वर्ग संघर्ष के बजाय ब्राह्मणवादी वर्चस्व के रास्ते पर ही भारत में वामपंथ का अवसान
पलाश विश्वास
हमने ऐसा लगातार लिखा है और कामरेडों ने हमें वामविरोधी मानकर अपढ़ दक्षिणपंथी वगैरह वगैरपह बताते रहे हैं।
अब हाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के जुझारु किसान संगठने के उपाध्यक्ष बने रज्जाक अली मोल्ला ने भी ऐसा कह दिया। बंगाल के हन्नान मोल्ला और रज्जाक मोल्ला की युगल बंदी के जरिये जंगी किसान आंदोलन के जरिये देशभर में क्षीण हो चुके पार्टी जनाधार को फिर हासिल करने की माकपा की ऐलानिया रणनीति है।रज्जाक अली मोल्ला वाम शासन के दौरान दबंग मंत्री रहे हैं। हालांकि मोल्ला माकपा के पहले नेता नहीं हैं, त्रिपुरा के वरिष्ठ मंत्री व कवि अनिल सरकार भी लगातार यह कहते रहे हैं। दरअसल अनिल बाबू की पहल पर कामरेड प्रकाश कारत,वृंदा कारत,सीताराम येचुरी और बंगाल के माकपा सचिव व वाममोर्चा सचिव विमान बोस ने पार्टी की ओर से जाति विमर्श की शुरुआत भी की है।पर नतीजा वहीं ढाक के तीन पात।त्रिपुरा के अनुसूचित बहुल वाम जनाधार पर खड़े होकर मनुस्मृति को सभ्यता का सबसे बड़ा अभिशाप बताने वाले कारेड विमान बोस ने बंगाल में जाति वर्चस्व तोड़ने के लिए कुछ किया है,ऐसा कम से कम हमें मालूम नहीं हुआ है।अंबेडकर मिशन भी माकपा बंगाल और त्रिपुरा में खूब चला रही है। हरिचांद गुरुचांद ठाकुर और पंचानन वर्मन के नाम पुरस्कारों का सिलसिला भी शुरु हुआ। लेकिन जैसे हिंदी समाज को जोड़ने की कवायद रही है पार्टी की,पार्टी कांग्रेस में प्रस्ताव पारित कराने तक सीमाबद्ध है जाति समस्या को सुलझाने की मार्क्सवादी कवायद। हकीकत तो यह है कि माकपा बंगाल लाइन के आधिपात्य से आधिपत्यवादी जाति वर्चस्व की वजह से बाकी भारत में एकदम अप्रासंगिकत हो गयी है। वाम शासन के अवसान के बाद वापसी की जी तोड़ कोशिश कर रही माकपा नेता के हालिया बयान से जाहिर है कि माकपा नेतृत्व ने इस जाति वर्चस्व और आधिपात्यवादी परंपरा को बदलने की अभीतक कोई ईमानदार कोशिश ही नहीं की है।
करीब दो हफ्ते पहले अग्रज पत्रकार पी साईनाथ से हमारी इस सिलसिले में लंबी बातचीत हो चुकी है। सिंगुर नंदीग्राम प्रकरण से पहले माकपा नेताओं से भी लगातार बात होती रही है।अब तो उनसे संवाद के तार ही टूट गये हैं।साईनाथ को कहा था मैंने भारत में वामपंथ का इतिहास जानने के लिए तेलंगना और तेभागा आंददोलनो के इतिहास,नक्सलबाड़ी जनविरोध और अतिवामपंथी माओवादी आंदोलन को जनना ही पर्याप्त नही हैं। जाति वर्चस्ववादी वामपंथी सत्ता किसतरह अपने सर्वहारा समर्थकों को जीते जी बागों का चारा बनाकर मामला दफा रफा करती है और उस सत्ता के अवसान के बाद भी परिवर्तन राज में भी उस नरसंहार की न जांच होती है और न्याय की पुकार सुनी जाती है, मरीचझापी नरसंहार इसका ज्वलंत दस्तावेज है और जो प्रगतिशाल बंगाल का मुखौटा बेनकाब करता है। इसीलिे मैं बार बार मरीचझांपी प्रसंग हथौड़े के बतौर इस्तमाल करता हूं कि कभी न कभी तो विवेक जाग उठेगा शायद।
इसी बातचीत में पी साईनाथ जो ग्रामीण भारत की हो रही निरंतर हत्या के सबसे बड़े लेखाकार हैं, ने कहा कि भारत का सामाजिक यथार्थ वामपंथियों की समझ के बाहर की चीज है और वे जाति समस्या को संबोधित करने के लिए किसी भी सूरत में तैयार नहीं है।
पी साईनाथ बड़े पत्रकार हैं और हम भी मामूली एक पत्रकार।इसलिए हमारी कहे और लिखे का शायद कोई असर हो ही न क्योंकि वास्तव की जमीन पर जनप्रतिरोध और जनांदोलन, राजनीति और सत्ता को नेतृत्व देने वाले ही किसी बदलाव की बात कर सकते हैं।
जब भी जाति विमर्श की बात चली है,अनिवार्यतः बाबासाहेब भीमराव की जाति उन्मूलन परिकल्पना की बात चली है।लेकिन यह विमर्श भी अंततः अंबेडकर को सिरे से खारिज करने या फिर उनका महिमामंडन करके जाति पहचान को और ज्यादा मजबूत करके उसके जरिये चुनावी समीकरण साधने और सत्ता में भागेदारी की कवायद में बदल गया है।सत्ता में भागेदारी के इस गणित के प्रसंग में अब अंबेडकरवादियों का भी मोहभंग होने लगा है।उन्हें भी लग रहा है कि जाति अस्मिता के जरिये सत्ता में भागेदारी का कांशीराम का प्रयोग फेल कर गया है। ऐसा पिछले दिनों बामसेफ के पूर्व अध्यक्ष बीडी बोरकर ने खुलकर बामसेफ के ही एक कार्यक्रम में बताया और उस पर भी हमने विस्तार से लिखा है। बामसेफ एकीकरण की जो मुहिम देशभर के कार्यकर्ता चला रहे हैं,जिनकी महासभा आगामी आठ सितंबर को नागपुर में हो रही है,उसका मकसद भी जाति अस्मिता के चुनावी इस्तेमाल और उसकी खासियत बेइंतहा घृणा अभियान के दायरे से बाहर निकलकर जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता के संविधान लोकतंत्र बचाओ वृहत्तर भारतीय बहुजनों के निनानब्वे फीसद के राष्ट्रव्यापी जनांदोलन है,जिसके जरिये कारपोरेट राज और एकाधिकारवादी कारपोरेट अश्वमेध का प्रतिरोध किया जा सकें।
अंबेडकरवादियों के अलावा भारत में लोहिया अनुयायियों के समाजवादी एजंडा का भी प्रस्थानबिंदू जाति विमर्श रहा है।लेकिन अब लोहिया विचारधारा पिछड़ों के वोटबैंक में तालाबंद है, जाति विमर्स सत्ता समीकरण में तब्दील होकर दूसरी जातियों के दमन और उत्पीड़न के यंत्र में तब्दील है।
इसी तरह गांधी ने भी अस्पृश्यतामोचन का बीड़ा उठाया और कांग्रेसी खुले बाजार की जनसंहार नीतियों में गांधी और गांधी दर्शन अब निष्णात है।
दूसरी ओर संघ परिवार का भी अपना समसता का जाति विमर्श है।जिसके जरिये संघ परिवार और गांधीवादी कांग्रेस एक ही मंजिल तक पहुंचते हैं, मनुस्मडति बंदोबस्त को हर कीमत पर कायम रखने के लिए इस देश को कारपोरेट उपनिवेश में बदल देने की मंजिल।
वामपंथी जाति विमर्श का सबसे बड़ा उत्त्कर्ष तब सामने आया जब भारत अमेरिका परमाणु संधि के विरोध में कांग्रेस से संबंध विच्छेद के बाद पिछले लोक सभा चुनाव में वामपंथियों ने बसपा सुप्रीमो बहन मायावती को प्रधानमंत्रित्व का उम्मीदवार बना दिया। बंगाल में इसका उलटा असर हुआ कि सवर्ण वामपंथी एकाएक परिवर्तनपंथी हो गये और चुनाव बाद वामपंथी देश भर में ढूंढे नहीं मिलते।बहन मायावती ने तो लोकसभा चुनावों के बाद बिनमांगे समाजवादी मुलायम के पदचिन्हों पर युपीए को समर्थन की घोषमा कर दी। विडंबना यह है कि जाति विमर्श के सबसे बड़े और सबसे गंभीर दो सिद्धांतकार के अनुयायी सत्ता समीकरण और सत्ता में भागेदारी की वजह से इस भारत वर्ष में अंबेडकर रचित संविधान की हत्या करके लोकतंत्र को गैरप्रासंगिक बनाते हुए समता और सामाजिक न्याय केलक्ष्यों की विपरीतदिशा में चलकर बहुजनों की एथनिंग क्लींजिंग पर आधारित अल्पमत सरकार के कारपोरेट नीति निर्धारण की सबसे बड़े मददगार हैं।
जाहिर है कि माकपा और वामपंथियों के एजंडा में न कभी हिंदी समाज रहा है और न जाति उन्मूलन का कार्यक्रम।हिंदी समाज को नेतृत्व में बिना प्रतिनिधित्व दिये केरल और बंगाल के सवर्ण ब्राह्मणवादी वर्चस्व को बनाये रखते हुए उत्तर भारत के निर्णायक चुनावी समीकरण साधने के लिए पार्टी कांग्रेस के प्रस्ताव पारितहुए तो उसीतरह जाति विमर्स के जरिये जैलसे ममता बनरजी ने अल्पसंख्यकों और अनुसूचितों के दलबदल के जरिये उन्हें सत्ताबेदखल कर दिया, उसी तरह सत्ता में वापसी की यह उनकी अंतिम निर्मायक प्रचेष्टा है।
वामपंथी हमेशा डा.अंबेडकर के आर्थिक विचारों की खिल्ली उड़ाते रहे हैं। लोग यह भूल गये कि अनुसूचित फेडरेशन बनाने से पहले बाबासाहेब ने मजदूरों की पार्टी बनायी थी। भारत में मजदूर आंदोलन शुरु करने वाले लोखंडे बाबासाहेब की तरह ही महात्मा ज्योतिबा फूले के अनुयायी हैं। ट्रेड यूनियन आंदोलन की अगुवाई ही नहीं, बल्कि ट्रेडयूनियन के अधिकार देने के लिए भी वामपंथ को अंबेडकर का आभार मानना चाहिए।इस पर वस्तुपरक विवेचन अभी होना बाकी है कि मजदूर पार्टी से अपनी राजनीति शुरु करने वाले, मनुस्मृति व्यव्स्था को खत्म करने के जिहादी आंदोलन करने वाले अर्थशास्त्री डाअंबेडकर और भारतीय वामपंथ की दिशाओं हमेशा एक दूसरे के विपरीत क्यों रहीं।बाबा साहेब के लिखित वक्तव्यों में इसका उल्लेख रहा है कि उन्हें हमेशा वामपंथियों के ब्राह्मम नेतृत्व से ऐतराज रहा है, न कि वामपंथी विचारधारा और आंदोलन से। वामपंथियों के पास ज्यादा वैज्ञानिक विश्लेषक हैं और उधर बाबासाहेब अकेले थे।वामपंथियों के पास हमेशा कैडरआधारित सामाजिक शक्तियों और उत्पादक शक्तियों का देशव्यापी संगठन रहा है। तो जाति विमर्श के जरिये अगर भारत में वर्ग संघर्ष को तेज करने के आसार बन सकते हैं,तो वामपंथियों ने आज तक ऐसी पहल क्यों नहीं की,बुनियादी सवाल यही है।
