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Sunday, August 4, 2013

आदिवासी भाषाओं से नफरत क्यों?

आदिवासी भाषाओं से नफरत क्यों?


भाषा एक सभ्यता की जननी होती है

भाषा खत्म होने का मतलब एक सभ्यता का अंत होना निश्चित है

ग्लैडसन डुंगडुंग

Gladsom Dungdung, ग्लैडसन डुंगडुंग

ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता और झारखंड ह्यूमन राईट्स मूवमेंट के महासचिव हैं।

मुंडा आदिवासियों का गाँव ''सरजोमडीह'' झारखंड के लालगलिया का एक चर्चित गाँव है, जिसका नाम सुनते ही राजधानीवासियों की नींद उड़ जाती है। माओवादियों के भय से इस गाँव में कोई जाना नहीं चाहता है। इस गाँव में एक प्राथमिक उत्क्रमित विद्यालय भी है, जहाँ कक्षा एक से सात तक की पढ़ाई होती है। विद्यालय में लगभग 250 बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं और इस कार्य में तीन शिक्षकों को लगाया गया है। इसमें सबसे मजेदार बात यह है कि कोई भी शिक्षक मुंडारी भाषा नहीं जानता है, जिसका दुष्फल बच्चों को भोगना पड़ता है। कक्षा 5 में पढ़ने वाला बच्चा रमेश मुंडा बताता है कि हिन्दी भाषा में पढ़ाई होने की वजह से बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने में काफी कठिनाई होती है। इसी तरह कक्षा सात में पढ़ने वाली मीनाक्षी मुंडा ठीक से हिन्दी में बात भी नहीं कर पाती है। वहीं कक्षा 1 से 5 तक के बच्चे तो न के बराबर ही हिन्दी जानते हैं। लेकिन वे लगातार कक्षा में पास हो रहे हैं। इनके सुनहरे भविष्य की कल्पना सहज ही की जा सकती है। हाँ, उन्हें अपनी मातृभाषा 'मुंडारी' खूब अच्छी तरह से आती है। वे दिनचर्या का सारा काम मुंडारी भाषा में ही करते हैं। रमेश कहता है कि बच्चों को मुंडारी भाषा में ही पढ़ाया जाना चाहिए। लेकिन उसकी कौन सुनता है?

झारखंड एक आदिवासी राज्य है, जहाँ कम से कम आदिवासी भाषाओं को तो स्वीकार किया ही जाना चाहिए था लेकिन संताली भाषा को छोड़कर अन्य भाषाओं की बात ही नही होती है। झारखंड के वीर बिरसा मुंडा की भाषा 'मुंडारी' तक को प्रथम राज्यभाषा का दर्जा नहीं मिला इससे ज्यादा शर्मनाक बात क्या हो सकती है। आदिवासियों को अपनी भाषा में शिक्षा उपलब्ध नहीं कराने की वजह से काफी संख्या में बच्चे विद्यालय छोड़ देते हैं। राज्य सरकार के आँकड़े के अनुसार वर्तमान में झारखंड के विद्यालयों में कक्षा 1 से 8 तक 40,31,582 बच्चे नामांकित हैं, जिनमें से 32,25,145 बच्चे ही नियमित विद्यालय जाते हैं एवं 8,06,437 बच्चे विद्यालयों से बाहर हैं। इसके अलावा एक लाख बच्चों का विद्यालयों में कभी नामांकन ही नहीं हुआ। सवाल यह है कि जब ना उनकी भाषा में पढ़ाई होगी और न ही यह शिक्षा उनका पेट भर सकेगा तो वे विद्यालयों में उपस्थिति दर्ज कराकर अपना समय बर्बाद क्यों करेंगे? उन्हें अपना जीवन सँवारने के लिए तो उनके गाँव के बुजुर्ग ही अपनी भाषा में व्यावहारिक शिक्षा दे देते हैं।

