माओ से बुद्ध की 'प्रचण्ड' छलांग पर हंसी ही तो आएगी
- WEDNESDAY, 04 APRIL 2012 09:36
प्रचण्ड जैसे नेता को डूबते देख मुझे कभी अफसोस नहीं होगा क्योंकि मेरे लिए प्रचण्ड का डूबना जनता का डूबना नहीं है। एक पत्रकार होने के नाते हमारा काम किसी एक विचार को सही ठहराना नहीं है, बल्कि तथ्यों को सही संदर्भ में प्रस्तुत करना है...
विष्णु शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा इतिहास से सबक नहीं लेते, वे इसे अपनी सुविधा के हिसाब से गढ़ते हैं। उनका इतिहास तथ्यों का नहीं, सुविधा का इतिहास है। 'तीसरी दुनिया' के अप्रैल 2012 के अंक में उनका लेख 'दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद और वामपंथी उग्रवाद में फंसी राजनीति' अवसरवादी बौद्धिकता का एक और प्रमाण है। इस लेख में वे पत्रकार कम, प्रचण्ड-बाबूराम के प्रवक्ता अधिक नजर आते हैं। वे उन्हें, जो उनके साथ प्रचण्ड की जय जयकार नहीं कर सकते, दक्षिणपंथी कहते हैं। उनके लेख की भाषा सीधे तौर पर 'बुश डाक्ट्रीन' से उधार ली गई है। 'यदि तुम मेरे साथ नहीं हो तो उनके साथ हो'। यानि 'यदि तुम प्रचण्ड के साथ नहीं हो तो तरुण विजय के साथ हो।'
कुल मिलाकर वे इस लेख में इतिहास, वर्तमान और भविष्य की ऐसी खिचड़ी पकाते हैं कि वे कब क्या कहना चाहते हैं समझना मुश्किल हो जाता है। स्टालिन ने एक बार कहा था 'मुद्दों को उलझाना अवसरवाद है' और प्रचण्ड-बाबूराम की तरह आनंद स्वरूप वर्मा भी अब इस खेल में महारत हासिल कर चुके हैं। इसलिए इस लेख में कोशिश की गई है कि आनंद स्वरूप वर्मा के विमर्श को उसके सही वैचारिक धरातल पर समझने की कोशिश हो।
इतिहास
इस लेख के साथ आनंद स्वरूप वर्मा खुद को उन लोगों में खड़ा कर लेते हैं जिन्होंने हमेशा स्वयं को कम्युनिस्ट कहा है और साम्यवादी इतिहास के शानदार प्रतीकों का मजाक भी उड़ाया है। वे साम्यवादी प्रतीकों का इस्तेमाल जनता का मनोबल बढ़ाने के लिए नहीं करते, बल्कि उसका आत्मबल कमजोर करने के लिए करते हैं। वे 'इतिहास के अंत' की घोषणा घुमा-फिरा कर करते हैं। आनंद स्वरूप वर्मा उन साहित्यकारों की तरह हैं, जो जनता के संघर्ष की व्याख्या तो करते हैं लेकिन कहानी के अंत में हमेशा उसे हारा हुआ, ठगा हुआ दिखाते हैं। जैसे कहना चाहते हो, 'बेटा कितना भी उड़ लो मार दिए जाओगे।'
पेरिस कम्यून को अपने पिछले लेखों की तरह उन्होंने विजय के प्रतीक के रूप में नहीं, बल्कि हार की चेतावनी के बतौर देखा है। उन्होंने लिखा है कि नेपाल के माओवादी 'नहीं चाहता था कि उसका नाम भी पेरिस कम्यून की तरह इतिहास में दर्ज हो कर रह जाए।' हम उनकी बात को मानते हैं लेकिन यह अवश्य जोड़ देना चाहते हैं इतिहास में दर्ज हो जाने की क्षमता प्रचण्ड के नेतृत्व वाले समूह में थी ही नहीं। वह समूह आत्मसमर्पण की जिस जमीन पर अपने लिए महल खड़ा करना चाहता है, वहां सिर्फ आजायबघर बनाए जाते हैं, इतिहास नहीं।