बुनियादी सवाल यह है कि इस देश के वचित समुदायों के बाबासाहेब के अनुयायी बने रहवने के सामाजिक यथार्थ को जानते बूझते हुए सत्ता समीकरण से ऊपर उठकर बाबा साहेब के जाति उन्मूलन कार्यक्रम से संघ परिवार और कांग्रेस को खेलने देने की ऐतिहासिक भूल वामपंथियों ने क्यों की।भारतीय इतिहास में डा. भीमराव अंबेडकर के वजूद से इंकार करके उन्हीके जाति उन्मूलन कार्यक्रम के एजंडे को सत्ता समीकरण के मकसद से अपनाने से तो जाति वर्चस्व ही मजबूत होना है,जो बंगाल और समूचे वामपंथी आंदोलन में होता आ रहा है।जिसपर तेज तर्रार वामपंथी नेता रज्जाक अली मोल्ला ने आखिरकार सवाल उठा ही दिये हैं।जाहिर है कि मोल्ला हमारी तरह न शरणार्थी हैं और न कोई मामूली पत्रकार। बंगाल के वामपंथी और किसान आंदोलन के सबेसे बड़े सिपाहसालारों में रहे हैं दशकों से। कम से कम ुनके कहे पर वामपंथी गंबीरता से जाति विमर्श पर अपने जड़ विचारों पर पुनरिविचार करेंगे.यही उम्मीद की जा सकती है।
मोल्ला ने साफ तौर पर कहा है कि बंगाल में माकपा का नेतृत्व ब्राह्मण और कायस्थों के वर्चस्व में तब्दील है। लेकिन जो लोग पार्टी के लिए जान कुर्बान कर रहे हैंसवर्णों की इस दखल सत्ता में उनके लिए कोई जगह है नहीं।
मोल्ला ने कहा है कि अब बंगाल में ब्राह्ममों और कायस्थों के नेतृत्व में वामपंथियों की वापसी एकदम असंभव है और इसलिए पार्टी नेतृत्व में अल्पसंख्यक और दलित चेहरे को सामने लाना अनिवार्यता है।
मजे की बात है कि अल्पसंख्यक वोटो और अनसूचित वोटों से वामपंथियों को बेदखल करके राज्य में पिरवर्तन के बाद जो मां माटी मानुष की सरकार बनी,उसका जाति विन्यस भी 35 साल के वाम जमाने से अलहदा नहीं है और न सत्तादल का भूगोल बदला है।कांग्रेस और भाजपा का भी वही सवर्म नेतृत्व का इतिहास है।
बंगाल राज्य माकपा सचिव मंडल के 19 सचिवों में एकमात्र अल्पसंख्यक चेहरा मोहम्मद सलीम का है।जाहिर है कि सत्ता से बेदखल होने के बाद भी सामाजिक यथार्थ को सिरे से खारिज करने की आत्मघाती नीत पर अटल है माकपा।
मोल्ला ने यह तक कह दिया कि हालिया पंचायत चुनावों में जो 52 माकपाई मारे गये हैं, उनमे से आधे से ज्यादा अल्पसंख्यक हैं और बाकी या तो अनुसूचित जातियों से हैं या फिर अनुसूचित जनजातियो से।
मोल्ला के विचारों पर बांगाल दैनिक एई समय की लीड खबर है पहले पन्ने पर। उसे इस आलेख के साथ नत्थी कर रहा हूं।लेकिन इससे पहले वाम जमाने में ही मेरा लिखा भी फिर पढ़ लीजिये।
वाममोर्चा नहीं, बंगाल में ब्राह्मण मोर्चा का राज
पलाश विश्वास
राजनीतिक आरक्षण बेमतलब। पब्लिक को उल्लू बनाकर वोट बैंक की राजनीति में समानता मृगतृष्णा के सिवाय कुछ भी नहीं। मीना - गुर्जर विवाद हो या फिर महिला आरक्षण विधायक, हिन्दूराष्ट्र हो या गांधीवाद समाजवाद या मार्क्सवाद माओवाद सत्तावर्ग का रंग बदलता है, चेहरा नहीं। विचारधाराएं अब धर्म की तरह अफीम है और सामाजिक संरचना जस का तस।
पिछले वर्षों में बंगाल में माध्यमिक और उच्च माध्यमिक परीक्षाओं में हिन्दुत्ववादी सवर्ण वर्चस्व वाले वाममोर्चा का वर्चस्व टूटा है। कोलकाता का बोलबाला भी खत्म। जिलों और दूरदराज के गरीब पिछड़े बच्चे आगे आ रहे हैं। इसे वामपंथ की प्रगतिशील विचारधारा की धारावाहिकता बताने से अघा नहीं रहे थे लोग। पर सारा प्रगतिवाद, उदारता और विचारधारा की पोल इसबार खुल गयी ,जबकि उच्चमाध्यमिक परीक्षाओं में सवर्ण वर्टस्व अटूट रहने के बाद माध्यमिक परीक्षाओं में प्रथम तीनों स्थान पर अनुसूचित जातियों के बच्चे काबिज हो गए। पहला स्थान हासिल करने वाली रनिता जाना को कुल आठ सौ अंकों मे ७९८ अंक मिले। तो दूसरे स्थान पर रहने वाले उद्ध्वालक मंडल और नीलांजन दास को ७९७अंक। तीसरे स्थान पर समरजीत चक्रवर्ती को ७९६ अंक मिले। पहले दस स्थानों पर मुसलमान और अनुसूचित छात्रों के वर्चस्व के मद्देनजर सवर्ण सहिष्णुता के परखच्चे उड़ गये। अब इसे पंचायत चुनाव में धक्का खाने वाले वाममोज्ञचा का ुनावी पैंतरा बताया जा रहा है। पिछले तेरह सालों में पहली बार कोई लड़की ने टाप किया है, इस तथ्य को नजर अंदाज करके माध्यमिक परीक्षाओं के स्तर पर सवालिया निशान लगाया जा रहा है। बहसें हो रही हैं। आरोप है कि मूल्यांकन में उदारता बरती गयी है। पिछले छह दशकों में जब चटर्जी, बनर्जी मुखर्जी, दासगुप्त, सेनगुप्त बसु, चक्रवर्ती उपाधियों का बोलबाला था और रामकृष्ण मिशन के ब्राह्ममण बच्चे टाप कर रहे थे, ऐसे सवाल कभी नहीं उछे। आरक्षण के खिलाफ मेधा का का तर्क देने वालो को मुंहतोड़ जवाब मिलने के बाद ही ये मुद्दे उठ रहे हैं प्रगतिशील मार्क्सवादी बंगील में।
ये दावा करते रहे हैं की अस्पृश्यता अब अतीत की बात है। जात पांत और साम्प्रदायिकता , फासीवाद का केंद्र है नवजागरण से वंचित उत्तर भारत। इनका दावा था कि बंगाल में दलित आन्दोलन की कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि यहां समाज तो पहले ही बदल गया है।
दरअसल कुछ भी नहीं बदला है। प्रगतिवाद और उदारता के बहाने मूलनिवासियों को गुलाम बनाकर ब्राह्मण तंत्र जीवन के हर क्षेत्र पर काबिज है। बंगाल और केरल वैज्ञानिक ब्राह्मणवाद की चपेट में हैं।
बंगाल में वाममोर्चा नहीं, ब्राह्मणवाद का राज है।
बंगाल में ब्रह्मणों की कुल जनसंख्या २२.४५लाख है, जो राज्य की जनसंख्या का महज २.८ प्रतिशत है। पर विधानसभा में ६४ ब्राह्मण हैं । राज्य में सोलह केबिनेट मंत्री ब्राह्मण हैं। दो राज्य मंत्री भी ब्राह्मण हैं। राज्य में सवर्ण कायस्थ और वैद्य की जनसंख्या ३०.४६ लाख है, जो कुल जनसंख्या का महज ३.४ प्रतिशत हैं। इनके ६१ विधायक हैं। इनके केबिनेट मंत्री सात और राज्य मंत्री दो हैं। अनुसूचित जातियों की जनसंख्या १८९ लाख है, जो कुल जनसंख्या का २३.६ प्रतिशत है। इन्हें राजनीतिक आरक्षण हासिल है। इनके विधायक ५८ है। २.८ प्रतिशत ब्राह्मणों के ६४ विधायक और २३.६ फीसद सअनुसूचितों के ५८ विधायक। अनुसूचितो को आरक्षण के बावजूद सिर्फ चार केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री, कुल जमा छह मंत्री अनुसूचित। इसी तरह आरक्षित ४४.९० लाख अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या , कुल जनसंख्या का ५.६ प्रतिशत, के कुल सत्रह विधायक और दो राज्य मंत्री हैं। राज्य में १८९.२० लाख मुसलमान हैं। जो जनसंख्या का १५.५६ प्रतिशत है। इनकी माली हालत सच्चर कमिटी की रपट से उजागर हो गयी है। वाममोर्चा को तीस साल तक लगातार सत्ता में बनाये रखते हुए मुसलमानों की औकात एक मुश्त वोटबैंक में सिमट गयी है। मुसलमाल इस राज्य में सबसे पिछड़े हैं। इनके कुल चालीस विधायक हैं , तीन केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री। मंडल कमीशन की रपट लागू करने के पक्ष में सबसे ज्यादा मुखर वामपंथियों के राज्य में ओबीसी की हालत सबसे खस्ता है। राज्य में अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या ३२८.७३ लाख है, जो कुल जनसंख्या का ४१ प्रतिशत है। पर इनके महज ५४ विधायक और एक केबिनेट मंत्री हैं। ४१ प्रतिशत जनसंखाया का प्रतिनिधित्व सिर्फ एक मंत्री करता है। वाह, क्या क्रांति है।
अनुसूचित जातियों, जनजातियों के विधायकों, सांसदों और मंत्रियों की क्या औकात है, इसे नीतिगत मामलों और विधायी कार्यवाहियों में समझा जासकता है। बंगाल में सारे महत्वपूर्ण विभाग या तो ब्राह्मणों के पास हैं या फिर कायस के पास। बाकी सिर्फ कोटा। ज्योति बसु मंत्रिमंडल और पिछली सरकार में शिक्षा मंत्री कान्ति विश्वास अनुसूचित जातियों के बड़े नेता हैं। उन्हें प्राथमिक शिक्षा मंत्रालय मिला हुआ था। जबकि उच्च शिक्षा मंत्रालय सत्य साधन चकत्रवर्ती के पास। नयी सरकार में कांति बाबू का पत्ता साफ हो गया। अनूसूचित चार मंत्रियों के पास गौरतलब कोई मंत्रालय नहीं है। इसीतरह उपेन किस्कू और विलासीबाला सहिस के हटाए जाने के बाद आदिवासी कोटे से बने दो राज्यंत्रियों का होना न होना बराबर है। रेज्जाक अली मोल्ला के पास भूमि राजस्व दफ्तर जैसा महत्वपूर्ण महकमा है। वे अपने इलाके में मुसलमान किसानों को तो बचा ही नहीं पाये, जबकि नन्दीग्राम में मुसलमान बहुल इलाके में माकपाई कहर के बबावजूद खामोश बने रहे। शहरी करण और औद्यौगीकरण के बहाने मुसलमाल किसानों का सर्वनाश रोकने के लिए वे अपनी जुबान तक खोलने की जुर्रत नहीं करते। दरअसल सवर्ण मंत्रियों विधायकों के अलावा बाकी तमाम तथाकथित जनप्रतिनिधियों की भूमिका हाथ उठाने के सिवाय कुछ भी नहीं है।
ऐसे में राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वोट के अलावा और क्या हासिल हो सकता है?
