आत्महत्या करता उच्च शिक्षा का भविष्य
- THURSDAY, 05 APRIL 2012 09:10
एम्स और आईआईटी जैसी संस्थाओं में प्रवेश पाने वाले आरक्षित वर्ग के छात्रों को सामान्य वर्ग के छात्रों के मुकाबले मानकों में केवल पांच फीसद की ही छूट मिलती है.ऐसे में आरक्षण के जरिए प्रवेश पाने वाला छात्र लायक नहीं है कहना, समझ से परे है...
राजेश कुमार / विष्णु शर्मा
अनिल कुमार मीणा-अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) नई दिल्ली, डाक्टर बाल मुकुंद भारती- अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) नई दिल्ली, अजय एस चंद्रा- भारतीय विज्ञान संस्थान(आईआईएससी) बंगलूर, एम श्रीकांत- भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मुंबई. इन चार नामों दो समानताएं हैं, पहली बात तो यह कि ये सभी दलित छात्र हैं. दूसरी बात यह कि इन सभी छात्रों ने आत्महत्या कर ली थी.
इनके अलावा इनमें एक समानता और थी, वह यह कि ये जिन संस्थानों में पढ़ते थे, उनका नाम देश-विदेश के नामी-गिरामी संस्थानों में शुमार किया जाता है. देश में पिछले चार सालों 19 दलित छात्र आत्महत्या कर चुके हैं. वहीं आत्महत्या का प्रयास करने वाले छात्रों की संख्या इससे कहीं बहुत अधिक हैं.
सबसे ताजा मामला एम्स के अनिल कुमार मीणा का है. वे वहां एमबीबीएस पहले साल के छात्र थे. उन्होंने तीन मार्च को अपने कमरे में पंखे से लटककर आत्महत्या कर ली थी. वे पहले साल की परीक्षा में एक विषय में फेल हो गए थे. वजह थी अंक देने की प्रणाली को छात्रों को बताए बिना बदल देना. अपनी बात रखने के लिए उन्होंने संस्थान के हर जिम्मेदार अधिकारी का दरवाजा खटखटाया था. लेकिन उनकी बात सुनने का समय किसी भी अधिकारी के पास नहीं था. अनिल की आत्महत्या के बाद एम्स के छात्र इसके लिए संस्थान के निदेशक डाक्टर आरसी डेका को जिम्मेदार ठछहराते हुए उनकी बर्खास्तगी की मांग के साथ हड़ताल पर चले गए.
एम्स प्रशासन ने कहा कि अनिल ने अंगरेजी में अपनी कमजोरी की वजह से आत्महत्या की है. उसकी यह दलील किसी के गले नहीं उतरी. शिक्षण संस्थाओं में दलित-आदिवासी छात्रों के उत्पीड़न पर काम करने वाले 'इनसाइट फाउंडेशन' के राष्ट्रीय समन्वयक अनूप कुमार कहते हैं, 'कमजोर छात्र आत्महत्या नहीं करता. आत्महत्या होनहार छात्र करता है, जब उसे लगता है कि उसकी क्षमता पर सवाल खड़ा किया जा रहा है तब वह आत्महत्या करता है. लेकिन हमारी सरकार इसे स्वीकार नहीं करना चाहती है. क्योंकि ऐसा करते ही पूरे तंत्र की कलई उतर जाएगी.'
एम्स में आत्महत्या की यह पहली घटना नहीं है. इससे पहले तीन मार्च 2010 को बाल डॉक्टर बाल मुकुंद भारती ने इन्हीं परिस्थितियों में आत्महत्या कर ली थी. उनके साथी बताते हैं कि बाल मुकुंद जिंदादिल और होनहार इंसान थे. अपने सुसाइड नोट में बाल मुकुंद ने आत्महत्या के लिए प्रोफेसर कृष्णा आनंद को जिम्मेदार ठहराया था. प्रो. आनंद बाल मुकंद को धमकी देते थे, 'तुम कोटे से आ तो गए हो. लेकिन डिग्री लेकर यहां से जा नहीं पाओगे.' प्रो. कृष्णा आनंद कम्युनिटि मेडिसिन विषय पढ़ाते हैं.