नेपाल के हाल के इतिहास पर लिखते हुए वे बताते हैं कि नेपाल में जो हुआ वह भारत की मर्जी के खिलाफ था, कि भारत नहीं चाहता था कि राजतंत्र का अंत हो, कि भारत प्रचण्ड को प्रधानमंत्री पद पर नहीं देखना चाहता था आदि-आदि। इस संबंध में मैं उनका ध्यान विकीलीक्स में प्रकाशित भारत में अमेरिकी राजदूत की टिप्पणी पर दिलाना चाहते हूं जिसमें 2004 में उसने लिखा था, 'भारत के नेपाल विशेषज्ञों में तेजी से यह धारणा बन रही है कि नेपाल में राजशाही का अंत होना चाहिए।' 6 दिसंबर 2004 में समाचार पत्र हिंदुस्तान में पूर्व सचिव श्याम सरन ने लिखा था कि 'प्रगतिशील माओवादियों को मुख्यधारा में लाया जाना चाहिए'। इंडियन एक्सप्रेस में सी. राजा मोहन ने लिखा, 'राजा ज्ञानेंद्र मानकर चल रहे हैं कि भारत को उनके और माओवादियों के मध्य किसी एक को चुनना ही पड़ेगा।' उसी समय जनरल अशोक मेहता ने लिखा, 'राजा सत्ता के साथ चिपके रहना चाहते हैं और ऐसा संकेत नहीं मिल रहा कि वे लोकतंत्र की बहाली करेंगे।'
यह वह समय था जब प्रचण्ड और बाबूराम दिल्ली में घूम-घूमकर 'लोकतंत्र' के प्रति अपनी 'प्रतिबद्धता' को भारतीय सत्ता पक्ष के सामने प्रस्तुत कर रहे थे। विकीलीक्स के एक केबल में राजदूत जेएनयू के प्रोफेसर एसडी मुनी के हवाले से बताता हैं कि प्रचण्ड और बाबूराम प्रोफेसर मुनी से मिले हैं और मुनी के अनुसार माओवादियों ने उनसे कहा है कि वे लोकतांत्रिक भागीदारी के लिए प्रतिबद्ध हैं। राजदूत लिखते हैं कि भारत तेजी से संवैधानिक राजतंत्र की अपनी मान्यता से दूर जा रहा है। वर्ष 2005 के एक केबल के अनुसार पूर्व सचिव श्याम सरन ने राजा से मुलाकात की थी और उन्हे साफ तौर पर कह दिया था कि उन्होंने देर कर दी और अब राजतंत्र के भाग्य का फैसला नेपाल के राजनीतिक घटनाक्रम पर निर्भर है।
आनंद स्वरूप वर्मा लिखते हैं कि भारत अंतिम अवसर तक राजतंत्र को बचाना चाहता था, इसलिए उसने अप्रैल 2006 को कर्ण सिहं को नेपाल भेजा था। यह धारणा इतिहास के साथ छल है। जबकि नेपाल के राजतंत्र समर्थक एक अखबार ने लिखा था कि, '20 अप्रैल 2006 को भारत ने कर्ण सिंह को राजतंत्र को भंग करने का दवाब डालने के लिए भेजा था न कि उसे बचाने के लिए जिसके परिणामस्वरूप 21 अप्रैल को राजा ज्ञानेंद्र ने संसद की पुनर्बहाली की घोषणा की थी।'
स्पष्ट है कि भारत राजतंत्र और संसदीय पार्टियों के बीच समझौता नहीं चाहता था वह राजा और पार्टियों जिसमें माओवादी भी शामिल हैं, के बीच समझौता करवाना चाहता था और वह इसमें पूरी तरह सफल भी रहा। यही वजह है कि राजा को फांसी पर लटकाने की घोषणा करने वाले प्रचण्ड ने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने से पहले और बाद में राजा पर कोई कार्यवाही नहीं की। न ही इसका कोई प्रयास किया। यहां तक कि 2001 के नारायणहिती हत्यकांड की जांच भी नहीं करवाई।
इस सबके बावजूद प्रचण्ड को महानायक बनाने की आनंद स्वरूप वर्मा की कोशिश हैरान करने वाली है। प्रचण्ड को महान बनाने में वे जिस तरह से संदर्भो के साथ धोखेबाजी करते हैं वह दुखद होने के साथ-साथ हास्यास्पद भी है। वे लेख में नेपाली कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रदीप गिरी के हवाले से कहते हैं कि भारत को ऐसा महसूस हुआ है कि प्रचण्ड को 'कोआप्ट' करना संभव नहीं है। यह सरासर गलतबयानी है। प्रदीप गिरी ने यह शब्द प्रचण्ड के लिए नहीं, बल्कि पूरी पार्टी के लिए कहे थे। इस वाक्य में उनका इशारा प्रचण्ड की ओर न होकर स्पष्टतः उस गुट की तरफ था, जो प्रचण्ड को सीधे आत्मसमर्पण नहीं करने दे रहा था। वह गुट कौन है, आज बहुत साफ हो चुका है।