शरद यादव और राम विलास पासवान जैसे लोग उदाहरण हैं कि राजनीतिक आरक्षण का हश्र अंतत क्या होता है। १९७७ के बाद से हर रंग की सरकार में ये दोनों कोई न कोई सिद्धान्त बघारकर चिरकुट की तरह चिपक जाते हैं।
बंगाल के किसी सांसद या विधायक नें पूर्वी बंगाल के मूलनिवासी पुनवार्सित शरणार्थियों के देश निकाले के लिए तैयार नये नागरिकता कानून का विरोध नहीं किया है। हजारों लोग जेलों में सड़ रहे हैं। किसी ने खबर नहीं ली।
अब क्या फर्क पड़ता है कि है कि मुख्यमंत्री बुद्धबाबू रहे या फिर ममता बनर्जी? बंगाल के सत्ता समीकरण या सामाजिक संरचना में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होने जा रहा है। जो नागरिक समाज और बुद्धिजीवी आज वामपंथ के खिलाफ खड़े हैं और नन्दीग्राम सिंगुर जनविद्रोह के समर्थन में सड़कों पर उतर रहे हैं, वे भी ब्राह्मण हितों के विरुद्ध एक लफ्ज नहीं बोलते। महाश्वेता देवी मूलनिवासी दलित शरणार्थियों के पक्ष में एक शब्द नहीं लिखती। हालांकि वे भी नन्दीग्राम जनविद्रोह को दलित आंदोलन बताती हैं। मीडिया में मुलनिवासी हक हकूक के लिए एक इंच जगह नहीं मिलती।
अस्पृश्यता को ही लीजिए। बंगाल में कोई जात नहीं पूछता। सफल गैरबंगालियों को सर माथे उठा लेने क रिवाज भी है। मां बाप का श्राद्ध न करने की वजह से नासितक धर्म विरोधी माकपाइयों के कहर की चर्चा होती रही है। मंत्री सुभाष चक्रवर्ती के तारापीठ दर्श न पर हुआ बवाल भी याद होगा। दुर्गा पूजा काली पूजा कमिटियों में वामपंथियों की सक्रिय भूमिका से शायद ही कोई अनजान होगा। मंदिर प्रवेश के लिए मेदिनीपुर में अछूत महिला की सजा की कथा भी पुरानी है। स्कूलों में मिड डे मिल खाने से सवर्ण बच्चों के इनकार का किस्सा भी मालूम होगा। वाममोर्चा चेयरमैन व माकपा राज्य सचिव के सामाजिक समरसता अभियान के तहत सामूहिक भोज भी बहुप्रचारित है। विमान बसु मतुआ सम्मेलन में प्रमुख अतिथि बनकर माकपाई वोट बैंक को मजबूत करते रहे हैं। पर इसबार नदिया और उत्तर दक्षिण चौबीस परगना के मतुआ बिदक गये। ठाकुरनगर ठाकुर बाड़ी के इशारे पर हरिचांद ठाकुर और गुरू चांद ठाकुर के अनुयायियों ने इसबार पंचायत चुनाव में तृणमुल कांग्रेस को समर्थन दिया। गौरतलब है कि इसी ठाकुर बाड़ी के प्रमथनाथ ठाकुर जो गुरू चांद ठाकुर के पुत्र हैं, को आगे करके बंगाल के सवर्णों ने भारतीय मूलनिवासी आंदोलन के प्रमुख नेता जोगेन्द्र नाथ मंडल को स्वतंत्र भारत में कोई चुनाव जीतने नहीं दिया। वैसे ही जैसे महाराष्ट्र में बाबा साहेब अंबेडकर सवर्ण साजिश से कोई चुनाव जीत नहीं पाये।
हरिचांद ठाकुर का अश्पृश्यता मोचन आन्दोलन की वजह से १९२२ में बाबासाहेब के आन्दोलन से काफी पहले बंगाल में अंग्रेजों ने अस्पृश्यता निषिद्ध कर दी। बंगाल के किसान मूलनिवासी आंदोलन के खिलाफसवर्ण समाज और नवजागरण के तमाम मसीहा लगातार अंग्रेजों का साथ देते रहे। बैरकपुर से १८५७ को महाविद्रोह की शुरुआत पर गर्व जताने वाले बंगाल के सत्तावर्ग ने तब अंग्रेजों का ही साथ दिया था। गुरूचांद ठाकुर ने कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में शामिल होने के महात्मा गांधी की अपील को यह कहकर ठुकरा दिया था कि पहले सवर्ण अछूतों को अपना भाई मानकर गले तो लगा ले। आजादी से पहले बंगाल में बनी तीनों सरकारों के प्रधानमंत्री मुसलमान थे और मंत्रमंडल में श्यामा हक मंत्रीसभा को छोड़कर दलित ही थे। बंगाल अविभाजित होता तो सत्ता में आना तो दूर, ज्योति बसु, बुद्धदेव, विधान राय , सिद्धा्र्थ शंकर राय या ममता बनर्जी का कोई राजनीतिक वजूद ही नहीं होता। इसीलिए सवर्ण सत्ता के लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा थी कि भारत का विभाजन हो या न हो, पर बंगाल का विभाजन होकर रहेगा। क्योंकि हम हिंदू समाज के धर्मांतरित तलछंट का वर्चस्व बर्दाश्त नहीं कर सकते। बंगाल से शुरू हुआ थ राष्ट्रीय दलित आन्दोलन , जिसके नेता अंबेडकर और जोगेन्द्र नाथ मंडल थे। बंगाल के अछूत मानते थे कि गोरों से सत्ता का हस्तान्तरण ब्राह्ममों को हुआ तो उनका सर्वनाश। मंडल ने साफ साफ कहा था कि स्वतन्त्र भारत में अछूतों का कोई भविष्य नहींहै। बंगाल का विभाजन हुआ। और पूर्वी बंगाल के दलित देश भर में बिखेर दिये गये। बंगाल से बाहर वे फिर भी बेहतर हालत में हैं। हालिए नागरिकता कानून पास होने के बाद ब्राह्मण प्रणव बुद्ध की अगुवाई में उनके विरुद्ध देश निकाला अभियान से पहले भारत के दूसरे राज्यों में बसे बंगाली शरणार्थियों ने कभी किसी किस्म के भेदभाव की शिकायत नहीं की।
पर बंगाल में मूलनिवासी तमाम लोग अलित, आदिवासी, ओबीसी और मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक हैं।
अस्पृश्यता बदस्तूर कायम है।
अभी अभी खास कोलकाता के मेडिकल कालेज हास्टल में नीची जातियों के पेयजल लेने से रोक दिया सवर्णर छात्रों ने। ऐसा तब हुआ जबकि वाममोर्चा को जोरदार धक्का देने का जश्न मना रही है आम जनता। पर यह निर्वाचनी परिवर्तन कितना बेमतलब है, कोलकाता मेडिकल कालेज के वाकये ने साफ साफ बता दिया। कुछ अरसा पहले बांकुड़ा में नीची जातियों की महिलाओं का पकाया मिड डे मिल खाने से सवर्ण बच्चों के इनकार के बाद विमान बोस ने हस्तक्षेप किया था। इसबार वे क्या करते हैं. यह देखना बाकी है।
आरोप है कि कोलकाता मेडिकल कालेज में अस्पृश्य और नीची जातियों के छात्रो के साथ न सिर्फ छुआछूत चाल है, बल्कि ऐसे छात्रों को शारीरिक व मानसिक तौ पर उत्पीड़ित भी किया जाता है। जब खास कोलकाते में ऐसा हो रहा है तो अन्यत्र क्या होगा। मालूम हो कि आरक्षण विरोधी आंदोलन भी माकपाई शासन में बाकी देश से कतई कमजोर नहीं रहा। यहां मेडिकल, इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट स्कूलों में आरक्षण विवाद की वजह से पहले से नीची जातियों के छात्रों पर सवर्ण छात्रों की नाराजगी चरम पर है। जब नयी नियुक्तिया बंद हैं। निजीकरण और विनिवेश जोरों पर है तो आरक्षण से किसको क्या फायदा या नुकसान हो सकता है। पर चूंकि मूलनिवाियों को कहीं भी किसी भी स्तर पर कोई मौका नहीं देना है, इसलिए आरक्षण विरोध के नाम पर खुल्लमखुल्ला अस्पृश्यता जारी है। मेधा सवर्णों में होती है , यह तथ्य तो माध्यमिक परीक्षा परिणामों से साफ हो ही गया है। मौका मिलने पर मूलनिवासी किसी से कम नही हैं। पर ब्राह्मणराज उन्हें किसी किस्म का मौका देना तो दूर, उनके सफाये के लिए विकास के बहाने नरमेध यज्ञ का आयोजन कर रखा है।
बांग्लादेश गणतन्त्र (बांग्ला: গণপ্রজাতন্ত্রী বাংলাদেশ गॉणोप्रोजातोन्त्री बाङ्लादेश्) दक्षिण जंबूद्वीप का एक राष्ट्र है। देश की उत्तर, पूर्व और पश्चिम सीमाएँ भारत और दक्षिणपूर्व सीमा म्यान्मार देशों से मिलती है; दक्षिण में बंगाल की खाड़ी है। बांग्लादेश और भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल एक बांग्लाभाषी अंचल, बंगाल हैं, जिसका ऐतिहासिक नाम "বঙ্গ" बॉङ्गो या "বাংলা" बांग्ला है। इसकी सीमारेखा उस समय निर्धारित हुई जब 1947 में भारत के विभाजन के समय इसे पूर्वी पाकिस्तान के नाम से पाकिस्तान का पूर्वी भाग घोषित किया गया। पूर्व और पश्चिम पाकिस्तान के मध्य लगभग 1600 किमी (1000 माइल)। की भौगोलिक दूरी थी। पाकिस्तान के दोनो भागों की जनता का धर्म (इस्लाम) एक था, पर उनके बीच जाति और भाषागत काफ़ी दूरियाँ थीं। पश्चिम पाकिस्तान की तत्कालीन सरकार के अन्याय के विरुद्ध 1971 में भारत के सहयोग से एक रक्तरंजित युद्ध के बाद स्वाधीन राष्ट्र बांग्लादेश का उदभव हुआ। स्वाधीनता के बाद बांग्लादेश के कुछ प्रारंभिक वर्ष राजनैतिक अस्थिरता से परिपूर्ण थे, देश मे 13 राष्ट्रशासक बदले गए और 4 सैन्य बगावतें हुई। विश्व के सबसे जनबहुल देशों में बांग्लादेश का स्थान आठवां है। किन्तु क्षेत्रफल की दृष्टि से बांग्लादेश विश्व में 93वाँ है। फलस्वरूप बांग्लादेश विश्व की सबसे घनी आबादी वाले देशों में से एक है। मुसलमान- सघन जनसंख्या वाले देशों में बांग्लादेश का स्थान 4था है, जबकि बांग्लादेश के मुसलमानों की संख्या भारत के अल्पसंख्यक मुसलमानों की संख्या से कम है। गंगा-ब्रह्मपुत्र के मुहाने पर स्थित यह देश, प्रतिवर्ष मौसमी उत्पात का शिकार होता है, और चक्रवात भी बहुत सामान्य हैं। बांग्लादेश दक्षिण एशियाई आंचलिक सहयोग संस्था, सार्क और बिम्सटेक का प्रतिष्ठित सदस्य है। यहओआइसी और डी-8 का भी सदस्य है।
बांग्लादेश में सभ्यता का इतिहास काफी पुराना रहा है. आज के भारत का अंधिकांश पूर्वी क्षेत्र कभी बंगाल के नाम से जाना जाता था. बौद्ध ग्रंथो के अनुसार इस क्षेत्र में आधुनिक सभ्यता की शुरुआत ७०० इसवी इसा पू. में आरंभ हुआ माना जाता है. यहाँ की प्रारंभिक सभ्यता पर बौद्ध और हिन्दू धर्म का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है. उत्तरी बांग्लादेश में स्थापत्य के ऐसे हजारों अवशेष अभी भी मौज़ूद हैं जिन्हें मंदिर या मठ कहा जा सकता है.
बंगाल का इस्लामीकरण मुगल साम्राज्य के व्यापारियों द्वारा १३ वीं शताब्दी में शुरु हुआ और १६ वीं शताब्दी तक बंगाल एशिया के प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र के रुप में उभरा. युरोप के व्यापारियों का आगमन इस क्षेत्र में १५ वीं शताब्दी में हुआ और अंततः १६वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उनका प्रभाव बढना शुरु हुआ. १८ वीं शताब्दी आते आते इस क्षेत्र का नियंत्रण पूरी तरह उनके हाथों में आ गया जो धीरे धीरे पूरे भारत में फैल गया. जब स्वाधीनता आंदोलन के फलस्वरुप १९४७ में भारत स्वतंत्र हुआ तब राजनैतिक कारणों से भारत को हिन्दू बहुल भारत और मुस्लिम बहुल पािकस्तान में विभाजित करना पड़ा.
