों पर गौर करें तो चिंता और कोफ्त दोनों होती है. साथ ही देश के खुफिया विभाग की मुस्तैदी पर भी सवाल उठता है कि आखिर वह कहां है जब समाज में एक नये ढंग के विष फैलाने की तैयारी एक निजी कंपनी कर रही है?

    MDRA Survey Questions


    इन सवालों पर कोई मौलवी या मुस्लिम धर्मगुरु जवाब दे इससे ज्यादा जरूरी है कि सर्वे करने वालों से पूछा जाये कि कसाब से संबंधित प्रश्न आखिर क्यों किया जा रहा है, जबकि मुंबई की एक अदालत ने इस मामले में स्पष्ट फांसी का फैसला अभियुक्त को सुना दिया. तो फिर क्या कंपनी को संदेह है कि धार्मिक नेता अदालत के फैसले के कुछ उलट जवाब देंगे? अगर नहीं तो इन्हीं को इन सवालों के लिए विशेष तौर पर क्यों चुना गया? वहीं कंपनी के मालिकान क्या इस बात से अनभिज्ञ हैं कि एक स्तर पर कोर्ट की यह अवमानना भी है.

    दूसरी महत्वपूर्ण बात और इस मामले को प्रकाश में लाने वाले दिल्ली स्थित भारतीय मुस्लिम सांस्कृतिक केंद्र के प्रवक्ता वदूद साजिद बताते हैं-'कसाब एक आतंकी है जो हमारे मुल्क में दहशतगर्दी का नुमांइदा है. दूसरा वह हमारा कोई रिश्तेदार तो लगता नहीं. रिश्तेदार होने पर किसी की सहानुभूति हो सकती है, मगर एक विदेशी के मामले में ऐसे सवाल वह भी सिर्फ मुस्लिम धार्मिक गुरूओं से, संदेह को गहरा करता है.'

    सर्वे कंपनी की नियत पर संदेह को लेकर हम अपनी तरफ से कुछ और कहें उससे पहले उनके द्वारा पूछे जाने वाले महत्वपूर्ण सवाल यहां चस्पा कर देना ठीक समझते हैं जो देशभर के मुस्लिम धार्मिक गुरूओं और मुस्लिम युवा धार्मिक नेताओं से पूछे जाने हैं. सवालों की सूची इसलिए भी जरूरी है कि खुली बहस में आसानी हो, इस चिंता में आपकी भागीदारी हो सके और ऐसे होने वाले हर धार्मिक-सामाजिक षड्यंत्र के खिलाफ हम ताकत के साथ खड़े हो सकें.

    बस इन प्रश्नों के साथ कुछ टिप्पणियों की इजाजत चाहेंगे जिससे हमें संदर्भ को समझने में आसानी हो. ध्यान रहे कि सर्वे टीम ने ज्यादातर प्रश्नों के जवाब के विकल्प हां, ना, नहीं कह सकते और नहीं जानते की शैली में सुझाया है.
    प्रश्न इस प्रकार से हैं-

    1. न्यायमूर्ति राजेंद्र सच्चर कमेटी रिपोर्ट के बारे में आपकी क्या राय है? क्या यह मुसलमानों की मदद कर रही है या नुकसान कर रही है?
    टिप्पणी- जब लागू ही नहीं हुई तो मदद या नुकसान कैसे करेगी. सवाल यह बनता था कि लागू क्यों नहीं हो रही है?


    2. आपके समुदाय में धार्मिक नेताओं के प्रशंसक घट रहे हैं, पहले जैसे ही हैं या पहले से बेहतर हैं?
    टिप्पणी- धार्मिक गुरु इसी की रोटी खाता है इसलिए कम तो आंकेगा नहीं.बढ़ाकर आंका तो खुफिया और मीडिया के एक तबके की मान्यता को बल मिलेगा जो यह मानते हैं कि मुस्लिम समाज धार्मिक दायरे से ही संचालित होता है. ऐसे में  पुरातनपंथी, धार्मिक कट्टर और अपने में डूबे रहने वाले हैं, कहना और आसान हो जायेगा और  मुल्क के मुकाबले धर्म वहां सर्वोपरि है, का फ़तवा देने में भी आसानी होगी.

    3. आपकी राय में आज मुस्लिम युवा धर्म तथा धर्म गुरुओं से प्रेरित होते हैं या बाजारी ताकतें जिसमें इंटरनेट और टीवी शामिल हैं, प्रभावित कर रहे हैं?
    टिप्पणी-यह भी उनके रोटी से जुड़ा सवाल है. दूसरा कि इसका जवाब सर्वे कंपनी के पास होना चाहिए, धार्मिक गुरूओं के पास ऐसे सर्वे का कोई ढांचा नहीं होता.


    4. पूरे देश और देश से बाहर मुस्लिम नेताओं से संपर्क के लिए आप इंटरनेट का इस्तेमाल ज्यादा कर रहे हैं या नहीं?

    टिप्पणी-कई बम विस्फोटों में जो मुस्लिम पकड़े गये हैं उन पर यह आरोप है कि वे विदेशी आकाओं से इंटरनेट के जरिये संपर्क करते थे। ऐसे में इस सवाल का क्या मायने हो सकता है?


    4ए. आपकी राय में समुदाय सामाजिक मामलों में राजनीतिक  नेताओं से ज्यादा प्रभावित है या धार्मिक नेताओं से?

    टिप्पणी- इस  प्रश्न का  बेहतर जवाब जनता  दे सकती है.

    5. आपकी राय में हिंसा, गैर कानूनी गतिविधियां और आतंकवादी गतिविधियां क्यों बढ़ रही हैं, इस प्रवृति को क्यों बढ़ावा मिल रहा है?

    टिप्पणी- सभी जानते हैं कि यह सरकारी नीतियों की देन है, लेकिन मुस्लिम धार्मिक नेता इस बात को जैसे ही बोलेगा तो वैमनस्य की ताकतें ओसामा से लेकर हूजी के नेटवर्क से उसे कैसे जोड़ेंगी? यह तथ्य हम सभी को पिछले अनुभवों से बखूबी पता है.

     6. क्या आप सोचते हैं कि युवा मुस्लिम को राजनीति में ज्यादा भाग लेना चाहिए या धर्म के प्रचार में सक्रिय रहना चाहिए या दोनों में?

    टिप्पणी- यह भी रोटी से जुड़ा सवाल है इसलिए जवाब सर्वे कंपनी को भी पता है और मकसद सबको.

     7. मुस्लिम युवाओं की नकारात्मक छवि हर तरफ क्यों फैल रही है. इसके लिए कौन और कौन सी बातें जिम्मेदार हैं, क्या आप कुछ ऐसी बातें बता सकते हैं?
    टिप्पणी- इसका सर्वे कब हुआ है कि मुस्लिम युवाओं की छवि नकारात्मक है.दूसरे बात यह कि अगर सवालकर्ता यह मान चुका है कि छवि नकारात्मक है तो उससे बेहतर जवाब और कौन दे सकता है.


    8. कुछ के अनुसार न्यूज मीडिया और विदेशी एजेंसी शिक्षित युवा मुस्लिम को गैर कानूनी गतिविधियों के लिए भर्ती कर रही हैं, क्या इस पर आप विश्वास करते हैं या इस तरह की घटना आपको पता है?

    9. क्या इस तरह की गतिविधियां हर तरफ हैं?

    टिप्पणी- सर्वेधारी को यह सवाल पहले उन 'कुछ' से पूछना चाहिए जिसकी जानकारी सर्वे करने वालों के पास पहले से है. उसके बाद मौलवी के पास समय गंवाने की बजाय सीधे खुफिया आधिकारियों को जानकारी मुहैय्या कराना चाहिए जो करोड़ों खर्च करने के बाद भी मकसद में सफल नहीं हो पा रहे हैं.

    10. क्या आप देवबंद द्वारा हाल ही जारी फतवे का समर्थन करते हैं जिसमें उन्होंने मुस्लिम महिलाओं का पुरुषों के साथ काम करने का विरोध किया था,या आप इसे मुस्लिम समाज के विकास में नुकसानदेह मानते हैं?
    टिप्पणी -सवाल ही झूठा है, क्योंकि देश जानता है देवबंद ने ऐसे किसी बयान से इनकार किया है.

    11. भारत 21 मई के दिन आतंकवाद के खिलाफ (आतंकवादी निरोधी दिन) मनाता है. आपकी राय में इसको मनाने का क्या कारण है?
    टिप्पणी- फर्ज करें अगर जवाब यह हुआ कि इससे देश की सुरक्षा होगी, तब तो सुभान अल्लाह. अन्यथा इसके अलावा मौलवी जो भी जवाब देगा जैसे यह खानापूर्ति है, इससे कुछ नहीं होता आदि,तो उसकी व्याख्या कैसी होगी इसको जानने के लिए जवाब की नहीं,बल्कि मुल्क में मुसलमानों ने ऐसे भ्रम फैलाने वालों के नाते जो भुगता है उस पर एक बार निगाह डालने की दरकार है.


    12. क्या आप सोचते हैं कि बिना सबूत के भारत में मुसलमानों को हिंसा और आतंक के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है?
    टिप्पणी- पिछले वर्षों से लेकर अब तक आतंक के नाम पर जो गिरफ्तारियां हुई हैं और उसके बाद आरोपितों में कुछ बाइज्जत छूटते रहे हैं उस आधार पर तो यह कहा जा सकता है, मगर इस कहने के साथ जो दूसरा जवाब जुड़ता है वह यह कि सरकार यानी संविधान की कार्यवाहियों पर मुस्लिम धर्मगुरुओं का विश्वास नहीं है. ऐसे में यह परिणाम तपाक से निकाला जा सकता है कि जब गुरुओं का विश्वास नहीं है तो समुदाय क्यों करे, जबकि समुदाय तो मौलवियों की ही बातों को तवज्जो देता है.


    13. क्या आप कुछ लोगों के विचार से सहमत हैं कि वैश्विकी जिहाद का भारत में कोई स्थान नहीं है या आपके विचार इससे भिन्न हैं?

    14. कुछ लोगों का कहना है कि आइएसआइ (पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी) जैसी एजेंसी हाल में युवाओं को भारत में आतंकवादी गतिविधियों के लिए भर्ती कर रही है, क्या आप इस बात से सहमत हैं?

    टिप्पणी- अब तो हद हो गयी. सवाल पढ़कर लगता है कि एमडीआरए एक सर्वे कंपनी की बजाय सांप्रदायिक मुहिम का हिस्सा है. एमडीआरए वालो वो जो 'कुछ' मुखबिर तुम्हारे जानने वाले हैं उनसे मिली जानकारी को गृह मंत्रालय से साझा क्यों नहीं करते कि देश आइएसआइ के आतंकी चंगुल से चैन की सांस ले सके.और अगर जानकारी के बावजूद (जैसा कि सर्वे के सवालों से जाहिर है) नहीं बताते हो तो, देश आइएसआइ से बड़ा आतंकी तुम्हारी कंपनी को मानता है, जो सरकार को सुझाव देने की बजाय मौलवियों से सवाल कर देश की सुरक्षा को खतरे में डाल रहे हैं.


    बहरहाल इन प्रश्नों के अलावा दस और सवाल जो सर्वे कंपनी ने मौलवियों और मुस्लिम युवा धार्मिक नेताओं से पूछे हैं,उन प्रश्नों की सूची देखने के लिए आप रिपोर्ट के साथ चस्पां की तस्वीरों को देख सकते हैं.

    अब जरा एमडीआरए के सर्वे इतिहास पर नजर डालें तो इसकी वेबसाइट देखकर पता चलता है कि यह कंपनी मूलतः बाजारू मसलों पर सर्वे का काम करती है जिसके कई सर्वे अंग्रेजी पत्रिका 'आउटलुक'में प्रकाशित हुए हैं. कंपनी के बाकी सर्वे के सच-झूठ में जाना एक लंबा काम है,इसलिए फिलहाल मोहरे के तौर पर अलग तेलंगाना राज्य की मांग, महिला आरक्षण पर मुस्लिम महिलाओं की राय और नक्सलवाद के मसले पर एमडीआरए के सर्वे को देखते हैं जो आउटलुक अंग्रेजी पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं.

    पत्रिका के जिस मार्च अंक में अरूंधति राय का दंतेवाड़ा से लौटने के बाद लिखा लेख  छपा है उसी में महिला आरक्षण को लेकर मुस्लिम महिलाओं की राय छपी है.पत्रिका और एमडीआरए के संयुक्त सर्वे ने दावा किया है कि 68 फीसदी मुस्लिम महिलाएं महिला आरक्षण के पक्ष में हैं. कई रंगों और बड़े अक्षरों में सजे इस प्रतिशत से जब हम हकीकत में उतरते हैं तो कहीं एक तरफ प्रतिशत के अक्षरों के मुकाबले बड़ी हीन स्थिति में सच पड़ा होता है। पता चलता है कि इस विशाल प्रतिशत का खेल मात्र  518 महानगरीय महिलाओं के बीच दो दिन में खेला गया है जो महिला मुस्लिम आबादी का हजारवां हिस्सा भी नहीं है.

    सर्वे खेल का दूसरा मामला नक्सलवाद को लेकर है जो इसी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है.लंबी दूरी की एक ट्रेन, एक समय में जितनी आबादी लेकर चलती है उससे लगभग एक चौथाई यानी 519 लोगों से राय लेकर पत्रिका और एमडीआरए ने दावा किया कि प्रधानमंत्री की राय यानी 'नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है',पर अस्सी फीसदी से ज्यादा लोग सहमत हैं.यानी बेकारी,महंगाई और बुनियादी सुविधाओं से महरूम जनता के लिए माओवाद ही सबसे बड़ा खतरा है.

    तीसरा उदाहरण अलग तेलंगाना राज्य की मांग का है. तेलंगाना राज्य की मांग के सर्वे के लिए कंपनी ने हैदराबाद शहर को चुना है जिसमें छः सौ से अधिक लोगों को सर्वे में शामिल किया गया है.पहली बात तो यह है कि सर्वे में तेलंगाना क्षेत्र में आने वाले किसी एक जिले को क्यों नहीं शामिल किया गया? दूसरी बात यह कि करोंड़ों की मांग  को समझने के लिए कुछ सौ से जानकारी के आधार पर करोड़ों की राय कैसे बतायी जा सकती है, आखिर यह कौन सा लोकतंत्र है?

    बहरहाल,अभी मौजूं सवाल सर्वे कंपनी एमडीआरए से ये है कि  मौलवियों और युवा धार्मिक नेताओं के हो रहे इस षड्यंत्रकारी सर्वे का असली मकसद क्या है?


    कंपनी के शातिरी के खिलाफ निम्न पते, ईमेल, फ़ोन पर विरोध दर्ज कराएँ.

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    MDRA, 34-B, Community Centre, Saket, New Delhi-110 017
    Phone +91-11-26522244/55; Fax: +91-11-26968282
    Email: info@mdraonline.com

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  • अभी तो शब्दों को उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ

    Posted: Fri, 25 Jun 2010 14:02:00 +0000
    हम इन्हें पहचानते हैं. इससे पहले उनकी शानदार कविताएं पढ़ चुके हैं. उनके साथ हम कुछ संबल देती कविताओं से संवाद करते हैं, हम उनके जरिए जानते हैं कि जंगल में सपने देखना कितना खतरनाक है, लेकिन यह सारी दुनिया की सांसों और सपनों के लिए कितना जरूरी है, उनकी कविताएं हमें बताती हैं कि शब्दों नहीं, सिर्फ जमीन पर हो रहे बदलाव ही हमें आश्वस्त कर सकते हैं. उनकी हर कविता की तरह यह भी रणेंद्र की कविता है, जहां एक-एक शब्द निरंतर युद्ध है

    अभी तो
    रणेन्द्र

    शब्द सहेजने की कला
    अर्थ की चमक, ध्वनि का सौन्दर्य
    पंक्तियों में उनकी सही समुचित जगह
    अष्टावक्र व्याकरण की दुरूह साधना
    शास्त्रीय भाषा बरतने का शऊर
    इस जीवन में तो कठिन

    जीवन ही ठीक से जान लूँ अबकी बार

    जीवन जिनके सबसे खालिस, सबसे सच्चे, पाक-साफ, अनछुए
    श्रमजल में पल-पल नहा कर निखरते
    अभी तो,
    उनकी ही जगह
    इन पंक्तियों में तलाशने को व्यग्र हूँ

    अभी तो,
    हत्यारे की हंसी से झरते हरसिंगार
    की मादकता से मताए मीडिया के
    आठों पहर शोर से गूँजता दिगन्त
    हमें सूई की नोंक भर अवकाश देना नहीं चाहता

    अभी तो,
    राजपथ की
    एक-एक ईंच सौन्दर्य सहेजने
    और बरतने की अद्‌भुत दमक से
    चौंधियायी हुई हैं हमारी आँखें

    अभी तो,
    राजधानी के लाल सुर्ख होंठों के लरजने भर से
    असंख्य जीवन, पंक्तियों से दूर छिटके जा रहे हैं

    अभी तो,
    जंगलों, पहाड़ों और खेतों को
    एक आभासी कुरूक्षेत्र बनाने की तैयारी जोर पकड़ रही है

    अभी तो,
    राजपरिवारों और सुखयात क्षत्रिय कुलकों के नहीं
    वही भूमिहीन, लघु-सीमान्त किसानों के बेटों को
    अलग-अलग रंग की वर्दियाँ पहना कर
    एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है
    लहू जो बह रहा है
    उससे बस चन्द जोड़े होंठ टहटह हो रहे हैं

    अभी तो,
    बस्तर की इन्द्रावती नदी पार कर गोदावरी की ओर बढ़ती
    लम्बी सरल विरल काली रेखा है
    जिसमें मुरिया, महारा, भैतरा, गड़बा, कोंड, गोंड
    और महाश्वेता की हजारों-हजार द्रौपदी संताल हैं


    अभी तो,
    जीवन सहेजने का हाहाकार है
    बूढ़े सास-ससुर और चिरई-चुनमुन शिशुओं पर
    फटे आँचल की छाँह है
    जिसका एक टुकड़ा पति की छेद हुई छाती में
    फँस कर छूट गया है

    अभी तो,
    तीन दिन-तीन रात अनवरत चलने से
    तुम्बे से सूज गए पैरों की चीत्कार है
    परसों दोपहर को निगले गए
    मड़ुए की रोटी की रिक्तता है
    फटी गमछी और मैली धोती के टुकड़े
    बूढ़ों की फटी बिवाइयों के बहते खून रोकने में असमर्थ हैं
    निढ़ाल होती देह है
    किन्तु पिछुआती बारूदी गंध
    गोदावरी पार ठेले जा रही है

    अभी तो,
    कविता से क्या-क्या उम्मीदे लगाये बैठा हूँ
    वह गेहूँ की मोटी पुष्ट रोटी क्यों नही हो सकती
    लथपथ तलवों के लिए मलहम
    सूजे पैरों के लिए गर्म सरसों का तेल
    और संजीवनी बूटी

    अभी तो,
    चाहता हूँ कविता द्रौपदी संताल की
    घायल छातियों में लहूका सोता बन कर उतरे
    और दूध की धार भी
    ताकि नन्हे शिशु तो हुलस सकें

    लेकिन सौन्दर्य के साधक, कलावन्त, विलायतपलट
    सहेजना और बरतना ज्यादा बेहतर जानते हैं
    सुचिन्तित-सुव्यवस्थित है शास्त्रीयता की परम्परा
    अबाध रही है इतिहास में उनकी आवाजाही

    अभी तो,
    हमारी मासूम कोशिश है
    कुचैले शब्दों की ढ़ाल ले
    इतिहास के आभिजात्य पन्नों में
    बेधड़क दाखिल हो जाएँ
    द्रौपदी संताल, सीके जानू, सत्यभामा शउरा
    इरोम शर्मिला, दयामनी बारला और ... और ...

    गोरे पन्ने थोड़े सँवला जाएँ

    अभी तो,
    शब्दों को
    रक्तरंजित पदचिन्हों पर थरथराते पैर रख
    उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ
  • बीडी शर्मा की राष्ट्रपति के नाम चिट्ठी

    Posted: Thu, 24 Jun 2010 08:25:00 +0000
    डाक्टर बी डी शर्मा
    पूर्व आयुक्त - अनुसूचित जाति-जनजाति
     ए-11 नंगली रजापुर
    निजामुद्दीन पूर्व
    नई दिल्ली-110013
    दूरभाष-011-24353997


    17 मई 2010

    सेवा में,
    राष्ट्रपति, भारत सरकार
    नई दिल्ली

    महामहिम,


    विषय- जनजातीय इलाकों में शांति-स्थापना

    1.       विदित हो कि आदिवासी मामलों से अपने आजीवन जुड़ाव के आधार पर (जिसकी
    शुरुआत सन् 1968 में बस्तर से तब हुई जब वहां संकट के दिन थे और फिर अनुसूचित जाति-जनजाति
    का अंतिम आयुक्त (साल 1986-1991) रहने की सांविधानिक जिम्मेदारी) मैं आपको यह पत्र एक
    ऐसे संकटपूर्ण समय में लिख रहा हूं जब आदिवासी जनता के मामले में सांविधानिक व्यवस्था लगभग
    ढहने की स्थिति में है, आबादी का यह हिस्सा लगभग युद्ध की सी स्थिति में फंसा हुआ है और
    उस पर हमले हो रहे हैं।

    2.       इस पत्र के माध्यम से मैं आपसे सीधा संवाद स्थापित कर रहा हूं क्योंकि जनता (और
    इसमें आदिवासी जनता भी शामिल है) आपको और राज्यपाल को भारत के सांविधानिक प्रधान के
    रूप में देखती है. संबद्ध राज्य संविधान की रक्षा-संरक्षा के क्रम में अपने दायित्वों का
    निर्वहन करते हुए इस बाबत शपथ उठाते हैं। अनुच्छेद 78 के अन्तर्गत राष्ट्रपति के रूप में आपके
    कई अधिकार और कर्तव्य हैं जिसमें एक बात यह भी कही गई है कि मंत्रिमंडल और प्रशासन की
    सारी चर्चा की आपको जानकारी दी जाएगी और यह भी कि आप मंत्रिमंडल के समक्ष मामलों
    को विचारार्थ भेजेंगे।

    3.       खास तौर पर संविधान की पांचवी अनुसूची के अनुच्छेद 3 में कहा गया है- "ऐसे
    प्रत्येक राज्य का राज्यपाल जिसमें अनुसूचित क्षेत्र हैं, प्रतिवर्ष या जब राष्ट्रपति अपेक्षा
    करे, उस राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के प्रशासन के संबंध में राष्ट्रपति को प्रतिवेदन
    देगा और *संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार राज्य को उक्त क्षेत्रों के प्रशासन के बारे
    में निर्देश देने तक होगा।"
    *           इस संदर्भ में गौरतलब है कि कोई भी फलदायी रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की गई
    है। आदिवासी मामलों की परामर्श-परिषद (पांचवी अनुसूची के अनुच्छेद 4) ने कोई
    प्रभावी परामर्श नहीं दिया।

    4.      विधि के अन्तर्गत राज्यपाल इस बात को सुनिश्चित कर सकता हैं कि संसद या
    राज्यों द्वारा बनाया गया  कोई भी कानून आदिवासी मामलों में संकेतित दायरे में अमल में ना
    लाया जाय। मौजूदा स्थिति यह है कि भू-अर्जन और सरकारी आदेशों के जरिए आदिवासी का
    निर्मन दोहन और दमन हो रहा है। बावजूद इसके, कोई कार्रवाई नहीं की जा रही।

    5.       दरहकीकत, अगर गृहमंत्रालय के मंतव्य को मानें तो आदिवासी संघीय सरकार की
    जिम्मेदारी हैं ही नहीं। गृहमंत्रालय के अनुसार तो संघीय सरकार की जिम्मेदारी केवल राज्य
    सरकारों की मदद करना है। ऐसा कैसे हो सकता है? *संघ की कार्यपालिका की शक्ति का
    विस्तार पांचवी अनुसूची के विधान के अन्तर्गत समस्त अनुसूचित क्षेत्रों तक किया गया है*।
    इसके अतिरिक्त  विधान यह भी है कि ' संघ अपनी कार्यपालिका की शक्ति के अन्तर्गत
    राज्यों को अनुसूचित इलाके के प्रशासन के बारे में निर्देश देगा '