अनिल की आत्महत्या के बाद एम्स प्रशासन ने बिना देर किए इसके लिए उसकी अंगरेजी की 'अज्ञानता' को दोष दिया. वहीं संस्थान के छात्रों और छात्र नेताओं ने संस्थान के निदेशक डॉक्टर आरसी डेका को कटघरे में खड़ा कर दिया. लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि जिस विषय में अनिल फेल हुआ था, उसमें उसके साथ पांच और छात्र फेल हुए थे. अब सवाल यह उठता है कि केवल अनिल ने ही आत्महत्या क्यों की? इसके लिए डॉक्टर डेका को ही जिम्मेदार क्यों ठहराया जा रहा है?
'इनसाइट फाउंडेशन' के गुरिंदर आजाद कहते है, 'अनिल कुमार मीणा ने आत्महत्या भले ही तीन मार्च को की. लेकिन उसकी परिस्थितियां 2007 में ही तैयार होने लगी थीं. यह वह समय था जब देश भर के उच्च शिक्षण संस्थानों में मंडल-दो लागू हो रहा था. साल 2007 में 27 फीसद आरक्षण लागू होने के बाद एम्स में जातीय उत्पीड़न की घटनाओं में इजाफा दर्ज किया गया. एक तरह से एम्स आरक्षण समर्थक और आरक्षण विरोधियों के दो खांचों में बंट गया है. आजाद बताते हैं कि उस समय तो हालत ऐसे थे कि संस्थान के मेस और हास्टल भी दो फाड़ हो गए थे.
गुरिंदर कहते हैं,'छात्रों का गुस्सा जायज है. लेकिन इस गुस्से को डाक्टर डेका के खिलाफ मोड़ देने के पीछे उन लोगों के राजनीतिक उद्देश्य हैं, जो मंडल-2 के समय से ही डॉक्टर डेका से नाराज चल रहे हैं. डाक्टर डेका ने अरक्षण का समर्थन किया था. आजाद कहते हैं कि यदि डाक्टर डेका को दोषी माना जाता है तो प्रो. कृष्णा आनंद को भी सजा मिलनी चाहिए.
जिस समय मंडल-2 एम्स में लागू किया जा रहा था. उस समय डाक्टर डेका सस्थान के डीन थे. उन्हें मंडल-2 के समर्थन के लिए अपमानित भी किया गया था. एम्स में जातीय उत्पीड़न की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 12 सिंतबर 2006 को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर सुखदेव थोराट की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था. प्रो. थोराट समिति ने अपनी रिपोर्ट में डाक्टर डेका के अपमान का जिक्र किया है.
प्रो. थोराट समिति की सिफारिशों का भी वही हस्र हुआ जो देश के अन्य समितियों की रिपोर्टों का होता है, यानि कि रपट ठंडे बस्ते में डाल दी गई. जातीय उत्पीड़न के आरोपों का सामना कर रहे एम्स प्रशासन ने एक बार फिर प्रोफेसर सुखदेव थोराट की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया है, जो अनिल के आत्महत्या के कारणों की जांच और संस्थान नें जातिय उत्पीड़न का पता लगाएगी.
अनूप कुमार कहते हैं, 'एम्स और उसके जैसे अन्य संस्थानों में सुधार की गुजांइश नहीं है. यदि अंग्रेजी में कमजोरी आत्महत्या का कारण है तो इससे अधिक शर्मनाक बात किसी देश के लिए कुछ और नहीं हो सकती है. वह भी उस देश में जहां बहुसंख्य आबादी भाषाई स्कूलों में पढ़ती है.' अनूप कहते हैं कि अंग्रेजी माध्यम के स्कूल केवल एलीट वर्ग के बच्चों के लिए होते हैं. इन लोगों के लिए यह कहना कितना आसान है कि दलितों को अंग्रेजी नहीं आती है.
अब सवाल उठता है कि केवल दलित-आदिवासी छात्र ही आत्महत्या क्यों करते हैं? इसका मतलब यह है कि यह सिस्टम दलित-आदीवासी बच्चों को स्वीकार नहीं कर पाता है. वह बताते हैं कि आरक्षण कोटे से आने वाला छात्र इन तथाकथित सवर्ण छात्रों से कहीं अधिक तेज होता है, क्योंकि वह अपने जीवन में कई तरह की बाधाओं का सामना करते हुए वहाँ तक पहुंचता है, जिसका सामना ज्यादातर सवर्ण छात्रों को नहीं करना पड़ता है.
दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर तुलसी राम कहते हैं कि दलितों के पढ़ने का इतिहास बहुत पुराना नहीं है. वह बताते हैं कि गुरुकुल प्रणाली में या यो ब्राह्मण पढ़ते थे या राजघराने के बच्चे. वहां शिक्षा का माध्यम संस्कृत था. वहीं संस्कृत जिसे देववाणी का दर्जा दिया गया. संस्कृत के ग्रंथों से दलितों को दूर रखा गया. दलितों को उसे देखने, छूने या सुनने पर दंड का प्रावधान कर दिया गया था. वहीं मुगल काल में शिक्षा गुरुकुलों से निकलकर मस्जिदों और मदरसों में समा गई. वहां शिक्षा का माध्यम केवल उर्दू, फारसी और अरबी ही था. दलितों को मदरसों में भी प्रवेश नहीं मिला. इस तरह एक बार फिर दलित शिक्षा से वंचित कर दिए गए. वहीं उपनिवेश काल में उच्च शिक्षा की नींव तो जरूर पड़ी लेकिन उसपर उच्च जातियों और अंग्रेजी का प्रभुत्व स्थापित हो गया. इस तरह हर तरह की शिक्षा प्रणाली में दलित शिक्षा पाने से वंचित रहे.
अनूप कुमार कहते हैं कि सामन्य श्रेणी के छात्रों के बुद्धिमान और अन्य वर्गों के छात्रों के बुद्धू होने जैसी बात बेबुनियाद है. वह कहते हैं कि मेरिटोरियस होना प्राकृतिक न होकर अवसर से जुड़ा मामला है. जिस वर्ग के पास जितना अवसर होगा, उतने ही उसके बच्चे मेरिटोरियस होंगे. अनूप कहते हैं कि एम्स और आईआईटी जैसी संस्थाओं में प्रवेश पाने वाले आरक्षित वर्ग के छात्रों को सामान्य वर्ग के छात्रों के मुकाबले मानकों में केवल पांच फीसद की ही छूट मिलती है. ऐसे में यह कहना कि आरक्षण के जरिए प्रवेश पाने वाला छात्र लायक नहीं है, समझ से परे है.
दलित छात्रों की बढ़ती आत्महत्या के लिए अनूप समाज और इन संस्थानों की मानसिकता को जिम्मेदार ठहराते हैं. वे कानपुर के हरकोर्ट बटलर तकनीकी संस्थान (एचबीटीआई) में इंजीनियरिंग की अपनी पढ़ाई के दौरान मिले अनुभव का हवाला देते हुए बताते हैं कि इन संस्थानों में दलित छात्रों को प्रवेश करते ही उन्हें जाति आधारित समाज का एहसास करा दिया जाता है. उनके साथ पढ़ने वाले तथाकथित स्वर्ण छात्रों का व्यवहार भी अपमानजनक होता है.
अनूप कहते हैं अंगरेजी माध्यम के स्कूल दलित बच्चों के लिए नहीं होते हैं. दलित बच्चों के माता-पिता अंगरेजी नहीं जानते हैं. बहुत से दलित बच्चों के पिता तो शिक्षित मिल जाएंगे. लेकिन उनकी माँएं अशिक्षित ही मिलेंगी. अनूप के मुतिबक उच्च शिक्षा में दलित छात्र 30 फीसद सालाना की दर से पढ़ाई छोड़ रहे हैं. पढ़ाई छोड़ने की यह दर दुनिया के अन्य देशों की तुलना में काफी अधिक है. वह देश के नामी-गिरामी शिक्षण संस्थाओं के प्रदर्शऩ से भी असहमति जताते हैं. अनूप बताते हैं कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जब भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) की स्थापना का सपना देखा था तो, इसके पीछे उनकी सोच तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में शोधकार्य को बढ़ावा देने की थी.
अनूप नाराजगी भरे लहजे में कहते हैं कि देखिए आज आईआईटी की क्या हालत हो गई है, वह बीटेक पास छात्रों के लिए अमेरिका वीजा का अड्डा बनकर रह गया है. अनूप सवाल करते हैं कि आखिर इन तथाकथित बड़े और राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों ने कितने ऐसे आविष्कार किए हैं, जिससे मानव जीवन आसान हुआ है?
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