भारत का विभाजन होने के फलस्वरुप बंगाल भी दो हिस्सों में बँट गया. इसका हिन्दु बहुल इलाका भारत के साथ रहा और पश्चिम बंगाल के नाम से जाना गया तथा मुस्लिम बहुल इलाका पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा बना जो पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना गया. जमींदारी प्रथा ने इस क्षेत्र को बुरी तरह झकझोर रखा था जिसके खिलाफ १९५० में एक बड़ा आंदोलन शुरु हुआ और १९५२ के बांग्ला भाषा आंदोलन के साथ जुड़कर यह बांग्लादेशी गणतंत्र की दिशा में एक बड़ा आंदोलन बन गया. इस आंदोलन के फलस्वरुप बांग्ला भाषियों को उनका भाषाई अधिकार मिला. १९५५ में पाकिस्तान सरकार ने पूर्वी बंगाल का नाम बदलकर पूर्वी पाकिस्तान कर दिया. पाकिस्तान द्वारा पूर्वी पाकिस्तान की उपेक्षा और दमन की शुरुआत यहीं से हो गई. और तनाव स्त्तर का दशक आते आते अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया. पाकिस्तानी शासक याहया खाँ द्वारा लोकप्रिय अवामी लीग और उनके नेताओं को प्रताड़ित किया जाने लगा. जिसके फलस्वरुप बंगबंधु शेख मुजीवु्ररहमान की अगुआई में बांग्लादेशा का स्वाधीनता आंदोलन शुरु हुआ. बांग्लादेश में खून की नदियाँ बही. लाखों बंगाली मारे गये तथा १९७१ के खूनी संघर्ष में दस लाख से ज्यादा बांग्लादेशी शरणार्थी को पड़ोसी देश भारत में शरण लेनी पड़ी. भारत इस समस्या से जूझने में उस समय काफी परेशानियों का सामना कर रहा था और भारत को बांग्लादेशियों के अनुरोध पर इस सम्स्या में हस्तक्षेप करना पड़ा जिसके फलस्वरुप १९७१ का भारत पाकिस्तान युद्ध शुरु हुआ. बांग्लादेश में मुक्ति वाहिनी सेना का गठन हुआ जिसके ज्यादातर सदस्य बांग्लादेश का बौद्धिक वर्ग और छात्र समुदाय था, इन्होंने भारतीय सेना की मदद गुप्तचर सूचनायें देकर तथा गुरिल्ला युद्ध पद्ध्ति से की. पाकिस्तानी सेना ने अंतत: १६ दिसंबर १९७१ को भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. लगभग ९३००० युद्ध बंदी बनाये गये जिन्हें भारत में विभिन्न कैम्पों मे रखा गया ताकि वे बांग्लादेशी क्रोध के शिकार न बनें. बांग्लादेश एक आज़ाद मुल्क बना और मुजीबुर्र रहमान इसके प्रथम प्रधानमंत्री बने.
कोलकाता मेडिकल कालेज के मेन हास्टल के पहले और दूसरे वर्ष के सत्रह छात्रों ने डीन प्रवीर कुमार दासगुप्त और सुपर अनूप राय को अस्पृश्यता की लिखित शिकायत की है।
উচ্চবর্ণের দাপট, নয়া বিতর্ক রাজনীতিতে
Aug 9, 2013, 09.17AM IST
অমল সরকার ও রাজা চট্টোপাধ্যায়
শ্রেণিসংগ্রামের আদর্শে পরিচালিত সিপিএমে এ বার জাতপাতের নজিরবিহীন অভিযোগে দলের রাজ্য নেতৃত্বকে বিঁধলেন বিতর্কিত নেতা আবদুর রেজ্জাক মোল্লা৷ তাঁর বক্তব্য, রাজ্য সিপিএমের নেতৃত্ব ব্রাহ্মণ-কায়স্থদের মতো কিছু উচ্চবর্ণের মানুষের দখলদারিতে পরিণত হয়েছে৷ অথচ, যাঁরা দলের জন্য নিয়মিত ঘাম-রক্ত ঝরাচ্ছেন, তাঁরা উপেক্ষিত৷ দলকে ঘুরে দাঁড়াতে হলে নেতৃত্বে তুলে আনতে হবে দলিত, সংখ্যালঘুদের৷
পশ্চিমবঙ্গের রাজনীতিতে এই বিতর্ক এ যাবত্ অনালোচিত থাকলেও বিষয়টার গুরুত্ব অস্বীকার করা যায় না৷ রেজ্জাক মোল্লা এই প্রসঙ্গে নিজের দলকে কাঠগড়ায় তুললেও রাজ্য-রাজনীতির ছবির দিকে তাকালেই স্পষ্ট হয় এই দোষে কমবেশি দুষ্ট প্রায় সব রাজনৈতিক দলই৷ ২০১১ সালে রাজ্যের সংখ্যালঘু ও তপসিলি জাতি-উপজাতির ভোটের একটা বড় অংশ নিজের ঝুলিতে টেনে ৩৪ বছরের বামফ্রন্ট সাম্রাজ্যকে ধুলোয় মিশিয়ে দিয়েছিলেন মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়৷ কিন্ত্ত তাঁর দলের শীর্ষ নেতৃত্বেও উচ্চবর্ণের ব্রাহ্মণ নেতারাই সংখ্যাগরিষ্ঠ৷ প্রদেশ কংগ্রেস বা রাজ্য বিজেপিও ব্যতিক্রম নয়৷ আর সিপিএম রাজ্য সম্পাদকমণ্ডলীর ১৯ সদস্যের মধ্যে একমাত্র সংখ্যালঘু প্রতিনিধি মহম্মদ সেলিম৷
সিপিএম নেতৃত্বের বিরুদ্ধে মুখ খুলতে রেজ্জাক সদ্য সমাপ্ত পঞ্চায়েত ভোটে দলীয় কর্মী খুনের পরিসংখ্যান হাজির করেছেন৷ তাঁর কথায়, 'পঞ্চায়েত ভোট পর্বে আমাদের যে ৫২ জন পার্টি কর্মী খুন হয়েছেন, তাঁদের অর্ধেকের বেশি মুসলিম৷ বাকিরা তপসিলি ও আদিবাসী সম্প্রদায়ের মানুষ৷ একজনও উচ্চবর্ণের মানুষ নেই৷' প্রাক্তন ভূমিমন্ত্রীর মূল অভিযোগ, পার্টিকে রক্ষা করতে যাঁরা প্রাণ দিচ্ছে, নেতৃত্বে তাঁরা নেই৷ বৃহস্পতিবার 'এই সময়'কে রেজ্জাক ইঙ্গিত দিয়েছেন, এই ইস্যুতেই চলতি মাসের শেষে রাজ্য কমিটির পরবর্তী বৈঠকে সরব হতে চলেছেন তিনি৷ ওই বৈঠকেই পঞ্চায়েত ভোটের ফলাফল পর্যালোচনা করা হবে৷ রেজ্জাক সিদ্ধান্ত নিয়েছেন, ওই বৈঠকে নিজের বক্তব্য লিখিত আকারে পেশ করবেন তিনি৷ সিপিএম সূত্রের খবর, ওই বৈঠকেই রেজ্জাকের বিরুদ্ধে শাস্তির দাবিও উঠতে পারে৷ তবে এ নিয়ে স্বভাবসিদ্ধ ভঙ্গিতেই তিনি বলছেন, 'পার্টি তাড়িয়ে দিলে দেবে৷ আমার কিছু যায় আসে না৷'
তবে রেজ্জাকের সমর্থনে এ দিনই মুখ খুলেছেন সিপিএমের রাজ্য কন্ট্রোল কমিশনের চেয়ারম্যান আর এক প্রাক্তন মন্ত্রী কান্তি বিশ্বাস৷ তিনি বলেন, 'পার্টি কর্মীর মৃত্যুর পরিসংখ্যান আমার জানা নেই৷ তবে সংখ্যালঘুরা সুযোগ পেলেও দুর্ভাগ্যের বিষয় হল, অবিভক্ত কমিউনিস্ট পার্টি থেকে আজকের সিপিএম, এই দীর্ঘ সময়ে তপসিলি সম্প্রদায়ের একজনকেও পার্টির সম্পাদকমণ্ডলীর সদস্য করা হয়নি৷' তিনি বলেন, প্রয়াত রাজ্য সম্পাদক অনিল বিশ্বাস ছিলেন কায়স্থ৷ পার্টি যে ব্রাহ্মণ্যবাদে আচ্ছন্ন সেই নিয়ে বছরখানেক আগেই দলের রাজ্য সম্পাদক বিমান বসু এবং সম্পাদকমণ্ডলীর সদস্যদের চিঠি দিয়ে অভিযোগ করেছিলেন বলেও জানিয়েছেন কান্তিবাবু৷ তবে সেই চিঠির উত্তর আজও পাননি তিনি৷ একই সঙ্গে তাঁর সোজাসাপটা চ্যালেঞ্জ, 'এই অভিযোগ মিথ্যা হলে পার্টি যেন আমাকে শাস্তি দেয়৷' রেজ্জাক মোল্লা নিজের পার্টির দিকে সুনির্দিষ্ট অভিযোগ তুললেও নিম্নবর্গের প্রতি বঞ্চনা নিয়ে আঙুল তুলেছেন সব দলের বিরুদ্ধেই৷ তাঁর বক্তব্য, বামফ্রন্টের মতো মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়ের মন্ত্রিসভাতেও ব্রাহ্মণ-কায়স্থদেরই পাল্লাভারি৷ একইভাবে তিনি কংগ্রেস, বিজেপির বিরুদ্ধেও আঙুল তুলেছেন৷ যদিও জ্যোতি বসু-বুদ্ধদেব ভট্টাচার্যের মন্ত্রিসভার চাইতে মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়ের ক্যাবিনেটে সংখ্যালঘু, তপসিলি জাতি-উপজাতি এবং সর্বোপরি মহিলাদের প্রতিনিধিত্ব অনেক বেশি৷ তৃণমূলের শীর্ষস্তরেও সংখ্যালঘু নেতাদের গুরুত্ব অন্য দলের তুলনায় বেশি৷
তবে সিপিএমের প্রসঙ্গে রেজ্জাক মোল্লা সরাসরি কারও নাম করেননি৷ কিন্ত্ত বর্তমান নেতৃত্বের একটা বড় অংশের সঙ্গে তাঁর সংঘাতের ইতিবৃত্তে নজর রেখে ওয়াকিবহাল মহল মনে করছে, তিনি নিশানা করতে চেয়েছেন বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য, বিমান বসু, নিরুপম সেনের মতো নেতাদেরই৷ ফলে, পার্টির রাজ্য কমিটির বৈঠকের আগে ফের নয়া বিতর্ক উজিয়ে দলকে বিড়ম্বনায় ফেললেন ক্যানিং পূর্বের বিধায়ক৷
রেজ্জাকের এই বক্তব্য এক বাক্যে মেনে না নিলেও সমস্যা যে রয়েছে সে কথা মানছেন অনেকেই৷ তৃণমূল নেতা সুদীপ বন্দ্যোপাধ্যায় বলেন, 'সর্বোচ্চ স্তরের নেতৃত্বে একজন দু'জনই থাকে৷ কিন্ত্ত আমাদের দলে নির্ণায়ক কমিটিতে সব শ্রেণির মানুষের প্রতিনিধিত্ব আনুপাতিক হারেই রয়েছে৷' প্রদেশ কংগ্রেস সভাপতি প্রদীপ ভট্টাচার্য অবশ্য মেনে নিয়েছেন তাঁদের দলের নেতৃত্বে নিম্নবর্গের প্রতিনিধি প্রায় নেই৷ তবে দলে সংখ্যালঘুদের গুরুত্ব দেওয়া হয় না এ কথা মানতে চাননি তিনি৷ যদিও প্রদীপবাবুর যুক্তি মানতে চাননি কংগ্রেসেরই আর এক নেতা আবদুল মান্নান৷ বিজেপি নেতা তথাগত রায় বলেছেন, 'আমাদের দলে এই ধরনের জাত-কুলের রাজনীতিকে প্রশ্রয় দেওয়া হয় না৷ যোগ্য ব্যক্তিই নেতা হন৷'
বছর দশেক আগে শহিদ মিনারে এক জনসভায় সিপিএমকে মনুবাদী পার্টি বলে মন্তব্য করে এ রাজ্যের তপসিলি, দলিতদের জোটবদ্ধ হওয়ার আহ্বান জানিয়েছিলেন বহুজন সমাজ পার্টির নেত্রী মায়াবতী৷ জাতপাতের রাজনীতি নিয়ে সিপিএমে কারও প্রকাশ্যে মুখ খোলার নজির না থাকলেও পার্টির অভ্যন্তরে দীর্ঘ দিন ধরেই এ ব্যাপারে চাপা ক্ষোভ রয়েছে৷ সম্প্রতি জ্যোতি বসুকে নিয়ে এক নিবন্ধে দলের অন্দরের ক্ষোভের কথা ফাঁস করেছেন প্রাক্তন শিক্ষামন্ত্রী কান্তিবাবুই৷ তিনি লিখেছেন, '৭৭ সালে প্রথম বামফ্রন্ট মন্ত্রিসভাতে গোড়ায় একজনও তপসিলি সম্প্রদায়ের মানুষ ছিলেন না৷ এ নিয়ে পার্টিতে শোরগোল শুরু হলে তিনি সে কথা জ্যোতি বসু এবং প্রমোদ দাশগুপ্তকে জানান৷ এর কিছু দিন পর, তাঁকেই মন্ত্রিসভায় নেওয়া হয়৷ রেজ্জাকের অভিযোগের অভিঘাতে নড়ে গিয়েছে দলের আদর্শগত প্রচারের ভিতও৷ তাঁর বক্তব্য, 'যাঁরা দলের হয়ে জানপ্রাণ দিচ্ছেন, নেতৃত্বে তাঁদের প্রতিনিধিত্ব প্রয়োজন৷ এটা যত দিন পর্যন্ত না-হবে, তত দিন ঘুরে দাঁড়ানোর সম্ভাবনা দিবাস্বপ্ন হয়েই থাকবে৷'