    6.       आदिवासी जनता के इतिहास के इस निर्णायक मोड़ पर मैं यह कहने से अपने को रोक
    नहीं सकता कि केंद्र सरकार आदिवासी जनता के मामले में अपने सांविधानिक दायित्वों का
    पालन नहीं करने की दोषी है। उसका दोष यह है कि उसने सन् साठ के दशक की स्थिति को जब
    आदिवासी इलाकों में छिटपुट विद्रोह हुए थे आज के 'युद्ध की सी स्थिति' तक पहुंचने दिया।
    संविधान लागू होने के साथ ही आदिवासी मामलों  के  प्रशासन के संदर्भ में एक नाराजगी
    भीतर ही भीतर पनप रही थी मगर सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। साठ सालों में केंद्र
    सरकार ने इस संदर्भ में एक भी निर्देश राज्यों को जारी नहीं किया। राष्ट्र के प्रधान के रुप
    में इस निर्णायक समय में आपको सुनिश्चित करना चाहिए कि केंद्र सरकार भौतिक, आर्थिक और
    भावनात्मक रुप से तहस-नहस, धराशायी और वंचित आदिवासियों के प्रति यह मानकर कि उनकी
    यह क्षति अपूरणीय है खेद व्यक्त करते हुए अपनी सांविधानिक जिम्मेदारी निभाये। आदिवासियों
    की इस अपूरणीय क्षति और वंचना समता और न्याय के मूल्यों से संचालित इस राष्ट्र के उज्ज्वल
    माथे पर कलंक की तरह है।

    7.    मैं आपका ध्यान देश के एक बड़े इलाके में तकरीबन युद्ध की सी स्थिति में फंसी आदिवासी
    जनता के संदर्भ में कुछेक महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर आकर्षित करना चाहता हूं। आपके एक सुयोग्य
    पूर्ववर्ती राष्ट्रपति श्री के आर नारायणन ने 26 जनवरी 2001 को राष्ट्र के नाम अपने
    संदेश  में बड़े जतन से उन महनीय कानूनों की तरफ ध्यान दिलाया था जिन्हें आदिवासी क्षेत्रों
    की रक्षा के लिए बनाया गया है और जिन कानूनों को अदालतों ने भी अपने फैसलें देते समय
    आधारभूत माना है। श्री नारायणन ने गहरा अफसोस जाहिर करते हुए कहा था कि विकास की
    विडंबनाओं को ठीक-ठीक नहीं समझा गया है। उन्होंने बड़े मार्मिक स्वर में कहा था कि, '
    *कहीं ऐसा ना हो कि आगामी पीढियां कहें कि भारतीय गणतंत्र को वन-बहुल धरती और उस
    धरती पर सदियों से आबाद वनवासी जनता का विनाश करके बनाया गया।.'
    *
    8.       कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो अपने देश के सत्ताधारी अभिजन अक्सर आदिवासियों
    को गरीब बताकर यह कहते हैं कि उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करना है। यह दरअसल
    आदिवासी जीवन मूल्यों के प्रति इनकी निर्मम संवेदनहीनता और समझ के अभाव का सूचक है।
    ऐसा कह कर वे उन सहज लोगों के मर्मस्थान पर आघात करते हैं जिन्हें अपनी इज्जत जान से भी
    ज्यादा प्यारी है। ध्यान रहे कि आदिवासी गरीब नहीं है। आदिवासी जनता को उसके ही देस
    में, उस देस में जहां धरती माता ने अपनी इस प्रिय संतान के लिए प्रकृति का भरपूर खजाना
    लुटाया है,  दायवंचित किया गया है। अपनी जीवंत विविधता पर गर्व करने वाली भारतीय
    सभ्यता के जगमग ताज में आदिवासी जनता सबसे रुपहला रत्न है।

    9.       यही नहीं, आदिवासी जनता '.इस धरती पर सर्वाधिक लोकतांत्रिक मिजाज की
    जनता'  है। राष्ट्रनिर्माताओं ने इसी कारण उनकी रक्षा के लिए विशेष व्यवस्था की। पांचवी
    अनुसूची को 'संविधान के भीतर संविधान' की संज्ञा दी जाती है। फिर भी, इस समुदाय
    का संविधान अंगीकार करने के साथ ही तकरीबन अपराधीकरण कर दिया गया। पुराने चले आ
    रहे औपनिवेशिक कानूनों ने उन इलाकों को भी अपनी जद में ले लिया जिसे संविधान अंगीकार
    किए जाने से पहले अपवर्जित क्षेत्र (एक्सक्लूडेड एरिया) कहा जाता था। औपनिवेशिक कानूनों में
    समुदाय, समुदाय के रीति-रिवाज और गाँव-गणराज्य के अलिखित नियमों के लिए तनिक भी जगह
    नहीं रही। ऐसी विसंगति से उबारने के लिए ही राज्यपालों को असीमित शक्तियां दी गई हैं
    लेकिन वे आज भी इस बात से अनजान हैं कि इस संदर्भ में उनके हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहने से
    आदिवासी जनता के जीवन पर कितना विध्वंसक प्रभाव पड़ा है।

    10.     *पेसा* यानी प्राविजन ऑव पंचायत (एक्सटेंशन टू द शिड्यूल्ड एरिया - 1996 )
    नाम का अधिनियम एक त्राणदाता की तरह सामने आया। इस कानून की रचना आदिवासियों के
    साथ हुए उपरोक्त ऐतिहासिक अन्याय के खात्मे के लिए किया गया था। पूरे देश में इस कानून ने
    आदिवासियों को आंदोलित किया।  इस कानून को लेकर आदिवासियों के बीच यह मान्यता बनी
    कि इसके सहारे उनकी गरिमा की रखवाली होगी और उनकी स्वशासन की परंपरा जारी रहेगी।
    इस भाव को आदिवासी जनता ने 'मावा नाटे मावा राज' (हमारे गांव में हमारा राज) के
    नारे में व्यक्त किया। बहरहाल आदिवासी जनता के इस मनोभाव से सत्तापक्ष ने कोई सरोकार
    नहीं रखा। इसका एक कारण रहा सत्ताधारी अभिजन का पेसा कानून की मूल भावना से
    अलगाव। यह कानून कमोबेश हर राज्य में अपने अमल की राह देखता रहा।

    11.     आदिवासी जनता के लिए अपने देश में सहानुभूति की कमी नहीं रही है। नेहरु युग के
    पंचशील में इसके तत्व थे। फिर कुछ अनोखे सांविधानिक प्रावधान किए गए जिसमें आदिवासी
    मामलों को राष्ट्रीय हित के सवालों के रूप में दलगत संकीर्णताओं से ऊपर माना गया। साल
    1974 के ट्रायबल सब प्लान में  आदिवासी इलाकों में विकास के मद्देनजर शोषण की समाप्ति के
    प्रति पुरजोर प्रतिबद्धता जाहिर की गई। फिर साल 1996 के पेसा कानून में आदिवासी इलाके
    के लिए गाँव-गणराज्य की परिकल्पना साकार की गई और वनाधिकार कानून (साल 2006) के
    तहत आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय के खात्मे का वादा किया गया। तो भी, इन
    प्रतिबद्धताओं का सबसे दुखद पहलू यह है कि आदिवासियों के साथ किए गए वादों की लंबी
    फेहरिश्त में कोई भी वादा ऐसा नहीं रहा जिसे तोड़ा नहीं गया, कई मामलों में तो वादों को
    तोड़ने की हद हो गई। मैं तोड़े गए वादों की एक फेहरिश्त भी इस सूची के साथ संलग्न कर रहा
    हूं।

    12.     वादे टूटते रहे और प्रशासन स्वयं शिकारी बन गया तथा सत्तापक्ष के शीर्षस्थ आंखे
    मूंदे रहे। ऐसी स्थिति में वे विस्थापन के कारण उजड़ने वाले आदिवासियों की गिनती तक भी
    नहीं जुटा सके। इस क्रम में बेचैनी बढ़ी और बलवे लगातार बढते गए। जंगल में रहने वाले जिन
    लोगों पर अंग्रेज तक जीत हासिल नहीं कर पाये थे उनके लिए यह राह चुनना स्वाभाविक था।
    तथाकथित विकास कार्यक्रमों के जरिए आदिवासियों को अपने साथ मिलाने की जुगत एक फांस
    साबित हुई। ये कार्यक्रम समता के मूल्यों का एक तरह से माखौल थे। गैरबराबरी के खिलाफ
    विद्रोह का झंडा उठाने वाले युवाजनों का एक हिस्सा आदिवासियों का साथी बना। साल
    1998 में मुझसे इन सहज-साधारण लोगों (आदिवासियों) ने कहा था- आसपास दादा (माओवादी)
    लोगों के आ जाने से हमें कम से कम दारोगा, पटवारी और फॉरेस्ट गार्ड के अत्याचारों से छुट्टी
    मिली है। फिर भी सत्तापक्ष इस बात पर डटा रहा कि आदिवासी इलाकों में नक्सलवाद की
    समस्या सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या है। उसने अपनी इस रटंत में बदलाव की जरुरत नहीं
    समझी।

    13.     निष्कर्ष रुप में मेरी विनती है कि आप निम्नलिखित बातों पर तुरंत ध्यान दें-
    (क)  केंद्र सरकार से कहें कि वह आदिवासी जनता के प्रति अपनी विशेष जिम्मेदारी की बात
    सार्वजनिक रूप से व्यक्त करे।
    (ख)    आदिवासी इलाकों में  तत्काल शांति बहाली का प्रस्ताव करें
     (ग)    निरंतर पर्यवेक्षण, पुनरावलोकन और कार्रवाई के लिए उपर तक जवाबदेही का एक
    ढांचा खड़ा किया जाय जिस तक पीडितों की सीधी पहुंच हो।
    (घ)    एक साल  के अंदर-अंदर उन सारे वायदों का पालन हो जो आदिवासी जनता के साथ
    किए गए और जिन्हें राज्य ने तोड़ा है ।
    (च)  पेसा कानून के अन्तर्गत स्थानीय जनता की मंजूरी के प्रावधान का पालन दिखाने के लिए
    जिन मामलों में बलपूर्वक, धोखे-छल या फिर किसी अन्य जुगत से  स्थानीय जनता की मंजूरी
    हासिल की गई और फैसले लिए गए उन फैसलों को पलटा जाये और उनकी जांच हो।
    (छ)    मौजूदा बिगड़े हालात के समग्र समाधान के लिए लिए व्यापक योजना बने और,
    (ज)    उन इलाकों में से कुछ का आप दौरा करें जहां सांविधानिक व्यवस्था पर जबर्दस्त संकट
    आन पड़ा है।.


    सादर,
    आपका विश्वासी
    बी डी शर्मा


    प्रति,

    1.श्री मनमोहन सिंह जी ,
    प्रधानमंत्री, भारत सरकार
    साऊथ ब्लॉक नई दिल्ली

    2.श्री प्रणब मुखर्जी
    वित्तमंत्री, भारत सरकार
    नार्थ ब्लॉक नई दिल्ली

    3.  श्री वीरप्पा मोईली
    विधि और न्यायमंत्री, भारत सरकार
    शास्त्रीभवन, नई दिल्ली

    4.  श्री पी चिदंबरम्
    गृहमंत्री, भारत सरकार
    नार्थ ब्लॉक, नई दिल्ली

    5   श्री कांतिलाल भूरिया
    मंत्री आदिवासी मामले, भारत सरकार
    शास्त्रीभवन, नई दिल्ली

    6.  डाक्टर सी पी जोशी
    ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री,भारत सरकार
    शास्त्रीभवन, नई दिल्ली

    7 श्री जयराम रमेश
    वन एवम् पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार
    पर्यावरण भवन, लोदी रोड, नई दिल्ली
  • हिंदी में पढ़िए, विद्रोह के केंद्र में दिन और रातें

    Posted: Wed, 23 Jun 2010 10:40:00 +0000

    जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ता और ईपीडब्ल्यू के सलाहकार संपादक गौतम नवलखा तथा स्वीडिश पत्रकार जॉन मिर्डल कुछ समय पहले भारत में माओवाद के प्रभाव वाले इलाकों में गए थे, जिसके दौरान उन्होंने भाकपा माओवादी के महासचिव गणपति से भी मुलाकात की थी. इस यात्रा से लौटने के बाद गौतम ने यह लंबा आलेख लिखा है, जिसमें वे न सिर्फ ऑपरेशन ग्रीन हंट के निहितार्थों की गहराई से पड़ताल करते हैं, बल्कि माओवादी आंदोलन, उसकी वजहों, भाकपा माओवादी के काम करने की शैली, उसके उद्देश्यों और नीतियों के बारे में भी विस्तार से बताते हैं. पेश है हाशिया पर इस लंबे आलेख का हिंदी अनुवाद.


    जब माओवादियों के खिलाफ हर तरह के अपशब्द और कुत्साप्रचार का इस्तेमाल किया जाता है तो झूठ और अर्धसत्य को भी पंख लग जाते हैं और इसकी चीरफाड़ के बहाने उनका दानवीकरण किया जाता है। बुद्धिजीवी समुदाय तथ्य का सामना करने से बचता है। फिर भी हम यथार्थ को उसके असली रूप में जानने का प्रयास करते हैं और कुछ मूलभूत सवालों का उत्तर तलाश करते हैं- यह युद्ध क्यों? जिन्हें भारत की आन्तरिक सुरक्षा के लिए 'सबसे बड़ा खतरा' समझा जाता है, वे लोग कौन हैं? उनकी राजनीति क्या है? वे हिंसा को क्यों जायज़ ठहराते हैं? वे अपने 'जनयुद्ध', अपने राजनीतिक लक्ष्य और अपने बारे में किस तरह की धारणा रखते हैं? अपने मजबूत जंगली क्षेत्रों से बाहर की दुनिया में छलांग लगाने के बारे में वे क्या सोचते है?

    माओवादियों को दानव के रूप में दिखाए जाने की प्रक्रिया के खिलाफ उन्हें मानव के रूप में जानने समझने और माओवादियों के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी लेने की इच्छा (सिर्फ किताबों, दस्तावेजों, बातचीत के जरिएही नहीं बल्कि उनके बीच जाकर और उनसे मुलाकात करके ) विगत कई वर्षों से मेरे दिमाग में निर्मित हो रही थी। दो बार मैं इस यात्रा के काफी करीब पहुंच गया था। पहली बार मुझे दो नवजवान पत्रकारों ने धोखा दे दिया और नियत समय और स्थान पर नहीं आए। दूसरी बार बहुत कम समय की नोटिस पर मैं अपने आप को तैयार नहीं कर सका। यह तीसरा अवसर था और मैं इसे गंवाना नहीं चाहता था। कुल मिलाकर यह यात्रा सम्पन्न हुयी और मैंने स्वीडेन के लेखक जॉन मिर्डल के साथ जनवरी 2010 में सीपीआई माओवादियों के गुरिल्ला जोन (जहां वे अपनी जनताना सरकार या जन सरकार चलाते हैं ) में दो सप्ताह गुजारे। इस दौरान हमने देखा, सुना, पढ़ा और काफी बहसें की। यद्यपि 'गुरिल्ला जोन' अभी भी सरकार और विद्राहियों के बीच संघर्ष और इस पर नियंत्रण की लड़ाई में फंसा है लेकिन यह भी सच है कि इस क्षेत्र से भारतीय राज्य को पीछे हटना पड़ा है और अब वह अपने प्राधिकार को पुनः स्थापित करने के लिए सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर रहा है।



    पूरी पोस्ट यहां पढ़िए

    यहां, ब्लॉगर  की सीमा उजागर हुई. इतनी लंबी पोस्ट (और वह भी एंडनोट्स के साथ) ब्लॉगर पर पोस्ट ही नहीं हो पा रही थी, जबकि यह वर्डप्रेस पर झट से पोस्ट हो गई. 
  • क्या हमारा लोकतंत्र आदिवासियों को न्याय देगा?

    Posted: Wed, 23 Jun 2010 07:30:00 +0000
    ऑपरेशन ग्रीन हंट की आंच भले दिल्ली-मुंबई में बैठे लोगों तक नहीं पहुंच रही हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह आग किसी को झुलसा नहीं रही. देश के संसाधनों और जमीन को छीन कर देशी-विदेशी कंपनियों के हवाले करने के लिए और इसका विरोध करनेवाली जनता का प्रतिरोध तोड़ने के लिए चलाए जा रहे इस ऑपरेशन ने किसी तरह देश के सबसे गरीब लोगों के जीवन को नारकीय बना दिया है और किस तरह यह लोकतंत्र की चमकदार लेकिन भ्रामक बातों की कलई खोल रहा है, ग्लैडसन डुंगडुंग की यह खोजपरक रिपोर्ट. मूलतः अंगरेजी में प्रकाशित.

    13 जून 2010 को झारखंड के 12 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की यात्रा सूर्योदय से पहले ही शुरू हो गयी थी। हमने सुना था कि लातेहार के बरवाडीह प्रखंड के लादी गांव की एक खरवार आदिवासी महिला, पुलिस और माओवादियों के बीच हुई मुठभेड़ की शिकार हो गयी। उस महिला का नाम जसिंता था। वह सिर्फ 25 साल की थी। गांव में अपने पति और तीन छोटे-छोटे बच्चों के साथ खुशहाल जिंदगी बिता रही थी इसलिए हम घटना की हकीकत जानना चाहते थे। हम जानना चाहते थे कि क्या वह माओवादी थी?

    सबसे महत्वपूर्ण बात जो हम जानना चाहते थे, वह यह था कि किस परिस्थिति में सरकारी बंदूक ने उससे जीने का हक छीन लिया और सूर्योदय से पहले ही उसके तीन छोटे-छोटे बच्चों के जीवन को अंधेरे में डाल दिया गया? हम यह भी जानना चाहते थे कि इस अपराध के बाद राज्य की क्या भूमिका है? और निश्चित तौर पर हम यह भी जानना चाहते थे कि क्या जसिंता के तीन बच्चे हमारे बहादुर जवानों के बच्चों के तरह ही मासूम हैं?

    सूर्योदय होते ही हमारे फैक्‍ट फाइडिंग मिशन का चारपहिया घूमना शुरू हो गया। जेठ की दोपहरी में हमलोग चिदंबरम के 'रेड कॉरिडोर' में घूमते रहे। शायद यहां के आदिवासियों ने 'रेड कॉरिडोर' का नाम भी नहीं सुना होगा और निश्चित तौर पर वे इस क्षेत्र को 'रेड कॉरिडोर' की जगह 'आदिवासी कॉरिडोर' कहना पसंद करेंगे। जो भी हो, इतना घूमने के बाद भी हम लोगों ने माओवादियों को नहीं देखा। लेकिन हमने जला हुआ जंगल, पेड़ और पतियां देखी। माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन चलाते समय अर्द्धसैनिक बलों ने हजारों एकड़ जंगल को जला दिया है। शायद वे माओवादियों का शिकार तो नहीं कर पाये होंगे, लेकिन उन्होंन खुबसूरत पौधे, जड़ी-बूटी, जंगली जानवर, पक्षी और निरीह कीट-फतंगों को जलाकर राख कर दिया है। उन्होंने जंगली जानवर, पक्षी और हजारों कीट-फतंगों का घर जला डाला है। अगर यही काम यहां के आदिवासी करते तो निश्चित तौर पर वन विभाग उनके खिलाफ वन संरक्षण अधिनियम 1980 और वन्यजीवन संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत कार्रवाई करता।

    सात घंटे की थकान भरी लंबी यात्रा के बाद हमलोग लादी गांव पहुंचे। जो लातेहार जिला मुख्यालय से 60 किलोमीटर और बरवाडीह प्रखंड मुख्यालय से 22 किलोमीटर की दूरी पर जंगल के बीच में स्थित है। लादी गांव दरअसल खरवार बहुल गांव है। इस गांव में 83 परिवार रहते हैं, जिसमें 58 परिवार खेरवार, दो परिवार उरांव, 11 परिवार पराहिया, 10 परिवार कोरवा, एक परिवार लोहरा और एक परिवार साव है। इस गांव की जनसंख्या लगभग 400 है। गांव की अर्थव्यवस्था कृषि और वन पर आधारित है, जो पूरी तरह मानसून पर निर्भर करती है। यहां के खरवार समुदाय की दूसरा महत्वपूर्ण पारंपरिक पेशा पत्थर तोड़ना है, जिससे प्रति परिवार को रोज लगभग 80 रुपये तक की आमदनी होती है। यद्यपि गांव के लोग अपने कामों में व्यस्त थे लेकिन गांव में पूरा सन्‍नाटा पसरा हुआ था। ऐसा महसूस हो रहा था कि पूरा गांव खाली है। गांव में किसी के चेहरा पर मुस्कान नहीं थी। उनके चेहरे पर सिर्फ शोक, डर, भय, अनिश्चितता और क्रोध झलक रहा था।

    हमलोग 28 वर्षीय जयराम सिंह के घर गये, जिसकी पत्नी जसिंता की गोली लगने से 27 अप्रैल को मौत हो गयी थी। हम मिट्टी, लकड़ी और खपड़े से बने एक सुंदर लाल रंग से सुसज्जित घर में घुसे। घर का वातावरण शोक, पीड़ा और क्रोध से भरा पड़ा था। परिवार के सदस्य चुप थे लेकिन शोक, दुःख, पीड़ा, भय और क्रोध उनके चेहरे पर झलक रही थी। हमें खटिया पर बैठने को कहा गया। कुछ समय के बाद जयराम सिंह अपने दो बच्चे – पांच साल की अमृता और तीन साल के सूचित के साथ हमारे सामने आया। जयराम बोलने की स्थिति में नहीं था। वह अभी भी अपनी पत्नी को खोने की पीड़ा से उबर नहीं पाया था। जब भी कोई उसे उस घटना के बारे में पूछता, वह रोने लगता। वह वन विभाग का एक अस्थायी कार्मचारी है, जिसकी वजह से जब उसके घर में घटना घटी, तब वह गारू नाम की जगह पर ड्यूटी पर बजा रहा था।

    जयराम ने हमें बताया कि उसके तीन बच्चे भी हैं। हमने उनके दो बच्चों को देखा, जिनके चहरे पर निराशा छायी हुई थी। हम एक और बच्ची को भी देखना चाहते थे, जो सिर्फ एक साल की है। उसका नाम विभा कुमारी है। वह दूधपीती बच्ची है। मां के मारे जाने के बाद वह अपनी दादी की गोद में ही खेलती रहती है। तीनों बच्चे और उनके पिता की हम तस्वीर लेना चाहते थे, इसलिए हमने विभा को भी हमारे पास लाने को कहा। लेकिन वह हमें देखते ही रोने लगी। वह अपने पिता की गोद में बैठने के बाद भी रोती रही। शायद उसे यह लग रहा होगा कि हम उसे उसके परिवार से छीनने के लिए आये हैं, जिस तरह से उसे उसकी मां को छीन लिया गया। मैं उसको देख कर व्‍यथित था। मैंने उसे रोते हुए देखा। वह चुप ही नहीं होना चाहती थी। राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर उसका सुनहरा बचपन छीन लिया गया था।

    जयराम सिंह का छोटा भाई विश्राम सिंह, जो घटना के समय घर में मौजूद था, ने हमें घटना के बारे में बताया कि 27 अप्रैल को 'मिट्टी के लाल घर' में क्या हुआ था। शाम के लगभग साढ़े सात बज रहे थे। गांव के सभी लोग खाना खाने के बाद सोने की तैयारी में जुटे थे। उसी समय गांव में गोली चलने की आवाज सुनाई दी। कुछ समय के बाद पुलिस ने ग्राम प्रधान कामेश्वर सिंह के घर को घेर लिया। उसके बाद पुलिस वालों ने चिल्‍ला कर कहा कि घर से बाहर निकलो, नहीं तो घर में आग लगा देंगे। इस बात को सुनकर कामेश्‍वर सिंह का परिवार घबरा कर घर से बाहर निकला। कामेश्‍वर सिंह और उसके बड़े बेटे जयराम सिंह वन विभाग में अस्थायी कार्मचारी हैं, जिसकी वजह से वे घर पर नहीं थे। पुलिस की आवाज सुनकर कामेश्‍वर सिंह का छोटा बेटा विश्राम सिंह (18) दरवाजा खोलकर बाहर निकला। बाहर निकलते ही जवानों ने उसे पकड़कर पीठ के पीछे दोनों हाथ बांध कर उस पर बंदूक तान दिया।

