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Monday, July 30, 2012

मनमोहन की छवि और मीडिया

मनमोहन की छवि और मीडिया

Monday, 30 July 2012 10:32

अभिनव श्रीवास्तव
जनसत्ता 30 जुलाई, 2012: बीते महीनों में कई दफा केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों ने ऐसे बयान दिए हैं जिनमें शिकायत भरे लहजे में कहा गया है कि देश का मीडिया सरकार की उपलब्धियों की चर्चा और नीतियों का विश्लेषण निष्पक्ष होकर नहीं करता, जिसके चलते देश में सरकार की नकारात्मक छवि बनती है। कुछ दिनों पहले गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भी अपने उस बयान को तोड़ने-मरोड़ने के लिए मीडिया को जिम्मेदार ठहराया था जिसमें उन्होंने गेहूं और चावल के दाम बढ़ने पर मध्यवर्ग द्वारा किए जा रहे विरोध के संदर्भ में टिप्पणी की थी। इस टिप्पणी पर विपक्षी दलों ने चिदंबरम और सरकार की जमकर आलोचना की।
यह पहला वाकया नहीं है जब केंद्र के किसी वरिष्ठ मंत्री के बयान पर सार्वजनिक मंचों पर और मीडिया के एक हिस्से में हाय-तौबा मची हो। पिछले डेढ़ साल में नीतिगत स्तर पर लिए जाने वाले बहुत-से फैसलों की बाबत केंद्र सरकार के नीति-निर्माता और स्वयं प्रधानमंत्री मीडिया के निशाने पर रहे हैं। इन सभी आलोचनाओं और हमलों पर यूपीए और मनमोहन सिंह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि नीतिगत स्तर पर लिए गए उनके फैसलों में कोई खोट नहीं है और सार्वजनिक दायरे में उनकी नीतियों के सकारात्मक पक्ष को धुंधला बनाने के लिए मीडिया-जनित विरोध जिम्मेदार है।
इसीलिए इस साल बजट सत्र से पहले प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा पत्रकारों और मीडिया जगत को विभिन्न मंत्रालयों के अंर्तगत चलने वाली लोककल्याणकारी योजनाओं के सकारात्मक परिणामों की जानकारी देने के लिए पत्र सूचना कार्यालय के नेतृत्व में अभियान चलाया गया। गृहमंत्री पी चिदंबरम की बंगलोर यात्रा भी इसी अभियान का हिस्सा थी जिसमें उन पर विभिन्न राज्यों की राजधानी में जाकर केंद्र सरकार की तीन साल की उपलब्धियों की जानकारी स्थानीय मीडिया को देने की जिम्मेदारी थी।
यह सचमुच एक बड़े अंतर्विरोध की स्थिति है कि मनमोहन सरकार इस वक्तन सिर्फ देश में, बल्कि पूरी दुनिया में मीडिया के उन हिस्सों में साख के संकट का सामना कर रही है जिनको मनमोहन सिंह के नवउदारवादी नुस्खे और विकास मॉडल में अटूट विश्वास रहा है। इस अंतर्विरोध को अगर टाइम मैगजीन द्वारा मनमोहन सिंह के संदर्भ में आज से दो साल पहले की गई टिप्पणी और हाल में की गई टिप्पणी से समझा जाए, तो तस्वीर और साफ हो जाती है। 2010 में टाइम मैगजीन ने मनमोहन सिंह को दुनिया के सौ शक्तिशाली व्यक्तियों में एक माना था और हाल में टाइम की ही एक रिपोर्ट ने उनको 'अंडरअचीवर' की संज्ञा दी। सिर्फ 'टाइम' नहीं, बल्कि बड़ी पूंजी से संचालित होने वाले अधिकतर देशी-विदेशी मीडिया घरानों का मनमोहन सिंह और उनकी विकास-कथा से मोहभंग हो रहा है। उनका यह मोहभंग नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को तेजी से लागू न कर पाने के कारण मनमोहन सिंह के प्रति आए दिन निराशा जताने वाली वाली प्रतिक्रियाओं के रूप में व्यक्त हो रहा है।
बहरहाल, नवउदारवादी विकास नीतियों के अगुआ के रूप में मनमोहन सिंह और यूपीए की साख के इस संक्रमण काल में यह सवाल एक विशेष प्रासंगिकता हासिल कर लेता है कि आखिर बड़ी पूंजी से संचालित होने वाले मीडिया घराने किन वजहों से मनमोहन सिंह के नेतृत्व को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं? क्या पिछले एक-डेढ़ साल में यूपीए सरकार की आर्थिक नीतियों और कामकाज के तरीकों में एकाएक कोई खोट आ गई है या फिर इतने समय में ये मीडिया घराने सजग हो गए हैं?