यह सब यहां लिखने का मकसद है कि पाठक नेपाल के माओवादी आंदोलन को उसके संदर्भ से काट कर न देखें। पाठकों को समझना चाहिए कि नेपाल में राजतंत्र की समाप्ति उतना 'महान' काम नहीं था जितना प्रचण्ड-बाबूराम और उनके समर्थक दिखाना चाहते हैं। आज उनके समर्थक इस नाटक में 'संविधान' शब्द को जोड़ रहे हैं। वे इसे राजतंत्र की समाप्ति जितना 'बड़ा' काम बताकर प्रचण्ड-बाबूराम के त्याग के कसीदे पढ़ने में लगे हैं। कल ये लोग इसमें एक नया शब्द 'लोकतंत्र' जोड़ देंगे और चीखेंगे 'भूखा है तो सब्र कर।'
वर्तमान
निशानेबाजी के खेल में दो तरह के खिलाड़ी होते हैं। एक जो लक्ष्य पर निशाना साधते हैं और दूसरे वे जो जहां निशाना लग जाता है उसे ही लक्ष्य घोषित कर देते हैं। आनंद स्वरूप वर्मा दूसरी श्रेणी के निशानेबाज हैं। आनंद स्वरूप वर्मा ने प्रचण्ड-बाबूराम की खतरनाक राजनीति को बढ़ावा दिया और जब इसके परिणामस्वरूप राजनीति संविधान सभा में अटक गई तो चीखने-गाने लगे कि यही तो उन लोगों का राजनीतिक उद्देश्य था। जब लोगों ने याद दिलाया कि यह गलतबयानबाजी है तो शोर मचाने लगे कि तुम लोग दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी हो, वामपंथी उग्रवादी हो।
पत्रकारिता की मान्यताओं को ताक पर रखते हुए आनंद स्वरूप वर्मा बार-बार यह झूठ गढ़ते हैं कि किरण समूह शांति विरोधी है। वे लिखते हैं कि 'किरण का नेतृत्व वाला गुट इस पक्ष में नहीं है कि शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाए'। सच तो यह है कि किरण ही ऐसा समूह है जो पिछड़े, दलित, जनजाति, महिलाओं के अधिकारों वाला संविधान बनाने की बात कर रहा है। और वे बार बार यह कहते हैं कि जब तक इन विषयों का समाधान नहीं होगा, तब तक शांति की बात करना बेमानी है। अभी हाल में उसने एक प्रेस वार्ता में अपनी मांगों का दस्तावेज प्रस्तुत किया था। दस्तावेज का शीर्षक था 'नए जनसंविधान में इन मांगों को शामिल किया जाए'। इस दस्तावेज में लिखा है,
1. राज्य की अग्रगामी पुनर्संरचना करते हुए किसान, उत्पीडि़त जाति, क्षेत्र, लिंग और दलित समुदाय के हकों और अधिकारों को सुनिश्चित करने वाला संविधान होना चाहिए।
2. संविधान में उत्पीडि़त जाति के आत्मनिर्णय के अधिकार की व्यवस्था होनी चाहिए।
3. महिला, दलितों को विशेषाधिकार मिलना चाहिए।
4. प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय जनता का अधिकार होना चाहिए।
5. राज्य के सभी अंगों में महिला, दलित और मुस्लिम समुदाय का जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
6. निजी संपत्ति की हदबंदी निश्चित की जानी चाहिए।
7. क्रांतिकारी भूमि सुधार लागू किया जाना चाहिए, तथा अन्य मांगें।
ये मांगें क्या यह स्पष्ट नहीं करतीं की किरण समूह शांति और संविधान का विरोधी न होकर जनता के संविधान का हिमायती है। क्या जनता के अधिकारों की मांग करना शांति विरोधी काम है? क्या ये सभी बातें भारतीय संविधान में नहीं हैं। सच तो यह है कि प्रचण्ड और बाबूराम अन्य दूसरे नेताओं की तरह जनता को सीमित अधिकार भी नहीं देना चाहते। वे भारतीय सत्ता वर्ग के उस पक्ष की तरह जो सामाजिक न्याय की मान्यताओं से घबराता है, नेपाल में भारतीय संविधान के उन प्रावधानों को कतई नहीं शामिल होने देना चाहते जो भविष्य में सामाजिक क्रांति की शुरुआत कर सकते हैं।