তা হলে কি মুসলিম প্রতিনিধিদের নেতৃত্বে আনার কথা বলছেন? প্রাক্তন ভূমিমন্ত্রীর উত্তর, 'না৷ আমি সে কথা বলছি না৷ কিন্ত্ত শ্রেণি ও জাতিগত প্রশ্নকে আলাদা করে দেখার সুযোগ নেই৷' তাঁর বক্তব্য, এ রাজ্যে মুসলিমদের একটা বড় অংশ দলিত হিন্দু, যাঁরা বিভিন্ন সময়ে ধর্মান্তরিত হয়েছেন৷ রেজ্জাকের যুক্তি, 'এঁদেরকেই তুলে আনতে হবে৷ নইলে শুধুমাত্র মুখে শ্রেণি সংগ্রামের বুলি আউড়ে কী হবে?' প্রসঙ্গত, সিপিএমের বর্তমান রাজ্য সম্পাদকমণ্ডলীতে এখন একমাত্র সংখ্যালঘু মুখ মহম্মদ সেলিম৷ তিনি জন্মসূত্রে উর্দুভাষী মুসলমান৷ তার আগে ছিলেন মহম্মদ আমিন৷ তিনিও জন্মসূত্রে উর্দুভাষী৷ সম্পাদকমণ্ডলীর বাকিদের বড় অংশ ব্রাহ্মণ ও কায়স্থ৷ তপসিলি একজনও নেই৷ দলের বিগত রাজ্য সম্মেলনের আগে কোনও বাঙালি মুসলমানকে সম্পাদকমণ্ডলীতে নেওয়ার দাবি ওঠে৷ উঠে আসে রেজ্জাক মোল্লার নামও৷ কিন্ত্ত শেষ পর্যন্ত জায়গা হয় সেলিমের৷ পরে রেজ্জাকের জেলা দক্ষিণ ২৪ পরগনার সম্পাদক সুজন চক্রবর্তীকেও রাজ্য সম্পাদকমণ্ডলীতে আনা হয়েছে৷
পঞ্চায়েত ভোটে বিপর্যয়ের জন্যও এ দিন নেতাদের একহাত নিয়েছেন রেজ্জাক৷ বলেছেন, 'আমি আর কাউকে সিপিএমের জন্য জান দিতে বলি না৷ কারণ, বাঁচানোর ক্ষমতা আমার নেই৷ আমাদের নেতাদের ৯০ শতাংশই বাস করেন শহর, আধাশহরে৷ সেখানে পর্যাপ্ত পুলিশ আছে, মিডিয়া আছে৷ সেই ঘেরাটোপে থেকে এঁরা গ্রামে যান, জ্বালাময়ী ভাষণ দিয়ে আসেন৷ আর ঘরে ফিরে নাকে তেল দিয়ে ঘুমোন৷ গ্রামে রোজ কত বোমা-গুলি চলে তা ওঁরা জানেন?'
তাঁর কথায়, 'দলের সবচেয়ে বড় সমস্যা হল, নেতা নেই৷' সম্প্রতি দলের নিচুতলার কয়েকজন নেতা-কর্মীকে বহিষ্কারের কথা শোনা গিয়েছে বুদ্ধদেব ভট্টাচার্যর মুখে৷ বলেছেন, 'যে সব নেতা-কর্মীর মুখ দেখেই জনতা বিরূপ হচ্ছেন, তাঁদের সরাতে হবে৷' এই প্রসঙ্গেই নাম না করে রেজ্জাক নাম না-করেও রেজ্জাক পাল্টা বলছেন, 'এলাকার কমরেডরা দলের সমস্যা নয়৷ যে নেতারা এ সব কথা বলছেন, তাঁরা আয়নায় আগে নিজেদের মুখ দেখুন৷'
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भ्रष्टाचार में जाति के आधार पर गिनती जरुर हो,बशर्ते कि जाति के आधार पर जनगणना की सर्वदलीय संसदीय सर्वसम्मति के मुताबिक जाति आधारित जनगणना भी हो जाये!!!
पलाश विश्वास
कोरपोरेट आयोजित वैश्विक अर्थव्यवस्था का आयोजन जयपुर साहित्य उत्सव आखिर अपने एजंडे पर खुल्लाआम अमल करने लगा है कि इस वर्चस्ववादी मंच को आरक्षणविरोधी आंदोलन के सिविल सोसाइटी के भष्टाचार विरोधी मुखड़े के साथ नत्थी कर दिया। बंगाली वर्चस्ववाद जो अब राष्ट्रीय धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के राष्ट्रीय सर्वोच्च धर्माधिकारी प्रणव मुखर्जी की अगुवाई में सर्वव्यापी है, आशीष नंदी ने महज उसका प्रतिनिधित्व किया है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री आशीष नंदी ने कहा है कि एससी, एसटी और ओबीसी समाज के सबसे भ्रष्ट तबके हैं। इन तबको से सबसे ज्यादा भ्रष्ट लोग आते हैं।दलितों, पिछड़ों और जनजातियों को भ्रष्ट बतानेवाले समाजशास्त्री आशीष नंदी रविवार को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में नहीं आए। दूसरी ओर जयपुर में उन्हें गिरफ्तार किए जाने की मांग करते हुए धरना प्रदर्शन भी शुरू हो गए हैं।आशीष नंदी ने कल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के एक सत्र में कहा था कि ज्यादातर भ्रष्ट लोग पिछड़ी और दलित जातियों से आते हैं, और अब जनजातियों से भी आने लगे हैं। उनके इस बयान को लेकर कल से राजनीतिक हलकों में बवाल मचा हुआ है। उनके इस बयान पर इतना बवाल हुआ कि नंदी ने बाद में भ्रष्टाचार का ही महिमा मंडन शुरू कर दिया। दैनिक भास्कर ने जब उनसे उनके विवादित भाषण पर लंबी बात की तो उन्होंने कहा कि अगर समाज में भ्रष्टाचार नहीं होता तो अगले 30 साल तक कोई भी आदिवासी अरबपति क्या करोड़पति भी नहीं बन पाता। भ्रष्टाचार के ही कारण मधु कौड़ा जैसा आदिवासी अरबपति बनकर उभरा।
बाकी देश भारत विभाजन के कारण गांधी, जिन्ना और नेहरु को गरियाता रहता है क्योंकि उसे बंगाली वर्चस्ववाद की भारत विभाजन में निर्णायक भूमिका के बारे में पता ही नहीं है। बंगाली सवर्ण वर्चस्ववाद ने अस्पृश्यताविरोधी क्रांति के जनक बंगाल के अनुसूचितों को बंगाल के बाहर खदेड़ने के लिए ही भारत का विभाजन हो या नहीं, बंगाल का विभाजन होकर रहेगा, नीति अपनाकर बंगाल में सत्ता पर कब्जा कर लिया।अब बंगाल में जीवन के हर क्षेत्र में न केवल ब्राह्मण वर्चस्व है, बल्कि ब्राह्मणमोर्चा के वाम शासन के ३५ साल के राजकाज के बाद फिर ममता बनर्जी के नेतृत्व में ब्राह्मणतंत्र सत्ता में काबिज है। बंगाल में बाकी देश की तुलना में नुसूचित जातियों और जनजातियों की संख्या कम है। १७ प्रतिशत और सात प्रतिशत। तीन फीसद ब्राह्मणों,२७ फीसद मुसलमानों और पांच प्रतिशत बैद्य कायस्थ के अलावा बाकी ओबीसी है, जिनकी न गिनती हुई है और न जिन्हें हाल में घोषित आरक्षण के तहत नौकरियां मिलती है और न सत्ता वर्ग के साथ नत्थी हो जाने के बावजूद सत्ता में भागेदारी। गौरतलब है कि २७ फीसद मुसलमान आबादी में भी नब्वे फीसद मुसलमान है। वामशासन में उनके साथ क्या सलूक हुआ, यह तो सच्चर कमिटी की रपट से उजागर हो गया, पर परिवर्तन राज में उनको मौखिक विकास का मोहताज बना दिया गया है। मजे कि बात यह है कि इन्हीं ओबीसी मुसलमानों के दम पर बंगाल में ३५ साल तक वामराज रहा और दीदी के परिवर्तन राज भी उन्हीं के कन्धे पर!भारत विभाजन के शिकार दूसरे राज्यों महज असम,पंजाब और क्समीर में जनसंख्या में अब भी भारी तादाद में अनुसूचित हैं। ममता बनर्जी जिन एक करोड़ बेरोजरार युवाओं की बात करती हैं, उनमें से अस्सी फीसद इन्हीं ओबीसी और अनुसूचितों में हैं। जिनमें से ज्यादातर ने समय समय पर नौकरियों के लिए आयोजित होने वाली परीक्षाएं पास कर ली है, किंतु इंटरव्यू में बैठे ब्राह्मण चयनकर्ताओं ने उन्हें अयोग्य घोषित करके आरक्षित पदों को सामान्य वर्ग में तब्दील करके उन्हें नौकरियों से वंचित कर रखा है। बंगाल में आरक्षित पदों पर नियुक्तियां कभी बीस फीसद का आंकड़ा पार नहीं कर पायी। इसलिए बंगाल में आरक्षण विरोधी आंदोलन का कोई इतिहास नहीं है। यहां जनसंख्या का वैज्ञानिक समावेश हुआ ङै। बहुजनसमाज के प्रति अर्थशास्त्रियों के सुतीव्र घृणा अभियान तो कारपोरेट नीति निर्दारण से जगजाहिर है, समाजशास्त्रियों के घृणा अभियान पर अभी तक कोई खास चर्चा नहीं हो सकी है। कम से कम इस मायने में यह बहस शुरु करने में आशीष नंदी का शुक्रगुजार होना चाहिए हमें।नन्दी ने अनुसूचित जनजातियों को लपेटकर अच्छा ही किया। संविधान के पांचवीं और छठीं अनुसूचियों के खुला उल्लंघन के साथ जल जंगल बहुल समूचे पूर्वोत्तर और कश्मीर में सशस्त्रबल विशेषाधिकार कानून और मध्यभारत में सलवाजुड़ुम व दूसरे रंगबिरंगे अभियानों के बहाने आदिवासियों का दमन जारी है । सोनी सोरी पर उत्पीड़न करने वाले अधिकारी वीरता के लिए राष्ट्रपति पदक पाते हैं तो निश्चित ही इस देश का हर आदिवासी भ्रष्ट होगा।इसी सिलसिले में आसन्न बजटसत्र की चर्चा करना भी जरुरी है, जिसमें शीतकालीन सत्र में पास न हुए पदोन्नति में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के निषेध को खत्म करने के लिए प्रस्तावित विधायक को पिर पेश किये जाने की संबावना है। इसलिए आरक्षण विरोधी आंदोलन की नजरिये से आशीष नंदी ने बेहतरीन काम कर दिया है। अब कारपोरेट मीडिया और सोशल मीडिया दोनों का फोकस आरक्षणविरोध पर ही होगा, जाहिर है। संसदीय सत्र शुरु होते न होते शुरु होनेवाले सिविल सोसाइटी के आंदोलन के लिए तो यह सुर्खाव के पर हैं!इसी सिलसिले में पुणयप्रसून वाजपेयी की रपट और उदितराज का लेख पढ़ लिया जाये तो नंदी के बयान के घनघोर रणकौशल को समझने में मदद मिलेगी। हालांकि बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता के जरिये बहुजनसमाज के नागरिक और मानवअधिकार हनन से अविचलित लोगों के लिए इसे समझने की जरुरत भी खास नहीं है।
उत्तरी बंगाल में आज भी असुरों के उत्तराधिकारी हैं। जो दुर्गोत्सवके दौरान अशौच पालन करते हैं। उनकी मौजूदगी साबित करती है कि महिषमर्दिनी दुर्गा का मिथक बहुत पुरातन नहीं है। राम कथा में दुर्गा के अकाल बोधन की चर्चा जरूर है, पर वहां वे महिषासुर का वध करती नजर नहीं आतीं। जिस तरह सम्राट बृहद्रथ की हत्या के बाद पुष्यमित्र के राज काल में तमाम महाकाव्य और स्मृतियों की रचनी हुई प्रतिक्रांति की जमीन तैयार करने के लिए। और जिस तरह इसे हजारों साल पुराने इतिहास की मान्यता दी गयी, कोई शक नहीं कि अनार्य प्रभाव वाले आर्यावर्त की सीमाओं से बाहर के तमाम शासकों के हिंदूकरण की प्रक्रिया को ही महिषासुरमर्दिनी का मिथक छीक उसी तरह बनाया गया , जैसे शक्तिपीठों के जरिये सभी लोकदेवियों को सती के अंश और सभी लोक देवताओं को भैरव बना दिया गया। वैसे भी बंगाल का नामकरण बंगासुर के नाम पर हुआ। बंगाल में दुर्गापूजा का प्रचलन सेन वंश के दौरान भी नहीं था। भारत माता के प्रतीक की तरह अनार्य भारत के आर्यकरण का यह मिथक निःसंदेह तेरहवीं सदी के बाद ही रचा गया होगा। जिसे बंगाल के सत्तावर्ग के लोगों ने बांगाली ब्राहमण राष्ट्रीयता का प्रतीक बना दिया।विडंबना है कि बंगाल की गैरब्राह्मण अनार्य मूल के या फिर बौद्ध मूल के बहुसंख्यक लोगों ने अपने पूर्वजों के नरसंहार को अपना धर्म मान लिया। बुद्धमत में कोई ईश्वर नहीं है, बाकी धर्ममतों की तरह। बौद्ध विरासत वाले बंगाल में ईश्वर और अवतारों की पांत अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बनी, जो विभाजन के बाद जनसंख्या स्थानांतरण के बहाने अछूतों के बंगाल से निर्वासन के जरिये हुए ब्राह्मण वर्चस्व को सुनिश्चित करने वाले जनसंख्या समायोजन के जरिये सत्तावर्ग के द्वारा लगातार मजबूत की जाती रहीं। माननीय दीदी इस मामले में वामपंथियों के चरण चिन्ह पर ही चल रही हैं।