    उसके बाद पुलिस के जवान ने विश्राम सिंह की भाभी जसिंता से कहा कि घर के अंदर और कौन है? इस पर उन्होंने उनके चरवाहा पुरन सिंह (62) के अंदर सोने की बात कही। पुलिस ने उसे उठाकर बाहर लाने को कहा। जब जसिंता चरवाहा को लेकर बाहर आ रही थी, तो पुलिस ने उसके ऊपर गोली दाग दी। गोली उसके सीने में लगी और वह वहीं ढेर हो गयी। पुलिस ने फिर गोली चलायी, जो पुरन सिंह के हाथ में लगी। वह घायल हो गया। लाश देखकर परिवार के सदस्य रोने-चिल्‍लाने लगे तो पुलिस ने कहा कि चुप रहो, नहीं तो सबको गोली मार देंगे। उन्होंने यह भी कहा कि तुम लोग माओवादियों को खाना खिलाते हो, इसलिए तुम्हारे साथ ऐसा हो रहा है। घटना के बाद पुलिस तुरंत लाश, घायल पूरन सिंह समेत पूरे परिवार को उठाकर ले गयी और परिवार वालों को धमकी देते हुए कहा कि लोगों को यही बताना है कि जसिंता मुठभेड़ में मारी गयी और प्रदर्शन वगैरह नहीं करना है।

    गांव वालों को यह पता नहीं था कि लाश कहां है, इसलिए उन्होंने 28 अप्रैल 2010 को महुआटांड-डालटेनगंज मुख्य सड़क को जाम कर दिया। इसके बाद सदर अस्पताल, लातेहार में लाश का पोस्टमॉर्टम होने के बाद पुलिस ने विश्राम सिंह से सादा कागज पर हस्ताक्षर करवाने के बाद लाश को अंतिम संस्कार के लिए परिजनों को सौंप दिया। विश्राम सिंह चार हजार रुपये पर भाड़ा में लेकर गाड़ी से लाश को गांव लाया। उसके बाद बरवाडीह के सीओ ने पारिवारिक लाभ योजना के तहत परिवार को 10 हजार रुपये दिया। 30 अप्रैल 2010 को मृतक के परिजन और गांव वाले जसिंता की हत्या के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाने के लिए बरवाडीह थाना गये लेकिन वहां के थाना प्रभारी रतनलाल साहा ने मुकदमा दर्ज नहीं किया। सिर्फ डायरी में सूचना दर्ज की और उन्हें डरा-धमका कर घर वापस भेज दिया।

    लेकिन गांव वालों के लगातार विरोध के बाद प्रशासन को मृतक के परिजनों को मुआवजे के रूप में तीन लाख रुपये देने की घोषणा करनी पड़ी। पुलिस ने परिजनों को मुआवजा राशि देने के लिए एक स्थानीय पत्रकार मनोज विश्वकर्मा को मध्यस्‍थता के काम में लगाया। 14 मई 2010 को मनोज विश्वकर्मा मृतक के पति जयराम सिंह को लेकर बरवाडीह थाना गया। थाना प्रभारी वीरेंद्र राम ने जयराम सिंह को एक सादा कागज पर हस्तक्षर कर 90 हजार रुपये का चेक लेने को कहा। जब जयराम सिंह ने सादा कागज पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया तो थाना प्रभारी ने उसे खाली हाथ गांव वापस भेज दिया। यह हस्यास्पद ही है कि एक तरफ जयराम सिंह से उसकी पत्नी छीन ली गयी, उसके छोटे-छोटे बच्चों को रोते-बिलखते छोड़ दिया गया और उनके मिलने वाले मुआवजा को भी हड़पने का पूरा प्रयास चल रहा है। नीचे से ऊपर तक दौड़ने के बावजूद गुनहगारों को दंडित नहीं किया गया है।

    ग्रामप्रधान कामेश्‍वर सिंह का चरवाहा पूरन सिंह इस गोली कांड में विकलांग हो गया है और अभी भी लातेहार सदर अस्‍पताल में इलाज करा रहा है। वहां सशस्त्र बल की निगरानी में उसे रखा गया है। लातेहार के सिविल सर्जन अरुण तिग्गा को यह जानकारी ही नहीं थी कि पूरन सिंह किस तरह का मरीज है। पूरन सिंह की बातों से भी स्पष्ट है कि यह घटना मुठभेड़ का परिणाम नहीं है। लेकिन बरवाडीह थाने की पुलिस ने इसे मुठभेड़ करार देने के लिए रातदिन एक कर दिया है। पुलिस के अनुसार जसिंता की हत्या माओवादियों की गोली से हुई है।

    मृतक के घर का मुआयना करने से स्पष्ट है कि उसके घर में घुसने के लिए एक ही तरफ से दरवाजा है। घर की दीवार में लगी दो गोलियों के निशान हैं, जो प्रवेश द्वार की ओर से चलायी गयी है। मुठभेड़ की स्थिति में घर के अंदर से माओवादियों द्वारा दरवाजे की तरह गोली चलायी गयी होती। जसिंता देवी के मारे जाने के बाद पुलिस घर के अंदर घुसी और छानबीन किया, लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला। अगर घर के अंदर माओवादी होते तो उन्हें पुलिस पकड़ लेती क्योंकि घर में दूसरा दरवाजा नहीं होने की वजह से उनके भागने की कोई संभावना नहीं बनती है। घटना स्थल का मुआयना करने, मृतक के परिजन, चरवाहा और ग्रामीणों की बात से यह स्पष्ट है कि जसिंता की हत्या मुठभेड़ में नहीं बल्कि पुलिस द्वारा की गयी हत्या है। लेकिन बरवाडीह की पुलिस यह कतई मानने को तैयार नहीं है। पुलिस ने हत्या के खिलाफ मुकदमा तो दर्ज नहीं ही किया लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी परिजनों को नहीं दिया। जयराम सिंह के पास उसकी पत्नी की हत्या से संबंधित कोई कागज नहीं है। यहां आज भी पुलिस अत्याचार जारी है। थाना जाने पर दहाड़ना, गांव वालों को प्रताड़ित करना, किसी भी समय घरों में घुसना, मार-पीट गाली-गलौज करना और किसी को भी पकड़कर ले जाना।

    इस हत्याकांड के बाद जयराम सिंह एक पिता के साथ-साथ मां की भूमिका भी अदा कर रहा है। उसकी सबसे छोटी बेटी विभा गाय के दूध से जिंदा है। वह सिर्फ इतना कहता है कि उसको न्याय चाहिए। वह अपनी पत्नी के हत्यारों को दंडित करवाना चाहता है। उसके तीन बच्चे हैं, इसलिए वह सरकार से 5 लाख रुपये मुआवजा, एक सरकारी नौकरी और उनके बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा की मांग कर रहा है। लेकिन उसकी पीड़ा को सुनने वाला कोई नहीं है। यह भी एक बड़ा सवाल है कि जब हमारे बहादुर जवान मारे जाते हैं, तो उस पर मीडिया में बहस का दौर चलता है लेकिन विभा, सूचित और अमृता के लिए मीडिया के लोग बहस क्यों नहीं कर रहे हैं? क्यों वो खुबसूरत चेहरे टेलेविजन चैनलों में निर्दोष आदिवासियों के बच्चों के अधिकारों की बात नहीं करते हैं जब वे सुरक्षा बलों की गोलियों से अनाथ बना लिये जाते हैं? क्या ये बच्चे निर्दोष नहीं हैं? क्यों लोग उन निरीह आदिवासियों की बातों पर विश्वास नहीं करते हैं, जो रोज सुरक्षा बलों की गोली, अत्याचार और अन्याय के शिकार हो रहे हैं? क्यों यह परिस्थिति बनी हुई है कि लोगों के अधिकारों को छीनने वाले सुरक्षाकर्मियों की बातों पर ही हमेशा भरोसा किया जाता है? क्या यही लोकतंत्र है?

    मिट्टी के लाल घर की पीड़ा, विभा का रोना-बिलखना और पुलिस अधिकारी का वही रौब। यह सब कुछ देखने और सुनने के बाद हम लोग रेड कॉरिडोर से वापस आ गये। लेकिन हमारा कंधा खरवार आदिवासियों के दुःख, पीड़ा और अन्याय को देखकर बोझिल हो गया था। पुलिस जवानों के अमानवीय कृत्‍य देखकर हमारा सिर शर्म से झुक गया था और विभा की रुलाई ने हमें अत्‍यधिक सोचने को मजबूर कर दिया। मैं मां-बाप को खोने का दुःख, दर्द और पीड़ा को समझ सकता हूं। लेकिन यहां बात बहुत ही अलग है। जब मेरे माता-पिता की हत्या हुई थी, उस समय मैं उस दुःख, दर्द और पीड़ा को समझने और सहने लायक था। लेकिन जसिंता के बच्चे बहुत छोटे हैं। विशेष तौर पर विभा के बारे में क्या कहा जा सकता है। उसको तो यह भी पता नहीं है कि उसकी मां कहां गयी, उसके साथ क्या हुआ ओर क्यों हुआ?

    विभा अभी भी अपनी मां के आने की बाट जोहती है। वह सिर्फ मां की खोज में रोती है। दूध पीने की चाहत मे बिलखती है और मां की गोद में सोने के लिए तरसती है। क्या वह हमारे देश के बहादुर जवानों के बच्चों की तरह मासूम नही है? क्या हम सोच सकते हैं कि उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी, जब वह यह जान जाएगी कि हमारे बहादुर जवानों ने उसकी मां को घर में घुसकर गोली मार दी? उसका गुस्सा किस हद तक बढ़ जाएगा, जब वह यह जान जाएगी कि उसके मां के हत्यारे सरकार से सहायता मिलने वाली राशि को भी गटकना चाहते थे? क्या उसके क्रोध की सीमा नहीं टूट जाएगी, जब वह यह जान जाएगी कि उसकी मां के हत्यारों ने उसके परिवार और गांववालों पर माओवादी का कलंक लगा कर उन पर जम कर अत्याचार किया? क्या हम अपने बहादुर जवानों को उनके किये की सजा देंगे या विभा, सूचित और अमृता जैसे हजारों निर्दोष बच्‍चों को रोते, विलखते व तड़पते छोड़कर उनकी कब्रों पर शांति की खोज करेंगे? सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारा लोकतंत्र आदिवासियों को न्याय देगा? क्या वे अपने अधिकार का स्वाद चखेंगे? क्या उनके साथ कभी इंसान सा व्यवहार किया जाएगा? विभा का लगातार रोना हमें खतरे की घंटी से आगाह तो कर ही रहा है, साथ ही एक नयी दिशा की ओर इशारा भी कर रहा है, लेकिन क्या हम उसे समझना चाहते हैं?
  • बुद्धिजीवियों की यह भाषा नयी नहीं

    Posted: Wed, 23 Jun 2010 07:11:00 +0000
    अनिल चमड़िया

    आखिर अरुंधती ने दंतेवाड़ा के जंगल से लौटकर ऐसा क्या लिखा और कहा कि उसे माओवादी हिंसा समर्थक और राष्ट्रद्रोही कहा जाने लगा? क्या उनका एहसास, "मेरे निकलने से एक दिन पहले मेरी मां ने कॉल किया। वह उंघते हुए बोली – मैं सोच रही थी कि देश को एक अदद क्रांति की जरूरत है…" बेमानी है? लेखक क्या करता है? पूरी ताकत से हर क्षण के अपने एहसास की ऐसी तस्वीर बनाना चाहता है कि किसी रंग की कोई सतह तक नहीं छूट पाये। वह एक विरोधाभासी स्थिति की तस्वीर उतारता है। जंगल के लोगों के साथ रहकर अरुंधती की बनायी वे तस्वीरें चुभती हैं? और साथ में जंगलों में जवान लड़कियों व लड़कों के कंधे पर बंदूक? अरुंधती की तस्वीरों के ज्यादा चुभने के कारण हैं। उनकी पृष्ठभूमि से जो प्रतिनिधि चेहरा बनता है और जिस समाज की वे तस्वीर उतारती हैं, उनके बीच एक खाई दिखती है। वह वीभत्सता के खून से भरी होती है। गांधी कहते थे कि एक आम भारतीय और एक खास के बीच पांच हजार गुना कमाई का फर्क है। माओवादी कहते हैं कि आजादी, लोकतंत्र, गांधीवाद, अहिंसा, संविधान, चुनाव, संसद, मीडिया, न्यायालय… इन सबकी मौजूदगी में एक आम भारतीय और दूसरे भारतीय के बीच एक लाख गुना से ज्यादा का फर्क पहुंच गया है। अरुंधती इसे लिखती हैं और अपने जो सूत्र बुनती हैं, वे सीधे चोट करते हैं। आदिवासियों का 99 प्रतिशत हिस्सा माओवादी नहीं है लेकिन माओवादियों में 99 प्रतिशत आदिवासी हैं। जितने तीखे और गहरे नजरिये से लेखक स्थितियों को देखता है, उसकी चोट उतनी ही परेशान करती है। वही हिम्मत कर सकता है कि चलो कुछ कहने के लिए मुझे जेल में डाल दो।

    अरुंधती के माओवादियों और आदिवासियों के रिश्तों पर लिखने की सबसे तीखी प्रतिक्रिया अंग्रेजी के बुद्धिजीवियों ने की है। और उन्होंने, जो भारतीय भाषाओं में लगभग अंग्रेजी की तरह ही लिखते व सोचते हैं। भाषा का प्रश्न बड़ा प्रश्न है। क्या यही बात हिंदी और पंजाबी या दूसरी भाषाओं में लिखी जाती, तो इतनी तीखी प्रतिक्रिया होती? हिंदी में पिछले दिनों दो किताबें आयीं। तेलुगु में पी शंकर की लिखी हिंदी में पारनंदि निर्मला द्वारा अनूदित "यह जंगल हमारा है" शीर्षक से। अरुंधती के लिखे में तो इसकी झलक भर है। अरुंधती कथात्मक शैली में बताती है कि इन जंगलों में 1980 के आसपास माओवादियों के आने से पहले किस किस तरह के संगठन, संस्था और लोग आये। तेलुगु की किताब बताती है कि भूमि से वंचित हुए, स्वतंत्रता को खोने वाले, जंगल पर अधिकार को भी खोने वाले, यहां तक कि एक साधारण मनुष्य को मिलने वाले सम्मान भी खोने वाले, लूटखसोट करने वालों के औजार मात्र बन गये उन आदिवासियों के लिए एक मात्र क्रांतिकारी (माओवादी) ही सहारा बनकर खड़े हुए। 262 पृष्ठों में फैली कहानियां लोक और तंत्र को दो हिस्से में स्थापित करती हैं।

    दूसरी किताब पंजाबी में आयी, जिसका हिंदी में अनुवाद महेंदर ने जंगलनामा के नाम से किया। जैसे अरुंधती जंगलों में गयी। पंजाबी लेखक सतनाम भी बैलाडिला शहर से जंगल में घुसा और कई दिनों तक रहा। अरुंधती लिखती हैं, "पीएलजीए का एक कॉमरेड नीलेश काफी तेजी से खाना पकाने वाली जगह की ओर दौड़ता हुआ आ रहा था। वह पास आया, तो मैंने देखा कि उसके ऊपर लाल चीटियों का पत्ते वाला एक घोंसला था। चीटिंयां उसके पूरे शरीर पर दौड़ रही थी और हाथ व गले में काट रही थी। नीलेश खुद भी हंस रहा था। कामरेड वेणु ने पूछा, क्या आपने कभी चीटियों की चटनी खायी है?" सतनाम पंजाबी में न केवल ऐसी उनकी जीवन दशा लिखते हैं बल्कि 160 पेज में जंगलनामा पूरा करते हैं, तो वहां अरुंधती और उसकी मां गूंजती सुनाई देती है। लेकिन पंजाबी में लिखे और हिंदी में अनूदित बेबाक बयानों पर प्रतिक्रिया बिरादराना राजनीतिक जमात में ही हुई। अभी हिंदी की जनपक्षधर चेतना इस समय को अंग्रेजी के सहारे अपने को व्यक्त करने के अवसर के रूप में देख रही है। इसीलिए अंग्रेजी में जो ऐसी बातें आती हैं, उसे हिंदी का बेचैन मन अपनी भाषा देने लगता है। सुना नहीं गया कि हिंदी की कोई जनपक्षधर सामग्री का अंग्रेजी मन अनुवाद करने के लिए बेचैन हो गया हो। अरुंधती अंग्रेजी में वही लिख रही हैं, जो हिंदी और पंजाबी की जमीनी चेतना महसूस कर रही है।

    दरअसल सत्ता संरचना तब चौकन्नी हो जाती है कि उसकी बड़ी आधार भूमि में कोई सुगबुगाहट होने लगे। पी चिंदबरम बार बार कहते हैं कि माओवादियों से निपटने में सबसे ज्यादा आड़े बुद्धिजीवी आ रहे हैं। उन्हें आदिवासियों से निपटने में क्या वक्त लग सकता है? अब तक की पूरी सत्ता संरचना उनसे निपटती रही है और मध्यवर्ग को उनके हालात की खबर तक नहीं लगी। बुद्धिजीवी हथियार लेकर जंगलों में नहीं जा रहे हैं। एकाध बुद्धिजीवी केवल वहां के हालात का बयान कर रहे हैं, तो परेशानी बढ़ रही है। अगर अरुंधती भी दंतेवाड़ा से लौटकर कहती कि आदिवासियों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका उनके घरों में टीवी सेट लगवा देना है, तो कौन कितना खुश होता। अरुंधती के आसपास का लेखक आदिवासी इलाकों में घूमकर दो तरह से अपनी बात कह सकता है। एक तो तरीका ये हो सकता है, जिसमें ये बताया जाए कि सैकड़ों वर्षों से आदिवासियों की बदतर स्थिति के बने रहने के क्या क्या कारण हैं। कारण बताये जाते हैं, तो लेखक को हिंसा का समर्थक बताये जाने का खतरा नहीं होता है। लेकिन कोई लेखक आदिवासियों के हाथों में बंदूक दिखने की पृष्टभूमि जाहिर करता है, तो उसे हिंसा समर्थक मान लिया जाता है। यदि किसी ने झूठ बोला और आपने उसे झूठा कहा तो उसे असंसदीय मान लिया जाता है और जब कहा जाए कि वह सच नहीं बोल रहा है, तो उसे शिष्ट और संसदीय भाषा मान लिया जाता है। क्या लेखक को इसी तरह आदिवासियों के हालात और उनके भीतर नफरत व गुस्से की आग को व्यक्त करने के लिए संसदीय भाषा की खोज करने की बाध्यता होनी चाहिए?

    इंदिरा गांधी को भी नक्सलबाड़ी में आदिवासी किसानों के विद्रोह ने ज्यादा चिंतित नहीं किया। उनकी चिंता प्रतिभावान युवाओं की आदिवासी किसानों के साथ साझेदारी थी। सत्ता प्रतिभावानों के लोभी बने रहने में ही अपनी बेहतरी समझती है। दरअसल बुद्धिजीवियों का अपना एक इतिहास है। "द बंगाली प्रेस" में उल्लेख है कि संथालों ने 1855 में विद्रोह कर दिया। व्यापारियों, महाजनों के शोषण, पुलिस और राजस्व अधिकारियों के अत्याचार, जमींदारों द्वारा जमीनें छिनना, आदिवासी महिलाओं के साथ बदसलूकी आदि इसके कारण थे। संथालों को ये एहसास हो गया कि सरकार उनकी शिकायतें सुनने के बजाय उनका दमन और शोषण करने वालों को ही संरक्षण दे रही है तो उन्‍होंने खुद की सरकार बनाने का ऐलान कर दिया। अंग्रेज सरकार ने सेना लगा दी। तब बुद्धिजीवियों ने एक भाषा तैयार की। वह संथालों के खिलाफ सरकारी कार्रवाइयों के पक्ष में थे और आदिवासियों की बुरी स्थिति के लिए चिंता प्रकट कर रहे थे। तब से यह भाषा बूढ़ा बुद्धिजीवी समाज बोल रहा है। इससे इतर देशद्रोही और हिंसा का समर्थक हो जाता है। लोकतंत्र की यात्रा ऐसे ही कानून बनाने की दहलीज पर पहुंच चुकी हैं।
  • भूमकालः साथियों के साथ एक सफर

    Posted: Fri, 11 Jun 2010 07:19:00 +0000
    हाशिया पर हमने आउटलुक में प्रकाशित अरुंधति राय की चर्चित रिपोर्ट का अभिषेक श्रीवास्तव द्वारा हिंदी में संक्षिप्त अनुवाद पोस्ट किया था. इस रिपोर्ट ने देश और दुनिया में माओवाद और सामाजिक रूपांतरण में हिंसा के उपयोग पर एक नई बहस को जन्म दिया था. इस विवाद में भारत के गृह मंत्री से लेकर अनेक बुद्धिजीवी भी शामिल हुए. यह विवाद अब भी थमा नहीं है. पेश है, पहली बार इस रिपोर्ट का पूरा हिंदी अनुवाद. यह अनुवाद नीलाभ ने किया है, जिन्होंने अरुंधति के मशहूर उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स  का अनुवाद किया था. यह रिपोर्ट बहुत लंबी है, इसलिए यहां इसका पीडीफ वर्जन पोस्ट किया जा रहा है, ताकि आप इसे डाउनलोड करके पढ़ सकें.

    भूमकालः साथियों के साथ एक सफर





    Bhoomkal
  • कॉरपोरेट नेतृत्व में लोकतंत्र : विकास या विकास का आतंकवाद?

