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Saturday, September 29, 2012

उत्पीड़न के बहाने

उत्पीड़न के बहाने
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/29498-2012-09-29-08-45-03
Saturday, 29 September 2012 14:14

अनिल चमड़िया
जनसत्ता 29 सितंबर, 2012: जब राजनीतिक दल और नेता पोटा, टाडा और गैर-कानूनी गतिविधि निवारक कानून जैसे कानून बनाने पर जोर देते हैं या ऐसे कानूनों के लगातार दुरुपयोग पर चुप्पी साध लेते हैं तो इसे लोकतांत्रिक राजनीति के पुलिसियाकरण होने का ही संकेत मानना चाहिए। इस तरह के कानूनों में किसी के खिलाफ पुलिस और खुफिया एजेंसियों के आरोपों को मान लेने की बाध्यता जैसी स्थिति होती है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया के शिक्षकों के एक संगठन ने 1992 के बाद की वैसी सोलह घटनाओं के तथ्यों का संकलन किया है जिनमें पुलिस ने मुसलिम समुदाय के कुछ लोगों पर आतंकवादी होने का झूठा आरोप लगाया था। न्यायालय में ये आरोप टिक नहीं पाए। क्या हमें यह पड़ताल नहीं करनी चाहिए कि ऐसी घटनाओं के दौरान लोकतंत्र के स्तंभ कहे जाने वाले दूसरे घटकों की क्या प्रतिक्रिया थी।
निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि विधायिका और मीडिया की उस दौरान की भूमिका सही साबित नहीं हुई। लोकतंत्र में विधायिका सर्वोपरि होती है और संविधान से इतर मीडिया को चौथा स्तंभ माना जाता है। लेकिन ये दोनों ही स्तंभ उन सवालों के दबाव में आ गए जो जमीनी स्तर से नहीं उपजे थे बल्कि गढ़े गए थे। सुरक्षा से जुड़ेसवालों का इतना दबाव बन गया है कि लोकतंत्र के विभिन्न स्तंभ अपनी भूमिका को कई बार लगभग स्थगित कर देते हैं और इसका नुकसान सीधे लोकतांत्रिक परंपराओं, आस्थाओं और मूल्यों को होता है।
एक के बाद एक आतंकवादी घटनाओं के होते रहने या वैसी परिस्थितियां दिखने से समाज के सामने कई तरह के सवाल गंभीर हो जाते हैं। वे लोकतंत्र के स्तंभों को उन घटनाओं के आलोक में कड़े फैसले लेने पर मजबूर करते हैं। निश्चित ही जिस तरह से आतंकवाद को लोकतंत्र पर प्रहार माना जाता है उसी तरह से आतंकवाद की अवास्तविक स्थितियां दिखाना भी लोकतंत्र पर हमले का दूसरा रूप है। क्योंकि लोकतंत्र के स्तंभों को तब अपनी परंपराओं और मूल्यों को क्षति पहुंचाने वाले कड़े फैसले करने होते हैं। न्यायालय जब किसी आरोपी को दोष-मुक्त करता है तो वह पुलिस पर मनमानी करने का आरोप सीधे भले न लगाए, लेकिन सुरक्षा बलों के प्रति अविश्वास और नाराजगी का भाव इस तरह के फैसले में अंतर्निहित होता है।
देश में कई बार लोकतंत्र पर हमले की तैयारी की आशंका जाहिर की गई है। लेकिन ऐसे अधिकतर मौकों पर यही देखा गया कि वैसी स्थितियां नहीं थीं जैसी कि दिखाई गर्इं। चिंता की बात तो यह है कि स्थितियों के बदतर होने का आकलन जिस तरह से प्रस्तुत किया जाता है उस पृष्ठभूमि में लोकतंत्र के सर्वोच्च स्तंभ विधायिका की भूमिका आखिरकार उसके पक्ष में सक्रिय हो जाती है। यहां विधायिका में बहुमत का ही महत्त्व है। बहुमत से ही कानून बनाए जाते हैं और बहुमत के बगैर जो राय और आशंका प्रकट की जाती है उसे दरकिनार कर दिया जाता है। विप के जरिए नेतृत्व के फैसले को स्वीकार कर लेने की बाध्यकारी स्थितियां तैयार कर ली गई हैं।