जनविद्रोह के सवाल को आनंद स्वरूप वर्मा जिस तरह प्रस्तुत करते हैं वह उनकी समझ पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या किरण समूह निर्पेक्ष जनविद्रोह की बात करता है। क्या वे एक भी ऐसा दस्तावेज, साक्षात्कार या लेख प्रस्तुत कर सकते हैं जिसमें किरण समूह ने बेवजह जनविद्रोह की बात की हो। हर बार जब किरण समूह के नेताओं ने जनविद्रोह शब्द का प्रयोग किया है तो उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि जनता के अनुरूप संविधान न बनने की दशा में जनता जनविद्रोह करेगी और वे लोग जनता का साथ देंगे। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि सिर्फ किरण ही इसकी बात नहीं करते। अभी हाल तक प्रचण्ड खुद जनविद्रोह की माला जपा करते थे। प्रचण्ड इतनी बार यह शब्द कहते थे कि एक बार तो खुद आनंद स्वरूप वर्मा ने जोर देकर कहा था, 'आप (प्रचण्ड) किरण से क्यों नहीं कह देते कि आप युटोपिया में जी रहे हैं।'
आनंद स्वरूप वर्मा ने अपने लेख में किरण समूह के लिए वह शब्द इस्तेमाल किया है जो अब तक प्रचण्ड भी नहीं कर सके हैं। उन्होंने किरण पक्ष को 'उग्रवादी' कहा है। साम्राज्यवादी विमर्श में यह वो शब्द है जो किसी भी समुदाय के नरसंहार को जायज बना सकता है। जून 2005 में ठीक ऐसी ही बात भारत के संयुक्त सचिव (उत्तर) रंजीत रे ने अमेरिकी राजदूत से कही थी। उन्होंने कहा था, 'पंजाब और अन्य विद्रोह का हमारा अनुभव बताता है कि नेपाल के सभी माओवादियों को राजनीतिक प्रक्रिया में नहीं लाया जा सकेगा और उनसे कानून और व्यवस्था की समस्या की तरह निबटना होगा।' आनंद स्वरूप वर्मा अपने लेख के जरिए वही माहौल तैयार कर रहे हैं।
आनंद स्वरूप वर्मा को शिकायत है कि मैं नेपाल की राजनीति की दुरावस्था से क्षुब्ध नहीं हो रहां हूं, मैं कल्पनाशील हूं, तरुण विजय की भाषा लिखता हूं, मैं प्रचण्ड पर चटखारे लेता हूं, मैं नेपाल में इसी दिन का इंतजार कर रहा था वगैरह-वगैरह।
इन आरोपों पर मेरा जवाब है कि मैं नेपाल की राजनीति में दुरावस्था से प्रसन्न नहीं हूं बल्कि मैं 'कामरेड' प्रचण्ड के पतन पर हंसता हूं। (आपको बता दूं कि मैं प्रचण्ड के वैचारिक पतन की बात कर रहा हूं। आर्थिक स्तर पर तो प्रचण्ड सचमुच एवरेस्ट पर नोटों का लाल झण्डा फहरा रहे हैं) मैं आपसे यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैंने प्रचण्ड के जनाधार को बचाने का ठेका नहीं लिया है। मेरे लिए प्रचण्ड का प्रवक्ता होने से ज्यादा जरूरी एक पत्रकार होना है। एक बात और कि किसी भी व्यक्ति के पतन की अपनी गति होती है जिसे न तो मेरे चटखारे तेज कर सकते हैं और न आपकी तेल में डूबी स्याही धीमे।
