बोरकर ने माना कि कांशीराम का प्रयोग फेल, बामसेफ को अंबेडकर के आंदोलन में लौटना होगा, जाति अस्मिता ने बहुजन समाज का निर्माण ही नहीं होने दिया और कारपोरेट राज में तब्दील है मनुस्मृति व्यवस्था!
कार्यकर्ताओं ने एकीकरण के हक में आवाज उठायी, बोरकर भी एकीकरण के पक्ष में
पलाश विश्वास
इसी साल मार्च में मुंबई में हम लोगों ने बामसेफ के विभिन्न धड़ो के एकीकरण की मुहिम शुरु की। उस सम्मेलन में दो धड़ो के बड़े नेता हाजिर हुए, बाकी नहीं। हांलांकि कार्यकर्ता सभी धड़ों से आये। जो दो बड़े नेता हाजिर हुए उनमें एक ताराराम मैना भील आदिवासी हैं तो दूसरे बीडी बोरकर साहब कांशीराम खापर्डे के साथ काम करने वाले संगठनात्मक अनुभव के सबसे बड़ दक्ष नेता। जिन्होंने कम से कम बामसेफ के एक धड़े को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में डाला हुआ है, जहा ं मनोनयन नहीं, बाकायदा निर्वाचन होता है।खुद बोरकर पांच साल तक इस बामसेफ के अध्यक्ष रहने के बाद अब दूसरे चुने हुए अध्यक्षों के मातहत पुरानी निष्ठा के साथ काम कर रहे हैं।अंबेडकरवादी संगठनों में वे एकमात्र अपवाद हैं जो नेतृत्व से हटने के बावजूद संगठन उन्हीं के नाम से जाना जाता है।हम लोगों के आग्रह के बाद बाकायदा संगठन में प्रस्ताव पारित कराकर वे सम्मेलन में हाजिर हुए और एकीकरण के लिए लोकतांत्रिक संगठनात्मक ढांचा बनाने का वायदा उन्होंने किया। हम लोग उसी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं और आगामी आठ सितंबर को नागपुर में कार्कर्ताओं की महासभा में एकीकृत बामसेफ को अमली जामा पहनाया जायेगा।
परसो बोरकर साहब ने फोन किया कि वे कोलकाता आयेंगे और उन्होंने पूछा कि क्या मैं उनसे मिल सकता हूं। उन्होंने बताया कि शनिवार को शाम साढ़े तीन बजे कालेज स्ट्रीट के त्रिपुरा हितसाधनी सभा के हाल में उनका कार्यक्रम है।मेरे रोजमर्रे की जिंदगी से महानगर कोलकाता एकदम बाहर है। मैं ्मूमन कोलकाता की उठपटक से दूर रहता हूं। अपने लोगों के मद्दों को उठाने के अलावा मेरे ेजंडा में अब कुछ नहीं है। इसलिए कीसी कार्यक्रम में मैं जाता नहीं।वर्षों बाद अपने अग्रज पत्रकार पी साईनाथ से मिलने के लिए मैंने यह नियम तोड़ा और हफ्तेभर में बोरकर साहेब का फोन आया। वेजिस तरह हमारे मतामत को तरजीह देते हैं ौर खास तरह जैसे वे हमारे सम्मेलन में चले आये, फिर एकीकरण का उनके संगठन ने बाकायदा कार्यकारिणी और आम सभा में स्वागत किया,उनसे मिलने न जाते तो यह कतई भारी अभद्रता होती।चूंकि हम एकीकरण प्रक्रिया में हैं तो किसी एक धड़े के खुले कार्यक्रम में शामिल होने परदूसरे धड़ों से सवाल उठ सकते हैं, यह जोखिम उठाकर भी मैं बोरकर साहेब से मिलने त्रिपुरा हित साधनी सभा में चला गया।