अगर आकलन किया जाए कि आतंकवाद के नाम पर निर्दोष लोगों को पकड़े जाने के खिलाफ विधायिका में जनप्रतिनिधियों की भूमिका लगातार कमजोर क्यों होती चली गई है तो निराशा ही हाथ लगती है। यह सामान्य अनुभव रहा है कि पोटा, टाडा जैसे जितने भी कानून बने हैं उनसे आतंकवाद के नाम पर कमजोर वर्गों के दमन और उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ी हैं। इसमें सुरक्षा बलों की भूमिका बढ़-चढ़ कर होती है। फिर भी राजनीतिक दल खामोश रहते हैं।
इस तरह का एक अध्ययन किया जाना चाहिए कि मानवाधिकार हनन की घटनाओं को लेकर राजनीतिक पार्टियों और गैरचुनावी संगठनों में किसकी कैसी भूमिका रही है। किसी भी राजनीतिक पार्टी की किसी शाखा या घटक संगठनों ने मानवाधिकार हनन की घटनाओं को लेकर कोई अध्ययन करने की जरूरत कभी महसूस नहीं की है। ऐसी घटनाओं पर बोलना और अपनी सक्रियता जाहिर करना वे अपने वक्त और संसाधनों की बर्बादी ही मानते हैं। अलबत्ता जब उनके कार्यकर्ताओं के खिलाफ जब पुलिस दमन और उत्पीड़न की घटनाएं होती हैं तो वे जरूर कुछ हरकत में आते हैं। इसलिए कि चुप रहने पर उनके कार्यकर्ताओं का मनोबल न टूट जाए।
इस देश में लोकतांत्रिक परंपराओं और मूल्यों की रक्षा करने में गैर-राजनीतिक पार्टियों, संगठनों और संस्थाओं की बहुत बड़ी और महत्त्वपूर्ण भूमिका दिखाई देती है। एक तरह से कहा जाए कि ये राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल की तरह काम करते हैं।
चुनावी पार्टियों को जब यह लगने लगता है कि किसी समुदाय विशेष के उत्पीड़न और दमन की घटनाओं पर चिंता जाहिर करने से उन्हें लाभ हो सकता है तभी वे सक्रियता दिखाने को बाध्य होती हैं। जामिया मिल्लिया के शिक्षकों ने केवल न्यायालय से बरी हुए आरोपियों के मामलों का संकलन पेश किया है। यानी लोकतंत्र के एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ न्यायपालिका के फैसले को ही अपनी प्रतिक्रियाओं के रूप में सामने रखा है। जबकि लोकतांत्रिक परंपरा यह रही है कि उत्पीड़न और दमन की घटनाओं की जांच ऐसी संस्थाएं और संगठन करते रहे हैं और उनकी जांच को गंभीरता से लिया जाता रहा है। यहां तक कि कई बार राजनीतिक दल भी अपनी जांच समिति गठित करके जांच के निष्कर्षों से समाज और लोकतंत्र के संवैधानिक स्तंभों और मीडिया को प्रभावित करते रहे हैं। हम इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि दमन और उत्पीड़न   की घटनाओं के प्रति सजग गैर-चुनावी संगठन और लोग सक्रिय नहीं होते तो लोकतंत्र का ग्राफ कितना नीचे पहुंच चुका होता।
लोकतंत्र में दो तरह के लोग हैं। एक कार्यकर्ता कहा जाता है और दूसरा सत्ता पर काबिज होकर शासक के इतिहास में दर्ज होने की भूख वाला पात्र होता है। लोकतंत्र का यह कार्यकर्ता ही है जो इतिहास में अपने नाम को दर्ज कराने से बेपरवाह होकर उत्पीड़न और दमन के खिलाफ सक्रिय होता है। उसकी चिंता नागरिक अधिकारों और मानवीय मूल्यों को लेकर होती है। जबकि उसे लगातार उपेक्षा भी झेलनी पड़ती है। कई लोगों के अनुभव से मालूम होता है कि जब किसी उत्पीड़ित समूह को उसके शोषण, दमन, उत्पीड़न और अधिकार से वंचना की स्थिति में आंदोलन की जरूरत महसूस होती है तो वे उनका साथ लेते हैं और उनकी उपस्थिति को अनिवार्य मानते हैं। लेकिन जैसे ही आंदोलन की स्थितियां खत्म होती हैं वे भुला दिए जाते हैं। लेकिन वह लोकतंत्र का कार्यकर्ता है कि उत्पीड़न-विरोधी चेतना विकसित करने की योजना पर कायम रहता है। जिसकी कोई नहीं सुनता, उसके लिए वही सक्रिय नजर आता है।