सत्ता के चाहने भर से मैं क्षुब्ध भी नहीं होउंगा क्योंकि मैं यह जानता हूं कि सत्ता का काम आशाओं को कत्ल करना होता है। एक समाजशास्त्री ने लिखा है कि सत्ता का काम लोगों को निराशा से भर देना है, ताकि वे यह मान लें कि चाहे कुछ कर लो कुछ नहीं हो सकता। प्रचण्ड जैसे नेता को डूबते देख मुझे कभी अफसोस नहीं होगा क्योंकि मेरे लिए प्रचण्ड का डूबना जनता का डूबना नहीं है। मैं यह मानता हूं कि एक पत्रकार को सत्ता के प्रतीक प्रचण्ड का नहीं, बल्कि जनता का प्रवक्ता होना चाहिए। एक पत्रकार होने के नाते मेरा काम किसी एक विचार को सही ठहराना नहीं है, बल्कि तथ्यों को सही संदर्भ में प्रस्तुत करना है। मेरी ही तरह मातृका यादव और मणि थापा भी जनता की तकलीफ देखकर खुश नहीं हो रहे हैं। ऐसा होता तो मातृका पार्टी से कभी अलग नहीं होते। सच तो यह है कि वे लोग माओ से बुद्ध की प्रचण्ड छलांग का मजा ले रहे हैं।
आप जब यह कहते हैं कि मैं कल्पनाशील हूं तो मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं प्रचण्ड के भ्रष्टाचार की बात करने के लिए बहुत कल्पनाशील होने की जरूरत नहीं है। हां, उसे क्रांतिकारी देखने के लिए कल्पनाशील होना जरूरी है।
आपने मुझ पर आरोप लगाया है कि मैं तरुण विजय की भाषा का प्रयोग कर रहा हूं। लेकिन कभी आपने गौर किया है कि मैंने कभी तरुण विजय, अशोक मेहता या आनंद स्वरूप वर्मा की तरह माओवादियों को यह सलाह नहीं दी कि वे अपने विचारों से समझौता कर लें, कि वे भारत के सत्ता पक्ष के सामने आत्मसमपर्ण कर लें, कि वे जनता का नहीं बल्कि साम्राज्यवाद का पोषण करने वाला संविधान बनायें, कि वे किरण समूह को पार्टी से अलग कर दें, कि 'यदि जनयुद्ध जनयुद्ध' ही करना था तो चुनाव में हिस्सा क्यों लिया, कि क्या 2008 में किरण को नहीं पता था कि समझौते का संविधान बनेगा आदि-आदि। यदि आप चाहें तो खुद ही तरुण विजय और अपने लेखों को आमने-सामने रख कर देख सकते हैं कि आपके वामपंथ और उनके दक्षिणपंथ में केवल भाषा का ही फर्क है।
आपने एक साथी के संबंध में जो बात कही है मैं उसमें सुधार करते हुए कहना चाहता हूं (उस वक्त मैं मौके पर मौजूद था) कि उन्होंने ने यह कभी नहीं कहा था कि रोल्पा और रुकुम की जनता माओवाद के खिलाफ हो गई है। उन्होंने कहा था कि वह प्रचण्ड के खिलाफ है। इत्तफाक से मैं वहां भी था जब नेपाली माओवादी नेता मातृका यादव ने कहा था कि आने वाले चुनावों में प्रचण्ड का जीतना स्वाभाविक है। लेकिन मातृका यादव ने साथ में यह भी जोड़ था कि चुनाव तो मोदी, मुलायम और नितीश भी जीत जाते हैं। फिर आपने भी तो एक बार गढ़वाल भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था कि चुनाव जीतने के लिए धन आवश्यक हो गया है, जनाधार नहीं।
अब आपको क्यों यह विश्वास है कि माओवादी पार्टी के अध्यक्ष प्रचण्ड, जिसके बारे में सुशील कोईराला ने कहा है कि वह पार्टी एशिया की सबसे धनी पार्टी है, चुनाव में हिस्सा लेंगे तो केवल जनआधार के बल पर चुनाव जीतकर आएंगे। यदि चुनाव में जीतना जनभागीदारी का प्रमाणपत्र है तो आप सभी वामपंथियों को अपनी-अपनी 'दुकानें' बंद करने की सलाह क्यों नहीं देते। और भारत के माओवादियों से क्यों नहीं कहते कि वे चुनाव जीतकर अपने जनाधार को साबित करें। एक विचार की अपनी सुविधा के अनुसार व्याख्या को प्रचण्ड भले ही प्रयोग कहते हों, लेकिन मुझे तो यह अवसरवाद ही लगता है।
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