सोदपुर से कालेज स्ट्रीट को बस से ही सीधे पहुंच सकते हैं। ट्रेन या मेट्रो का सहारा लने परभी फिर बसयात्रा करनी होती है। रास्ते में मेरी चप्पल फट गयी। तो मैं कार्यक्रम शुरु होने के करीब आधा घंटा बाद पहुंचा। मेरे दाखिल होते ही बोरकर साहब नेमुझे मंच पर बुला लिया। तब वे बोल रहे थे। वे कोई चमत्कारी वक्ता हैं नहीं।तथ्यों और विश्लेषण से भरा होता है उनका वक्तव्य। वे सनसनीखेज कुछ नहीं कहतेऔर न भावनाओं से खेलते हैं। इसलिए आम मसखरों की तरह उनका भाषण किसी को मंत्रमुग्ध नहीं कर सकता। लेकिन इस दिन उन्होंने जो कहा ,उससे हमारी आंखें खुल गयीं।
पहलीबार उन्होंने बामसेफ के मंच सेम माना कि मान्यवर कांशीराम जी का प्रयोग फेल कर गया है। बामसेफ कार्यकर्ताओं के बीच बामसेफ के किसी नेता का ऐसा कहना कितना खतरनाक है, जो लोग बामसेफ और कम से कमअ अंबेडकरवादियों के जड़ मतामत को जानते हैं, वे ही समझ सकते हैं। लेकिन बोरकर साहब ने इसका सिलसिलेवार खुलासा किया और कहा कि जिसकी संख्या जितनी भारी,उसकी उतनी हिस्सेदारी के तहत सत्ता में हिस्सेदारी से बहुजनों का कोई कल्याण नहीं हुआ है। मजे की बात तो यह है कि इस संदर्भ में उन्होंने पुणे समझौते के बहु उल्लेखित तर्क का हवाला नहीं दिया। बल्कि सीधे सत्ता समीकरण के गणित को खोलते हुए कहा कि यह विचार अब जाति अस्मिता में तब्दील हो गया है और जाति पहचान के आधार पर सत्ता में भागेदारी के लिए जो सोशल इंजीनियरिंग की जाती है, उससे मान्यवर कांशीराम के रास्ते पर चलते हुए सत्ता के लिए जातियां उन्हीं वर्चस्ववादी तत्वों के ही हाथ मजबूत कर रही हैं, जिसके खिलाफ पचासी फीसद का यह नारा है।
बोरकार साहब ने चुनिंदा श्रोताओं से सीधे पूछा, आपकी समस्याएं अगर जाति के कारण है और मनुस्मृति व्यवस्था की वजह से अगर आप गुलाम हैं तो मनुस्मृति व्यवस्था को तोड़ने के लिए आप जाति तोड़ने के बजाये जाति से चिपके हुए उसे मजबूत से मजबूत बनाने के लिए हरसंभव कोशिश क्यों कर रहे हैं?इससे अंततः मनुस्मृति व्यवस्था ही बहाल नहीं रहती, बल्कि वह दिनोंदिन और मजबूत होती है।
उनका कहा खत्म होने पर कायदे से सभा खत्म हो जानी थी, लेकिन उन्होंने मुझसे वक्तव्य रखने को कहा। मैंने उन्हीं के तर्क को आगे बढ़ाते हुए यह सवाल उठाया कि हम अंबेडकर के अवसान के बाद उनकी जाति उन्मूलन की परिकल्पना को पीछे छोड़कर उनके आर्थिक सिद्धांतो को किनारे रखकर सत्ता में हिस्सेदारी के लिए बाबासाहेब के सिद्धातों की तिलांजलि दे रहे हैं। मनुस्मृति व्यवस्था आज कारपोरेट राज है और जिनकी वजह से देश के निनानब्वे फीसद लोग अर्थव्यवस्था से बाहर है, हमारी सत्ता में भागेदारी की जाति असमिता ने उन्हे खुले बाजार में ेकाधिकरवादी वर्चस्व का हकदार बना दिया।राजनीति दरअसल अर्थ व्यवस्था हैऔर इसे बाबा साहेब ने अपने लिखे से सिलिसलेवार तरीके से साबित कर चुके हैं लेकिन हपहुजनों ने उसपर ध्यान न देकर अस्मिताओं के पचड़े में पड़कर खुद को हिदुत्व की पैदल सेना में तब्दील कर लिया है, और बाबासाहब की जयंती का सालाना कर्मकांड करके उन्हें ईश्वरतुल्य बनाकर उनके विचार और आंदोलन को हमने कबाड़ के मोल बेच दिया है। बाबासाहेब का नाम लेकर तीस सालकी ्वधि से खंड खंड विखंडित बामसेफ ने उन आर्थिक मुद्दों को कभी स्पर्श करने की भी चेष्टा नहीं कि जो अंबेडकर आंदोलन के आधार और प्रस्थानबिंदू है।