वास्तव में ये दोनों स्थितियां भ्रामक हैं। इसको समझने के लिए नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की समर्थक मानी जाने वाली पत्रिका 'इकोनोमिस्ट' की उस टिप्पणी पर गौर करते हैं जिसमें उसने लिखा है: ''नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के दौर में भारत ने न सिर्फ अच्छी विकास दर हासिल कर ली थी, बल्कि निवेश और बचत के स्तर को भी बढ़ाया था। साल 2004 से 2007 के बीच तो यह विकास दर बहुत तेज रही। लेकिन मनमोहन सिंह के नेतृत्व में पिछले कुछ सालों में अपनाई गई कठोर राजकोषीय नीतियों के चलते कॉरपोरेट घरानों में बुरी तरह निराशावाद फैला है। ऐसा लगता है कि भारत को फिर से राजनीतिक इतिहास लिखने की जरूरत है। 1991 में आर्थिक सुधारों को लागू करने वाले नीति-निर्माता, जिनमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी शामिल थे, नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को पूर्ण समर्पण के साथ लागू कर पाने के प्रति दूरदर्शी साबित नहीं हुए हैं। ये नीति-निर्माता भारतीय मतदाताओं और भारत के राजनीतिक वर्ग के बीच पुन: जरूरी हो गए आर्थिक सुधारों के लिए सहमति का माहौल तैयार करने में विफल रहे हैं।'' (द इकोनोमिस्ट, 31 मई)   
अगर 'इकोनोमिस्ट' की इस टिप्पणी को बड़ी पूंजी के मीडिया घरानों द्वारा मनमोहन सिंह सरकार की नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की आलोचना के प्रतीक के रूप में स्वीकार कर लें, तो यह कहा जा सकता है कि अधिकतर मौकों पर मनमोहन सिंह की आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की विफलता और विदेशी निवेशकों और कॉरपोरेट घरानों के लिए अनुकूल स्थितियां तैयार न कर पाने जैसे मुद्दे ही मीडिया की आलोचना के केंद्र में हैं।
इस आलोचना को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए प्रतिकूल होती स्थितियों और लगातार सिकुड़ती विकास दर के आंकड़ों से बल मिलता रहा है। इन आलोचनाओं के चरित्र को देख कर यह कहा जा सकता है कि इनका मकसद मनमोहन सिंह को नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को सफलतापूर्वक लागू कर पाने के लिए अधिक जवाबदेह बनाना और अर्थव्यवस्था में बड़ी पूंजी के विस्तार में बाधा बन रही नीतिगत समस्याओं को दूर करने के लिए उन पर दबाव बनाना है। थोड़ा पीछे चल कर देखें तो यह साफ हो जाएगा कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व को ऐसे मुद््दों पर घेरने की कोशिश की गई है जिनका सार यह है कि बड़ी पूंजी से संचालित होने वाले घरानों के हितों के संरक्षक के रूप में वे लगातार कमजोर पड़ते चले गए हैं।
पिछले वर्ष योजना आयोग द्वारा गरीबी रेखा की अव्यावहारिक परिभाषा देने पर मची हाय-तौबा में मीडिया के विमर्श में मनमोहन सिंह और उनकी आर्थिक नीतियों के प्रति कोई निश्चित दृष्टि नहीं थी। इसे मीडिया घरानों द्वारा एक ऐसे मौके के रूप में इस्तेमाल किया गया, जिसके जरिए सरकार पर बड़ी पूंजी के विस्तार में बाधा बन रही नीतिगत विफलताओं का ठीकरा फोड़ा जा सकता था। चूंकि खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रस्ताव बड़ी पूंजी के विस्तार का एक प्रयास था, लिहाजा इसके लिए एक सकारात्मक माहौल तैयार करने की कोशिश की गई। बाद में जब देशव्यापी विरोध के बीच सरकार को यह फैसला वापस लेना पड़ा तो मनमोहन सिंह की अर्थनीति में आई चुनावी और संसदीय मजबूरियों के चलते उन्हें कोसा गया।
