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Friday, April 6, 2012

लाल की उदास शाम में नीली रोशनी से भीगी है ये फिल्‍म!

http://mohallalive.com/2012/04/06/excalibur-stevens-biswas-on-jai-bhim-comrade/

 आमुखसिनेमा

लाल की उदास शाम में नीली रोशनी से भीगी है ये फिल्‍म!

6 APRIL 2012 NO COMMENT

♦ एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


जय भीम कॉमरेड का पोस्‍टर


विलास घोगरे


शीतल, कबीर कला मंच

प्रख्यात फिल्मकार आनंद पटवर्धन की भारतीय दलितों पर आधारित वृत्तचित्र फिल्म "जय भीम, कॉमरेड" चौंकाने वाला आंकड़ा पेश करती है। इस फिल्म के मुताबिक रोजाना दो दलितों के साथ दुष्कर्म की घटना होती है, तो तीन की हत्या होती है। हमेशा आनंद पटवर्धन को वही पंगा लेना पड़ता है। गौरतलब है कि आनंद पटवर्धन एक ख्याति प्राप्त फिल्मकार हैं। खास कर गंभीर सवाल खड़े करने वाली उनकी फिल्में अक्सर विवादों में घिर जाती है। आडवाणी की रथयात्रा पर उन्होंने डाक्यूमेंट्री फिल्म बनायी थी, राम के नाम, जो तमाम विवादों के बाद प्रदर्शित हो पायी। ऐसे ही 2005 में आयी उनकी 'जंग और अमन' को भी ढेरों विरोध का सामना करना पड़ा था। फिल्म में परमाणु हथियार और युद्ध के खतरों के बीच उग्रवाद और कट्टरपंथी राष्ट्रवाद के बीच संबंध तलाशने की कोशिश की गयी थी।

फिल्मकार आनंद पटवर्धन की दलित मुद्दों पर बनी डाक्यूमेंट्री फिल्म 'जय भीम कॉमरेड' ने साउथ एशिया के बेस्ट फिल्म का खिताब जीता है। पिछले हफ्ते कठमांडू में चार दिनों तक चले कार्यक्रम में उनकी फिल्म को रामबहादुर ट्राफी दिया गया।

इस फिल्म के बारे में पटवर्धन का कहना है कि यह फिल्म निजी कारण से उनके दिल के बहुत करीब है। उन्होंने कहा कि इस फिल्म को बनाने का कारण उनका एक दोस्त था, जिसने 97 की उस घटना के बाद खुद को फांसी लगा ली थी। पटवर्धन के मुताबिक फिल्म में घटना के बाद की सारी परिस्थितियों के बारे में दिखाया गया है। आत्महत्या करते समय विलास ने अपने सिर पर लाल झंडा नहीं बल्कि नीला रिबन लपेट लिया। विचारधारा का यह सांकेतिक स्थानापन्न लगभग संदेश और सीख की तरह प्रेषित होता है। संदेश उनके लिए जो गरीबी की करुण कहानी जीते हैं और सीख उनके लिए जो सर्वहारा के हितैषी तो हैं लेकिन भारतीय सर्वहारा की सामाजिक-सांस्कृतिक अवस्थितियों के बजाय वर्ग-संघर्ष के आर्थिक आधारों पर ही टिके रहे।

3 घंटे 20 मिनट की इस लंबी फिल्म में महाराष्ट्र में दलित एक्टिविज्म को दिखाया गया है। पटवर्धन की इस फिल्म ने 35 अन्य फिल्मों को पीछे छोड़ते हुए यह खिताब जीता। पुरस्कार स्वरूप उन्हें दो हजार अमेरिकी डालर मिला है। इस फिल्म में भारतीय समाज में वर्ण के आधार पर बंटी जाति की सच्चाई दिखाने की कोशिश की गयी है।

इस फिल्म की शुरुआत 11 जुलाई 1997 के उस दिन से होती है, जब अंबेडकर की प्रतिमा को अपवित्र किये जाने की घटना के विरोध में 10 दलित इकट्ठे होते हैं और मुंबई पुलिस उन्हें मार गिराती है। इस हत्याकांड के छह दिन बाद अपने समुदाय के लोगों के दर्द व दुख से आहत दलित गायक, कवि व कार्यकर्ता विलास घोगरे आत्महत्या कर लेते हैं।

इसके बाद फिल्म दलितों की अपनी भावप्रवण कविताओं व संगीत के जरिये अनूठे लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करने की शैली की विरासत को उजागर करती है। फिल्म घोगरे व अन्य गायकों और कवियों की कहानी पेश करती है।