    Posted: Fri, 11 Jun 2010 06:48:00 +0000

    14 मई 2010 को पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के संघर्षरत साथियों पर धिनकिया ग्राम में गोलीचालन, की घटना हुई। 12 मई 2010 को कलिंग नगर में गोलीचालन, नियमगिरि एवं पोटका, झारखण्ड में दमनकारी कार्रवाई हुई। इसके खिलाफ जननेत्री दयामनी बरला के नेतृत्व में झारखण्ड के विभिन्न सांस्कृतिक व जनसंगठनों आंदोलन शुरू किया है। उड़ीसा सरकार और पोस्को कम्पनी के पुतला दहन से प्रारम्भ हुआ यह कार्यक्रम धीरे-धीरे व्यापक रूप ग्रहण कर रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में यह 24 मई 2010 को रांची में संवाददाता सम्मेलन में निम्नलिखित सामग्री जारी की गई है। इसे तैयार करने में अमित भादुड़ी़ की नई किताब ''द फेस यू वेयर अफ्रेड टू सी'' एवं वैकल्पिक सर्वे ग्रुप इंडियन पोलिटिकल इकॉनमी एसोसिएशन की ''वैकल्पिक आर्थिक वार्षिकी, भारत 2008-2009 से सहायता ली गई। अपने पाठकों के लिए हम इसे प्रस्तुत कर रहे हैं।


    1991 ई0 से वित्तीय और उपभोक्तावादी पूँजीवाद को 'उदारवाद' का नाम देकर उसके प्रवेश को अबाधित किया गया। मार्गेट थैचर और निक्सन की सेल्फ रेगुलेटिंग मार्केट इकोनोमी के नाम पर ऐसे ''बाजारू पूँजीवाद'' को 'वैश्वीकरण' के नाम पर स्वीकार किया गया, जो हर तरह के राजकीय नियंत्रण से मुक्त हो।
    इसमें आश्वासन यह दिया गया कि जितना ज्यादा 'पूँजी निवेश'  होगा उतना अधिक 'विकास दर' मिलेगा। जितना ज्यादा 'विकास-दर' मिलेगा उतनी ही गति से हमारा देश 'विकास' करेगा। देश की तेज गति के विकास से हमारी गरीबी, बेरोजगारी, बदहाली, कुपोषण, अशिक्षा आदि दूर हो जायेगी। इन वादों-आश्वासनों के साथ इस देश के राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों, चेम्बर ऑफ कॉमर्स, अर्थशास्त्रियों और मीडिया ने सम्मिलित रूप से 'विकास का राग' अलापना शुरू किया।
    अर्थशास्त्री अमित भादुडी़ ने इसे एक आक्रामक नव पूँजीवादी 'आर्केस्ट' का नाम दिया है जिसे कॉरपोरेट, राजनीतिज्ञ, नौकरशाह, चेम्बर ऑफ कॉमर्स, लेवर यूनियनें और मीडिया मिल कर बजा रहे हैं, जिसकी धुन पर भारतीय मध्यवर्ग ता-ता थैय्या कर रहा है।
    कॉरपोरेट पूंजी 1991 के वाद हमारे यहाँ 'विकास' कर रही है कि या 'विकास का आतंकवाद' फैला रही है उसे हम निम्न तथ्यों और ऑकडों के आईने में देखें :-
    इस 'सेल्फ रेगुलेटिंग मार्केट इकॉनोमी' के चरण कमलों में रेड कार्पेट बिछाने के लिए हमारे 'नेशन-स्टेट' ने निम्न उपाय किये:-
    • 1992 के बाद लगातार औद्योगिक नीतियों को कॉरपोरेट हित में कमजोर किया गया।
    • 1992, 1996, 2001 और 2004 के बाद पूंजी निवेश को बढावा देने के लिए भूमि, राजस्व, खनन, श्रम आदि कानूनों को कॉरपोरेट हित के अनुकूल और जन-विरोधी बनाया गया।
    • केन्द्र और राज्य सरकारों ने पूँजी निवेश बढाने के लिए कई तरह कर (टैक्स) रियायतों की घोषणा की, यथा - भूमि के लिए बीमा किश्त भरने से मुक्ति, 100 के0वी0 तक मुफ्त बिजली, पानी टैक्स पर 30 से 40 प्रतिशत तक की छूट, केन्द्रीय शुल्क के भुगतान पर छूट, आयतित कच्चे माल पर शुल्क की छूट, व्यापारिक करों में 50 प्रतिशत तक की छूट।
    इस प्रकार पल-पल बिस्तर पर बिछने को तैयार भारतीय लोकतंत्र के हर तंत्र का लाभ उठाकर कॉरपोरेट पूँजी ने भरपूर मुनाफा कमाया। वित्तीय वर्ष 2003-04 और 2006-07 के बीच बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कम्पनियों ने शुद्ध 300(तीन सौ) प्रतिशत का मुनाफा कमाया। यह इस अवधि में पूरी दुनिया के स्टॉक एक्सचेंज के मुनाफों में अधिकतम था।
    इसके बदले में यह कारॅपोरेट पूँजी हिन्दुस्तानी गरीब अवाम को निम्न तीनप्रकार से और अधिक बदहाल करने पर तुली है :
    • रोजगार की वृद्धि दर को लगातार धीमा रखा गया ।
    • 1991 के पूर्व के दशक में हमारा सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 4 प्रतिशत रही थी किन्तु रोजगार वृद्धि दर 2 प्रतिशत थी। 1991 के बाद के दशक में जीडीपी वृद्धि दर 7 से 8 प्रतिशत औसत रही है किन्तु रोजगार बृद्धि दर मात्र 1 प्रतिशत रही है ।
    • सार्वजनिक ओर निजी संगठित क्षेत्र (आरगनइज्ड सेक्टर) में 1997 ई में 28.2 मिलियन श्रम शक्ति को रोजगार मिला हुआ था वह 2004 में घट कर  26.2 मिलियन रह गया।
    • निजी पूँजी अपनी इकाईयों में सार्वजनिक क्षेत्रों में घटते रोजगार के अवसर की क्षतिपूर्ति करने को एकदम उत्सुक नहीं है।
    • गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में इन दशकों में सबसे ज्यादा पूँजी निवेश हुआ किन्तु रोजगार उपलव्घ कराने की गति सबसे धीमी बनी रही (7 जुलाई 2008, टाईम्स ऑफ इण्डिया)
    यही पूंजी निवेश- निजी फैक्ट्री और विकास के गगनभेदी नारे की वास्तविकता है। इसका कारण यह कि कॉरपोरेट पूँजी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार की प्रतिस्पर्धा में अपने को कायम रखने के लिए 'लागत व्यय' में कटौती करती रहती है ।इस लागत व्यय में कटौती का सबसे आसान तरीका है 'मशीनीकरण' की गति को बढावा देना और मजदूरों-कर्मियों की छंटनीकरण या बी0आर0एस0 के बहाने लगातार संखया कम करना।
    उदाहरण के लिए, पूना स्थित टाटा मोटर्स ने 1999 से 2004 ई. के बीच अपने श्रमिक कर्मियों की संखया 35,000 से घटा कर 21,000 कर दी किन्तु इसी अवधि में उसका उत्पादन 1,29,000 गाड़ियों से बढ़कर 3,12,000 हो गया।
    इसी तरह, जमशेदपुर की टाटा स्टील ने 1999 से 2005 ई. के बीच अपनी श्रमशक्ति को घटा कर 85,000 से 44,000 कर दिया जबकि इसकी उत्पादन क्षमता इसी अवधि में बढ कर 1 से 5 मिलियन टन हो गई।
    नतीजन रोजगार की तलाश असंगठित क्षेत्रों (कृषि-रिटेल मार्केट) में की जा रही हेै ।
    61वें राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे के अनुसार हमारे 40 करोड श्रमशक्ति का सबसे ज्यादा बोझ कृषि पर है। वहॉ आज भी 11 करोड कृषि मजदूर है जबकि यह बाजारू पूँजीवाद कृषि में निवेश लगातार घटाते जा रही है।
    दूसरा रोजगार देनेवाला सबसे बढा असंगठित क्षेत्र रिटेल मार्केट है किन्तु कारपोरेट पूँजी वहॉ भी लूट मचाने आ गई है।

    गरीब हिन्दुस्तान को तबाह करने की दूसरी कॉरपोरेट नीति है कल्याणकारी कार्यक्रमों में आवंटन को स्थिर रखना या घटाते जाना :
    • आई0एम0एफ0 और वर्ल्ड बैंक के दवाब में भारत  सरकार 'सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों' (यथा स्वास्थ्य, शिक्षा, जनवितरण ग्रामीण रोजगार योजनाओं) का आवंटन सकल घरेलू उत्पाद का 2.2 प्रतिशत पर स्थिर रखे हुए है। इसका कारण मुद्रा की कमी बताई जाती है जो कि सच नही है।
    • सच यह है कि हमारी औसतन 7-8 प्रतिशत वृद्धि दर और विदेश विनियम रिजर्व फरवरी 2008 तक 283 मिलियन डालर तक भारत के बढते निर्यात के कारण नहीं हुआ बल्कि विदेशी संस्थागत निवेश के कारण हुआ है । इस विदेशी संस्थागत निवेश को वर्ल्ड बैंक और आई0एम0एफ0 से ही प्रोत्साहन-प्रेरणा मिलता है ।
    •  अतएव इस संस्थागत पूंजी निवेश में वर्ल्ड बैंक और आई0एम0एफ0 की केन्द्रीय भूमिका है।
    • यह विदेशी संस्थागत निवेश की पूंजी इतनी चंचल और अस्थिर है कि भारत सरकार इन्हें प्रेरित करनेवाले वर्ल्ड बैंक और आई0एम0एफ को नाराज नहीं कर सकती। नतीजन उनके दवाब  में वह अपनी 'कल्याणकारी राज्य' की भूमिका को संकुचित कर रही है और शिक्षा-स्वास्थ्य आदि में निजी पूँजी के प्रवेश को बढावा दे रही है। जिसका खामियाजा अन्ततः गरीब हिन्दुस्तानी उठा रहा है।
    • तीसरा सबसे विनाशकारीरास्ता कॉरपोरेट पूंजी अपना रही है जबरन भूमि अधिग्रहण का
    • जबरिया भूमि अधिग्रहण, कारपोरेट-नेतृत्व-विकास का सबसे मारक हथियार बना हुआ है। ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता द्वारा निर्मित 1894 ई. का 'भूमि अधिग्रहण अधिनियम' को आजाद भारत के सिपाहसलारों ने 1952, 1963 ओर 1984 में संशोधित कर और कठोर किया। 2006 में इसमें पुनः संशोधन किया गया अैार साथ में  पहली बार पुनर्वास और पुर्नस्थापन नीति भी बनी । किन्तु इस नीति को जमीन में उतारने को राज्य सरकारें इच्छुक नहीं दिखती।
    • दूसरी ओर वही राजसत्ता 'जनहित' में कारॅपोरेट पूंजी के लिए उडीसा, छत्तीसगढ, झारखंड, मध्यप्रदेश, बंगाल में भूमि छीनने को आतुर है। मुआवजे की दर बिना किसानों-जमीन मालिको सें बात किये एकतरफा तय की जाती है। जबरन अधिग्रहण हेतु सशस्त्र पुलिस बल तक उतारा जा रहा है ।
    • कथित कल्याणकारी राज्य, कॉरपोरेट की सेवा में इतना डूब गया है और इस कथित विकास के व्यक्तिगत लाभ में इतना अन्धा हो चुका है कि अपनी ही जनता पर बर्बर अत्याचार करने, दमनकारी नीति अपनाने और गोलियों से भूनने में भी नहीं हिचक रही है। चाहे वह कलिंगनगर हो याकुजंग-बलितुथा, नियमागिरि, पोटका या बस्तर। हर जगह यही कहानी दुहराई जा रही है।
        अभी 14 मई 2010 को बलिटुहा (उड़ीसा) में दक्षिण कोरियायी कम्पनी कोस्को के खिलाफ संधर्षरत पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के कार्यकर्ताओं पर गोली चलाई गई जिसमें नाथ स्वान (उम्र 32 वर्ष) एवं रमेश दास (उम्र 35 वर्ष) बुरी तरह घायल हैं। सशस्त्र पुलिस बल के लाठी चालन एवं अन्य दमनकारी रवैये से लगभग 100 स्त्री-पुरुष और बच्चे घायल हैं। चूंकि सशस्त्र बलों ने संघर्ष स्थल धिनकिया ग्राम को चारों ओर से घेर रखा है अतः इन घायलों को मेडिकल सुविधा भी उपलब्ध नहीं करवाई जा सकी।
        यह गोलीकांड 12 मई 2010 को कलिंग नगर में पुनः दोहराया गया। इसमें एक ग्रामीण शहीद हुआ। कलिंग नगर 02 जनवरी 2006 को अपने 14 आदिवासी ग्रामीणों की शहादत अभी तक भूला नहीं है। नियमागिरी पहाड़ीयों में छुपे तीन ट्रिलियन के बॉक्साइट के लिए वहाँ हजारों वर्ष से निवास कर रहे उन आदिवासियों को खदेड़ कर भगा दिया गया और वह बॉक्साइट स्टारलाइट कम्पनी को सौंप दी गई। ध्यातव्य है कि यह स्टारलाइट कम्पनी वेदान्ता कम्पनी की ही एक सिस्टर कन्सर्न है। वेदान्ता कम्पनी सेहमारे गृह मंत्री श्री पी. चिदम्बरम्‌ का संबंध जगजाहिर है।
        जिस 'विकास' का गलाफाडू 'नारा' कॉरपोरेट, राजनेता, नौकरशाह, चेम्बर्स और मीडिया लगा रहे हैं, उस 'विकास' का खोखलापन भारत सरकार के योजना आयोग की विभिन्न कमिटियों की रिपोर्ट से जगजाहिर हो रहा है :
    • गरीबी रेखा निर्धारण के लिए गठित सुरेश तेन्दुलकर कमिटि ने भी अपना प्रतिवेदन दिया है कि 1992-2000 को जो गरीबी रेखा 26.10 प्रतिशत पर थी वह अब बढ़ कर 37.20  प्रतिशत पर पहुॅच गई है।
    •  एन0सी0 सक्सेना कमिटि ने इसे 40 प्रतिशत से ज्यादा बताया था जिसे भारत सरकार ने स्वीकार नहीं किया।
    • यह आप ही तय करें कि यह कैसा अजूबा विकास है जिसमें सरकारी आकड़ों के अनुसार गरीबी 10 प्रतिशत बढ़ जाती हे और संगठित क्षेत्र में रोजगार दर 2 प्रतिशत से 1 प्रतिशत पर गिर जाता है।
    • सबसे ज्यादा रोजगार देनेवले कृषि क्षेत्र में निवेश दर लगातार घटती जा रही है। महाराष्ट्र और आन्ध्रप्रदेश के सम्पन्न और प्रगतिशील किसानों के लिए वैश्वीकृत बाजार की प्रतिस्पर्धा में, अमेरिकी किसानों को मिल रही कुल लागत व्यय की दो तिहाई अनुदान के कारण टिकना संभव नहीं रह गया और एक दशक मेंलगभग 1 लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली।
    •  सिंचित क्षेत्र में बढ़ोतरी नहीं हो रही। भारत सरकार की आंकड़े ही यह बता रहे हैं की सिंचाई पर निवेश घटता जा रहा है किन्तु दूसरी ओर छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में नदियां कॉरपोरेट घरानों के हाथों बेची जा रही है।
    • शिवनाथ नदी, कैलो, कुरकुट, शाबरी, खडून और मन्द नदियाँ बूट पालिसी यानी 'बिल्ड ओन ऑपरेट एन्ड ट्रासर्फर' नीति के तहत कॉरपोरेट पूंजी को दे दी गयी। इन नदियों के किनारे बसी आवादी इनके पानी से बंचित कर दी गयी।
    अब आप ही तय करें कि यह बहुप्रचारित 'विकास' है या 'विकास का आतंकवाद'? यह कॉरपोरेट के नेतृत्व में चल रही भारतीय लोकतांत्रिक नाटक मंडली जिस तरह देश के गरीब आवाम के लिए छुपे और मीठे हत्यारे में तब्दील हो गई है उसके जबाव में प्रतिकार, प्रतिरोध, प्रतिशोध के अलावा और कोई रास्ता बचता है।
    लिहाजा, हम आज इस देश में चल रहे विकास के आतंकवाद के खिलाफ अपनी आवाज बुलन्द करते हैं। पॉस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के साथ अपनी एकजुटता प्रदर्शित करते हैं और ऐसे संघर्षों में अपने रक्त के आखिरी कतरे तक साथ देने की कसमें खाते हैं।

    इप्टा, प्रलेस, जलेस, जसम, आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच, झाजपा और इंडिजिनस पीपुल्स फोरम की ओर से 24 मई 2010 को रांची में आयोजित संवाददाता सम्मेलन में जारी।
  • बरबादी की वही पुरानी दास्तान: नहर का पानी खा गया खेती

    Posted: Tue, 08 Jun 2010 07:16:00 +0000
    रायबरेली से लौट कर रेयाज उल हक

    अपनी फूस की झोंपड़ी में गरमी से परेशान छोटेलाल बात की शुरुआत आसान हो गई खेती के जिक्र से करते हैं. वे कहते हैं, 'पानी की अब कोई कमी नहीं रही. नहर से पानी मिल जाता है तो धान के लिए पानी की दिक्कत नहीं रहती.'
    पास बैठे रामसरूप यादव मानो एक जरूरी बात जोड़ते हैं, 'अब बाढ़ का खतरा कम हो गया है.'
    राजरानी इलाके में खर-पतवार के खत्म होने का श्रेय नहर को देती हैं.
    लेकिन छोटेलाल ने बात अभी खत्म नहीं की है. उनका सुर भी अब थोड़ा बदल रहा है, 'गेहूं की फसल लेकिन अब खराब हो गई है. राशन से गेहूं न मिले तो गेहूं के दर्शन नहीं होते. जिनके पास कार्ड नहीं हैं उनकी दशा और खराब है.'
    धीरे-धीरे उनकी आवाज में नाराजगी बढ़ रही है, 'पहले अच्छी फसल होती थी. नहर ने खेती बरबाद कर दी. सीलन से नहर के पासवाली जमीनें खराब हो गई हैं. पहले धान, गेहूं, अरहर, साग-सब्जी हो जाती थी, अब जैसे-तैसे धान ही हो पाता है. गेहूं तो होता ही नहीं.'
    आखिर में छोटेलाल सबसे मतलब की बात पर आते हैं, 'जब से शारदा आई है मेरी 15-16 बिस्वा जमीन बेकार पड़ी है. याद ही नहीं उसमें कब फसल बोई गई थी.'
    वे शारदा सहायक नहर की बात कर रहे हैं, जो रायबरेली जिले में अमावां प्रखंड के उनके गांव खुदायगंज के दक्षिण से होकर गुजरती है.

    पूरी रिपोर्ट पढ़िए रविवार पर
  • गिरीश मिश्र के लेखन में अज्ञान और उद्दंडता का मिश्रण दिखाई पड़ता है

    Posted: Fri, 04 Jun 2010 13:00:00 +0000
    सदानंद शाही के संपादन में निकलने वाली पत्रिका साखी के 20वें अंक में छपे अपने (मूलतः अंगरेजी में लिखे) पत्र में, अर्थशास्त्र के प्राध्यापक और आर्थिक इतिहासकार गिरीश मिश्र ने रामविलास शर्मा और मैनेजर पांडेय के कार्यों पर गंभीर टिप्पणियां की थीं. इस पर रविभूषण जी ने एक जवाब लिखा है, जिसे हम यहां पेश कर रहे हैं. यह लेख प्रभात खबर में संपादकीय पन्ने (अभिमत) पर भी छपा है. जल्दी ही मैनेजर पांडेय से एक बातचीत (बातचीत का मुद्दा यह पत्र नहीं है) भी हाशिया पर पेश करेंगे.

    हिंदी आलोचना का नया बखेड़ा
    हिंदी में विगत कुछ वर्षों से आलोचना के नाम पर कई लोग अगंभीर टिप्पणियां कर रहे हैं. फालतू और विवेकहीन टिप्पणी पर कोई 'बहस' नहीं हो सकती. कई वर्षों से अर्थशास्त्री गिरीश मिश्र का एकसूत्री अभियान विख्यात आलोचक रामविलास शर्मा की निंदा का है. उनके इस निंदा अभियान में हिंदी के कई अध्यापक, संपादक और आलोचक भी हैं. रामविलास शर्मा की स्थापनाओं से असहमत व्यक्तियों को तथ्य-तर्क के साथ अपने विचार प्रस्तुत करने चाहिए. संवाद और बहस की गुंजाइश बनी रहेगी.
    अभी हिंदी की एक अनियतकालीन पत्रिका 'साखी' (अप्रैल 2010) के संपादक ने 'बहस' के लिए आलोचक पीएन सिंह को लिखा गया गिरीश मिश्र का पत्र प्रकाशित किया है. 'बहस' के लिए प्रकाशित इस पत्र का शीर्षक है 'हिंदी आलोचना में बचकाना मर्ज'. संपादक महोदय के अनुसार पत्र लेखक ने 'इस पत्र में हिंदी आलोचना के परिदृश्य पर चिंता प्रकट करते हुए कुछ महत्वपूर्ण और विवादास्पद सवाल उठाये हैं.' सच्चाई यह है कि इस पत्र में आलोचना से संबंधित एक भी सवाल नहीं है.
    पत्र लेखक पीएन सिंह से 'पूरी तरह अजनबी' हैं. चार वर्ष पहले हिंदी के एक दैनिक समाचार पत्र में पीएन सिंह का एक लेख 'टकराव आलोचना के शिखर पर- नामवर का मैनेजरी पाठ' प्रकाशित हुआ था. इसी लेख ने पत्र लेखक को पत्र लिखने के लिए उकसाया. यह लेख प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय के इंटरव्यू की प्रतिक्रिया में था. चार वर्ष पहले गोरखपुर में जिस संवाददाता ने यह इंटरव्यू लिया था उसने उसे विकृत कर प्रकाशित किया. संवाददाता ने अपनी ओर से यह लिखा कि समकालीन आलोचना में नामवर सिंह की हैसियत क्या है. इस पर काफी हल्ला-हंगामा हुआ. गोरखपुर से बनारस तक. पीएन सिंह ने अपनी पत्रिका के संपादकीय में इस पर लिखा. मैनेजर पांडेय ने उन्हें यह बताया कि उस समय गोरखपुर में एक और दैनिक हिंदी पत्र के संवाददाता ने उनका इंटरव्यू लिया था, जिसे वे देखें. पीएन सिंह ने उस दूसरे इंटरव्यू को देखा-पढ़ा और अपनी पत्रिका में खेद भी प्रकट किया.
    अब गिरीश मिश्र के पत्र को चार वर्ष बाद किस नीयत से प्रकाशित किया गया है? गिरीश मिश्र ने लिखा है, 'मैंने हिंदी भाषा और साहित्य का ज्ञान नहीं प्राप्त किया और न ही मैं डॉ नामवर सिंह के योगदान का मूल्यांकन करने में सक्षम हूं.' आलोचना उनके लिए 'हमला' है. नामवर सिंह की आलोचना करनेवाले हिंदी के लेखक उनके अनुसार 'हीन-भावना और ईर्ष्या से पीड़ित होते हैं.' और 'उनके लेखन में अज्ञान और उद्दंडता का मिश्रण दिखाई पड़ता है.' स्वयं उनके पत्र में 'अज्ञान और उद्दंडता का यह मिश्रण' वहां दिखाई देता है, जहां वे मैनेजर पांडेय और रामविलास शर्मा पर टिप्पणी करते हैं. वे किताब नहीं, उसकी 'फ्लैप टिप्पणी' पढ़ कर राय बनाते हैं. मैनेजर पांडेय की 'ताजा किताब' 'आलोचना की सामाजिकता' (2005) देख कर (पढ़ कर नहीं!) 'मुझे लगा कि उन्हें शुद्ध हिंदी लिखने भी नहीं आती और किताब की फ्लैप टिप्पणी से उनकी उद्दंडता की पुष्टि होती है.' 'फ्लैप टिप्पणी' पढ़ कर टिप्पणी करना आलोचना नहीं है. प्रकाशक 'फ्लैप टिप्पणी' लिखवाता है. गिरीश मिश्र 'रामविलास शर्मा के भक्तों' में से किसी का नाम नहीं लेते और उसकी संख्या वृद्धि की 'एक वजह नामवर सिंह की निंदा करने की आकांक्षा भी' मानते हैं.
    वे 'एक वजह' पर अड़ कर अन्य कई वजहों की अनदेखी करते हैं. नामवर सिंह के महत्व और अवदान से भलीभांति अवगत लोगों की संख्या कम नहीं है. गिरीश मिश्र के जरिये नामवर सिंह को नहीं जाना जा सकता. डॉ राम विलास शर्मा के साहित्यिक लेखन से गिरीश मिश्र अपरिचित हैं. 'न तो उसे मैंने पढा़ है न अब मेरे पास इसका समय है.' इस ईमानदार कथन की प्रशंसा की जानी चाहिए, पर रामविलास शर्मा की 'कुछ साहित्येतर किताबें' पढ़ कर उन्होंने जो लिखा है, उसकी निंदा और भर्त्सना भी की जानी चाहिए. वे 'कुछ साहित्येतर किताबों' को 'निहायत लद्धड़' कहते हैं.
    डॉ शर्मा के 'गांधी, अंबेडकर, लोहिया और आर्यों की उत्पत्ति संबंधी उनके लेखन में' 'गहरे अध्ययन' और मौलिक शोध' का अभाव देखते हैं. और 'मार्क्स की रचना' 'पूंजी' भाग दो के' रामविलास शर्मा द्वारा किये गये अनुवाद को 'भयावह' कहते हैं. उनके अनुसार डॉ शर्मा को क्लैसिकल अर्थशास्त्र का ज्ञान नहीं है और 'विशेष तौर पर मार्क्स के रवैये का भी नहीं. और अंत में उनका यह कथन है 'भारत में अंगरेजी राज का दो खंडों में किया गया अध्ययन उनकी अयोग्यता का प्रतीक है.' ऐसे फतवों से गिरीश मिश्र की योग्यता जाहिर होती है! पूरनचंद्र जोशी ने 'गांधी, अंबेडकर और लोहिया' ग्रंथ को 'भारतीय सामाजिक चिंतन का एक मार्गदर्शी मौलिक ग्रंथ' कहा है. इस पुस्तक को पढ़ने के बाद उन्होंने लिखा- 'आया था हंसी उडा़ने लेकिन ठहर गया वंदना करने'. वे रामविलास शर्मा को 'बहुआयामी प्रतिभावाले रेनेसां काल के मार्क्सवादी बुद्धिजीवी' कहते हैं. गिरीश मिश्र को यह पता नहीं है कि उन्होंने जिनको पत्र लिखा है, वे पीएन सिंह रामविलास शर्मा को 'भारतीय लूकाच' कहते हैं और गांधी, लोहिया संबंधी उनके अध्ययन को 'वर्तमान राजनीतिक सामाजिक विमर्श में एक गंभीर हस्तक्षेप मानते हैं. रामविलास शर्मा का अध्ययन, विवेचन और निष्कर्ष गिरीश मिश्र जैसे 'आर्थिक इतिहासकार' फूंक कर नहीं उडा़ सकते. बालजाक पर उन्होंने अपनी पुस्तक नामवर सिंह को समर्पित की है. इसके कई वर्ष पहले मैनेजर पांडेय ने अपनी पुस्तक 'साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका' (1989) डॉ नामवर सिंह को 'सादर समर्पित' की थी. उन्होंने 'नामवर सिंह की आलोचना-दृष्टि' लेख (1977) में नामवर की प्रमुख कृतियों की चर्चा की थी और चौबीस वर्ष बाद 2001 में 'नामवर के निमित्त' संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त किये हैं, जो इसी निबंध में प्रकाशित हैं. पीएन सिंह ने अपनी नयी पुस्तक का नाम रामविलास शर्मा की पुस्तक, 'गांधी, अंबेडकर और लोहिया' के नाम पर रख लिया है, जबकि उनकी पुस्तक इन तीनों पर केंद्रित नहीं है. वह समीक्षा संग्रह है.
    'साखी' पत्रिका का संपादन वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने दिल्ली से आरंभ किया था. वे इसके प्रधान संपादक हैं. उनसे संपादक परामर्श नहीं करते. उनका पत्रिका से नाम मात्र का संबंध है. संपादक मंडल के पहले सदस्य पीएन सिंह हैं, जिन्होंने अपने नाम लिखे गये पत्र का प्रकाशन जरूरी समझा. दूसरे सदस्य अवधेश प्रधान ने संपादक को यह पत्र प्रकाशित करने से मना किया था. पत्र छपने पर अवधेश प्रधान ने संपादक मंडल से इस्तीफा दे दिया है. नामवर सिंह के पुत्र विजय प्रकाश सिंह का 'साखी' के इसी अंक में उन पर प्रकाशित एक लेख है. लेख के अंत में विजय प्रकाश सिंह ने हरिशंकर परसाई के व्यंग्य 'पहला सफेद बाल' की पंक्तियां उद्धृत की हैं- 'बडे़ आदमियों के दो तरह के पुत्र होते हैं- वे जो वास्तव में हैं, पर कहलाते नहीं हैं और वे जो कहलाते हैं, पर हैं नहीं... होने से कहलाना ज्यादा लाभदायक है.' विजय प्रकाश सिंह की चिंता और गिरीश मिश्र, पीएन सिंह एवं सदानंद शाही की चिंताएं एक नहीं हैं. विजय प्रकाश सिंह ने लिखा है 'अगर समझने का दावा करने वाले और 'कहलानेवाले' पुत्र उनकी घोषित पुस्तकों का काम लग कर पूरा करवा देते तो शायद पिताजी भी अपने अंतर्मन की बात कह पाते.'
  • माओवाद पर जारी बहसः ईपीडब्ल्यू से साभार