इस बीच उद्योग जगत की बड़ी-बड़ी हस्तियों ने सरकार को नीतिगत पक्षाघात का शिकार बता कर अपनी नाराजगी जाहिर की। इन सभी मौकों पर मीडिया घरानों ने मनमोहन सिंह से उद्योग जगत की बढ़ती निराशा को ही आवाज दी। यह महज इत्तिफाक नहीं है कि इस दौरान बड़ी पूंजी द्वारा संचालित होने वाले मीडिया घरानों की आलोचना के केंद्र में ऐसे मुद्दे पूरी तरह नदारद रहे हैं, जिनके जरिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों के अंतर्विरोधों को सामने लाया जा सकता था।
साल 2010 में जब मनमोहन सिंह के नेतृत्व को लेकर ऐसे मोहभंग का माहौल नहीं था और आठ प्रतिशत से भी अधिक की विकास दर को उनके नेतृत्व की उपलब्धि माना जा रहा था, तब देश में बेरोजगारी दर 9.4 प्रतिशत दर्ज की गई थी (सरकारी श्रम ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार)। यही नहीं, मनमोहन सिंह सरकार की विकास-कथा की असलियत बयान करने के लिए ऐसे बहुत से तथ्य हैं जिनका संदर्भ लिया जा सकता है।
देश में बढ़ती बेरोजगारी, गरीबों और अमीरों के बीच सामाजिक अवसरों के मामले में पैदा हुई विषमता, शहरी और ग्रामीण भारत के बीच तीखा होता विभाजन और व्यवस्थागत रूप धारण करती आर्थिक असमानता जैसे मुद्दे न तो बड़ी पूंजी से चलने वाले मीडिया के आलोचनात्मक विमर्श में तब थे और न आज हैं। यहां तक कि भ्रष्टाचार को एक नैतिक मुद्दा बना कर खड़े हुए अण्णा हजारे के आंदोलन के वक्तभी मीडिया ने भ्रष्टाचार के व्यवस्थागत होते रूप और कॉरपोरेट घोटालों पर चुप्पी साधे रखी।
दरअसल, मीडिया घराने यह जानते थे कि ऐसे मुद्दों को अपने आलोचनात्मक विमर्श में लाना बड़ी पूंजी के विस्तार के मार्ग में खुद बाधा बनने और बड़ी पूंजी के साझा हितों पर हमला करने जैसा होगा। दरअसल, बड़ी पूंजी के मीडिया घरानों का मनमोहन सिंह के प्रति नैराश्य-भाव नवउदारवादी आर्थिक नीतियों से चालित किसी भी पूंजीवादी लोकतांत्रिक राज्य-व्यवस्था की उस आंतरिक गति का परिणाम है जिसके चलते समाज के खास हिस्से में पूंजी का संकेंद्रण इस हद तक हो जाता है कि उसे अपने प्रचार और विस्तार के लिए शासन के पुराने ढांचों का विरोध करना पड़ता है और नए रास्ते तलाशने पड़ते हैं।
चूंकि इन मीडिया घरानों की संचालक शक्तियां भी बड़ी पूंजी की गिरफ्त में हैं इसलिए आर्थिक सुधारों की रुकी हुई गाड़ी और सिकुड़ती विकास दर इन्हें अपने विस्तार में बाधा नजर आ रही है। ऐसे में यह मान लेने का आधार बहुत मजबूत हो जाता है कि 'टाइम', 'दि इंडीपेंडेंट' और देश-विदेश में बड़ी पूंजी से संचालित होने वाले मीडिया घरानों की ओर से की गई मनमोहन सिंह की आलोचना का मकसद उनको लोकतांत्रिक तौर पर जवाबदेह बनाना नहीं, बल्कि बड़ी पूंजी के हितों की रक्षा के लिए उन पर आवश्यक दबाव बनाना है। स्वयं मनमोहन सिंह इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं होंगे कि कभी उनके नेतृत्व की तारीफ में कसीदे पढ़ने वाले और वफादार रहे बड़ी पूंजी के मीडिया घराने उनकी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों में व्यापक रूप से अपने विस्तार की संभावनाएं देखना फिलहाल बंद कर चुके हैं।
शायद यही कारण है कि उनको अपनी विकास योजनाओं की उपलब्धियां गिनाने के लिए अलग-अलग राज्यों में जाकर स्थानीय मीडिया का सहारा लेना पड़ रहा है। हालांकि ऐसा करते हुए वे भूल जाते हैं कि उनको ही नहीं, बल्कि हर राजनेता को वोट एक गरीब देश से ही मांगने पड़ते हैं।


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