प्रख्यात समाजशास्त्री आशीष नंदी ने देश में भ्रष्टाचार के लिए ओबीसी,अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों यानि पूरे बहुजन समाज को जिम्मेवार ठहराकर बवंडर खड़ा कर दिया। विवादों से अक्सर घिरे रहनेवाले जयपुर कारपोरेट साहित्य उत्सव का एक और विवाद का गुबार अब थमता नजर नहीं आता। हालांकि मौके की नजाकत समझकर वैकल्पिक मीडिया और खोजी पत्रकारित के लिए विख्यात तहलका संपादक तरुण तेजपाल का सहारा लेकर नंदी ने सफाई भी दे दी। राजनीतिक जंग वोट बैंक के गणित के मुताबिक तेज हो गयी। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों राजनीतिक खेमा बयानबाजी के जरिये इस मामले को रफा दफा करने में बिजी है।बहुजनसमाज पार्टी के सुप्रीमो और खुद आय से ज्यादा संपत्ति अर्जित करने के आरोप में सीबीआई जांच के शिकंजे में फंसी मायावती ने तो नंदी की गिरफ्तारी की मांग तक कर दी।नंदी उत्सव से गायब हो गये हैं। इसी बीच नंदी के बचाव में सोशल मीडिया में सवर्ण हरकतें शुरु हो गयीं। हमेशा मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र को खारिज करते रहे उत्तर आधुनिकताबाद के महाप्रवक्ता और स्वंयभू मीडिया विशेषज्ञ भूतपूर्व माकपाई कोलकाता के प्राध्यापक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने दलील दी है कि जब जनगणना में जाति के आधार पर गणना होती है, तो भरष्टाचार में गणाना जाति के आधार पर क्यों नहीं होनी चाहिए। मीडिया विशेषज्ञ चारों वेदों के अध्येता य हबता रहे हैं कि जाति के आधार पर जनगणना हो रही है। जबकि हकीकत यह है कि संसद में सर्वदलीय सहमति के बावजूद जाति के आधार पर जनगणना अभी शुरु नहीं हुई है। चतुर्वेदी जी के वक्तव्य के आधार पर जाति के आधार पर पहले गिनती हो जाये तो फिर भ्रष्टाचार की गिनती भी हो जाये।पूना पैक्ट के मुताबिक अंबेडकर की विचारधारा, समता और सामाजिक न्याय के प्रतीक महात्मा गौतम बुद्ध और तमाम महापुरुषों , संतों के नाम सत्ता की भागेदारी में मलाई लूटने वाले चेहरे सचमुच बेनकाब होने चाहिए।इसी मलाईदार तबके के कारण ही भारत में अभी बहुजन समाज का निर्माण स्थगित है। उसके बाद देखा जाये कि उनके अलावा क्या भ्रष्टाचार की काली कोठरी की कमाई खानेवालों में ब्राह्मणों और दूसरी ऊंची जातियों की अनुपस्थिति कितनी प्रबल है। चतुर्वेदी जी के बयान पर अभी बवाल शुरु नहीं हुआ है। मीडिया पर उनके बारह खंडों का ग्रंथ विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रम में अभी शामिल किया जाना है और पुस्तक मेलाओं की सीजन शुरु होनेवाला है। यह विवाद तुल पकड़े तो फटीचर हिंदी प्रकाशकों की किस्मत जग जाये!
यह संयोगभर नहीं है कि बंगाल में सत्ता प्रतिष्टान से वर्य़ों जुड़े रहे जगदीश्वर चतुर्वेदी और बंगाली सत्तावर्ग के प्रतिनिधि आशीष नदी एक ही सुर ताल में बहुजन समाज के खिलाफ बोल रहे हैं, जबकि बंगाल में बहुजनसमाज का कोई वजूद ही नहीं है, जो था उसे मटियामेट कर दिया गया है। यह आकस्मिक भी नहीं है।ठीक से कहना मुश्किल है कि जैसे चतुर्वेदी ब्राह्मण हैं तो आशीष नंदी जाति से क्या हैं। वैसे बंगाल में नंदी या तो कायस्थ होते हैं या फिर बैद्य। भारत में अन्यत्र कहीं ये जातियां सत्ता में नहीं हैं। एकमात्र बंगाल में वर्णव्यवस्था बौद्धमय बंगाल के अवसान के बाद ही सेन वंश के शासन काल में ग्यारहवीं सदी के बाद लागू होने की वजह से राजपूतों की अनुपस्थिति की वजह से कुछ और खास तौर पर अंग्रेजी हुकूमत के दरम्यान स्थाई बंदोबस्त के तहत मिली जमींदारियों के कारण कायस्थ और बैद्य तीन फीसद से कम ब्राह्मणों के साथ सत्तावर्ग में हैं।बाकी देश के उलट बंगाल में ओबीसी अपनी पहचान नहीं बताता और सत्तावर्ग के साथ नत्थी होकर अपने को सवर्ण बताता है, जबकि ओबीसी में माहिष्य और सद्गोप जैसी बड़ी किसान जातियां हैं, नाममात्र के बनिया संप्रदाय के अलावा बंगाल की बाकी ओबीसी जातियां किसान ही हैं ।बंगाली ब्राह्मण नेताजी और विवेकानंद जैसे शीर्षस्थ कायस्थों को शूद्र बताते रहे हैं। जबकि बाकी देश में भी कायस्थ. खासकर उत्तरप्रदेश के कायस्थ मुगल काल से सत्ता में जुड़े होने कारण अपने को सवर्ण ही मानते हैं। इसके उलट असम में कायस्थ को बाकायदा ओबीसी श्रेणी में आरक्षण मिला हुआ है। भारत में छह हजार जातियां हैं। तमाम भारत में किसान बहुजन बहुसंख्य आम जनता को ओबीसी, अनुसूचित जातियों और जनजातियों में विभाजित कर रखा गया है। यहां तक कि कुछ किसान जातियों मसलन भूमिहार और त्यागी तो बाकायदा ब्राहमण हैं। अगर पेशा और श्रम विभाजन ही वर्ण व्यवस्था और जातियों के निर्माण का आधार है तो सभी किसान जातियों को एक ही जाति चाहे ब्राह्मण हो या ओबीसी या अनुसूचित , होना चाहिए था। बैद्य बंगाल में ब्गाह्मणों से भी मजबूत जाति है। ब्राह्मणों में भी पिछड़े, अशिक्षित और गरीब मिल जाएंगे। पर बैद्य शत प्रतिशत शिक्षित है और शत प्रतिशत फारवर्ड। देश के अर्थशास्त्र पर डा. अमर्त्य सेन की अगुवाई में इसी जाति का कब्जा है। बंगाल के सत्ताप्रतिष्ठान में अनुपात के हिसाब से बैद्य को सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला हुआ है। ब्राह्मणों के बाद।
बताया जाता है कि पत्रकार से फिल्मकार बने प्रीतीश नंदी के भाई हैं आशीष नंदी। होंगे या नहीं भी होंगे। इससे फर्क नहीं पड़ता।असल बात यह है कि आशीष नंदी ने जो कुछ कहा है, वह ब्राह्मणेतर सवर्णों और तथाकथित सवर्णों की संस्कारबद्ध श्रेष्टत्व की वर्चस्ववादी मानसिकता की ही अभिव्यक्ति है। मालूम हो कि अनुसूचितों और पिछड़ों पर अत्याचार इन्हीं जातियों के खाते में हैं। ब्राह्मण तो बस मस्तिष्क नियंत्रण करते हैं। मस्तिष्क नियंत्रण का नायाब नमूना पेस कर रहे हैं बंगाल में आधार बनाये हुए जेएनयू पलट ब्राह्मण मीडिया विशेषज्ञ इसीलिए।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक मायावती ने पत्रकारों से कहा, "उन्हें तुरंत माफी मांगनी चाहिए। हमारी पार्टी उनके बयान की भर्त्सना करती है। हमारी पार्टी राजस्थान सरकार से मांग करती है कि उनके खिलाफ तुरंत मामला दर्ज करके कड़ी कार्रवाई करे और उन्हें जेल भेज दिया जाए।"
लोजपा मुखिया रामविलास पासवान ने जयपुर में चल रहे साहित्य महोत्सव में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अनुसूचित जाति और जनजातियों के खिलाफ समाजशास्त्री एवं लेखक आशीष नंदी की कथित टिप्पणी की आज कड़ी आलोचना की।पासवान ने नंदी की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बारे में जो बयान दिया है, वह विक्षिप्त मानसिकता का परिचायक है। दलित नेता ने कहा कि नंदी को इस बयान के लिए अनुसूचित जाति जनजाति अत्यचार अधिनियम के तहत गिरफ्तार कर उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए।
अशोक नगर थाना पलिस के अनुसार जयपुर के मानसरोवर निवासी राजपाल मीणा की ओर से साहित्यकार आशीष नंदी और जयपुर साहित्योत्सव के संयोजक सुजय राय के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाया है।
पुलिस ने आशीष नंदी और सुजाय राय के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 506 और अनूसूचित जाति , जनजाति अत्याचार की धारा 3 ए के खिलाफ मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी है।
जांच कर रहे पुलिस अधिकारी सुमित गुप्ता ने कहा कि मामला दर्ज हुआ है मामले की जांच की जा रही है।
इस बीच नंदी ने पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा, 'मेरी बात को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है। मेरा मकसद किसी को ठेस पहुंचाना नही था, अगर किसी को मेरी बातों से दुख पहुंचा है तो मै माफी मांगता हूं।
आशीष नंदी ने सफाई दी, 'मेरा ऐसा मतलब नहीं था न ही मैं यह कहना चाहता था। मैंने यह कहा था, -' तहलका के संपादक तरुण तेजपाल के बयान से सहमत हूं कि भारत में भ्रष्टाचार समाज में समानता लाने का काम करता है। मेरा मानना है कि भ्रष्टाचार मुक्त समाज सिंगापुर की तरह निरंकुश समाज बन जाएगा।'
नंदी ने कहा कि उन्होंने 'विचारों का गणतंत्र' सत्र में दबे कुचले लोगों के समर्थन में बोला था। मैंने कहा था, 'मेरे जैसे लोग भ्रष्ट बनना चाहते हैं। हम अपने बच्चों को हार्वर्ड में पढ़ने के लिए भेज सकते हैं। दूसरों को लगेगा कि हम प्रतिभा को समर्थन दे रहे हैं। यह भ्रष्टाचार नहीं लगेगा।'
'पर जब दलित आदिवासी या ओबीसी भ्रष्ट होते हैं तो वह भ्रष्ट लगते हैं। हालांकि इस दूसरे भ्रष्टाचार से बराबरी आती है।' नंदी ने यह भी कहा कि यदि कुछ लोगों को उनके बयान को गलत समझने से ठेस पहुंची है तो वह माफी मागते हैं। हालांकि उन्होंने अपने बयान के लिये माफी नहीं मांगी और कहा कि वह हमेशा से ऐसे समुदायों का समर्थन करते आये हैं। उन्होंने कहा कि उनका किसी समुदाय या व्यक्ति को आहत करने का इरादा नहीं था।