    Posted: Tue, 01 Jun 2010 13:59:00 +0000

    कुछ माह पहले मंछली रिव्यू की वेबसाइट पर बर्नार्ड डिमेलो का एक लंबा आलेख छपा था, जिसे बाद में इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली ने संपादित करके छापा, जिसके डिमेलो उप संपादक भी है. ईपीडब्ल्यू में प्रकाशित होने के बाद इस आलेख पर मॉन्ट्रियाल स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ क्यूबेक में प्राध्यापक परेश चक्रवर्ती ने लंबी टिप्पणी लिखी है, जिसे इस हफ्ते ईपीडब्ल्यू ने प्रकाशित किया है. साथ में डिमेलो का जवाब भी प्रकाशित किया गया है.
    हाशिया के पाठकों के लिए पेश है तीनों आलेख (साथ में मंथली रिव्यू की वेबसाइट पर प्रकाशित मूल और असंपादित आलेख भी). इसे यहां भारत में माओवाद पर जारी बहस के सिलसिले में दिया जा रहा है.


    मंथली रिव्यू वेबसाइट पर प्रकाशित डिमेलो का मूल आलेख
    What is Maoism




    ईपीडब्ल्यू में प्रकाशित डिमेलो का आलेख

    What is Maoism





    चक्रवर्ती की टिप्पणी

    On What is Maoism




    डिमेलो का जवाब

    Did Lenin and Forsake Marx
  • हमरी अटरिया पे आओ संवरिया

    Posted: Mon, 31 May 2010 08:11:00 +0000
    कभी कभी कुछ गीत कितनी पुरानी यादों को छेड़ देते हैं. उस रात जब उमा (अचानक, जिसकी मैं अपेक्षा भी नहीं कर रहा था) ने यह गीत सुनाया तो हमें पटना के वे दिन याद आ गए, जब प्रभात खबर के दफ्तर के सामने अजय जी (जो तब प्रभात खबर के संपादक हुआ करते थे) के साथ फुटपाथ पर बैठ कर देर तक यह गीत गुनगुनाया करते थे. कभी यह गीत जब उन्हें अपने दफ्तर में याद आता तो वे टेबल पर थाप देकर गाते. इस गीत के साथ मैं उसी तरह बड़ा हुआ हूँ जैसे...

    नहीं, ज्यादा इंतजार नहीं. बस अब ये गीत सुनिए.

    बेगम अख्तर






    शोभा गुर्टू


  • प्रेम एक राजनीतिक मसला है...

    Posted: Fri, 28 May 2010 09:36:00 +0000
    देवाशीष प्रसून

    समगोत्रीय शादियों के ख़िलाफ़ खाप पंचायतों ने ख़ूब हो-हल्ला मचा रखा है। डंके के चोट पर उन दंपत्तियों की हत्या कर दी जा रही है, जो एक ही गोत्र होने के बावज़ूद अपने प्रेम को तवज्जो देते हुए परिवार बसाने का निर्णय लेते हुए शादी करते हैं। अंतर्जातीय विवाहों पर भी इन मनुवादियों का ऐतिहासिक प्रतिबंध रहा है। देश में लोकतंत्र की कथित रूप से बहाली के तिरसठ सालों के बाद भी इन सामंती मूल्यों का वर्चस्व हमारे समाज में क़ायम है। इसके पीछे इन कठमुल्लाओं और पोंगा पंडितों का शादी-विवाह के संबंध में दिया जाने वाला रूढ़िवादी तर्क यह है कि इस तरह के वैवाहिक रिश्ते भविष्य में इंसानों की नस्लें खराब करेंगी। सोचना होगा कि  इस तथाकथित वैज्ञानिक तर्क में कितना विज्ञान है और कितनी राजनीति? लेकिन एक बात तो सुस्पष्ट है कि अगर अपारंपरिक तरीकों से विवाह करने पर अगली नस्ल पर आनुवांशिक कुप्रभाव पड़ता है, जैसा कि ये लोग कहते हैं, तो एक दूसरी बात वैज्ञानिक तौर सिद्ध है कि प्रदूषित खान-पान, शराब-सिगरेट-तंबाकू का इस्तेमाल और रोजमर्रा में उपयोग किये जाने वाले अन्य अप्राकृतिक जीवन-व्यवहारों का भी आनुवांशिकी पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में इस प्रदूषित जीवन-स्थिति के लिए जिम्मेवार लोगों की हत्या क्यों नहीं होती, जैसे कि समगोत्रीय या अंतर्जातीय विवाह करने वाले दंपत्तियों की हत्या की जाती है? आजकल यह चर्चा और चिंता का मौजूँ मुद्दा है कि कृत्रिम तरीकों से उपजाये बीटी फल-सब्जियों से मानव आनुवांशिकी को सबसे ज्यादा खतरा है। अगर इन खापों को अपने नस्ल की आनुवांशिकी से इतना ही लगाव है तो बीटी फल-सब्जियों को उपजाने वालों का वही हश्र क्यों नहीं करते, जो उन प्रेमी युगलों का करते हैं, जिन्होने प्रेम को अपने जीवन में सबसे महत्वपूर्ण माना। लेकिन सच तो यह है कि खाप पंचायतों की परेशानी नस्लों की बिगड़ती आनुवांशिकी से नहीं है। क्योंकि कई बार यह भी  देखा गया है कि पारंपरिक दायरों में रह कर भी प्रेम-विवाहों को मान्यता नहीं मिल पाती है। दरअसल यह मामला स्त्री की आज़ादी, उसका अपने श्रम, शरीर और यौनिकता पर नियंत्रण की राजनीति का है।

    असल में, जर्जर हो चुकी सनातनी परंपरा के झंडाबरदारों को इन संबंधों से दिक्कत इसलिए है कि इन प्रेम संबंधों के जरिए कोई स्त्री अपने जीवन और अपने श्रम के इस्तेमाल पर अपना स्वयं का दावा पेश करती है। वह कहती है कि हम आज़ाद हैं, यह तय करने को कि हम अपना जीवनसाथी किसे चुने। इन संबंधों से इशारा है कि तमाम तरह की उत्पादन-प्रक्रियाओं में स्त्रियाँ अपने श्रम का फैसला अब वह खुद लेंगी। यह आवाज़ है उन बेड़ियों के टूटने की, जिसने स्त्रियों के पुनरूत्पादक शक्तियों पर पुरूषों का एकाधिकार सदियों से बनाये रखा है। यह विद्रोह है पितृसत्ता से विरुद्ध। ऐसे में प्रेम-विवाह पितृसत्ता के खंभों को हिलाने वाला एक ऐसा भूचाल लाता है कि बौखलाये खाप-समर्थक प्रेमी-युगलों के खून के प्यासे हो जाते हैं।

    हमारे देश में खाप पंचायत, संस्कारों के जरिए लोगों के दिल-ओ-दिमाग में बसता है। बचपन से ही यह संस्कार दिया जाता है कि अपने बड़ों का आदर और छोटों को दुलार व उनका देखभाल करना चाहिए, पर कोई प्रेम सरीखे समतामूलक रिश्तों का पाठ बच्चों को नहीं पढ़ाता। गो कि यह कोई नहीं सिखाता कि घर में पिता भी उतने ही बराबर और प्रेम के पात्र हैं, जितना कि एक छोटा बच्चा। बराबरी के संबंधों को बनने से लगातार रोका जाता है। बड़े गहराई से एक वर्चस्व-क्रम हमेशा खड़ा किया जाता है। मानता हूँ कि माता-पिता की जिम्मेवारी अधिक होती है, लेकिन अधिक जिम्मेवारी के चलते परिवार में उनकी शासकों-सी छवि का निर्माण करना, सूक्ष्म स्तर पर एक विषमता आधारित समाज का निर्माण करना है। भारत में सदियों से जीवित सामंती समाज के पैरोकारों ने प्रेम को अपने आदर्शवादी या भाववादी सोच-समझ के मुताबिक ही व्याख्यायित किया है। मसलन, बार-बार यह आदर्शवादी समझ बच्चों के दिमाग में डाली जाती है कि विपरीत लिंगों के बीच का स्वभाविक प्रेम भी दो बस आत्माओं के बीच पनपा एक बहुत पवित्र भाव मात्र है और इसका देह और यौनैच्छाओं से कोई संबंध नहीं है। मानव जीवन में यौन-व्यवहारों को वर्जनाओं के रूप में स्थापित करने में धर्म और परंपराओं ने एक लंबी साजिश रची है। जाहिर है कि मानव प्रकृति के विरुद्ध प्रेम के संबंध में इस तरह की सायास बनायी गई पवित्रावादी धारणाएं मनगढंत व अवैज्ञानिक हैं और इसका उद्देश्य सहज मानवीय व्यवहारों पर नियंत्रण करना है।

    एक तरफ, हम हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान आदि इलाकों में दहशत का माहौल बनाने वाले खापों और चौधराहटों की बात करते हैं, लेकिन सच मानिये इस देश में हर घर में किसी न किसी रूप खाप अपना काम करता रहता है। कहीं, जाति के स्तर पर, तो कहीं आर्थिक हैसियत के आधार पर तो कहीं किसी अन्य सत्ता संबंध के मुताबिक प्रेम और वैवाहिक रिश्तों पर लगाम लगाया जाता है। युवा पत्रकार निरुपमा पाठक का ही मामला लें। वह पढ़ी लिखी थी, आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर थी। इन परिस्थितियों में अर्जित किए आत्म-विश्वास के चलते उसमें यह हौसला था वह अपनी मर्ज़ी से अपना जीवनसाथी चुन सकें और उसने समाज के रवायतों को जूती तले रखते हुए किया भी ऐसा ही। लेकिन, उसकी इस हिमाकत के चलते उसके बाप और भाई की तथाकथित इज़्ज़त को बड़ा धक्का लगा। फिर साज़िशों का एक सिलसिला चला। घरवालों ने अपना प्यार और संस्करों का हवाला देकर उसे घर बुलाया गया। भावुक होकर जब निरुपमा अपने पिता के घर एक-बार गयी तो फिर कभी लौट नहीं सकी। दोबारा उसे अपने प्रेमी से नहीं मिलने दिया गया। जब समझाइश काम नहीं आई तो उसको अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ा। उसकी मौत ने हमारे सामने कई सवालों को एक बार फिर से खड़ा कर दिया है। इस घटना ने हमारे समाज के चेहरे पर से पारिवारिक प्रेम के आदर्शवादी नक़ाब को नोच कर फेंक दिया है और साबित हो गया है कि हम एक प्रेम विरोधी समाज में रहते हैं। साथ ही, यह साफ़ है कि मामला सिर्फ़ ऑनर किलिंग का नहीं है, बल्कि यह एक स्त्री का अपने जीवन पर अधिकार, उसकी स्वतंत्रता और उसके अपने ही श्रम और यौनिकता पर हक को बाधित करने का मसला है। यह पितृसता दारा जारी किया गया एक फतवा भी है कि अगर निरुपमा जैसी लड़कियाँ, अपने अधिकारों पर अपना दावा पेश करती हैं तो यह विषमतामूलक पुरूषवादी समाज के पुरोधाओं के नज़र में यह संस्कृति पर हुआ एक ऐसा हमला बन जायेगा, जिसकी पुरूषवादी दरिंदों ने नज़र में सज़ा मौत भी कम हो सकती है।

    गौर से देखें तो इसी तरह के अप्राकृतिक और सत्‍ताशाली व दबंग ताक़तों द्वारा लादे हुए मानव व्यवहारों ने ही समाज में अन्याय और विषमता के काँटे बोये हैं। इससे ही स्त्रियों सहित हाशिये पर जीवन जी रहे दलितों और आदिवासियों जैसे तमाम लोगों का शोषण और उन पर अन्याय अनवरत जारी है। मानवीय गुणों में प्रेम है और स्वतंत्रता है, जो स्थापित सत्ताचक्र को बनाये रखने के लिए एक बड़ी मुश्किल चुनौति है। अतः समाज मानवीय गुणों का हर संभव दमन करता है।
  • परमाणु जवाबदेही विधेयक में छिपे सवाल

    Posted: Tue, 25 May 2010 01:36:00 +0000
    प्रफुल्ल बिदवई

    क्या हमने भोपाल गैस त्रासदी से कोई सबक लिया है? क्या चौथाई सदी लंबी चोट, बदनामी और अपमान की उस स्थायी पीड़ा से हमने कुछ सीखा है जो दुनिया की सबसे भयावह रासायनिक दुर्घटना के पीड़ितों को भुगतनी पड़ी है? परमाणु दुर्घटना होने पर मुआवजा देने संबंधी असैन्य परमाणु जवाबदेही विधेयक को पास करवाने के लिए सरकार जिस तरह की तत्परता दिखा रही है उसे देखकर तो यही लगता है कि हमने कुछ नहीं सीखा. बल्कि सीखने की बजाय हमारा तंत्र इस तरह की आपदाओं की आशंका के प्रति लगातार इनकार की मुद्रा बनाए हुए है. सरकार दिखावा कर रही है कि उसे अपने नागरिकों की चिंता है और उसे किसी भी आपदा से निपटना अच्छी तरह आता है. इसी तरह का दिखावा 1984 में भी किया गया था जब भोपाल गैस पीड़ितों को उनके अधिकार  दिलाने की बात आई थी. लेकिन बाद में दोषी कंपनी के साथ मिलीभगत करके इन पीड़ितों को मामूली मुआवजा देकर टरका दिया गया.

    इस विधेयक में गंभीर खामियां हैं. इसका मुख्य मकसद है किसी परमाणु संयंत्र में होने वाली दुर्घटना से होने वाले संभावित व्यापक नुकसान की जिम्मेदारी इसके डिजाइनरों, निर्माताओं और आपूर्तिकर्ताओं से हटाना. इसमें विदेशी परमाणु कंपनियों से कहीं ज्यादा मुआवजा सरकार को देना पड़ेगा. यानी भुगतेगी भी जनता और मुआवजे का पैसा भी उसी जनता की जेब से जाएगा. इस तरह देखा जाए तो यह विधेयक कानून, संविधान द्वारा प्रदत्त जीवन के अधिकार और जवाबदेही के मूल सिद्धांतों और जनहित के खिलाफ जाता है. इसका सबसे आपत्तिजनक पहलू ही इसका बुनियादी पहलू है. यह विधेयक विनाशकारी दुर्घटना की क्षमता रखने वाले एक ऐसे उद्योग की जवाबदेही को सीमित करने की बात कहता है जो बेहद खतरनाक और दुर्घटना संभावित माना जाता है.

    परमाणु ऊर्जा, ऊर्जा उत्पादन का अकेला ऐसा तरीका है जिसमें विकिरण के जरिए व्यापक स्तर पर विनाश पैदा करने की क्षमता होती है. इसका घातक असर लंबे समय तक वातावरण में बना रहता है. अदृश्य होने की वजह से इसकी भयावहता और बढ़ जाती है. पिछले दिनों दिल्ली के एक कबाड़ बाजार में हुए कोबाल्ट-60 विकिरण हादसे से यह बात उजागर भी हो चुकी है. यह तर्क दिया जाता है कि बहुत विनाशकारी दुर्घटनाओं की संभावना कम होती है मगर दुर्घटना की हालत में इसके नतीजे कितने विनाशकारी होंगे इस पर ज्यादा चर्चा नहीं होती. 1986 में युक्रेन में हुए चेर्नोबिल हादसे को कौन भूल सकता है जहां परमाणु संयंत्र में हुए रेडियोएक्टिव रिसाव में 65,000 लोग विकिरणजनित कैंसर की भेंट चढ़ गए थे और आर्थिक नुकसान का आंकड़ा था 350 अरब डॉलर.

    परमाणु दुर्घटना की जवाबदेही सीमित करना सैद्धांतिक रूप से भी गलत है. ऐसा करना दो मूलभूत सिद्धांतों का उल्लंघन है- एहतियाती सुरक्षा का सिद्धांत और जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा भुगतान का सिद्धांत. पहला सिद्धांत कहता है कि इतने व्यापक पैमाने पर विनाश की क्षमता रखने वाली किसी ऐसी गतिविधि को इजाजत नहीं मिलनी चाहिए जिसके बारे में पूरी जानकारी न हो. दूसरा सिद्धांत कहता है कि जिन लोगों ने नुकसान किया है वे पीड़ितों को पूरा मुआवजा दें.

    इन सिद्धांतों और संपूर्ण जवाबदेही की धारणा का जिक्र सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर अपने फैसलों में भी किया है. इनका जिक्र धारा 21 (जीवन का अधिकार), 47 और 48ए (जन स्वास्थ्य उन्नति और पर्यावरणीय संरक्षण) में है. 1996 में कोर्ट ने कहा था: 'एक बार कोई गतिविधि, जिससे जोखिम जुड़ा हो, शुरू होने के बाद इसे शुरू करने वाला व्यक्ति ही इसके अच्छे या बुरे के लिए जिम्मेदार होगा. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसने जरूरी उपाय कर रखे थे.'

    परमाणु जवाबदेही विधेयक में इन सिद्धांतों की अनदेखी की गई है. इसमें मनमाने ढंग से उत्तरदायित्व संबंधी धन की सीमा बेहद कम  (2,300 करोड़ रुपए) निर्धारित की गई है. इसमें भी संचालकों की जिम्मेदारी की सीमा सिर्फ 500 करोड़ रुपए है. बाकी का जो अंतर है उसे सरकार वहन करेगी यानी आप और हम, वे लोग जो इस दुर्घटना के लिए रत्तीमात्र भी जिम्मेदार नहीं हैं.

    यह विधेयक परमाणु आपूर्तिकर्ताओं और डिजाइनरों को जवाबदेही के शिकंजे से बच निकलने की छूट देता है. अपने उत्पाद की जवाबदेही के तहत भविष्य में उनके उपकरण (रिएक्टर) से किसी भी तरह के नुकसान की हालत में - मसलन डिजाइन या निर्माण संबंधी खामी उजागर होने पर - उन्हें हर्जाना भुगतना चाहिए. यह पूरी तरह से नाइंसाफी होगी यदि निर्माण या फिर डिजाइन संबंधी किसी खामी के चलते हुई दुर्घटना के बावजूद सारी जिम्मेदारी संचालक के सिर पर हो. संचालक यानी सरकार जो इन रिएक्टरों को परमाणु विद्युत निगम के तहत संचालित करेगी. इस कानून का उतना ही घृणित एक पक्ष और है. यह जवाबदेही की अवधि सिर्फ 10 साल तक सीमित करने की बात करता है जबकि किसी विकिरण दुर्घटना के प्रभावों का असर (कैंसर, जेनेटिक विकार आदि) 20 साल बाद देखने को मिलता है.

    स्पष्ट रूप से इस बिल का खाका परमाणु कंपनियों को उनकी जनता के प्रति जवाबदेही से मुक्त करने के लिए रचा गया है. और इसकी जड़ें 1960 के दशक में हुए दो सम्मेलनों में जुड़ी हैं - धनी देशों (ओईसीडी) द्वारा प्रायोजित 1960 का पेरिस सम्मेलन और 1963 का वियना सम्मेलन. यह ऐसा दौर था जब लोगों के अंदर ये उम्मीदें बनाई जा रही थीं कि ऊर्जा का भविष्य परमाणु ऊर्जा में ही छिपा हुआ है जो सुरक्षित, सस्ती और पर्याप्त होगी. लेकिन उम्मीदें उम्मीदें ही रह गईं. जितना दावा किया जा रहा था परमाणु ऊर्जा उत्पादन में उसके दस फीसदी भी बढ़ोतरी नहीं हुई. अमेरिका जो कभी दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु ऊर्जा देश हुआ करता था उसने अपने यहां 1973 के बाद से एक भी नए संयंत्र की इजाजत नहीं दी है. वैश्विक ऊर्जा उत्पादन में परमाणु ऊर्जा का योगदान लगातार कम होता जा रहा है जबकि पूर्ण रूप से सुरक्षित, हर तरह के प्रदूषण से मुक्त सौर और पवन ऊर्जा उत्पादन की दर सालाना 20 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है.

    दुनिया के इतिहास में परमाणु ऊर्जा सबसे बड़ी औद्योगिक विफलता साबित हुई है. अमेरिकी ऊर्जा विशेषज्ञ एमरी लोविंस के मुताबिक दुनिया भर में इसमें खरबों डॉलर का नुकसान हो चुका है. परमाणु ऊर्जा जैसी विनाशकारी तकनीक को सब्सिडी देना 1960 में भी गलत था. आज भी यह हास्यास्पद है जबकि यह तकनीक 60 साल पुरानी हो चली है और शायद अपनी क्षमता का पूरा दोहन कर चुकी है. रेडियोएक्टिव कचरे को निपटाने का कोई सुरक्षित तरीका नहीं है जो अगले हजारों साल तक विनाश पहुंचाने की क्षमता रखता है. कल्पना कीजिए किसी परमाणु संयंत्र के बंद होने के 100 साल बाद उसके कचरा भंडार में रिसाव हो जाता है. तब कौन जिम्मेदार होगा? विधेयक के मुताबिक खुद जनता जिम्मेदार होगी.

    लेकिन यूपीए सरकार 1997 के कंवेंशन ऑन सप्लीमेंटरी कंपनसेशन (सीएससी) फॉर न्यूक्लियर डैमेज नामक अंतरराष्ट्रीय संधि से इस तरह चिपकी हुई है जैसे यह बड़े पैमाने पर स्वीकार्य हो. जबकि असलियत यह है कि सिर्फ 13 देशों ने इस संधि पर दस्तखत किए हैं और अब तक यह अमल में नहीं आ पाई है. इसे प्रायोजित करने वाली अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी यानी आईएईए खुद एक निष्पक्ष संस्था नहीं है. इसका मकसद ही परमाणु ऊर्जा का प्रसार करना है.

