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Wednesday, April 4, 2012

बड़े बड़े देशों में छोटी छोटी बातें होती रहती हैं!

http://mohallalive.com/2012/04/04/cricket-vs-cinema/

 आमुखसिनेमा

बड़े बड़े देशों में छोटी छोटी बातें होती रहती हैं!

4 APRIL 2012 NO COMMENT

♦ जुगनू शारदेय

क सिनेमाई वाक्य है : बड़े बड़े देशों में छोटी छोटी बातें होती रहती हैं। यह कहना मेरे लिए मुश्किल है कि यह मौलिक सोच है या हिंदी सिनेमा की परंपरा में प्रेरित है। यह वाक्य राजनीति के लिए इस्तेमाल हो सकता है। हमारे देश की राजनीति में इसका इस्तेमाल भी होता है। अंतर इतना है कि सिनेमा की समझ सत्ता बचाने के सोच में बदल कर हो जाता है कि बड़ी बड़ी सत्ता के लिए समर्थन देने वाले छोटे दलों का ख्याल रखा जाता है। सिनेमा में ऐसे विचार प्रेम करने के लिए और मारपीट करने के लिए एकता कपूर – विद्या बालन की जोड़ी के डर्टी पिक्चर के पहले हुआ करता था। डर्टी पिक्चर की सफलता के बाद सिनेमा का नारा वही हो गया है, जो इस पेशे का नीति वाक्य है कि एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट। जब एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट नहीं होता है, तो कोई प्लेयर हो जाता है तो कोई एजेंट विनोद और होता है … एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट … तो कोई कहानी सफलता की कहानी बन जाती है। पानसिंह तोमर न न करते हुए हिट भी हो जाता है और सांसदों की आलोचना का बहाना भी। इसी से आप सिनेमा की ताकत समझ सकते हैं कि नैतिकता के खिलाड़ियों को भी अपनी बात कहने के लिए उसका सहारा लेना पड़ता है। लेकिन सिनेमा को अपने एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट के खेल में मुकाबला करना पड़ता है – अब तक एंटरटेनमेंट के बादशाह माने जाने वाले बिना खेल के खेल क्रिकेट से।

दक्षिण भारत में सिनेमा के व्यक्ति भगवान हो जाते हैं। उनके मंदिर भी बन जाते हैं। हमारे यहां – हिंदी पट्टी में तो शायद सिनेमा का कोई व्यक्ति भगवान नहीं बना है। हालांकि हम भी कम दीवाने नहीं हैं। शायद अमिताभ बच्चन का कोई मंदिर पश्चिम बंग में बनाया गया था। लेकिन हम सिनेमा के किसी व्यक्ति को भगवान नहीं कहते। बहुत हुआ तो अमिताभ बच्चन को बिग बी कह डालते हैं और शाहरुख खान को किंग खान। यह कहना भी या तो फिल्मी पत्रकारिता या विज्ञापन का काम करने वालों की ही नारेबाजी या लफ्फाजी होती है। आखिर विज्ञापन एजेंसियों ने ही अमिताभ बच्चन को सदी का यानी बीसवीं सदी का महानायक बना दिया है। लेकिन क्रिकेट के एक खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को विज्ञापन एजेंसियों से ज्यादा क्रिकेट के कारोबारियों ने उन्हें भगवान बना दिया – फिर हमने भी उन्हें क्रिकेट का भगवान मान लिया। इस भगवान को इस देश का एक बहुत बड़ा सा छोटा सम्मान भारत रत्न चाहिए – ऐसा इस भगवान के भक्तों की मांग है।

यह भी एक सच है कि हमारे देश में भारत रत्न से ले कर पद्मश्री तक जो सरकारी सम्मान है, वह अब भारत का प्रिय भ्रष्टाचार ही हो कर रह गया है। इसके किसी नियम में हेरफेर कर तय किया गया कि खिलाड़ियों को भी भारत रत्न दिया जाए। मांग शुरू हो गयी कि तेंदुलकर को भी भारत रत्न से सम्मानित किया जाए। इस भगवान की बड़ी बड़ी उपलब्धियां हैं। अभी हाल ही में उन्होने बांग्ला देश के खिलाफ अपना सौवां शतक भी बना लिया। यह भी मजे की बात है कि भगवान जीता और भारत हारा। यूं भी आज के भारत में इतने भगवान हैं कि उनसे भारत लगातार हार रहा है।