फिल्म में एक दलित नेता कहता है, "हमारे पास हर घर में एक गायक, एक कवि है।" यहां देश के सबसे निचले तबके के शोषितों व अफ्रीकी मूल के अमेरकियों के बीच समानता प्रतीत होती है। दोनों की संगीत व काव्य की मजबूत परम्परा रही है, जो उन्हें राहत व मजबूती देती है और उन्हें अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार करती है। यही वजह है कि महाराष्ट्र सरकार ने एक मजबूत दलित संगीत समूह (फिल्म में इसे प्रमुखता से दिखाया गया है) कबीर कला मंच को नक्सली समूह बताकर उसे प्रतिबंधित कर दिया है।

"जय भीम…" उस विडंबना को भी दिखाती है कि कैसे एक दलित नेता डॉ भीमराव अंबेडकर ने भारतीय संविधान लिखा और फिर भी उनका ही समुदाय लगातार पीछे है।

फिल्म के बारे में पटवर्धन ने आईएएनएस से कहा, "फिल्म की दृष्टि आलोचनात्मक है। इसमें दलित आंदोलन की भी आलोचनात्मक समीक्षा है, लेकिन इसमें इस समुदाय के उन युवाओं की आलोचना नहीं है, जिन पर भूमिगत होने के लिए दबाव बनाया जाता है।"

कुछ फिल्म समारोहों में प्रदर्शन के बाद सोमवार को मुंबई के बायकुला में बीआईटी चॉल में 800 से ज्यादा लोगों के सामने इसका प्रदर्शन हुआ। सभी ने मंत्रमुग्ध होकर 200 मिनट अवधि की इस फिल्म को बिना ब्रेक के देखा। पटवर्धन को इस फिल्म को बनाने में 14 साल लगे।

हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं, जब मार्क्सवादी खेमे में निराशा देखने को मिल रही है और ऐसे दौर से आनंद पटवर्धन भी अछूते रहेंगे, इसकी उम्मीद तो थी, पर जय भीम कॉमरेड के नाम से यह उम्मीद भी डगमगाने लगी थी। फिल्म एक तरह से क्रांतिकारी दलित गायक विलास घोगरे को रचनात्मक श्रद्धांजलि है। विलास घोगरे को पहली बार आनंद की फिल्म बॉम्बे: हमारा शहर में "एक कथा सुनो रे लोगो, एक व्यथा सुनो रे लोगो… हम मजदूर की करुण कहानी, आओ करीब से जानो!" गाते हुए देखा-सुना था। आनंद की यह शायद पहली फिल्म है, जिसमें वह राजनीति के अलावा सांस्कृतिक व सामाजिक कथाओं को भी लेकर आये हैं। विलास के उपर्युक्त गीत में सामाजिक-सांस्कृतिक पहलू को देखने का एक प्रबल आग्रह है। जय भीम कॉमरेड अपने तईं इसी प्रबल आग्रह की पूर्ति करती है। 16 जनवरी, 1997 को ट्रेड यूनियन नेता दत्ता सामंत की हत्या होती है। एक जुलाई 1997 को मुंबई की रमाबाई कॉलोनी में अंबेडकर की प्रतिमा के अपमान का विरोध दर्ज करा रहे दलितों का पुलिसिया दमन होता है। दसियों प्रदर्शनकारी मारे जाते हैं। इसके बाद विलास घोगरे आत्महत्या करते हुए एक तरह का प्रतिकार दर्ज करते हैं। इसी 'विडंबना' ने आनंद को इस फिल्म के लिए उकसाया। जो कवि मार्क्सवाद का अनुयायी बनकर जीवन भर करुण गीत गाता रहा, अंत में खुद भी एक करुण कहानी बन गया। इस विडंबना का खास पहलू यह है कि खुदकुशी करते समय विलास ने सिर पर लाल झंडा नहीं, नीला रिबन लपेट लिया था।

ऐक्टिविस्ट फिल्मकार के रूप में मशहूर आनंद पटवर्धन एक बहुचर्चित नाम है। "राम के नाम", "पिता-पुत्र और धर्मयुद्ध", "अमन और जंग", "उन मितरां दी याद", "बबई हमारा शहर" उनकी कुछ चर्चित फिल्में हैं। आनंद ने राम के नाम फिल्म उस समय बनायी थी, जब बाबरी ध्वंस नहीं हुआ था, लेकिन उसके ध्वंस के षड्यंत्र चल रहे थे। जब उनसे पूछा जाता है कि आपने इस फिल्म में मुस्लिम कट्टरपंथ को क्यों नहीं दिखाया, तब उन्होंने जवाब दिया कि मैं कम से कम भारत में तो इसे बैलेंस नहीं कर सकता क्योंकि यहां हिंदू कट्टरपंथ ज्यादा है। यदि मैं यह फिल्म पाकिस्तान में बनाता, तब जरूर ऐसा करता क्योंकि वहां मुस्लिम कट्टरपंथ ज्यादा है।