अब सवाल यह है कि हम आदिवासी भाषाओं की वकालत क्यों कर रहे हैं? क्या आदिवासियों का हिन्दी एवं अग्रेजी में शिक्षा ग्रहण करना उचित नहीं है? यह सभी जानते हैं कि भाषा एक सभ्यता की जाननी होती है। भाषा खत्म होने का मतलब एक सभ्यता का अंत होना निश्चित है। क्योंकि आदिवासी एक ऐसी सभ्यता के प्रतीक हैं जहाँ सामुहिकता, समानता, स्वायात्तता, समावेशी विकास और न्याय स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इस समुदाय की अर्थव्यवस्था 'जरूरत' पर आधारित है 'लालच' पर नहीं। फलस्वरूप इस अर्थव्यवस्था से शांति उत्पन्न होती है युद्ध नहीं। यह समुदाय प्रकृति के साथ सहजीवन का सम्बंध रखती है, प्रकृति के दोहन पर विश्वास नहीं करती है। इस समुदाय में विकास का अर्थ सभी जीवित प्राणी, पेड़-पौधे एवं प्रकृति के एक साथ फलना-फूलना से है। आदिवासी समुदाय में शिक्षा का सरोकार हकीकत जीवन से होता है किसी सपना पर आधारित नहीं। उदाहरण के लिए बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते हैं, घर में दादा-दादी, माता-पिता एवं अन्य सदस्य उन्हें रोजमर्रा के काम में आने वाले चीजों के बारे में बताते हैं एवं उन्हें व्यावहारिक शिक्षा प्रयोग के साथ ''अखड़ा'' में दिया जाता है।

आदिवासी भाषाओं से सम्बंधित लोक गीत, नाटक एवं कहानियों में जीवन की हकीकत ही भरा-पूरा है। आदिवासी समाज के लेखक एवं कवि जो भी कहानी, नाटक, गीत, भजन या कविता लिखते हैं वह जीवन की हकीकत, रोजमर्रा का संघर्ष एवं दिन-प्रतिदिन जीया हुआ पल से सराबोर होता है। ये लेखक कल्पना की दुनिया में घुसकर कुछ नहीं लिखते हैं। यहाँ कहीं भी बॉलीवुड या हॉलीवुड फिल्मों की तरह सपनों का संसार से कोई सरोकार नहीं होता। आदिवासी भाषाओं में बने फीचर फिल्मों में भी आदिवासी संघर्ष, उनके जीवन की हकीकत एवं प्रेम कहानियाँ भी हूबहू जीवन की हकीकत से सराबोर रहती हैं। एक आदिवासी प्रेमी अपने प्रेमिका से चाँद-तारा तोड़कर लाने का वादा नहीं करता है बल्कि बाजार सेगोलगप्पेचूड़ी और साड़ी लाने का वादा करता है। लेकिन आदिवासी भाषाओं को मान्यता नहीं मिलने की वजह से आदिवासी बच्चे दूसरे भाषाओं द्वारा अपने समाज के बारे में लिखी हुयी गलत बातें ही पढ़ते हैं, जिससे एक तो वे कुंठित हो जाते हैं और दूसरा अपने समाज की हकीकत में जीने की बजाय सपनों में जीना शुरू कर देते हैं और अन्ततः उन्हें असफलता ही हाथ लगती है। दूसरी बात यह है कि आज की शिक्षा व्यवस्था जो अंग्रजी एवं हिन्दी पर आधारित है जो बच्चों को ज्यादा-ज्यादा पैसा कमाना और पीढ़ी-दर-पीढ़ी के लिए जमाकर रखने की शिक्षा देती है जबकि आदिवासी शिक्षा व्यवस्था इंसान बनाते हुए अपने जरूरत के अनुरूप इकट्ठा कर बाकी को समाज के दूसरे लोगों के लिए भी बचाना सीखाता है।

तीसरी बात यह है कि दूसरे भाषाओं में बड़े-बड़े लेखक, कवि एवं पत्रकार पैदा होते रहते हैं लेकिन आदिवासी समुदाय में यह न के बराबर है। इसकी वजह भी यही है कि आदिवासी भाषाओं में लिखे कहानी, कविता, लेख इत्यादि को छापने वाले हैं ही नहीं क्योंकि ये बाजार के भाव से बिकते ही नहीं हैं। इसलिए लेखक, कवि या पत्रकार बनने की ख्वाहिश रखने वाले आदिवासियों को या तो हिन्दी या अंग्रेजी की शरण में जाना पड़ता हैं, जो आदिवासियों के लिए काफी पीड़ा देने वाली होती हैं। दूसरी बात यह कि हिन्दी एवं अंग्रेजी में लिखने के लिए इन्हें स्थानीयता को कत्ल कर देना होता है क्योंकि दूसरे लोग इससे समझ ही नहीं सकते। यह झारखंड ही नहीं अपितु पूरे देश के आदिवासी भाषाओं का कमाबेश यही हाल है।