आमतौर पर जो लोग मानवाधिकार हनन के खिलाफ तथ्य-संग्रह के साथ अपना विरोध दर्ज करते हैं उनपर तरह-तरह की तोहमत लगाई जाती हैं। कड़े कानूनों में इस बात पर जोर रहता है कि अगर सुरक्षा बलों की हिरासत में आरोपित ने संबंधित आरोप स्वीकार कर लिया है तो न्यायालय भी उसे उसी रूप में स्वीकार कर ले। यह तो पुलिस-व्यवस्था का एक तरह से विस्तार करना ही हुआ। न्यायालय में खुली सुनवाई होती है और आरोपित वहां अपनी बात निडर होकर कह सकता है। ऐसी स्थितियां लोकतंत्र के लिए जरूरी मानी गई हैं।
लेकिन इन कानूनों के साथ दूसरी मुश्किल यह है कि सुरक्षा बलों ने जो आरोप लगाए हैं उन्हें साबित करने की जिम्मेदारी उनकी नहीं होती, बल्कि उस आरोपित को ही न्यायालय में यह साबित करना होगा कि सुरक्षा बलों के लगाए गए आरोप सही नहीं हैं। ऐसे ही कानूनों के कारण समाज के कई कमजोर लोग निर्दोष होते हुए भी जेलों में बरसों तक सड़ते रहते हैं। उनके पास न तो शासन तक अपनी पहुंच बनाने का कोई जरिया होता है न वकील की सेवा लेने के लिए पैसे होते हैं।
जामिया के शिक्षकों ने जो तथ्य संकलन किया है उसके मद््देनजर पुलिस की ओर से यह अजीब-सी बात कही गई कि उनमें से कुछ मामलों को लेकर उच्च न्यायालय में अपील दायर की गई है। दूसरी बात यह कही गई है कि जिन एक सौ बयासी आतंकवादी घटनाओं की जांच-पड़ताल दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा द्वारा की गई उनमें एक सौ तैंतीस मामलों में न्यायालय के फैसले आए हैं और सजा वाले मुकदमों की संख्या अड़सठ प्रतिशत है।
जब कांग्रेस और भाजपा के बीच सांप्रदायिक दंगों को लेकर बहस होती है तो दोनों के नेता उन आंकड़ों को दोहराते हैं कि किसके शासन में कितने दंगे हुए। दंगे न हों और इसमें राजनीतिक पाटिर्यों और उनके शासन की भूमिका क्या होनी चाहिए इस पर बहस नहीं हो पाती। यह मुद््दा ही सिरे से गायब कर दिया जाता है। यही भाषा सुरक्षा बलों के पास भी पहुंच गई है।
न्याय का सिद्धांत इस मूल्य पर आधारित होता है कि सैकड़ों दोषी भले छूट जाएं लेकिन एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। सुरक्षा बलों के लगाए गए आरोपों में तो विशेष जाति या विशेष धार्मिक समुदाय के एक नहीं, कई-कई लोग एक साथ फंसा दिए जाते हैं। कई अदालती फैसलों से यह जाहिर है कि ऐसे लोग बेवजह वर्षों तक सलाखों के पीछे रह चुके हैं। फिर भी उन अनुभवों से कुछ सीखने की तैयारी सुरक्षा-तंत्र में नहीं दिखती। जामिया के शिक्षकों की पहल से हुए तथ्य-संकलन के अलावा कई ऐसे मामले देश के दूसरे हिस्सों से भी सामने आए हैं।
नक्सलवाद और माओवाद के नाम पर भी ढेरों झूठे मामले सामने आ चुके हैं। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि न्यायालयों में जिन मामलों में सजा मिली है उनका तकनीकी और परिस्थितियों के आधार पर कोई अध्ययन अभी नहीं किया गया है। संभव है कि किसी तकनीकी कारण भर से कोई निर्दोष दोषी की श्रेणी में पहुंच गया हो और न्यायालय को उसका भान भी न हो। न्यायालय में फैसलों के पीछे कई तरह की परिस्थितियां काम करती हैं। आखिरकार लोकतंत्र को सुरक्षा बलों और खुफिया एजेंसियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। उनकी चिंता के साथ-साथ लोकतंत्र के मूल्यों और अधिकारों की रक्षा कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।


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