आनंद पटवर्धन की "राम के नाम" फिल्म बखूबी बयां करती है कि सांप्रदायिकता किस तरह भारत में सत्ता हासिल करने का माध्यम है। आनंद ने यह फिल्‍म मस्जिद के ढहाये जाने से पहले 1991 में ही पूरी कर ली। 16वीं शताब्दी में बनी हुई बाबरी मस्जिद को बताया जाता है कि यह राम मंदिर को तोड़कर बनायी गयी है, इसलिए अब बाबरी मस्जिद को तोड़कर ही राम का मंदिर बनना चाहिए। फिल्म राम के नाम को हर तरफ से जाचंती है, फिर विश्व हिंदू परिषद के राम को भी दिखाती है। आनंद उस सांप्रदायिकता के सच को उजागर करते हैं, जो सत्ता हासिल करने के लिए राम के नाम का प्रयोग करती हुई लाशों का ढेर लगाती है। फिल्म धार्मिक असहिष्णुता के खिलाफ मानवता को सामने रखती है। बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों में हजारों लोगों धर्म की बलिबेदी पर चढ़ा दिया गया था। फिल्म में एक तरफ आम आदमी से लेकर विहिप, बजरंग दल, भाजपा सहित सभी नेताओं और पुजारियों के वक्तव्य हैं, दूसरी तरफ मुस्लिम धर्म के लोगों की भी प्रतिक्रिया ली गयी है। यह डेढ़ घंटे की फिल्म किसी भी संवेदनशील व्‍यक्ति को बेचैन कर देती है, सोचने को मजबूर करती है और फासिस्‍टों का असली चेहरा उजागर करते हुए उनके प्रति नफरत का भाव पैदा करती है।

मैं लगभग 30 सालों से फिल्में बना रहा हूं। मैंने जयप्रकाश आंदोलन से लेकर इमरजेंसी, सांप्रदायिकता, गरीबी, परमाणु ऊर्जा की होड़ आदि विषयों पर फिल्में बनायी हैं। मैंने दोनों पार्टियों के समय में फिल्में बनायी हैं और दोनों का रवैया एक जैसा रहा है। दोनों ही ऐसी फिल्मों को दिखाने में आनाकानी करती हैं। जबकि मैं वही मांगता हूं, जो संविधान में है। संविधान में जो अधिकार मिले हैं, उसके विपरीत कुछ नहीं करता फिर भी हमारी फिल्मों को लोगों तक पहुंचने में इतनी मशक्कत करनी पड़ती है। रही बात सांप्रदायिकता की तो यह कांग्रेस में भी है लेकिन राजग की अपेक्षा कम है। कांग्रेस थोड़ी लिबरल है। इसके समय में बुद्धिजीवियों को थोड़ी सांस लेने का मौका मिलता है। हां, इमरजेंसी के समय में इसने भी सबकी सांस रोक दी थी। तब हम सब लोग जेल में थे और कांग्रेस के खिलाफ लड़ रहे थे। कांग्रेस कितनी भी बुरी हो, लेकिन फिर भी हम राजग जैसी फासीवादी पार्टी की वापसी नहीं चाहेंगे।

मुख्‍य धारा के सिनेमा के लिए ज्यादा पैसे की जरूरत होती है। अच्छी तकनीक चाहिए होती है, कोई बिजनेस मैन भी चाहिए, जो पैसा दे सके। हमारी अपनी सीमाएं हैं, अपनी लिमिटेशंस हैं और दूसरी बात यह भी है कि यदि मैं फिक्शन फिल्में बनाता होता तो शायद कोई मेरी फिल्मों पर विश्वास भी नहीं करता। जबकि डाक्यूमेंट्री में मैं साफ-साफ दिखाता हूं कि क्या हो रहा है। नेताओं के वक्तव्य उसमें होते हैं, कोई भी सुन सकता है। मैं वही दिखाता हूं, जो सच है। उसमें बाहर से कुछ भी नहीं डालता। यदि मैं भी फिक्शन फिल्में बनाऊंगा, तो फिर डाक्यूमेंट्री कौन बनाएगा?

(एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास। स्‍वतंत्र पत्रकार। इतिहास और सामाजिक आंदोलनों में रुचि। ब्‍लॉग लिखते हैं और मुंबई में रहते हैं। उनसे xcalliber_steve_biswas@yahoo.co.in पर संपर्क किया जा सकता है।)


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