शायद यह सवाल ही पूछना बेवकूफी है कि गैर-आदिवासी लोग आदिवासियों के भाषा से नफरत क्यो करते हैं। जब यहाँ आदिवासियों से ही नफरत है, उन्हें जंगलीअसभ्य, असुर,अनपढ़, विकासहीन और न जाने क्या-क्या नकारात्मक उपाधियों से नवाजा जाता है तो उनके भाषा, संस्कृति और जीवन-दर्शन से कोई प्यार करेगा क्या? आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने वाला भूत तो अब आदिवासियों के बीच उत्पन्न मध्य वर्ग को भी उनके भाषा, संस्कृति और जीवन-दर्शन से बेदखल कर रहा है। क्या यह कल्पना से परे नहीं कि झारखंड की राजधानी रांची में रहने वाले केरल के लोग आने बच्चों को मलयालम सिखाते हैं, तमिलनाडु के लोग तामिल, आंध्रप्रदेश के लोग तेलंगू, बंगाल के लोग बंगला और ओडि़सा के लोग उड़िया। इसी तरह झारखंड में रहने वाले बिहारी लोग तो भोजपुरी, मगही, मैथिली और न जाने क्या-क्या भाषा आपने बच्चों को सिखा रहे हैं, लेकिन आदिवासियों का शिक्षित मध्यवर्ग अपने बच्चों को हिन्दी और अंग्रेजी तो सिखा रहा है लेकिन अपनी मातृभाषा – खड़िया,संताली, मुंडारी, कुडू़ख एवं हो नहीं सिखा पा रहा है। क्या उन्हें आदिवासी भाषा, संस्कृति और जीवन-दर्शन से प्यार नहीं है?

एक उदाहरण यह भी है कि विगत वर्ष झारखण्ड लोक सेवा आयोग के परीक्षा में परीक्षार्थियों को पूछा गया था कि आपकी मातृभाषा क्या है? आदिवासी परीक्षार्थियों ने उसके जवाब में 'हिन्दी' लिखा। यह उनकी गलती नहीं थी उनको पढ़ाने वाले सभी शिक्षक हिन्दी पट्टी के ही होते हैं और वे बच्चों को मातृभाषा की जगह पर हिन्दी ही लिखवाते हैं। हमें किसी शिक्षक ने यह कभी नहीं बताया कि मातृभाषा का मतलब माँ की भाषा से सम्बंध है याने जन्म लेने के बाद बच्चा सबसे पहले जो भाषा सीखता है वही उसका मातृभाषा होता है। यह सारी चीज़ आदिवासियों के साथ नस्ल-भेदभाव की वजह से है।

हकीकत यह है कि खुद को मुख्यधारा के शिक्षित, जागरूक और सभ्य कहने वाला समाज ने आदिवासियों को बोलकर एवं लिखकर इतना ज्यादा कुण्ठित बना दिया है कि उन्हें खुद को आदिवासी कहने से ग्लानि महसूस होती है इसलिए वे 'आदिवासी का घेरा' से बाहर निकालने के वास्ते अपनी ही भाषा, संस्कृति और जीवन-दर्शन से बेदखल हो रहे हैं। दूसरा उदाहरण यह भी है कि उर्दूभाषी, बंगलाभाषी, मैथिलीभाषी एवं कई अन्य भाषा समूह के लोग झारखण्ड में अपने भाषा को राज्यभाषा बनाने की माँग को लोकर भारी संख्या में राजधानी की सड़कों पर उतर जाते हैं लेकिन, जब आदिवासी भाषाओं की बात होती है तो कुछ गिने-चुने लोग ही आदिवासी भाषाओं के समर्थन में नारा लगाते दिखाई पड़ते हैं।

आदिवासी शिक्षाविद् डा. निर्मल मिंज कहते हैं कि 'सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस देश ने आदिवासियों को स्वीकार ही नहीं किया'। आदिवासियों के भाषा, संस्कृति एवं जीवन-दर्शन की बदहाली का सबसे प्रमुख कारण यही है। अगर इन समस्याओं का समाधान निकालना है तो सबसे पहले आदिवासियों को भी सम्मान इंसान का दर्जा देना होगा तब उनके भाषा, संस्कृति एवं जीवन-दर्शन तथाकथित सभ्य, शिक्षित एवं मुख्यधारा के लोगों को स्वीकार्य होगा। वरना ये हशिये पर ही पड़े रहेंगे।

 

- ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक व चिंतक हैं।


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