उधर, नंदी के इस बयान पर दिल्ली में बसपा सुप्रीमो मायावती ने संवाददाताओं से कहा कि राजस्थान सरकार को तुरंत नंदी के खिलाफ अनुसूचित जाति, जनजाति अधिनियम के तहत मामला दर्ज कर उन्हें जेल भेजना चाहिये। साथ ही अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी एल पूनिया ने कहा कि नंदी एक समाजशास्त्री और बुद्धिजीवी हैं पर बैद्धिक बेइमानी का इससे बड़ा बयान नहीं हो सकता। उन्होंने भी नंदी को जेल भेजे जाने की मांग की।
कांग्रेस नेता राशिद अल्वी ने कहा कि किसी जाति या समुदाय को भ्रष्ट बताना गलत है। साथ ही लोजपा नेता रामविलास पासवान ने धमकी दी कि यदि नंदी के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती है तो वह विरोध प्रदर्शन करेंगे।
बीबीसी संवाददाता नारायण बारेठ का कहना है कि आशीष नंदी के इस बयान के बाद दौसा से निर्दलीय सांसद किरोड़ीलाल मीणा ने आयोजन स्थल पर पहुंचकर हंगामा करके अपना विरोध दर्ज कराया है.
इस मामले में एक व्यक्ति की शिकायत के बाद पुलिस ने आशीष नंदी के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया है.
जयपुर साहित्य उत्सव में परिचर्चा के दौरान आशीष नंदी ने कहा, ''ज्यादातर भ्रष्ट लोग ओबीसी, एससी और एसटी समुदायों के होते हैं.''
उन्होंने कहा, ''जब तक ऐसा होता रहेगा, भारत के लोग भुगतते रहेंगे.''
बयान पर क़ायम
"आप किसी गरीब आदमी को पकड़ लेते हैं जो 20 रूपये के लिए टिकट की कालाबाज़ारी कर रहा होता है और कहते हैं कि भ्रष्टाचार हो रहा है लेकिन अमीर लोग करोड़ों रूपये का भ्रष्टाचार कर जाते हैं और पकड़ में नहीं आते हैं."
आशीष नंदी
आशीष नंदी ने बाद में कहा कि वह अपने बयान पर क़ायम हैं और अपने खिलाफ किसी भी तरह की पुलिस कार्रवाई के लिए तैयार हैं.
आशीष नंदी का कहना है कि उनके बयान को गलत परिप्रेक्ष्य में समझा गया है.
परिचर्चा में मौजूद कुछ पत्रकारों समेत श्रोताओं में से भी ज्यादातर लोगों ने नंदी के इस बयान पर कड़ी आपत्ति जताई है.
लेकिन नंदी ने बाद में सफाई देते हुए कहा, ''आप किसी गरीब आदमी को पकड़ लेते हैं जो 20 रूपये के लिए टिकट की कालाबाज़ारी कर रहा होता है और कहते हैं कि भ्रष्टाचार हो रहा है लेकिन अमीर लोग करोड़ों रूपये का भ्रष्टाचार कर जाते हैं और पकड़ में नहीं आते हैं.''
वहीं परिचर्चा के पहले हिस्से में 'विचारों का गणतंत्र' विषय के आलोक में भारतीय गणतंत्र पर चर्चा करते हुए लेखक और पत्रकार तरुण तेजपाल ने कहा कि भ्रष्टाचार हर वर्ग, हर तबके में है.
तरुण तेजपाल ने नाराज़गी जाहिर करते हुए मीडिया पर आरोप लगाया है कि आशीष नंदी के बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है.
आशीष नंदी के कथित बयान के विरोध में मायावती बहुजन समाजपार्टी ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा है, ''पार्टी मांग करती है कि इस मामले में राजस्थान सरकार को तुरंत उनके खिलाफ एससी-एसटी एक्ट और अन्य सख्त कानूनी धाराओं में तहत कार्रवाई सुनिश्चित करके जल्द से जेल भेज देना चाहिए.''
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में एससी,एसटी और अन्य पिछड़ा वर्ग के खिलाफ कथित विवादित बयान देने वाले समाजशास्त्री एवं लेखक आशीष नंदी के खिलाफ एससी-एसटी एक्ट के तहत केस दर्ज कर लिया है। यह मामला गैर जमानती मामलों में दर्ज किया गया है। शनिवार देर शाम अशोक नगर थाने में मामला दर्ज होने के बाद नंदी पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। अगर वह दोषी पाए जाते हैं तो 10 साल तक की सजा हो सकती है। पुलिस ने फेस्टिवल के आयोजक संजय रॉय के खिलाफ भी केस दर्ज किया है। उधर नंदी के बयान के विरोध में एससी,एसटी और अन्य पिछड़ा वर्ग से जुड़े लोग फेस्टिवल के आयोजन स्थल डिग्गी पैलेस के बाहर धरने पर बैठ गए हैं। जयपुर में अन्य स्थानों पर भी विरोध प्रदर्शन कर नंदी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई व गिरफ्तारी की मांग की गई। मीणा महासभा के अध्यक्ष रामपाल मीणा ने कहा है कि जब तक पुलिस नंदी को गिरफ्तार नहीं कर लेती तब तक विरोध जारी रहेगा।
जाट महासभा के अध्यक्ष राजाराम मील ने कहा कि साहित्यकारों को दलितों के खिलाफ अनुचित भाषा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। दलित और ओबीसी देश की जनसंख्या का 80-85 फीसदी हैं। वे सबसे ज्यादा भ्रष्ट नहीं है। नंदी का बयान देश की इतनी बड़ी आबादी को गाली है। काम नहीं आई सफाई विवाद बढ़ता देख फेस्टिवल के आयोजकों ने आनन फानन में नंदी की प्रेस कांफ्रेंस करवाई। इसमें नंदी ने अपने बयान पर सफाई भी दी। सफाई देने के लिए वे अपने साथ मशहूर पत्रकार तरूण तेजपाल को भी लेकर आए। नंदी ने कहा कि उनकी टिप्पणी को गलत अर्थ में लिया गया है। उन्होंने एक लिखी हुई स्क्रिप्ट मीडिया के समक्ष पढ़ी। इसमें कहा गया कि भारत में भ्रष्टाचार इक्वलाइजिंग फोर्स है। मेरे कहने का यह मतलब था कि जब गरीब लोग,एससी और एसटी के लोग भ्रष्टाचार करते हैं तो इसको बढ़ा चढ़ाकर बताया जाता है। अगर लोगों ने इसे गलत समझा। मैं माफी मांगता हूं। मेरे कहने का मतलब था कि अमीर लोगों के भ्रष्टाचार को हमेशा नजरअंदाज कर दिया जाता है।मैं इस मामले को यहीं खत्म करता हूं। नंदी की सफाई के बाद तरूण तेजपाल ने कहा कि नंदी कभी दलितों,पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नहीं रहे हैं। उन्होंने हमेशा इस वर्ग के लिए काम किया है। उन्होंने पत्रकारों को भी नसीहत दी कि वे फालतू का विवाद खड़ा न करें। इसके बाद संजय रॉय ने कहा कि दौसा सांसद किरोड़ी लाल मीणा और जाट महासभा के अध्यक्ष राजाराम मील से नंदी और तरूण तेजपाल की बातचीत हो गई है। वे उनकी सफाई से संतुष्ट हैं। यह कहा था नंदी ने लिटरेचर फेस्टिवल के तीसरे दिन नंदी ने 'रिपब्लिक ऑफ आइडियाज' सेशन में टिप्पणी की थी कि देश को भ्रष्टाचार ने जकड़ रखा है। यह तथ्य है कि ज्यादातर भ्रष्ट लोग एससी,एसटी और ओबीसी वर्ग से हैं।
जाट महासभा के अध्यक्ष राजाराम मील ने भी नंदी का मुंह काला करने की धमकी दी थी। यहां तक कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी आशीष नंदी के बयान की निंदा करते हुए कहा है कि नंदी को इस प्रकार की भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए था ।
दूसरी ओर नंदी के विरोध को देखते हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने आज उन्हें इस सम्मेलन से दूर ही रखा। आज सुबह उन्हें - हिंदी-इंग्लिश भाई भाई - शीर्षक वाले सत्र में अशोक वाजपेयी, भालचंद्र नेमाडे, उदयनारायण सिंह एवं इरा पांडे के साथ भाग लेना था। इस सत्र का संचालन टीवी पत्रकार रवीश कुमार को करना था। लेकिन नंदी इस सत्र में नहीं पहुंच सके। लेकिन सम्मेलन की आयोजन समिति के प्रमुख संजय के.रॉय आयोजन स्थल पर घूमते दिखाई दिए। जबकि राजपाल मीणा द्वारा दर्ज कराई गई प्राथमिकी में उनका नाम भी शामिल किया गया है। संजय का मानना है कि साहित्यिक सम्मेलनों में होनेवाली बौद्धिक बहसों पर इस प्रकार की राजनीति करना लोकतंत्र के लिए खतरनाक हो सकता है। वह कहते हैं जिस प्रकार की प्रतिक्रिया नंदी के बयान के बाद से देखी जा रही है, वैसी प्रतिक्रियाएं राजनीतिक भाषणों तक ही सीमित रखी जानी चाहिएं। जयपुर साहित्य सम्मेलन बुद्धिजीवियों का मंच है। यहां बुद्धिजीवियों द्वारा प्रस्तुत विचारों को बहस तक ही सीमित रखा जाना चाहिए।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आशीष नंदी का यह वक्तव्य तब सामने आया जब डिग्गी पैलेस में शनिवार सुबह 10 बजे रिपब्लिक ऑफ आइडियाज पर संवाद चल रहा था। संवाद में शामिल थे ऑक्सफॉर्ड के वॉल्फसन कॉलेज के प्रोफेसर रिचर्ड सोराबजी, इतिहासकार पैट्रिक फ्रेंच, तहलका के संपादक तरुण तेजपाल, आईबीएन 7 के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष। बहस भ्रष्टाचार पर केंद्रित हुई और विचारोत्तेजक होती चली गई।
ऐसे बोले आशीष नंदी: जहां तक मेरी जानकारी है, अब तक भारत में अनरिकॉग्नाज्ड बिलेनियर मधु कौड़ा हैं। और मैं आपको भरोसा दिला सकता हूं कि मधु कौड़ा सबसे इनसिक्योर हैं। ऐसे लोग अपने रिश्तेदारों पर भरोसा कर सकते हैं। बेटों, बेटियों और भतीजे-भतीजियों पर। फिर भले पैसा छुपाना हो या पॉलिटिकल सीक्रेट्स को छुपाना हो, सिर्फ इन्हीं पर भरोसा किया जा सकता है। यही इनके लॉयल हो सकते हैं। राजनीतिक अनुभव बताते हैं कि कई बार फैमिली मेंबर्स में इतनी इंटेलीजेंस ही नहीं होती कि वे ऐसे अतिरिक्त कमाए हुए धन को छुपा सकें। लेकिन कुछ मामले ऐसे भी होते हैं जिन्हें भ्रष्टाचार नहीं माना जा सकता। अगर मैं उदाहरण दूं कि रिचर्ड सोराबजी के बेटे का मैं यहां कहीं एडमिशन करवा दूं और वे मेरी बेटी को ऑक्सफॉर्ड में फेलोशिप दिलवा दें तो लोग इसे भ्रष्टाचार नहीं मानेंगे। वे यही कहेंगे कि हम टैलेंट को स्पोर्ट कर रहे हैं। लेकिन अगर मायावती कुछ करेंगी, अपने रिश्तेदारों को 100 पेट्रोल पंप दिलवा देंगी, कुछ रिश्तेदारों को नर्स बनवा देंगी तो क्या होगा? यह होगा कि भ्रष्टाचार तो बहुत ज्यादा दिखेगा और भ्रष्ट का भ्रष्टाचार दिखेगा ही नहीं।...