    इस विधेयक का औचित्य सिद्ध करने के लिए सरकार के पास एक ही दलील है कि जवाबदेही को सीमित किए बिना कोई भी विदेशी उद्योगपति भारत में निवेश नहीं करेगा. लेकिन इस दलील से सवाल उठता है कि क्या हमें परमाणु ऊर्जा की जरूरत है भी, और है तो हम इसके लिए कितनी बड़ी कीमत चुकाने को तैयार हैं? यह विधेयक भारतीय और अमेरिकी उद्योगपतियों के दबाव के सामने घुटने टेकने जैसा है. अमेरिकी अधिकारी और औद्योगिक समूह इसके पक्ष में जबर्दस्त लामबंदी कर रहे हैं. परमाणु ऊर्जा समझौते के बाद उन्हें इसका फायदा जो चाहिए. विधेयक को खारिज कर हम इस धोखे से बच सकते हैं. (तहलका से साभार)
  • कृषि संकटः आपदा के घुमड़ते बादल

    Posted: Mon, 24 May 2010 03:29:00 +0000
    बढ़ती हुई महंगाई उस आपदा का सिर्फ एक संकेत है, जिससे खेती जूझ रही है. दरअसल भारतीय कृषि क्षेत्र बुरी तरह से चरमरा रहा है. संकट से पार पाने के लिए नजरिए में बड़े बदलावों की जरूरत है. लेकिन कृषि मंत्री शरद पवार आपदा की इस आहट को सुनने के लिए तैयार नहीं. तहलका के अजित साही और राना अय्यूब की रिपोर्ट. साभार

    सरकारी नीतियों से लेकर अखबार की सुर्खियों तक तरजीह पाने वाली इस देश की शहरी आबादी को खेत-खलिहान से जुड़ी किसी बात से तब तक कोई खास लेना-देना नहीं होता जब तक या तो सब्जियों के दाम आसमान न छूने लगें या फिर चीनी या दाल जैसी रोजमर्रा की चीज अचानक ही बहुत महंगी न हो जाए. शहरी मध्यवर्ग में ऐसे लोग गिने-चुने ही होंगे जो रबी या खरीफ के बीच का फर्क बता सकते हों. कृषि विज्ञानियों, अर्थशास्त्रियों और कार्यकर्ताओं को छोड़कर ज्यादातर लोग डब्ल्यूटीओ, नकदी फसलों, समर्थन मूल्य, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, खाद्य संप्रभुता और मोनोकल्चर या एकलसंस्कृति जैसे शब्दों पर गौर करने की जहमत नहीं उठाते. दस साल पहले तक सैकड़ों में सीमित किसान आत्महत्याओं का आंकड़ा आज दो लाख के करीब पहुंच चुका है. मगर किसी की इसमें कोई दिलचस्पी ही नहीं.

    देखा जाए तो इस तरह की उपेक्षा दिखाकर हम अपने और अपने बच्चों के लिए एक बड़ा जोखिम मोल ले रहे हैं. यह कहने वाले जानकारों की संख्या लगातार बढ़ रही है कि भारत में खेती चौपट होने की दिशा में कदम बढ़ा रही है. अगर हमने इसे लेकर अपना बुनियादी नजरिया और नीतियां नहीं बदलीं तो वह दिन दूर नहीं जब अनाज की कमी और उसकी ऊंची कीमतों के चलते देश में व्यापक भुखमरी की स्थिति पैदा हो जाएगी. साथ ही करोड़ों किसानों के लिए जीना दूभर हो जाएगा.

    अगर आपको अब भी यह बड़ी खबर नहीं लगती तो पढ़िए कि सरकार के कृषि प्रबंधन के आलोचक और कृषि विशेषज्ञ सुमन सहाय क्या कहती हैं, 'दस साल पहले जब मैंने झारखंड में काम करना शुरू किया था तो वहां कोई नक्सलवाद नहीं था. मैं इन नाराज नौजवानों में से कइयों को जानती हूं. ऐसा नहीं है कि वे सरकार को उखाड़ फेंकना चाहते हैं. वे तो बस खेती करना चाहते हैं. मगर उनमें से ज्यादातर ने मान लिया है कि उनकी सुनने वाला कोई नहीं, सरकार ने उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया है.'

    झारखंड के किसानों के पास आज फसलों को देने के लिए पानी नहीं है. पिछली बार बुआई के मौसम में सरकारी बीज भंडारों से बीज मिलने में तीन महीने लग गए. तब तक बुआई के लिए बहुत देर हो चुकी थी. वहां शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिलेगा जिसे खेती से यह उम्मीद हो कि इससे साल भर तक उसके परिवार का पेट भर जाएगा. सहाय कहती हैं, 'यहां तक कि जिन किसानों के पास दस-दस एकड़ जमीनें हैं वे भी खेती करने की बजाय शहर जाकर रिक्शा चलाने या फिर किसी दफ्तर में चपरासी की नौकरी करना पसंद करते हैं.'

    भारत में खेती के क्षेत्र में तेज गिरावट की शुरुआत तो 1990 के दशक में ही हो गई थी लेकिन पिछले छह साल के दौरान जिस एक व्यक्ति के रहते इसकी सबसे ज्यादा दुर्दशा हुई वे हैं केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार. देश के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक पवार खुद एक किसान के बेटे हैं जिन्होंने महाराष्ट्र की सहकारी चीनी मिलों की जमीन पर अपनी राजनीति की मजबूत इमारत खड़ी की. उनके बारे में कहा जाता है कि वे न सिर्फ भारतीय बल्कि दुनिया भर की खेती का चलता-फिरता ज्ञानकोष हैं. 2004 की गर्मियों में जब उन्होंने इस मंत्रालय की कमान संभाली थी तो कइयों को उम्मीद थी कि पवार अपने इस व्यापक ज्ञान का उपयोग कर कृषि क्षेत्र की नीतियों में सुधार लाएंगे ताकि किसानों को गरीबी के दलदल से बाहर निकाला जा सके. लोगों को यह भरोसा था कि वे आयात को बढ़ाए बिना खाद्य भंडारों का बेहतर प्रबंधन करके कीमतों को नीचे रखेंगे.

    मगर पिछले छह साल से पवार की अगुवाई वाले कृषि मंत्रालय ने लगातार ऐसी नीतियां बनाई हैं कि न तो गरीब किसानों की मुसीबतें कम हुई हैं और न अनाज का प्रबंधन बेहतर हुआ है. इसकी बजाय उनका मंत्रालय मांग और आपूर्ति की बाजारवादी अर्थव्यवस्था, बड़े कॉरपोरेट घरानों, आयात में बढ़ोतरी और पानी व दूसरे संसाधन खाने वाली चावल, गेहूं और गन्ना जैसी फसलों के पक्ष में खड़ा नजर आया है. विडंबना देखिए कि मीडिया में उनकी चर्चा कृषि से ज्यादा क्रिकेट के क्षेत्र में उनके प्रबंध कौशल के चलते होती रही है. वरिष्ठ पत्रकार कुमार केतकर कहते हैं, 'खेती की अपनी व्यापक समझ का इस्तेमाल पवार ने प्रबंधन की बजाय मनमानी के लिए किया.'

    परिणाम तो बुरा होना ही था. इस साल फरवरी से इस महीने तक खाद्य पदार्थों की कीमतों ने जबर्दस्त छलांग लगाई तो पवार ने कृषि मंत्री के रूप में अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झड़ने की भरसक कोशिश की. ऐसा करने में वे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी इसके लिए बराबरी का जिम्मेदार बताने की हद तक चले गए. हालांकि फौरन ही उन्होंने यह साफ करने की कोशिश की कि उनके बयान को गलत तरीके से समझ गया है. एक दिन लोकसभा में उनके भाषण के दौरान समूचे विपक्ष ने बीच में ही वॉकआउट कर दिया.

    अक्सर अविचलित रहने वाला यह शख्स लड़खड़ाने लगा है यह तब साफ जाहिर हो गया जब उन्होंने कांग्रेस पार्टी को अपने उस प्रवक्ता को हटाने पर मजबूर कर दिया जिन्होंने देश की कृषि नीतियों के लिए उन्हें कोसते हुए कैमरे के सामने ही असंसदीय भाषा का इस्तेमाल कर डाला. हटाए गए प्रवक्ता सत्यव्रत चतुर्वेदी और पवार दोनों से जब इस बारे में बात करने की कोशिश की गई तो उन्होंने कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

    हालांकि पवार अपनी नीतियों का बचाव करते हैं (देखें इंटरव्यू). वे कहते हैं कि उनकी बनाई नीतियों की वजह से 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) के पहले दो वर्षों में भारतीय कृषि क्षेत्र में 3.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई जबकि 1990 के दशक के दौरान यह ज्यादातर दो प्रतिशत के आसपास घूमती रही थी. पवार किसानों को दिए जा रहे ऋणों में भारी बढ़ोतरी का भी हवाला देते हैं. कृषि क्षेत्र पर उनका जोर है यह बताने के लिए वे राष्ट्रीय कृषि विकास योजना सहित कई योजनाएं शुरू किए जाने का हवाला भी देते हैं.

    मगर जानकारों का मानना है कि पवार की नीतियों ने भारतीय कृषि को अस्थिर और खतरनाक दिशा में धकेलना शुरू कर दिया है जिससे गरीबी और भुखमरी जैसी समस्याओं का दायरा बढ़ा है. खाद्य नीति विश्लेषक देविंदर शर्मा कहते हैं, 'खाद्य आयात का मतलब है बेरोजगारी का आयात.' शर्मा वर्तमान कृषि संकट का ठीकरा पश्चिम, कारोबार, नकदी फसलों और आयात की तरफ झुकी कृषि नीतियों पर फोड़ते हैं. वे कहते हैं कि 1960 के दशक में हरित क्रांति के बाद से मंत्रियों, नौकरशाहों, वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों ने भारतीय कृषि की घोर उपेक्षा की है.

    जब पवार ने 2004 में कृषि मंत्री का पदभार संभाला था तो साफ तौर पर कई चीजों की दरकार थी. फर्टिलाइजरों और कीटनाशकों की कीमतें आसमान छू रही थीं, उनपर लगाम लगाने की जरूरत थी. कृषि पैदावार के दाम बढ़ने का नाम नहीं ले रहे थे जिससे किसानों की उपज से होने वाली आमदनी लगातार कम हो रही थी. 2004 में ही एक आधिकारिक सर्वे हुआ था जिसमें यह बात जाहिर हुई थी कि एक किसान की औसत आमदनी 2,200 रुपए महीने से भी कम है. इसपर भी ध्यान देने की जरूरत थी.

    किसान अपनी उपज बेचने के लिए संघर्ष कर रहे थे, इसके बावजूद पवार ने तिलहन से लेकर कपास जैसी फसलों तक पर आयात शुल्क में भारी कटौती का समर्थन किया. यह बड़ी हैरत की बात थी. तहलका से बात करते हुए पवार तर्क देते हैं कि अगर वे अब आयात शुल्क में बढ़ोतरी करते हैं तो दूसरे देश भी भारतीय कृषि उत्पादों पर भविष्य में आयात शुल्क बढ़ा सकते हैं. यानी जो गड़बड़ हुई है उसे चलते रहने देना होगा. उसे सही करना एक नई गड़बड़ को जन्म देगा.

    महाराष्ट्र में शेतकरी कामगार पार्टी के वरिष्ठ नेता एनडी पाटिल गुस्से में कहते हैं, 'हमारे कपास किसान आत्महत्या कर रहे हैं और हम 10 प्रतिशत के आयात शुल्क पर कपास का आयात कर रहे हैं.' पाटिल के मुताबिक डब्ल्यूटीओ के तहत भारत आयातित कपास पर 150 प्रतिशत तक आयात शुल्क लगा सकता है. शर्मा के मुताबिक आयातित कपास पर कम आयात शुल्क हास्यास्पद है क्योंकि अमेरिका और यूरोपीय संघ अपने किसानों को भारी सब्सिडी देते हैं. इसमें नकद रकम देना भी शामिल है. शर्मा कहते हैं, 'उन्हें घर में बैठे-बैठे चेक मिल जाते हैं. हमारे किसानों को भी मिलने चाहिए.' सुमन सहाय को याद है कि जब वे जर्मनी में रहती थीं तो किस तरह उनके पड़ोसी एक किसान परिवार ने नकद सब्सिडी पाने के लिए अपनी गाएं अपने आप को ही बेच दी थीं.

    पवार की नीतियों की आलोचना न करने वाले लोग भी आयात को लेकर उनके तर्क को पचा नहीं पाते. महाराष्ट्र के नासिक कस्बे में रहने वाले कृषि नीति शोधकर्ता मिलिंद मुरुगकर पूछते हैं, 'हमारे पास लाखों टन गेहूं गोदामों में है फिर भी हम 15 रुपए किलो की दर पर गेहूं आयात कर रहे हैं. क्यों?' मुरुगकर कहते हैं कि उन्हें यह समझ में नहीं आता कि आखिर पवार देश में मौजूद अनाज का भंडार क्यों नहीं खोलते.

    अनुभवी कृषि अर्थशास्त्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री वाईके अलघ आयात शुल्क घटाए जाने पर सावधान करते हैं. हाल ही में उन्होंने आयात शुल्कों पर एक दिशा तय करने के लिए बनाई गई एक समिति के निष्कर्ष सरकार को सौंपे हैं. इस समिति की अगुवाई भी अलघ ने ही की थी. वे बताते हैं, 'हमने कहा कि सरकार को सक्षम किसान के खर्चे की भरपाई करनी चाहिए. कम शुल्कों पर आयात की इजाजत देने का मतलब यह है कि आप विदेशी किसानों को सब्सिडी दे रहे हैं. एक साल तो तिलहन पर आयात शुल्क खत्म ही कर दिया गया. यानी हम तब मलेशियाई और अमेरिकी किसानों को सब्सिडी दे रहे थे.'

    उधर, सिंचाई के मोर्चे पर भी पवार की निष्क्रियता समझ से परे है. हैरत की बात है कि चार दशक पहले हरित क्रांति के बाद से आज तक सरकार की नीतियां सिर्फ उसी 40 फीसदी खेती की जमीन की तरफ झुकी रही हैं जो मुट्ठी भर राज्यों में है और जिसे ट्यूबवेलों और नहरों के जरिए व्यापक सिंचाई की सुविधा दी जा रही है. बाकी 60 फीसदी हिस्से की तरफ न के बराबर ध्यान दिया गया है. यह भूमि पूरी तरह से इंद्रदेव की कृपा के हवाले रही है और इसीलिए इसमें ऐसी फसलें उगाई जाती हैं जो सूखे मौसम की मार झेल सकें. मसलन तिलहन, दालें, ज्वार-बाजरा जैसा मोटा अनाज इत्यादि. अगर सरकार ने इन अनाजों की खेती को प्रोत्साहन दिया होता तो न सिर्फ लाखों किसानों की आजीविका चलती बल्कि देश के करोड़ों गरीब भूखों को सस्ता अन्न मिलता जिनका 80 फीसदी हिस्सा इसी शुष्क जमीन पर रहता है.

    शुष्क भूमि के प्रति सरकार की यह उपेक्षा अक्षम्य है. दिल्ली स्थित सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटी से जुड़े विपुल मुद्गल कहते हैं कि हरित क्रांति वाले इलाकों को सरकार औसतन 1.3 लाख रुपए प्रति एकड़ सब्सिडी देती है. इनमें पवार की कर्मस्थली प. महाराष्ट्र के वे इलाके भी शामिल हैं जो गन्ना उगाते हैं और जमकर पानी खर्च करते हैं. इसकी तुलना में शुष्क भूमि वाले इलाकों में सब्सिडी के लाभ का यह आंकड़ा महज पांच हजार रु प्रति हेक्टेयर (तकरीबन ढाई एकड़) है. मुद्गल कहते हैं, 'किसी ने भी इन इलाकों के लिए एक अलग सिंचाई नीति बनाने के बारे में नहीं सोचा.' वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने 2010 के बजट में इसकी पहल की है. चार करोड़ रुपए का खर्च रखकर. मगर मुद्गल कहते हैं कि यह राशि ऊंट के मुंह में जीरे जितनी भी नहीं है.

    योजना आयोग के सदस्य मिहिर शाह कहते हैं कि भारतीय कृषि को बर्बाद होने से बचाने की मुहिम में जल प्रबंधन एक बड़ी भूमिका निभाएगा. शाह ने प्रधानमंत्री के कहने पर आयोग का सदस्य बनने से पहले दो दशक मध्य प्रदेश के गांवों में बिताए हैं. 1998 में उन्होंने भारत के शुष्क भूमि वाले इलाकों पर एक किताब लिखी थी जिसमें यह बताया गया था कि कैसे हरित क्रांति ने हर जगह एक ही समाधान पेश किया कि पानी चाहिए तो ट्यूबवेल खोद डालो, जिससे स्थितियां खराब होती चली गईं.

    तहलका से बात करते हुए शाह बताते हैं कि भारत की शुष्क भूमि में से ज्यादातर उन चट्टानों से बनी है जो लाखों साल पहले तब अस्तित्व में आईं थीं, जब अफ्रीका से भारतीय उपमहाद्वीप टूटकर अलग हो गया था और कई भयानक ज्वालामुखी विस्फोट हुए थे. ऐसी शुष्क जमीन में भूमिगत जल हजारों साल के दौरान चट्टानों के बीच में बनी खोखली जगहों में इकट्ठा हो गया था. शाह कहते हैं, 'महाराष्ट्र के सूखे इलाकों में गन्ना उगाना पारिस्थितिकी और पानी के स्तर के प्रबंधन के बुनियादी सिद्धांतों का मखौल उड़ाना है. पिछले तीस साल में हमने उस पानी का ज्यादातर हिस्सा इस्तेमाल कर लिया है और अब बहुत कम पानी बचा है.'

    खेती को लेकर हर तरफ इसी उपेक्षा का आलम है. जून में जब हर तरफ गर्मी के चलते पानी की कमी होती है तो पंजाब में चावल उगाया जाता है. यह घमंड नहीं तो और क्या है. ऐसी गतिविधियों के चलते हर जगह भूमिगत जल का स्तर खतरनाक तरीके से नीचे तक चला गया है. शाह कहते हैं कि भारत को सिंगापुर जैसे देशों से सीख लेनी चाहिए जहां पुनर्शोधित पानी का खूब उपयोग हो रहा है. यहां तक कि सेमीकंडक्टर निर्माण जैसे उन उद्योगों में भी जिनमें उच्च गुणवत्ता वाले पानी की जरूरत होती है. वे कहते हैं, 'देखा जाए तो जरूरत इस बात की है कि स्थानीय लोगों को जल का समुचित प्रबंधन करना सिखाया जाए.'

    यह सभी जानते हैं कि पवार की पूरी राजनीति महाराष्ट्र की ताकतवर शुगर लॉबी के इर्द-गिर्द घूमती है जो गन्ना उगाने वालों और चीनी उत्पादक सहकारी संस्थाओं से मिलकर बनती है. बांबे हाई कोर्ट के पूर्व जज बीजी कोलसे पाटिल, जिन्होंने समाजसेवा के लिए वक्त से पहले ही अपनी नौकरी छोड़ दी, पवार की काफी आलोचना करते हुए आरोप लगाते हैं कि कृषि मंत्री खेती को लेकर राजनीति कर रहे हैं और जमाखोरी के जरिए कृत्रिम कमी पैदा करने वाले व्यापारियों के साथ उनकी मिलीभगत है.

    जैसा कि पाटिल तल्ख स्वर में कहते हैं, 'कई व्यापारियों ने मुङो बताया है कि पवार उनसे सरकारी दर से ज्यादा दाम पर गन्ना खरीदने को कहते हैं ताकि कमी पैदा हो जाए. उसके बाद व्यापारी इसे सरकार को कहीं ज्यादा दाम पर बेचते हैं.' पवार की राजनीतिक, कृषि संबंधी और कारोबारी गतिविधियों पर सालों से नजदीकी निगाह रखने वाले पाटिल का दावा है कि अपनी कठपुतली हुकूमत के जरिए वे महाराष्ट्र की करीब 200 चीनी कोऑपरेटिवों की कमान अपने हाथ में रखते हैं. वे कहते हैं, 'उन्होंने इनमें से कई कोऑपरेटिवों को बीमार इकाई घोषित करवा दिया था जिससे वे भारी कर्ज की पात्र हो गईं. यह पैसा पवार या उनके आदमियों को मिल गया.' पवार ने हमेशा इन आरोपों को नकारा है.

    पवार के एक और तीखे आलोचक हैं बालासाहेब विखे पाटिल. पाटिल आठ बार लोकसभा सांसद रह चुके हैं और वाजपेयी सरकार में उद्योग मंत्री हुआ करते थे. पवार ने चालीस साल पहले कोआ¬परेटिव कारोबार की बारीकियां विखे पाटिल द्वारा संचालित एक कोऑपरेटिव में ही सीखी थीं. विखे पाटिल को हैरानी है कि एक तरफ तो पवार इतनी सारी चीनी कोऑपरेटिवों को बीमारू इकाई घोषित करवा रहे हैं और दूसरी तरफ वे पुणो में दो चीनी कारखाने शुरू कर रहे हैं. नासिक में तहलका से बात करते हुए विखे पाटिल कहते हैं, 'अगर कोऑपरेटिव बीमार हैं तो कंपनियां तरक्की कैसे करेंगी?' वे यह भी कहते हैं कि शुष्क जमीन पर होने वाली फसलों में पवार की दिलचस्पी सिर्फ उन फैक्टरियों को सब्सिडी देने में है जो ज्वार और बाजरे से शराब बनाती हैं. वे कहते हैं, 'ये हैं पवार की किसान समर्थक नीतियां.'

    या फिर जमीन का ही उदाहरण लीजिए जो दशकों से हो रही खूब खेती और कीटनाशकों और खाद के जमकर इस्तेमाल से बर्बाद हो चुकी है. एकलसंस्कृति यानी सिर्फ एक या दो फसलें उगाने की परंपरा भी भारतीय कृषि के लिए बेहद विनाशकारी साबित हुई है. पहले परंपरा यह थी कि किसान बदल-बदलकर फसलें उगाते थे जिससे जमीन हमेशा उपजाऊ बनी रहती थी. लेकिन अब बार-बार एक ही फसल उगाए जाने से जमीन की उर्वरता काफी कम हो गई है. तहलका से बात करते हुए पवार भी एकलसंस्कृति वाली इस खेती पर अफसोस जताते हैं.

    लेकिन खेती को लेकर उनका नजरिया यही है कि वही उगाओ जो बाजार चाहता है न कि पेट. और इससे एकलसंस्कृति को ही और बढ़ावा मिलता है क्योंकि नकदी फसलें बाजार की मांग पूरी करने के लिए उगाई जाती हैं न कि पेट भरने के लिए. यही वजह है कि पवार ने अंगूरों की खेती पर जमकर जोर दिया है जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में महंगे दामों पर बिकने वाली शराब बनती है. पवार की इस बात के लिए भी काफी आलोचना हुई है कि पूर्वी महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में हजारों किसानों ने खुदकुशी कर ली मगर वे कभी उनके परिवारों का हाल तक जानने नहीं गए. सिवाय एक बार तब जब जून, 2006 में उन्हें जबर्दस्ती प्रधानमंत्री के साथ वहां जाना पड़ा था. मैगसेसे पुरस्कार विजेता और वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ तल्खी के साथ कहते हैं, 'पवार बयान जारी कर रहे थे कि आत्महत्याएं कम हो गई हैं. वास्तव में महाराष्ट्र में हमेशा सबसे बुरी स्थिति रहती है.' उस साल स्वतंत्रता दिवस भाषण में प्रधानमंत्री ने कहा था कि किसानों की व्यथा का उनके दिल पर गहरा असर हुआ है. साईनाथ इस बात को याद करते हुए कहते हैं, 'उस समय पवार श्रीलंका दौरे पर जा रही भारतीय टीम की सुरक्षा की बात कर रहे थे.'

