शिक्षक बने रसोइये, स्कूल हुए भंडारे
- THURSDAY, 05 APRIL 2012 08:19
एक दौर था जब गांव के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों की भारी भीड़ हुआ करती थी, लेकिन जैसे-जैसे शिक्षा को निजी हाथों में सौपना शुरू किया सरकारी प्राथमिक शिक्षा गांव के गरीबों के बच्चों की होकर रह गयी और बदतर होती चली गयी...
चक्रपाणि
पिछले दिनों उत्त्तर प्रदेश सरकार ने प्राथमिक व उच्च प्राथमिक विद्यालयो मे छात्रो की लगातार कम होती उपस्थिति और पढाई के प्रति कम होते लगाव पर गंभीर चिंता व्यक्त की .राज्य सरकार की तरफ से प्राइमरी स्कूलो मे पढाई के उबाऊ तरीके मे बदलाव लाने के लिए जिला बेसिक शिक्षा अधिकारियो को निर्देश भेजा गया है. सरकार के शासनादेश में यह निर्देश भेजा गया है कि शिक्षकों को चाहिए कि वह पढाई के उबाऊ तौर तरीके मे परिवर्तन लाये तथा प्रार्थना -उत्सव -सांस्कृतिक कार्यक्रर्म बाल सभा भोजन समितियों का गठन कर बच्चो मे पढाई के प्रति लगाव पैदा करे.
प्रदेश सरकार और उसके नौकशाहों ने तो अपना नीम-हकिमी नुस्खा पेश कर दिया कि इन नुस्खों से प्राथमिक शिक्षा की दयनीय स्थिति में सुधार होगा .एक तरफ सरकारें निजी स्कूलों को बढावा दे रही हैं, हर गली-चौराहे पर लगातार पब्लिक स्कूल खुलते जा रहे हैं और कदम कदम पर सरकार बिना किसी मानक पर घ्यान दिये शिक्षा माफियाओं को दुकान खोलने की छुट दे रही है .ऐसे में सरकार का यह नीम हकीमी नुस्खा फालतू नजर आता है .
सरकार उन विद्यालयों के प्रति बच्चो की रूचि बढाने की बात करती है जहाँ न तो पर्याप्त शिक्षक होते हैं न तो कोई और बेहतर व्यवस्था. सरकारी स्कूलों की हालत यह है कि पूरा स्टाफ 'मिड डे मील' भोजन योजना सहित अनेक सरकारी योजनाओ को ही पुरा करने में व्यस्त रहता है.आखिर उन अध्यापकों से कैसे यह उम्मीद की जाये कि वो पाठ्येत्तर गतिविधियों के संचालन के साथ-साथ पढ़ाई को भी रचनात्मक बना पायेगें .
ऐसा नही कि सरकार में प्राथमिक शिक्षा को ठीक करने के लिए पहले कोई नुस्खा न इजाद किया हो .इसके पूर्व भी बच्चों को स्कूलों तक लाने व अभिभावकों को प्ररित करने के लिए प्रत्येक गांव में दो ' प्रेरकों ' की नियुक्ति की गई थी. शिक्षा मित्रों का पद भी इसी कार्य को ध्यान में रख कर किया गया था लेकिन सरकार के सारे तौर-तरीके असफल साबित हुए .
एक दौर था जब गांव के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों की भारी भीड़ हुआ करती थी .अमीर - गरीब सबके बच्चे इसी में पढ़ा करते थे .पर्याप्त संख्या में अध्यापक भी हुआ करते थे; लेकिन जैसे-जैसे देश की सरकारों ने शिक्षा को निजी हाथों में सौपना शुरू किया तथा प्राथमिक शिक्षा गांव के गरीबों के बच्चों के लिए बना दिया तब से इसकी स्थिति और बदतर होती गई .
लाखों की संख्या में प्राथमिक शिक्षकों के पद खाली पड़े है लेकिन अधिकांशतः प्राइमरी स्कूल शिक्षा मित्रों के भरोसे संचालित हो रहे हैं.सरकार को चाहिए कि वह सरकारी विद्यालयों, कालेजों में तदर्थ शिक्षकों - मानदेय शिक्षकों आदि की भरती पर रोक लगाये तथा स्थायी व प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति करें .जब तक समान काम के लिए समान वेतन लागु नहीं होगा तब तक शिक्षक ईमानदारी से अपने दायित्व का निर्वहन नहीं कर सकेगा .
यह कहना भी पूरी तरह सत्य नहीं है कि सरकार सरकारी शिक्षण संस्थाओ का ख्याल नही रखती .लेकिन सरकार उन स्कूलों को बेहतर सुविधा उपलब्ध कराती है जहाँ देश के अमीरों के बच्चे शिक्षा ग्रहण करते हैं .देश में केंद्रीय तथा नवोदय विद्यालय , आई आई टी और आई आई एम जैसे सरकारी संस्थान भी मौजूद है जहाँ किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं पायी जाती .लेकिन दूसरी तरफ देश के प्राथमिक स्कूल भी है जिनकी दुर्दशा हम सबके सामने है .
ऐसा इसलिए है कि यहाँ पर किसी सरकारी कर्मचारी , अधिकारी , नेता मंत्री और यहाँ तक कि उस स्कूल मे पढ़ाने वाले शिक्षामित्र व अध्यापकों के बच्चे भी उस प्राथमिक विद्यालय मे नहीं पढते. यहाँ पर सिर्फ गाँव के गरीबो -मजदूरो के बच्चे ही पढने जाते हैं वह भी शायद मध्यान भोजन योजना की 'खिचडी ' के लालच में. इसका मतलब साफ है कि जहाँ पर देश के रईसों के बच्चो को शिक्षा देनी हो वहाँ सरकार चुस्त दुरूस्त हो जाती है औरा जहाँ गरीबों- मेहनतकशों के बच्चों की बात आये वहाँ लापरवाही व नीम-हकीमी नुस्खे पेश किये जाते हैं.
प्राथमिक स्कूलों में समृद्ध घरों के बच्चों के न जाने से प्राथमिक स्कूल ज्यादा उपेक्षित हुए हैं.सबको समान शिक्षा दिये बगैर इस बदहाल स्थिति को नहीं बदला जा सकता .प्राथमिक शिक्षा की यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक हैं .ऐसे में जब देश की 77 % आबादी बीस रू0 रोजना पर जीवन निर्वाह करती हैं तो वह अपने बच्चो को प्राइवेट स्कूलों में कैसे भारी फीस देकर दाखिल दिला पायेगी.
अगर देश की सरकारें वास्तव में प्राथमिक शिक्षा को बेहतर बनाना चाहती हैं तो उन्हें चाहिए कि कोठारी आयोग की उस सिफारिश को लागू करे जिसमें कहा गया हैं कि सभी वर्गों के बच्चों को अपने पड़ोसी स्कूलों में ही अनिवार्य रूप से पढा़या जाय.जब देश के धनिको ,पूंजीपतियों, नेताओं ,सरकारी कर्मचारियों के बच्चें भी प्राइमरी स्कूलों में पढ़ना शुरु करेंगे तो धीरे-धीरे इसकी सूरत बदलने लगेगी.दुनिया के सारे विकसित मुल्कों ने अपने यहां समान व पड़ोसी स्कूल की शिक्षा व्यवस्था कायम की हैं, लेकिन भारत में ऐसा अब तब नही हो पाया.यहाँ अमीरों के लिए अलग व गरीबों के बच्चो के लिए अलग व्यवस्था बनायी गई हैं .
(पीएचडी कर रहे चक्रपाणि पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक प्राथमिक स्कूल में शिक्षक हैं.)
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