पता नहीं क्या वजह है, और हार कोई कारण तो हो नहीं सकता। हमारा देशप्रेम हमें समझाता है कि सारे जहां से हारो, बस पाकिस्तान से न हारो। वहां जीत लिया तो जग जीत लिया। हिंदुत्व की इससे बड़ी कोई और जीत नहीं हो सकती। फिर भी कोई तो बात होगी कि इस बिना खेल के खेल के प्रायोजकों ने इस पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है। क्रिकेट का एक बड़ा प्रायोजक कह रहा है कि चेंज द गेम। उसके विज्ञापन में एक अनजान लड़का रॉकस्टार रणवीर कपूर को समझा रहा है कि थोड़ा फुटबाल भी खेल लिया करो। और वह भी कह रहे हैं कि चेंज द गेम।

बड़े बड़े देशों में छोटी छोटी बातें होती रहती हैं : यह वाक्य आपको याद होगा तो बढ़िया, नहीं तो हम बता दें कि यह दिल वाले दुलहनिया ले जाएंगे का संदेश है। अब इसी के तर्ज पर सिनेमा वालों ने तय किया है कि एटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट के बल पर बिना एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट वाले खेल के तमाशा इंडियन प्रीमीयर लीग का मुकाबला करेंगे। अप्रैल-मई-जून सिनेमा वालों के लिए कमाई का दिन होता है। परीक्षाएं समाप्त हो चुकी होती हैं। छुट्टियों के दिन होते हैं। उनकी कमाई के दिनों में ही यह इंडियन प्रीमीयर लीग होता है। चूंकि ज्यादातर फिल्मों में एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट नहीं होता तो फिल्म फ्लॉप हो जाती है। झेंप मिटाने के लिए यार का गुस्सा भतार की शैली में अब तक इंडियन प्रीमीयर लीग को उसी तरह से जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है, जैसे इस देश में भ्रष्टाचार के लिए लोकपाल का न होना माना जाता है। लेकिन हिंदी सिनेमा ने तय कर लिया कि वह इंडियन प्रीमीयर लीग से डरेगा नहीं। पहले वह डरता रहा है। अब वह मुकाबला करेगा। मुकाबले में सामने आने वाला है छह अप्रैल को हाउसफुल टू। साजिद खान निर्देशित हाउससफुल में एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट था, इसलिए उन्हें आशा है कि इसका दूसरा संस्करण भी एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट होगा। वह इस खेल में अकेले नहीं हैं। लगभग 300 करोड़ की लागत वाली और भी 24 फिल्में हैं। इस फिल्म के निर्माता साजिद नाडियाडवाला का कहना है कि "आईपीएल हर साल होता है और मैं तीन साल में एक फिल्म बनाता हूं। अपनी फिल्म रीलीज करने के पहले मैंने भी कुछ खोजबीन की है – तभी तय किया कि किस तारीख को फिल्म रीलीज करूंगा।"

यह एक बढ़िया मुकाबला होगा।

(जुगनू शारदेय। हिंदी के जाने-माने पत्रकार। जन, दिनमान और धर्मयुग से शुरू कर वे कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादन/प्रकाशन से जुड़े रहे। पत्रकारिता संस्थानों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में शिक्षण/प्रशिक्षण का भी काम किया। उनके घुमक्कड़ स्वभाव ने उन्हें जंगलों में भी भटकने के लिए प्रेरित किया। जंगलों के प्रति यह लगाव वहाँ के जीवों के प्रति लगाव में बदला। सफेद बाघ पर उनकी चर्चित किताब मोहन प्यारे का सफेद दस्तावेज हिंदी में वन्य जीवन पर लिखी अनूठी किताब है। फिलहाल पटना में रह कर स्वतंत्र लेखन। उनसे jshardeya@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)


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