बामसेफ कर्मचारियों का संगठन है लेकिन कर्मचारी जिन समस्याओं से रूबरू होते हैं, उनसे बमसेफ का कोई सरोकार नहीं है। बाबासाहेब ने अपनी सीमित क्षमता और समर्थन के बावजूद प्राकृतिक संसाधनों पर वंचित जनसमुदाय के हक हकूक बहाल करने के लिए पांचवी और छठी अनुसूची, दारा 3बी व सी के तहतजो रक्षाकवच दे गये, उसे लागू करने में हमनेकोई पहल नहीं की। संविधान की जो रोजना हत्या हो रही है,एक एक करके जीवन के हर क्षेत्र को जो सांड़ों से नियंत्रित शेयकर बाजार से जिस तरह न्थी किया जा रहा है, जैसे निजीकरणकी आंधी में ारक्षम को बेमतलब किया जा रहा है, उसेखिलाफ हम प्रतिरोध की कोई जमीन बना नहीं सकें। जो सामाजिक सास्कृतिक आंदोलन बामसेफ का चरित्र है, वह सत्ता में भागेदारी और निजी महात्वाकांक्षाएं साधने का साधन बनकर रह गया। बहुजनों से उसका कोई सरोकार ही न रहा।
बीच बीच में हस्तक्षेप करके बोरकर साहब ने खुलकर कहा कि तानाशाही से चलने वाले संगठन जहां बाकी लोग संगठन में सहभागी नही ंहते,सिर्फ अंध भक्त होते हैं, वहां लोकतंत्र की कोई गुंजाइश होती नहीं है और ऐसेसंगठन से किसी बदलाव की कोई उम्मीद नहीं है। उनका कहना है कि बाबासाहेब के विचारों से बहुजनं को नौकरियों में आरक्षण के जरिये निजी फायदे जरूर हुए, बामसेफ आंदोलन की वजह से सत्ता में भी हिस्सेदारी मिल गयी,लेकिन बहुजन समाज आज भी बहिस्कृत है।आज भी अस्पृश्य है। हम लोग एक दूसरेको अस्पृश्य बनाये हुए हैं। हमारी सामूहिक पहचान हमारी मूलनिवासी विरासत की कोई अभिव्यक्ति है ही नहीं। जिस जाति के कारण हमारी यह दुर्गति है, उसी को बनाये रखने में हम जी तोड़ कोशिश में लगे हैं। नतीजतन अंबेडकर आंदोलन से मिलने वाले लाभों से बहुजन समाज वंचित ही रहा और सही मायने में बहुजन समाज का निर्माण हमारी जाति पहचानकी वजह से हुआ ही नहीं है।
हम लोग बोल चुके तो बोरकर साहब ने सभा में मौजूद हर शक्स को लाइन से बोलने का मौका दिया। असली बवंडर तब सामने आया।
कई कार्यकर्ताओं ने पूछा कि अगर हमारा उद्देश्य और विचार एक हैं तो बामसेफ के इतने धड़े क्यों हैं?
अलग अलग धड़े एक ही रजिस्ट्रेशन नंबर का इस्तमाल क्यों करते हैं?
हम जब फील्ड में जाते हैं तो लोग पूछते हैं कि आप किस बामसेफ से हो!
अंबेडकर , कांशीराम और खापर्डे साहब के विचारों का हवाला देते रहने के बावजूद आप लोग अ्लग अलग क्यों है?
बामसेफ के सारे कार्यकर्ता एकता चाहते हैं तो नेतागण अलग अलग दुकान क्यों चलाते हैं?
जब बहुजन समाज जल जंगलजमीन से बेदखल हो रहा है, जब खुले बाजार में उसकी नौकरियां, आजीविका छिनी जा रही है, जब उसकी नागरिकता डिजिटल बायोमेट्रिक षड्यंत्र में खत्म हो रही है, जब रोजाना संविधान की हत्या हो रही है, तब समता और सामाजिक न्याय का नारा लगाकर आप लोग सत्ता की भाषा क्यों बोल रहे हैं?
बहुजन आंदोलन कब निजी महत्वाकांक्षाओं,, निहित हित, संसाधनों के निजी इस्तेमाल और सर्वव्यापी तानाशाही से मुक्त होगा?