    यह भी सब जानते हैं कि अपने पूर्व संसदीय क्षेत्र बारामती, जहां से अब उनकी बेटी सुप्रिया सुले संसद में आई हैं, को पवार ने कृषि क्षेत्र का एक शानदार मॉडल बना दिया है. कृषि क्षेत्र पर नजदीकी से नजर रखने वालीं नई दिल्ली स्थित पत्रकार भवदीप कंग कहती हैं कि पवार कृषि क्षेत्र को हमेशा बारामती के चश्मे से देखते हैं. उन्हें लगता है कि किसानों की खुशहाली, सिंचाई, ज्यादा उत्पादन, फसल के बाद होने वाले प्रबंधन और कृषि प्रसंस्करण की सुविधाओं से आती है. इसका एक उदाहरण दुग्ध कोऑपरेटिव हैं. वे कहती हैं, 'दुधारू पशु खरीदने के लिए कर्ज से लेकर, दूध संग्रह केंद्रों और फिर वहां से शीतल संयंत्र और ब्रिटैनिया फैक्ट्री तक व्यवस्था में कोई खामी नहीं है.' भारत से यूरोपीय संघ को जितने अंगूरों का निर्यात होता है उनका 80 फीसदी हिस्सा महाराष्ट्र से आता है. बारामती में भारत की वाइन बनाने वाली पहली फैक्ट्री भी है. अंगूर की एक प्रजाति को तो वहां शरद सीडलेस नाम ही दे दिया गया है.

    इसमें कोई शक नहीं कि पवार का यह मॉडल, जिसे कृषि उत्पादन का वैज्ञानिक प्रबंधन भी कहा जाता है, बारामती में बहुत सफल रहा है. इसने बारामती को सूखाग्रस्त और निम्न आय वाले इलाके से बदलकर भारत के सबसे खुशहाल, सिंचित और औद्योगिक इलाकों में से एक बना दिया है. मगर बारामती एक छोटा-सा उदाहरण है जिसका पवार ने कुछ स्पष्ट वजहों से ख्याल रखा है और यह मॉडल पूरे देश में लागू करना बहुत मुश्किल है. ऐसे में सवाल उठता है कि फिर क्या किया जाए?

    देविंदर शर्मा इसका जवाब देते हुए कहते हैं, 'नई खेती.' वे बताते हैं कि आंध्र प्रदेश के 23 में से 21 जिलों में यह हो रही है. वहां तीन लाख किसानों ने इसे अपनाया है. वे न खाद का इस्तेमाल करते हैं न कीटनाशकों का. शर्मा कहते हैं, 'उत्पादन में कोई गिरावट नहीं आई है और फसलों में कीड़े लगने की समस्या भी कम हो गई है.' पिछले साल वहां सभी किसानों ने अपनी आय में बढ़ोतरी की बात कही. यही नहीं, अपने ही पैसे से किसान एक स्वसहायता समूह भी शुरू कर चुके हैं. शर्मा कहते हैं, 'क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि उसके खाते में पांच हजार करोड़ रुपए की रकम है?'

    गैरसरकारी संगठनों द्वारा शुरू किए गए इस प्रोजेक्ट, जिसे कम्यूनिटी मैनेज्ड सस्टेनेबल एग्रीकल्चर नाम दिया गया है, को आंध्र प्रदेश सरकार ने अधिग्रहीत कर लिया है. अब तो विश्व बैंक ने भी इसे समर्थन देना शुरू कर दिया है. शर्मा कहते हैं, 'यह नई खेती प्राकृतिक संसाधनों का नाश नहीं करती. न ही इससे भूमि के स्वास्थ्य, जलस्तर या आजीविका का विनाश होता है. यह ग्लोबल वार्मिग में और गरमी नहीं जोड़ती.' लेकिन पवार को इस नई खेती में कोई दिलचस्पी नहीं. शायद इसलिए क्योंकि यह नई खेती जीडीपी में कुछ नहीं जोड़ती. क्योंकि इसमें बड़ा कारोबार शामिल नहीं है. क्योंकि यह बाजार के लिए नहीं बल्कि पेट के लिए है.
  • हर किसी को चाहिए अपने-अपने नायक

    Posted: Mon, 24 May 2010 03:16:00 +0000
    दिलीप मंडल
    दिल्ली की सबसे ऊंची इमारत का नाम जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम पर रखा गया है। ये इमारत दिल्ली नगर निगम की है और इस समय दिल्ली नगर निगम में भारतीय जनता पार्टी का बहुमत है। इसलिए माना जा सकता है कि बीजेपी जिन लोगों से प्रेरणा लेती है और जिन्हें महान मानती है, उनके नाम पर किसी सरकारी इमारत का नाम रखने का उसे अधिकार है। इस बात पर न तो कांग्रेस ने सवाल उठाया है न ही वामपंथी दलों ने और न ही सपा, बसपा या राजद ने। सभी राजनीतिक पार्टियां इस राजनीतिक संस्कृति को मानती हैं कि सत्ता में होने के दौरान वे किसी सरकारी योजना या भवन, पार्क, सड़क, हवाई अड्डे या किसी भी संस्थान का नाम अपनी पसंद के किसी शख्स के नाम पर रख सकती हैं। इस मामले में राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति है। इसलिए जिस जनसंघ की विचारधारा और परंपरा से सेकुलर दलों को इतना परहेज है, उसके संस्थापक के नाम पर किसी सरकारी इमारत का नाम रखे जाने को लेकर कहीं किसी तरह का विवाद नहीं है।
    इस मामले में एकमात्र व्यतिक्रम या अपवाद या विवाद आंबेडकर और कांशीराम की स्मृति में बनाए गए पार्क और स्थल हैं। इस देश में हर दिन किसी न किसी नेता की स्मृति में कहीं न कहीं कोई शिलान्यास, कोई उद्घाटन या नामकरण होता है, लेकिन विवाद सिर्फ तभी होता है जब किसी दलित या वंचित नायक के नाम पर कोई काम किया जाता हो। ऐसा भी नहीं है कि विवाद सिर्फ तभी होता है, जब बहुजन समाज पार्टी किसी दलित नायक के नाम पर कोई काम करती है। कांग्रेस के शासनकाल में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम भीमराव आंबेडकर के नाम पर रखे जाने को लेकर कई दशकों तक हंगामा चला और कई बार विरोध ने हिंसा का रूप भी ले लिया। लगभग दो दशक तक नामांतर और नामांतर विरोधी  आंदोलन और हिंसा तथा आत्मदाह की घटनाओं के बाद जाकर 1994 में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बाबा साहब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय रखा जा सका। नामांतर विरोधी आंदोलन को लगभग सभी बड़े राजनीतिक दलों का खुला या प्रछन्न समर्थन हासिल था।
    नामांतर आंदोलन के बाद देश में इस तरह का सबसे बड़ा विवाद उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के शासन काल में बनाए जा रहे स्मारकों को लेकर है। इस विवाद में विरोधियों के पास मुख्य रूप में ये तर्क हैं कि उत्तर प्रदेश जैसे गरीब और पिछड़े राज्य में सरकार इतनी बड़ी रकम स्मारकों पर क्यों खर्च कर रही है। दूसरा तर्क ये दिया जाता है कि बहुजन समाज पार्टी सिर्फ अपनी विचारधारा के नायकों के नाम पर स्मारक क्यों बनवा रही है। यह आरोप भी लगाया जाता है बहुजन समाज पार्टी ये सब राजनीतिक फायदे के लिए कर रही है। ये सारे तर्क बेहद खोखले हैं। अगर इन्हें दूसरे दलों की सरकारों पर लागू करके देखा जाए, तो इनका खोखलापन साफ नजर आता है। राजघाट, गांधी स्मृति, शांति वन, वीर भूमि, शक्ति स्थल, तीनमूर्ति भवन, इंदिरा गांधी स्मृति, दीन दयाल उपाध्याय पार्क आदि-आदि हजारों स्मारकों पर आने वाले खर्च की अनदेखी करके ही बहुजन समाज पार्टी सरकार पर इस मामले में फिजूलखर्ची का आरोप लगाया जा सकता है। 
    कांग्रेस ने अपने पार्टी से जुड़े नायकों के नाम पर जो कुछ किया है, उस पर आए खर्च की बराबरी बहुजन समाज पार्टी शायद कभी नहीं कर पाएगी। इस देश में जितने गांधी पार्क और नेहरू पार्क हैं, उतने फुले, आंबेडकर और कांशीराम पार्क बीएसपी अगले कई दशक में नहीं बना पाएगी। ये बराबरी का मुकाबला नहीं है। बीजेपी भी अपने नायकों की प्रतिमाएं और स्मारक खड़े करने में पीछे नहीं है और ये सब सरकारी खर्च पर ही होता है। हेडगेवार, गोलवलकर, विनायक दामोदर सावरकर, दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम को चिरस्थायी बनाने की बीजेपी ने भी कम कोशिश नहीं की है। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर केंद्र सरकार का एक सूचना प्राद्योगिकी संस्थान ग्वालियर में है और हिमाचल प्रदेश में भी वाजपेयी के नाम पर एक माउंटेनियरिंग इंस्टिट्यूट है। अपने नायकों को स्थापित करने में कांग्रेस और बीजेपी की तुलना में समाजवादी पार्टी, आरजेडी, बीएसपी जैसी पार्टियां काफी पीछे हैं। देश के ज्यादातर सरकारी अस्पतालों, पार्कों, सड़कों, शिक्षा संस्थानों, पुलों, संग्रहालयों, चिड़ियाघरों पर कांग्रेस के नेताओं के नाम हैं और इस गढ़ में बीजेपी ने थोड़ी-बहुत सेंधमारी की है। ये संयोग हो सकता है कांग्रेस और बीजेपी जिन नायकों के नामों को चिरस्थायी बनाने के लिए उनके नाम पर कुछ करती है, उनमें लगभग सभी सवर्ण जातियों के हैं। जबकि बीएसपी ने जिन महापुरुषों के नाम पर स्मारक बनाए हैं, वे सभी अवर्ण हैं। सिर्फ इस एक बात को छोड़ दें तो कांग्रेस, बीजेपी और बीएसपी में कोई फर्क नहीं है।
    कुछ लोगों को इस बात पर एतराज हो सकता है कि गांधी और नेहरू जैसे नेताओं को खास जाति या पार्टी से जोड़कर बताया जा रहा है। यहां सवाल उठता है कि आंबेडकर जैसे विद्वान और संविधान निर्माता को दलित नेता के खांचे में फिट किया जाता है और उनके स्मारकों की अनदेखी की जाती है(दिल्ली में जिस मकान में रहने के दौरान उनका देहांत हुआ, उसके बारे में कितने लोग जानते हैं और इसकी तुलना गांधी स्मृति या तीन मूर्ति भवन से करके देखें) तो जाति के प्रश्न की अनदेखी कैसे की जा सकती है। एक विश्वविद्यालय का नाम आंबेडकर के नाम पर रखने के सरकार के फैसले को अगर दो दशक तक इसलिए लंबित रखा जाता हो कि कुछ लोग इसके खिलाफ हैं, तो इसकी जाति के अलावा और किस आधार पर व्याख्या हो सकती है? जाति भारतीय समाज की एक हकीकत है और जिसने जाति की प्रताड़ना या भेदभाव नहीं झेला है, वही कह सकता है कि भारत में जाति का असर नहीं है। जाति का अस्तित्व और उसके प्रभाव को संविधान भी मानता है और कानून भी। जो जाति को नहीं मानते, उन्हें भी कोई न कोई जाति अपना मानती है।
    ऐसे में सवाल सिर्फ इतना है कि गांधी, नेहरू, इंदिरा गांधी, हेडगेवार और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की स्मृति को जिंदा रखने में अगर कोई बुराई नहीं है तो फुले, शाहूजी महाराज, आंबेडकर, कांशीराम की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए प्रयास करने में कोई दोष कैसे निकाला जा सकता है? पिछड़ी और दलित जातियों के मुसलमानों के नायकों की भी स्थापना होनी चाहिए। बल्कि ये वे काम हैं, जो स्थगित थे और उन्हें अब पूरा किया जाना चाहिए। आखिर हर किसी को अपने नायक चाहिए। महाविमर्श के अंत के बाद अब कोई नायक हर किसी का नायक नहीं है। आज दलित और वंचित अपने नायकों की स्थापना कर रहे हैं। देश के लिए ये शुभ है। इससे घबराना नहीं चाहिए।         
  • 'जो इनसान हैं वे हमारा समर्थन करेंगे, राक्षस नहीं': टिकैत

    Posted: Sun, 23 May 2010 05:18:00 +0000
    बालियान खाप के चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत, रेयाज उल हक को बता रहे हैं कि सगोत्र में शादी की इजाजत देना उनकी नस्ल पर हमला है. इस बातचीत के कुछ अंश तहलका में प्रकाशित हुए हैं.
    अब तो केंद्र सरकार ने साफ कर दिया है कि वह हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन करने की मांग पर गौर नहीं करेगी. खाप पंचायतें अब क्या करेंगी?

    सरकार ने तो बोल दिया है, लेकिन जनता न तो चुप बैठेगी न भय खाएगी. जो आदमी मान-सम्मान, प्रतिष्ठा और मर्यादा के साथ जिंदगी जीना चाहे उसे जीने दिया जाए, हम यह चाहते हैं. सरकार को या किसी को भी जनता को एसा करने से रोकने का क्या अधिकार है? इस देश में गरीब और असहाय लोगों की प्रतिष्ठा को ही सब लूटना चाहते हैं. 'द्वार बंद होंगे नादार (गरीब) के लिए, द्वार खुलेंगे दिलदार के लिए'. आदमी इज्जत के लिए ही तो सबकुछ करता है. चाहे कोई भी इनसान हो, इज्जत से रहना चाहता है.

    लेकिन समाज बदलता भी तो है. प्रतिष्ठा और मर्यादा के पुराने मानक हमेशा नहीं बने रहते. आप इस बदलाव को क्यों रोकना चाहते हैं?

    तबदीली तो होती है, बहुत होती है. हमारे यहां भी बहुत तबदीली हुई. हमारी संस्कृति खत्म हो गई. हमारी देशी गाएं अब नहीं रहीं. हमारी जमीन बंजर हो गई. बस इनसान की नस्ल बची हुई है, उस पर भी धावा बोल दिया गया. अपनी नस्ल को भूल कर और उसे खत्म कर के कोई कैसे रह सकता है? और यह सारी बुराई रेडियो-टीवी ने पैदा की है.

    रेडियो-टीवी ने क्या असर डाला है?

    बहुत ही खराब. जहां बहन-भाई का भी रिश्ता सुरक्षित नहीं बना रहेगा, वहां इज्जत कैसे बचेगी? महर्षि दयानंद ने कहा था- सात पीढ़ियों को छोड़ कर रिश्ता होना चाहिए. लेकिन राजनीतिक पचड़ा इन बातों को बरबाद कर रहा है. हमारा मानना है कि इनसान का जीवन इनसान की तरह होना चाहिए. पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश के इलाकों में लोग इन नियमों का उल्लंघन बरदाश्त नहीं करेंगे.

    आप प्रेम विवाह के इतने खिलाफ क्यों हैं?

    लाज-लिहाज तो इसमें कुछ रह ही नहीं जाता. शादी मां-बाप की रजामंदी से हो, परिवार की रजामंदी से हो तो सब ठीक रहता है.

    लेकिन लोगों को अपनी मरजी से जीने और साथी चुनने का अधिकार तो है?

    अधिकार तो जरूर है. पशुओं से भी बदतर जिंदगी बना लो इनसान की, इसका अधिकार तो है आपको. लेकिन हम इसे बरदाश्त नहीं करेंगे कि हमारे रिवाजों और मर्यादा पर इस तरह हमला किया जाए.

    और मर्यादा के ये पुराने मानक इतने महत्वपूर्ण हैं कि इनके लिए हत्या तक जायज है?

    लज्जा, मान, धर्म रक्षा और प्राण रक्षा के लिए तो युधिष्ठिर तक ने कहा था कि झूठ बोलना जायज है. हम अपनी मर्यादा की रक्षा करना चाहते हैं और इसके लिए हम 23 तारीख (मई) को महापंचायत में बैठ रहे हैं जींद में. इसके बाद दिल्ली की लड़ाई होगी.

    आपकी इस लड़ाई में कितने लोग आपके साथ आएंगे? कितने समर्थन की उम्मीद कर रहे हैं आप?

    मुझे नहीं पता. मुझे कुछ पता नहीं.

    नवीन जिंदल और ओम प्रकाश चौटाला ने विवाह अधिनियम में संशोधन की मांग का समर्थन किया है. और कौन-कौन से लोग आपके साथ हैं?

    इनसान तो इसका समर्थन करेंगे. जो राक्षस हैं, वही हमारी इन मांगों का विरोध करेंगे. इस माहौल में कोई भी हो, चाहे गूजर हो, ठाकुर हो, वाल्मीकि हो, ब्राह्मण हो या हरिजन हो- एेसी शादियों को कोई भी मंजूर नहीं करेगा. कोई भी इसे बरदाश्त करने को तैयार नहीं है. इतने सब लोग एक साथ हैं.

    किसी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी ने अब तक आपको समर्थन नहीं दिया है. कोई पार्टी आपके संपर्क में है? आप किससे उम्मीद कर रहे हैं?

    पार्टी की बात नहीं है. यह राजनीतिक मुद्दा नहीं है. यह एक सामाजिक मुद्दा है और इसमें सब साथ आएंगे. वैसे हम किसी (पार्टी) के समर्थन के भरोसे नहीं बैठे हैं. हम आजाद हैं और सरकार को हमारी सुननी पड़ेगी.

    लेकिन अब तक तो सरकार आपसे सहमत नहीं दिखती. अगर उसने नहीं सुना तो आपकी आगे की रणनीति क्या होगी?

    वह नहीं मानेगी तो हम देखेंगे. हमारी क्षमता है लड़ाई लड़ने की और हम लड़ेंगे. मरते दम तक लड़ेंगे. (प्रधानमंत्री) मनमोहन सिंह का भी तो कोई गोत्र है. (हरियाणा के मुख्यमंत्री) हुड्डा का भी तो गोत्र है. क्या वे इसे मान लेंगे कि गोत्र में शादी करना जायज है?

    देश के उन इलाकों में भी जहां गोत्र में शादी पर रोक रही है, अब यह उतना संवेदनशील मामला नहीं रह गया है. वहां से एसी कोई मांग नहीं उठी है. फिर खाप पंचायतें इसे लेकर इतनी संवेदनशील क्यों हैं?

    तमिलनाडू और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में तो भांजी के साथ शादी जायज है. हम उसके खिलाफ नहीं हैं. हमारा कहना है कि जहां जैसा चलन है वहां वैसा चलने दो. जहां नहीं है, वहां नई बात नहीं चल सकती. बिना काम के किसी बात को छेड़ना, कान को छेड़ना और मशीन के किसी पुरजे को छेड़ना नुकसानदायक है.
  • महिला आरक्षण और राजनीति के क्षेत्र में व्यभिचार