अब तरुण तेजपाल उन्हें रोकते हैं और बोलते हैं- भ्रष्टाचार समाज में बराबरी लाता है। कुछ मिनट बाद आशीष नंदी कहते हैं, ...इट इज अॅफैक्ट दैट मोस्ट ऑफ दॅ करप्ट कम फ्रॉम दॅ ओबीसीज ऐंड दैन शिड्यूल कास्ट्स। ऐंड नाऊ शिड्यूल ट्राइब्स। यानी यह एक तथ्य है कि सबसे ज्यादा भ्रष्ट पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जातियों से आ रहे हैं। और अब इनमें अनुसूचित जनजातियों से आने वाले भी पीछे नहीं रहे हैं। ..और अगर भारतीय गणतंत्र बचेगा तो इसी (भ्रष्टाचार)से।
(लोग जमकर तालियां बजाते हैं, लेकिन पहली पंक्ति में बैठे एक व्यक्ति विरोध करते हैं। वे कहते हैं, नंदी, आप गलत कह रहे हैं। आप या तो अपनी बात को यहीं साबित करें नहीं तो आपके खिलाफ एससीएसटी एक्ट में मुकदमा दर्ज होना चाहिए।)
नंदी अपनी बात को कुछ पुष्ट करने के लिए तर्क देते हैं, मैं आपको उदाहरण देता हूं कि हमारे राज्यों में सबसे कम भ्रष्टाचार वाला राज्य पश्चिम बंगाल रहा है, जहां सीपीएम की सरकार थी। लेकिन पिछले 100 साल वहां कोई भी ओबीसी, एससी या एसटी से कहीं भी सत्ता में नहीं रहा। यह एक पूरी तरह साफ सुथरा राज्य रहा है। यह एक तथ्य है।
आशुतोष : सॉरी, सॉरी। आप गलत कह रहे हैं। कितने ही उदाहरण सामने हैं। उच्च वर्गों से आने वाले लोगों ने हर स्तर पर भ्रष्टाचार फैलाया है। ओबीसी या एससी या एसटी के भ्रष्टाचार के पीछे भी ऊंची जातियों के लोग रहे हैं।
एससी, एसटी, ओबीसी का भ्रष्टाचार अच्छा
भास्कर ने उनके विवादित भाषण के बाद उनसे तत्काल लंबी बातचीत की। कुछ अंश :
-आपने एससी, एसटी और ओबीसी पर ऐसा क्यों कहा?
मैंने यही बोला कि उनमें भ्रष्टाचार हो तो अच्छा रहेगा।
-भ्रष्टाचार हो तो अच्छा रहेगा?
हां, हां। भ्रष्टाचार हो तो अच्छा रहेगा। ...(वे समझाते हैं) क्या आपको लगता है कि भ्रष्टाचार नहीं होता तो अगले तीस साल में कोई ट्रायबल बिलियनेयर बनने वाला था? भ्रष्टाचार हुआ तो मधु कौड़ा जैसा ट्रायबल बिलियनेयर बना।
जगदीश्वर चतुर्वेदी ने `हस्तक्षेप' में लिखा है:
सोशल साईट 'फेसबुक' के बहिष्कार और घृणा के आधार पर किसी जाति या समुदाय विशेष के लेखकों को आसानी से जुटाया जा सकता है। उन्हें अतार्किक दिशा में लिखने के लिए प्रेरित भी किया जा सकता है। लेकिन ऐसे लेखक अच्छी साहित्यिक रचना को जन्म नहीं दे सकते। हिन्दी में इन दिनों फैशन हो गया है जाति के आधार पर एकजुट होना।
कल मैं टीवी में सुन रहा था एक वंचित विचारक कह रहे थे भ्रष्ट आदमी की जाति नहीं होती। अब इन महोदय से कोई पूछे कि क्या लेखक की जाति होती है ? कहानी, उपन्यास की जाति होती है ? यदि नहीं होती तो फिर जाति का नाम आगे लिखकर दलित उपन्यास, दलित कहानी क्यों पेश किए जा रहे हैं ? विचारक के नाम के आगे जाति क्यों लिख रहे हैं, दलित चिन्तक, दलित लेखक आदि।
आईबीएन-7 से लेकर एनडीटीवी तक सबमें ये लोग आए दिन बैठे रहते हैं। यह जाति का महिमामंडन है। कबीर-दादू ने नाम के साथ, उनकी कविता के साथ कभी दलित पदबंध का इस्तेमाल नहीं किया गया और आज वे भारतीय जनमानस में आदर के साथ याद किए जाते हैं।
महाकुंभ में सभी जातियों के लोग गोते देखे जा सकते हैं। कहां सोए हैं दलितों को जगाने वाले देखें कि किस तरह महाकुंभ में बड़ी तादाद में असवर्ण भी गोते लगा रहे हैं। हर हर गंगे।
मायावती से लेकर दलित चिंतकों तक सबको यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भी ओबीसी,एससी-एसटी जाति का व्यक्ति अपने दरवाजे पर आने वाले पंडे को दान-दक्षिणा न दे। इस जाति के लोग कभी मंदिरों में ब्राह्मणों के साथ दर्शन करने न जाएं। नदियों में नहाने न जाएं। कुंभ में ब्राह्मणों को दान न करें। संतों -महंतों को प्रणाम न करें। आखिरकार ये सब ब्राह्मण समाज की त्याज्य चीजें हैं।
हम चाहें या न चाहें, मानें या न मानें लेकिन महाकुंभ की शक्ति जनता है और विचारधारा है उदार हिन्दूधर्म का वैविध्य। यह वह धर्म है जिसको अनेक अल्पज्ञानी लोग आए दिन कुत्सित और असामाजिक भाषा में गरियाते रहे हैं। उदार हिन्दू धर्म में कभी किसी लेखक की अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी नहीं लगायी गयी। साहित्य में भक्ति आंदोलन में सिरमौर दलित लेखकों को बनाकर रखा गया। लेकिन उन्मादियों का एक समूह पैदा हुआ है जो भारतीय परंपरा के नाम पर मीडिया में अनर्गल प्रलाप करता रहता है।
डा जगदीश्वर चतुर्वेदी, जाने माने मार्क्सवादी साहित्यकार और विचारक हैं. इस समय कोलकाता विश्व विद्यालय में प्रोफ़ेसर
भ्रष्टाचारियों का सामाजिक प्रोफाइल होता है। याद करें 2जी स्पेक्ट्रम में शामिल तमिलनाडु के नेताओं को, मायावतीशासन में हुए भ्रष्टाचार और उसमें शामिल आधे दर्जन निकाले गए भ्रष्ट मंत्रियों, शशांक शेखर और अन्य बड़े आईएएस अधिकारियों के द्वारा किए भ्रष्टाचार को, उन पर चल रहे केसों को। झारखंण्ड के तमाम नाम-चीन भ्रष्ट नेताओं के सामाजिक प्रोफाइल को भी गौर से देखें।
भाजपा के पूर्व नेता येदुरप्पा के सामाजिक प्रोफाइल पर भी नजर डाल लें और लालू-मुलायम पर चल रहे आय से ज्यादा संपत्ति के मामलों को भी देखें। आखिरकार इन नेताओं की जाति भी है। राजनीति में जाति सबसे बड़ी सच्चाई है। उनकी जीत में जाति समीकरण की भूमिका रहती है। ऐसे में भ्रष्टाचार के प्रसंग में यदि जाति को भ्रष्टाचारी की प्रोफाइल के साथ पेश किया जाता है तो इसमें असत्य क्या है ? भ्रष्टाचारी की दो जाति होती हैं एक सामाजिक जाति और दूसरी आर्थिक जाति। दोनों केटेगरी विश्लेषण के लिए महत्वपूर्ण हैं। जाति आज भी महत्वपूर्ण केटेगरी है और इस पर जनगणना हो रही है। विकास के पैमाने के निर्धारण के लिए जाति खोजो और भ्रष्टाचार में जाति मत खोजो यह दुरंगापन नहीं चलेगा। जाति विश्लेषण की आज भी बड़ी महत्वपूर्ण केटेगरी है।
वंचितों के नाम पर नए किस्म का कुतर्क आए दिन प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है। इस कुतर्कशास्त्र को नियोजित प्रौपेगैण्डा का रूप देने में हिन्दी के स्वनामधन्य लेखकों, पत्रिकाओं की भी सक्रिय भूमिका है। इस तरह का शास्त्र वंचितों के हितों और कला आस्वाद को सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त कर रहा है।
मसलन् दलित विचारकों का एक बड़ा दल आए दिन "सवर्णों" (नागरिक) पर हमले करता रहता है लेकिन मजेदार बात यह है हिन्दी में आज भी अधिकांश दलित लेखकों की कृतियां "सवर्ण" (नागरिक)पाठक ही पढ़ते हैं।
सवाल यह है कि दलित चिन्तकों -लेखकों की रचनाएं मध्यवर्ग के दलितों में क्यों नहीं बिकतीं ? दलित साहित्य अपने को दलितों से क्यों नहीं जोड़ पाया है।
पूंजीवादी व्यवस्था में गरीब या दलित या मेहनतकश या कम आय वाले लोग बहुत बड़े उपभोक्ता हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में बाजार के सामने सब उपभोक्ता हैं। उपभोक्ता की जाति नहीं होती। कोई रोक सके तो रोक ले दलित और सवर्ण के उपभोक्ता में रूपान्तरण को ?
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