बोरकर साहब बोलते इससे पहले मैंने हस्तक्षेप करके कार्यक्रताओं को यह जानकारी दी कि ये सवाल सिऱ्प उनके नहीं हैं, इस देश के निनानब्वे फीसद जनता के सवाल है, जिनके हित में कोई नही खड़ा है, जनके निरंकुश दमन और कारपोरेट अश्वमेध, नरसंहार संस्कृति के विरुद्द प्रतिरोध के बजाय निरंतर विश्वासघात का सिलसिला है विचारधारा और आंदोलन के नाम पर।हर ईमानदार कार्यकर्ता ऐसे सवाल पूछ रहा है और कोई नेता इसे सुनने को तैयार नहीं है। मैंने बोरकर साहब से कहा कि आप अब जवाब दें।
इसके बाद तो पूरी सभा एकीकरण सभा में तब्दील हो गयी।
बोरकर साहब ने फिर दोहराया कि एकीकरण के प्रयासों का वे और उनका संगठन स्वागत करता है। फिर उन्होंने अंबेडकरवादी एक राजनीतिक दल के बारह धड़ों का उदाहरणदेकर समझाया कि संगठन क्यों टूटता है।उन्होंने कहा हिलाब मांगने या सवाल खड़ा करने पर अगरकिसी भी कार्यकर्ता को कभी भी कहीं भी दरवाजा दिखा दिया जाता हो तो संगठनों के धड़े बनना कोई रोक नहीं सकता। सबके अपने विचार मतामत हो सकते हैं, संगठन, उद्देश्य और मिसन के मद्देनजर उनका समायोजन करके ही संगठन आगे बढ़ता है। आप मजमा चाहे कितना बड़ा खड़ा कर ले, लेकिन जन सरोकार के मुद्दों पर आपकी कोई हलचल न हो और नेता के अलावा किसी की कोई स्वतंत्र आवाज न हो, तो ऐसे संगठन के जरिये पुरखों की विरासत, उनके विचारों और आंदोलन के दोहन से निजी हित तो सध सकते हैं, बहुजनों का कोई हित नहीं सधता।
बोरकर ने खुलकर कहा कि निजी स्वार्थ के कारण ही, नेताओं की तानाशाही के कारण ही संगठन टूटता है। एकीकरण के नाम पर हम स्वार्थी तत्वों के जमावड़े के खिलाफ हैं। एकीकरण संगढनात्मक लोकतांत्रिक तौर तरीके से ही संभव है और उसके लिए बाकायदा ढांचा बनाना होगा ताकि निरंकुशतानासोहों पर अंकुस लगाया जा सकें और कोई संगठन और आंदोलन का दुरुपयोग न कर सकें।
कुल मिलाकर सहमति इस पर हुई कि बामसेफ को अंबेडकर के विचार और आंदोलन के तहत ही पुनर्गठित किया जाना चाहिए।
मुझे तो श्री बोरकर साहब का ये कथन कि “मान्यवर कांशीराम जी का प्रयोग फेल कर गया है” उचित नहीं लगता है, जब मान्यवर कांसीराम साहब ने बी.एस.पी. का गठन किया तो “बामसेफ” का कार्य अन्य लीडर को दिया गया, ये बामसेफ के लीडरान लोगों की जिम्मेदारी बनती थी कि वे संगठित रहकर बामसेफ का काम सुचारू रूप चलायें, काम करने के वजाय लोगों ने तो बामसेफ को उसी वजूद में भी नहीं रहने दिया, जिसमें मान्यवर कांसीराम साहब बामसेफ को छोड़ कर गये थे, यहाँ तक कि ये महानुभाव लोग जिनको मान्यवर कांसीराम साहब ने जोड़ा था उनके उसूलों में चलने के वजाय वे साहब को ही भूल गये, कहावत है कि, “बिल्लियाँ ज्यादा होती हैं, तो चूहे नहीं मरते”,.लोग अपनी-अपनी नेतागिरी की होड़ में कोर्ट-कचहरी तक हो आये, अब बामसेफ के कुछ लोगों के पास एक सूत्रीय कार्यक्रम है कि ब्राह्मणवाद के नाम पर “जाति के ब्राह्मणों का मात्र विरोध”, भैया ! इलेक्शन तो आपको नहीं बल्कि बी.एस.पी. के लोगों को लड़ना है, फिर! ब्राह्मण किस राष्ट्रीय राजनैतिक दल में नहीं है, अगर सरकार बी.एस.पी. की बनती है तो सरकार को देश के सभी लोगों के विकास के कार्य करने होंगे, मानवता के आधार पर सरकार चलानी होगी! समानता, स्वतंत्रता व भाई-चारे की सदभावना को लक्ष बनाना होगा, बाबासाहब डा०अम्बेडकर के “लोक-कल्याणकारी राज्य” व “समता मूलक समाज” के स्थापना की संकल्पना को साकार करना होगा! ये भी देखा गया है कि- जय भीम! कहने के वजाय कुछ लोग मूल निवासी! मूल निवासी! कह रहे हैं! इससे तो ये संकेत भी मिल रहा है कि ये लोग बाबा साहब को भी भूलने के चक्कर में हैं! अच्छा तो ये होगा कि, संगठित रहकर आत्म-आलोचना करते रहें व मान्यवर कांसीराम साहब, संस्थापक जी के बतलाये रास्ते में चलते रहें! कबीर कहते है- “बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलिया कोइ, जो दिल खोजा आपणों मुझसा बुरा ना कोइ!” अगर आप कांसीराम साहब की विरासत में हो तो वैसा ही बनाकर दिखाओ किंतु संगठित रहो!
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