    Posted: Sun, 23 May 2010 03:10:00 +0000

    दिलीप मंडल
    राजनीति के क्षेत्र में महिला आरक्षण का उप-उत्पाद (बाइ प्रोडक्ट) नेताओं के यौन भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी की शक्ल में नजर आ सकता है। भारतीय राजनीति में यौन भ्रष्टाचार का पक्ष अक्सर दबा दिया जाता है, जबकि राजनीति का यह एक अभिन्न अंग रहा है। इसकी सार्वजनिक चर्चा अक्सर नहीं होती, लेकिन इसके बारे में सभी जानते हैं। इसे भारतीय राजनीति का सर्वज्ञात रहस्य भी कहा जा सकता है। ये ऐसा कदाचार है जो मोहल्ला और पंचायत स्तर से लेकर राजनीति के शिखर पर मौजूद है।
    भारत में सत्ता यानी पावर के साथ हरम और भरे पूरे रनिवास की अवधारणा पुरानी है और भारतीय राजनीति कम से कम इस मायने में समय के साथ नहीं बदली है। लोगों की मानसिकता ऐसी बना दी गई है प्रभावशाली लोगों के यौन कदाचार को बुरा भी नहीं माना जाता और नेताओं के कई स्त्रियों के साथ यौन संबंधों को उनके शक्तिशाली होने के प्रमाण के तौर पर देखा जाता है। एकनिष्ठता की भारतीय अवधारणा महिलाओं पर तो लागू होती है पर पुरुषों पर लागू नहीं होती। हिंदू धर्म की किताबें बताती हैं कि –"पत्नी को दुश्चरित्र पति का त्याग नहीं करना चाहिए, प्रत्युत अपने पातिव्रत धर्म का पालन करते हुए उसको समझाना चाहिए।"[i] हिंदू संस्कृति व्यभिचार का किस हद तक समर्थन करती है, इसे जानने के लिए ये प्रश्नोत्तर पढ़ें:-
    "प्रश्न- यदि कोई विवाहिता स्त्री से बलात्कार करे और गर्भ रह जाए तो क्या करना चाहिए?
    उत्तर- जहां तक बन पड़े स्त्री के लिए चुप रहना ही बढ़िया है। पति को पता चल जाए तो उसको भी चुप रहना चाहिए। दोनों के चुप रहने में ही फायदा है।"[ii]
    पश्चिमी समाजों के मुकाबले भारतीय समाज में अनैतिक होने की कई गुना ज्यादा छूट है। यहां की सनातनी शास्त्रीय परंपराओं में बेटी, बहन, गुरुपत्नी आदि के साथ रिश्ते बनाने की मान्यता रही है। हिंदू धर्मग्रंथों को पढ़ें तो कभी किसी महिला को खीर खिलाने से बच्चा पैदा हो जाता है तो किसी के पसीने की बूंद मुंह में गिरने से गर्भ ठहर जाता है, तो किसी का दर्शन ही कोई महिला गर्भवती होने का कारण बन जाता है। संतानों के लिए यज्ञ कराने का मतलब आप सहज ही समझ सकते हैं। आजकल भी बाबा लोग बेऔलाद दंपतियों को संतान दिलाने के लिए स्पेशल पूजा कराते रहते हैं। ऐसे अनैतिक किस्सों से उत्तर वैदिक धर्मग्रंथ भरे पड़े हैं। खजुराहो से लेकर कोणार्क और देश भर के सैकड़ों मंदिर इन अनौतिक कहानियों के गवाह हैं। यूरोप या अमेरिका जैसी नैतिकता अगर भारतीय समाज के प्रभुवर्ग में होती, तो कई नेताओं को राजनीति छोड़नी पड़ती। यूरोपीय और अमेरिकी देशो में यौन विचलन के लिए नेताओं को सत्ता गंवानी पडी है, लेकिन भारत में एक नारायणदत्त तिवारी को छोड़कर ऐसी कोई और मिसाल नहीं मिलती। हमारे देश के प्रभुवर्ग में यौन शुचिता को लेकर आग्रह नहीं है। दुखद ये है कि आम जन में भी ऐसा आग्रह नहीं है।
    ऐसे भारतीय समाज और राजनीति में अगर महिला आरक्षण लागू होता है तो यह यौन कदाचार को बढ़ावा देने का एक और माध्यम बन सकता है। आखिर इस बात से कैसे इनकार किया जा सकता है कि भारत में राजनीतिक दलों का स्वरूप पुरुष प्रधान है और महिला आरक्षण लागू होने के बाद भी ये बदलने वाला नहीं है? अगर राजनीतिक दलों में नैतिकता होती और वे सचमुच महिलाओं का भला चाहते तो पार्टी की संरचना में महिलाओं को स्थान दे सकते थे। इसके लिए न तो कानून बनाने की जरूरत है और न ही संविधान को बदलने की। पुरुष प्रधान राजनीतिक संरचना में जब आरक्षण की वजह से बड़ी संख्या में महिलाओं को टिकट देने की बारी आएगी, तो इसके खतरे समझे जा सकते हैं। महिलाओं का सशक्तिकरण अगर नीचे से होता, तो उनके शोषण के खतरे कम होते। किसी महिला का सशक्त होना उसे यौन संबंधों की दृष्टि से भी स्वतंत्र बनाता है। लेकिन महिला आरक्षण के समर्थन ये नहीं मानते कि पहले महिलाओं को आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक रूप से समर्थ बनाया जाए। ऐसा होने के बाद महिला आरक्षण की जरूरत ही क्यों होगी?
    साथ ही महिलाओं का आर्थिक रूप से समर्थ बनाए बगैर उन्हें बेहद खर्चीले चुनाव में झोंक देना भी उन्हें पुरुष सत्ता की शरण में जाने को बाध्य करेगा। जिस देश में संपत्ति में महिलाओं की नाम मात्र की हिस्सेदारी हो वहां महिला उम्मीदवार करोड़ों का चुनाव खर्च कहां से निकालेंगी। राजनीति में पैसा अब कितना महत्वपूर्ण हो गया है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस समय देश की लोकसभा में 306 करोड़पति सांसद हैं जबकि राज्यसभा में 54 % सासंद करोड़पति हैं।[iii] बड़े राजनीतिक दलों के लिए लोकसभा चुनाव लड़ने का औसत खर्च प्रति सीट चार करोड़ रुपए से ऊपर पहुंच गया है। ऐसे में महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण के बिना उनका राजनीतिक सशक्तिकरण स्वाभाविक रूप से कैसे मुमकिन है? इसलिए सबसे पहले तो ये जरूरी है कि उत्तराधिकार में महिलाओं को वास्तविक अर्थों में बराबरी दी जाए, क्योंकि कागजी बराबरी का कोई मतलब नहीं है। जमीन और घरों के सभी पट्टों और रजिस्ट्री में महिलाओं के नाम होने को अनिवार्य बनाया जाए।
    बहरहाल, इस बात को लेकर कोई सदेह नहीं हो सकता कि महिला आरक्षण विधेयक, महिला सशक्तिकरण को ऊपर से थोपने का जरिया है। इसे स्वाभाविक प्रक्रिया तभी कहा जाएगा जब देश में महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक  और शैक्षणिक स्थिति बदले और इसका असर संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की संख्या की शक्ल में नजर आए। जिस देश में जमीन के मालिकों में सिर्फ 9.5 फीसदी महिलाएं हों[iv], उस समाज के एक हिस्से में महिलाओं के राजनीतिक आरक्षण को लेकर जो उत्साह और उल्लास का भाव नजर आ रहा है, वह आश्चर्यजनक है। जमीन के मालिकाने का ये आंकड़ा भी सिर्फ कागज पर ही है क्योंकि महिलाएं बेशक जमीन का इस्तेमाल कर लें, लेकिन ग्रामीण भारत में ऐसे मौके बिरले ही आते हैं जब कोई महिला अपनी मर्जी से जमीन बेच पाती हो। अगर कोई महिला पैत्रिक संपत्ति पर दावा करे और इसके लिए अदालत जाए, तो उसे भद्र महिला नहीं माना जाता। [v]
    जो लोग, नेता और बुद्धिजीवी महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए इतने उद्धत और उत्साहित हैं, वे अपने परिवारों में संपत्ति के उत्तराधिकार को लेकर भी यही उत्साह दिखाते, तो समाज में कमजोर तबकों और वंचितों को भी रास्ता दिख जाता। इस तरह समाज में व्यापक तौर पर महिलाओं की हालत बेहतर होने का रास्ता खुलता। यह बहुत गंभीर सवाल है कि कोचिंग सेंटरों में बेटों को भेजने के लिए जो उत्साह समाज में दिखता है, वो बेटियों के मामले में नजर क्यों नहीं आता? महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण देने से पहले, ऐसे कई सवाल हल होने चाहिए क्योंकि इन सवालों का संदर्भ और असर कुछ महिलाओं के संसद और विधानसभाओं में पहुंचने की तुलना में कई गुना बड़ा है। दशकों से सीबीएससी और बारहवीं के तमाम बोर्ड इम्तहानों में लड़कों से बेहतर रिजल्ट लाने वाली लड़कियां आईआईटी, आईआईएम, और देश की तमाम और शिखर संस्थाओं और कोर्स में क्यों नजर नहीं आतीं, इसका जवाब मांगा जाना चाहिए। अगर समाज में प्रचलित पुत्र-मोह इसमें बाधक है तो सरकार इन शिक्षा संस्थाओं में आरक्षण का प्रावधान लाकर सकारात्मक हस्तक्षेप कर सकती है।
    महिलाओं की स्थिति अगर आज भी बुरी है, तो इसके कारणों की शिनाख्त होनी चाहिए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महिला आरक्षण विधेयक पर राज्य सभा में चर्चा के दौरान ये माना कि "विकास प्रक्रिया का लाभ उठाने में महिलाओं को दिक्कत होती है। परिवारों में उनके साथ भेदभाव होता है, मारपीट होती है। शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा के मामले में उनके साथ पक्षपात किया जाता है।"[vi] अब इस बात की चर्चा होनी चाहिए कि समाज ही नहीं, लोकतांत्रिक देश का कानून भी किस तरह महिलाओं को वंचित बनाए रखने में भूमिका निभाता है। हिंदुओं के उत्तराधिकार से जुड़े कानून महिलाओं के खिलाफ झुके हुए हैं। कॉरपोरेट जगत में चेयरमैन और प्रेसिडेंट जैसे शिखर पदों पर महिलाएं लगभग अनुपस्थित हैं। कई उद्योगपति परिवारों में पुत्र न होने पर संपत्ति भतीजे या भांजे या दामाद को या फिर दत्तक पुत्र को स्थानांतरित कर दी गई। आम भारतीय परिवारों में भी ऐसा होना बेहद आम है। लेकिन इस चलन को बदला जाए, इसकी कोई कोशिश नहीं की जाती। मठों और आश्रमों की अकूत संपत्ति पर महिलाओं का भी अधिकार हो, इसकी कोई पहल धार्मिक नेतृत्व, समाज या सरकार की तरफ से आज तक नहीं हुई है।
    देश में महिलाओं की साक्षरता दर कम है[vii] और स्कूलों में लड़कियों का ड्रॉपआउट रेट ज्यादा है, लेकिन ऐसी समस्याओं को अब तक ठीक नहीं किया जा सका है। शिशु मृत्यु के मामले में आंकड़े लड़कियों के खिलाफ झुके हुए हैं, जबकि वैश्विक आंकड़ा और चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक बालकों की तुलना में बालिकाओं में जीवनी शक्ति ज्यादा होती है। महिलाओं के प्रति समाज के नजरिए का ही असर है कि इस देश में प्रति 1000 पुरुष 933 महिलाएं हें।[viii] महिलाओं को संसद और विधानसभाओं में लाने से पहले ऐसे सैकड़ों कार्यभार हो सकते हैं, जिन्हें भारत की राजसत्ता और भारतीय समाज को पूरा करना चाहिए। नौकरशाही में महिलाओं की पर्याप्त उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए यूपीएससी को तमाम नियुक्तियों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करनी चाहिए। शैक्षणिक पदों पर भी महिलाएं अच्छी संख्या में नजर आएं, इसके लिए शिक्षा विभागों और यूजीसी को आरक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए। महिलाओं के इस तरह के सशक्तिकरण और आरक्षण का विरोध कोई भी राजनीतिक दल नहीं करेगा और इस तरह की आम सहमति बनाने में मुश्किल नहीं होनी चाहिए। महिला सशक्तिकरण के कई रास्ते हैं। महिला आरक्षण विधेयक अगर उनमें से एक होता तो शायद इसे लेकर संदेह पैदा नहीं होता। लेकिन अब ये विधेयक और इसे लेकर राजनीतिक दलों की नीयत संदेह के घेरे में है।
    महिला आरक्षण से महिलाओं का भला कैसे होगा?
    सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं का सशक्तिकरण किए बगैर अगर ढेर सारी महिलाएं सांसद और विधानसभाओं में आ भी जाती हैं, तो इससे महिलाओं की हालत कैसे बदलेगी, ये सरकार या महिला आरक्षण के बता नहीं रहे हैं। संसद और विधानसभाओं में दलितों और आदिवासियों को आरक्षण तो संविधान लागू होने के साथ ही हासिल है। लेकिन क्या दलितों और आदिवासियों की विधायिका में उपस्थिति से इन समुदायों का कोई भला हो पाया है? सवर्ण हिंदुओं और दलितों के बीच हुए पूना पैक्ट के आधार पर दिए गए इस आरक्षण का आगे चलकर खुद आंबेडकर ने विरोध किया था और इसे निरर्थक करार दिया था।[ix]  कई दलित संगठन ये मांग कर रहे हैं कि ये आरक्षण खत्म किया जाए और ऐसी व्यवस्था की जाए कि ये समुदाय अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करें। पूना पैक्ट की बहस में आंबेडकर यही पक्ष रख रहे थे। अभी जो व्यववस्था देश में चल रही है, उसमें दलित और आदिवासी नेता संसद और विधानसभाओं में रिजर्वेशन की वजह से चुनकर आ तो जाते हैं, लेकिन वो अपने समुदायों के मुद्दे उठाने में समर्थ नहीं हैं। वर्तमान व्यवस्था के तहत किसी दलित या आदिवासी नेता का चुना जाना दलितों या आदिवासियों की मर्जी से नहीं होता। चुने जाने के लिए अक्सर वे किसी दल पर निर्भर होते हैं, और उनका चुना जाना किस न किसी सामाजिक-राजनीतिक समीकरण का नतीजा होता है। किसी भी आरक्षित चुनाव क्षेत्र में गैर-दलित मतदाता किसी दलित नेता का चुनाव कर सकते हैं।[x]
    भारतीय लोकतंत्र में विधायी मामलों में सांसद या विधायक की व्यक्तिगत राय का कोई मतलब नहीं होता। कानून बनाने और संसद या विधानसभा के अंदर नेताओं का अन्य कार्य व्यवहार व्यक्तिगत नहीं, दलगत स्तर पर तय होता है। दलबदल निरोधक कानून[xi] और ह्विप की सख्ती के बीच कोई सांसद या विधायक अपने मन या विचार से कोई विधायी कदम नहीं उठा सकता। दलित और आदिवासी सांसद/विधायक अपने समुदायों के लिए अपने मन या विचार से कुछ नहीं कर सकते और महिलाएं भी इस नाते कुछ अलग नहीं कर पाएंगी कि वे महिला आरक्षण विधेयक की वजह से चुनकर आ गई हैं।  इस तर्क में दम नहीं है कि महिला सांसद और विधायक महिलाओं के हित में कानून बनाएंगी क्योंकि इस तर्क का विस्तार ये होना चाहिए कि दलित और आदिवासी सांसद/विधायक दलित और आदिवासी हितों के लिए कानून बनाएंगे। हम सब जानते हैं कि हकीकत ऐसी नहीं है।
    फिर क्यों दिया जा रहा है महिलाओं को आरक्षण
    महिला आरक्षण विधेयक कोई सामान्य विधेयक नहीं है। इसका संदर्भ और इसका असर बेहद गहरा है। आजादी के बाद से भारतीय विधायिका यानी कानून बनाने वाली संस्थाओं के स्वरूप में बदलाव लाने की ये सबसे बड़ी कोशिश है। ये विधेयक भारतीय संविधान को बुनियादी रूप से बदलने में सक्षम है। इसलिए इस मुद्दे पर आम सहमति की भेड़चाल को तोड़ने और गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। महिला आरक्षण पर मीडिया और राजनीतिक विमर्श में जिस तरह से आम सहमति की क्षद्म खड़ा किया जा रहा है उसे मीडिया विश्लेषकों की भाषा में मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट[xii] कहते हैं। इस विधेयक के दूरगामी असर को देखते हुए ये आवश्यक है कि असहमति के खतरे उठाए जाएं, क्योंकि इस बात का जोखिम  है कि भारतीय लोकतंत्र ने सामाजिक विविधता के क्षेत्र में पिछले साठ साल में जो थोड़ी-बहुत उपलब्धि हासिल की है, उसे इस विधेयक के जरिए बेअसर किया जा सकता है। आखिर इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि महिला सशक्तिकरण के लिए उन संस्थाओं (लोकसभा और विधानसभाओं) को चुना गया है, जो सामाजिक विविधता का सबसे बड़ा मंच बन गए हैं। 

    राजनीति के क्षेत्र में आई सामाजिक विविधता से कौन डरता है?

    महिला आरक्षण विधेयक क्या समाज के कमजोर हिस्से के सशक्तिकरण का कानून है? महिला आरक्षण के जरिए सरकार विधायिका यानी कानून बनाने वाली संस्थाओं में जेंडर डायवर्सिटी यानी लैंगिक आधार पर विविधता लाना चाहती है। इसके लिए कानून बनाने (109वां संविधान संशोधन विधेयक) की प्रक्रिया चल पड़ी है। इसे लेकर कांग्रेस-बीजेपी और वामपंथी दलों के बीच नेतृत्व के स्तर पर जिस तरह की सहमति है, उसमें इस विधेयक के कानून बनने में कोई अड़चन नहीं है। लेकिन क्या विधायिका में जेंडर डायवर्सिटी लाने की ये कोशिश सोशल डायवर्सिटी (सामाजिक विविधता) को खत्म करके या कमजोर करके आगे बढ़ेगी? 

    कांग्रेस-बीजेपी और वामपंथी दलों में महिलाओं के राजनीतिक आरक्षण को लेकर नजर आ रहे उत्साह का कारण क्या है? ये सवाल इसलिए भी पूछा जाना चाहिए क्योंकि इन दलों की आंतरिक संरचना में महिलाओं की स्थिति बुरी है। ये पार्टियां चुनावों में महिलाओं को टिकट नहीं देतीं। कैबिनेट में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं देतीं। राज्यसभा में चुनकर आने के लिए पार्टियों की इच्छा सबसे बड़ा मापदंड है। यदि ये दल महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण को लेकर गंभीर होते तो राज्यसभा में अच्छी संख्या में महिलाओं को पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता। लेकिन 2010 के राज्यसभा के आंकड़े बताते हैं कि इस सदन में सिर्फ 9 फीसदी महिलाएं हैं। कांग्रेस की 13 फीसदी, बीजेपी की 9 फीसदी, सीपीएम की 7 फीसदी और सीपीआई की शून्य फीसदी सांसद महिलाएं हैं।[xiii] महिलाओं को लोकसभा और विधानसभाओं में लाने के लिए इतनी बुरी तरह तत्पर दिख रही पार्टियां, राज्यसभा में उन्हें बेहतर प्रतिनिधित्व देने की कोशिश क्यों नहीं करतीं? इसके लिए तो किसी संविधान संशोधन या कानून पास करने की भी जरूरत नहीं है। किसी पार्टी को ऐसा करने से कोई रोक भी नहीं सकता। इसके लिए न मार्शल की जरूरत है न आम सहमति बनाने की। लोकसभा में चुनकर आने में महिलाओं को होने वाली कोई भी दिक्कत यहां लागू नहीं होती। लेकिन कांग्रेस-बीजेपी और वामपंथी दल राज्यसभा में 33 फीसदी महिलाओं को नहीं भेज रहे हैं।
    जाहिर है कि महिला सशक्तिकरण के नाम पर महिला आरक्षण विधेयक लाया तो जरूर गया है, लेकिन इसका मकसद कुछ और हो सकता है। कहीं इसका मकसद आजादी के बाद विधानसभाओं और लोकसभा की सामाजिक संरचना में आए बदलाव को खत्म करना तो नहीं हैं? ओबीसी जातियों का लोकसभा और विधानसभाओं में बड़े पैमाने पर आना साठ के दशक में शुरू हुआ और नब्बे के दशक के बाद ये प्रक्रिया एक तरह से पूरी हो गई। इसी दौरान इन सदनों में सवर्णों और खासकर ब्राह्मण सदस्यों की संख्या घटती चली गई। भारत का संविधान बनाने का दायित्व जिस संविधान सभा ने संभाला था, उसके 20 सदस्यीय कोर ग्रुप में 13 सदस्य ब्राह्मण थे।[xiv] 1951 में पहली लोकसभा के लिए चुने गए सांसदों में लगभग आधे ब्राह्रण थे। 2004 में यह संख्या घटकर 9.5 फीसदी रह गई।[xv] वहीं वर्तमान में ओबीसी सांसदों की संख्या 200 से ज्यादा है।[xvi]महिला आरक्षण विधेयक पर राज्यसभा में चर्चा के दौरान ये बताया गया कि पहली लोकसभा में ओबीसी सांसदों की संख्या 12 फीसदी थी, जो अब बढ़कर 30 फीसदी हो गई है।[xvii]
    ऐसे आरोप लगाए जा रहे हैं कि लोकसभा और विधानसभाओं में पिछड़ी जातियों की बढ़ती उपस्थिति को महिला आरक्षण विधेयक के जरिए नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है। राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक पर चर्चा के दौरान बहुजन समाज पार्टी के सतीश चंद्र मिश्र ने यह सवाल उठाया। सरकार और प्रमुख विपक्षी दलों की नीयत को लेकर संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं। यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि क्या इस बिल के पास होने के बाद पहले से ही कम संख्या में नौजूद मुस्लिम सांसदों और विधायकों की संख्या और कम हो जाएगी। 2001 की जनगणना के मुताबिक देश की आबादी में 13.4 फीसदी मुस्लिम हैं।[xviii] इतनी संख्या के हिसाब से लोकसभा में 72 मुस्लिम सांसद होने चाहिए। जबकि वर्तमान लोकसभा में सिर्फ 28 मुस्लिम सांसद हैं।

    महिला आरक्षण से जुड़ा सबसे बड़ा राजनीतिक प्रश्न है कि क्या ये कानून विधायिका यानी संसद और विधानमंडलों की सामाजिक विविधता को नष्ट करेगा। इसी की व्याख्या के क्रम में ये बातें आ रही है कि भारत की सामाजिक विविधता, जो आजादी के बाद शुरुआती लोकसभाओं में नजर नहीं आई थी और अगड़े जाति समूहों का वर्चस्व विधायिका पर था, वहां से देश अब काफी आगे बढ़ चुका है। इस समय महिला आरक्षण का विरोध जिन आधारों पर किया जा रहा है, उसका प्रमुख तर्क यही है कि महिला आरक्षण राजनीतिक क्षेत्र में दशकों के सामाजिक बदलाव और पिछड़ा उभार को फिर से नकार देगा और संसद का चरित्र एक बार फिर वैसा हो जाएगा, जैसा पिछड़ा उभार से पहले था। इस तर्क की अपनी कमजोरियां हैं और पंचायतों का अनुभव भी बताता है कि वोट के आधार पर जब चुनने या खारिज करने के फैसले होंगे तो उसमें संख्या का महत्व खत्म नहीं होगा। किसी सीट पर किसी जाति समूह या जातियों और धार्मिक समूहों का समीकरण अगर प्रभावशाली है तो उस सीट पर उस समीकरण का उम्मीदवार सिर्फ इसलिए नहीं हार जाएगा कि वो सीट महिलाओं के लिए रिजर्व हो गई है। लेकिन शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समूहों को शुरुआती दौर में कुछ दिक्कतें जरूर आएंगी क्योंकि शैक्षणिक पिछड़ेपन की वजह से इन समूहों की महिलाओं को न सिर्फ चुने जाने में दिक्कत होगी बल्कि राजकाज के बाकी काम करने में भी उन्हें शुरू में कुछ  असुविधा हो सकती है।   

    क्यों एक हो गई कांग्रेस, बीजेपी और वामपंथी पार्टियां

    महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के दिन संसद भवन से एक रोचक तस्वीर आई। इस तस्वीर में बीजेपी नेता सुषमा स्वराज, नजमा हेपतुल्ला और सीपीएम नेता वृंदा कारात गले मिल रही हैं और साझा खुशी का खुलकर इजहार कर रही हैं। वैसे तो तीन महिला नेताओं के मिलकर खुश होने में किसी को भी एतराज क्यों होना चाहिए, लेकिन बीजेपी और सीपीएम की इस खुशी में अगर कांग्रेस भी शामिल हो जाए तो संदेह होना चाहिए कि आखिर हो क्या रहा है। ज्यादातर सवालों में मतभेद रखने वाले इन दलों के दिल आखिर महिला आरक्षण के मुद्दे पर एक साथ क्यों धड़क रहे हैं? महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर इन दलों के अपने रिकॉर्ड बेहद शर्मनाक हैं। राज्यसभा में सिर्फ 9 फीसदी महिला सासंदों का होना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि ये दल, मूल रूप से, महिला विरोधी हैं।

    महिला आरक्षण का विधेयक लंबे समय से लंबित चला आ रहा है, लेकिन इस पर कभी विस्तार से बहस नहीं हुई। यहां तक कि राज्यसभा में इसे लगभग जबर्दस्ती पास कराया गया। इससे पहले सात सांसदों को पूरे बजट सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया क्योंकि उन्होंने एक दिन पहले महिला आरक्षण विधेयक की कॉपी फाड़ दी थी और सभापति के टेबल से कागज फेंक दिए थे। राज्यसभा के इतिहास में पहली बार मार्शल का इस्तेमाल करके सांसदों को सदन के बाहर फेंक दिया गया। जनहित के सैकड़ों अन्य मुद्दों पर न तो दलों के बीच ऐसी एकता दिखती है न ही ऐसा जोश। महिला आरक्षण विधेयक इस मामले में असामान्य है, कि इसने कांग्रेस, बीजेपी और वामपंथी दलों को एक कर दिया है। इस व्यापक एकता के सूत्र इन दलों के नेतृत्व की सामाजिक संरचना में छिपे हो सकते हैं।

    इस समय भारतीय राजनीति में इन तीनों समूहों के शिखर पर सवर्ण हावी हैं। कांग्रेस में शिखर पर मौजूद तीन नेता- अध्यक्ष सोनिया गांधी (राजीव गांधी से शादी के बाद उन्हें ब्राह्मण मान लिया गया), प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और प्रणव मुखर्जी सवर्ण हैं। बीजेपी में अध्यक्ष नितिन गडकरी, लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली, तीनों ब्राह्मण हैं। सीपीएम और सीपीआई के नेतृत्व में ब्राह्मण और सवर्ण वर्चस्व तो कभी सवालों के दायरे में भी नहीं रहा। कारात, येचुरी, पांधे, वर्धन, बुद्धदेव की पूरी कतार वामपंथी दलों के नेतृत्व में सामाजिक विविधता के अभाव का प्रमाण है। महिला आरक्षण पर इन तीनों दलों/समूहों के बीच एकता के सूत्र इन दलों के शिखर नेतृत्व की सामाजिक बनावट में तलाश किए जा सकते हैं।


       




    [i] गृहस्थ में कैसे रहें(54वां पुन:प्रकाशन), स्वामी रामसुखदास, गीताप्रेस, पेज 72
    [ii]  वही, पेज 92
    [iii] नेशनल इलेक्शन वाच की रिपोर्ट
    [iv]  संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन, जेंडर एंड लैंड राइट डाटाबेस (http://www.fao.org/gender/landrights/report/)
    [v] वही
    [vi] राज्यसभा में 9 मार्च, 2010 की कार्यवाही
    [vii] 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में साक्षरता दर 65.38% है जबकि महिलाओं की साक्षरता दर 54.16% ही है।
    [viii] 2001 की जनगणना का आंकड़े, संयुक्त राष्ट्र ने सन 2000 में कहा था कि भारत में 4.4 करोड़ महिलाएं विलुप्त हो गई हैं।
    [ix] "पूना पैक्ट के फलस्वरूप अधिक सीटों की प्राप्ति हुई, पर ये सभी गुलामों द्वारा भरी गई हैं। यदि गुलामों की पलटन से कोई लाभ है, तो पूना पैक्ट को लाभप्रद कहा जा सकता है"- डॉ अंबेडकर (डा. हरिनारायण ठाकुर के 'बहुरि नहिं आवना' पत्रिका के जुलाई-दिसंबर अंक में छपे आलेख से)
    [x]  क्रिस्टोफ जेफरेलोट, डॉ. अंबेडकर एंड अनटचेबिलिटी, एनालाइजिंग एंड फाइटिंग कास्ट (2005)
    [xi] संविधान की दसवीं अनुसूचि, (संविधान के 91वें संशोधन के बाद)
    [xii] एचवर्ड एस हरमन, नोम चोमस्की (2008)
    [xiii] नेशनल इलेक्शन वाच की रिपोर्ट, राज्यसभा के सांसदों की विश्लेषण, 2010
    [xiv]आउटलुक, 4 जून, 2007 http://www.outlookindia.com/article.aspx?234779
    [xv]आउटलुक, 4 जून 2007  http://www.outlookindia.com/article.aspx?234783
    [xvii]  9 मार्च, 2010 को राज्यसभा में जेडी यू सांसद शिवानंद तिवारी का वक्तव्य, राज्यसभा की कार्यवाही से


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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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