Friday, 09 August 2013 10:57 |
उर्मिलेश आर्थिक सुधारों के दौर में तेजी से फैला खुशहाल शहरी मध्यवर्ग इस बात से बेचैन है कि उसके नेता और केंद्र-राज्य की सरकारें उसे देश के अंदर कैलिफोर्निया या न्यूयार्क जैसा माहौल क्यों नहीं देतीं! सरकार और नेताओं से बड़े पैमाने पर रियायतें पाने के बावजूद कॉरपोरेट का बड़ा हिस्सा इस बात से नाराज है कि उसे सरकारी नियम-कानून से पूरी तरह मुक्त क्यों नहीं किया जाता! आम लोग आक्रोश में हैं कि नेता और शासन उनके वोट से बनते और चलते हैं, पर इस व्यवस्था में सबसे उपेक्षित वहीं हैं। छियासठ साल बाद भी लोगों के बुनियादी मसले हल नहीं हुए। हिंदीभाषी इलाका, जहां अतीत में एक से बढ़ कर एक बड़े नेता पैदा हुए, आज वहां दूरदर्शी नेतृत्व का सख्त अभाव है। उत्तर प्रदेश और बिहार में सामाजिक न्याय के स्वघोषित दूतों की कारगुजारियों से उनका नायकत्व अब खलनायकत्व में तब्दील हो गया है। बंगाल में टकराव की राजनीति सबसे तीखी है। महाराष्ट्र, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में धन की ताकत अपरंपार है। ले-देकर केरल की राजनीति अब भी औरों से बेहतर दशा में है। लंबे अरसे बाद, भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे कर्नाटक शासन को मुख्यमंत्री के रूप में एक जनपक्षी नेता मिला है। पूर्वोत्तर के राज्यों में त्रिपुरा और मिजोरम को छोड़ दें तो शेष राज्यों का हाल बहुत बुरा है। झारखंड अपनी स्थापना के समय से अब तक राजनीति और राज-काज का कोई कारगर तंत्र नहीं विकसित कर सका। कई मौकों पर वह राज्यविहीनता की स्थिति में चला जाता है। और छत्तीसगढ़ जैसे नए सूबे में सर्वदलीय (भाजपा-कांग्रेस) नेतृत्व के मुकाबले जनतांत्रिक धारा से किसी संगठन या नेता का चेहरा नहीं उभरता; सामने आते हैं माओवादी! लेकिन माओवादियों के पास अब तक समाज और तंत्र की रचना का कोई सुचिंतित, जनवादी या मानवीय विकल्प नहीं नजर आया। अपेक्षया छोटे-से त्रिपुरा में मानिक-शासन की कामयाबी को छोड़ दें तो पारंपरिक वामपंथ राष्ट्रीय राजनीति में अपनी वैचारिक तेजस्विता खो चुका है। महज दो-ढाई दशक पहले देश के कई इलाकों में सामाजिक न्याय की लड़ाई तेज हुई थी। ऐसा लगा था कि भारत की राजनीति और अर्थतंत्र में समावेशी विकास और सकारात्मक कार्रवाई (एफर्मेटिव एक्शन) का नया दौर शुरू होने वाला है। यही धारा वामपंथियों के साथ मिल कर राजनीति और शासन के कॉरपोरेटीकरण-निगमीकरण के खिलाफ कारगर लड़ाई लड़ सकती थी। पर जल्दी ही इस महान संभावना का असमय अंत हो गया। सामाजिक न्याय के इन दूतों को जल्दी ही करोड़पति-अरबपति बन कर सत्ता-सुख भोगते और अपनी राजनीतिक विरासत के तौर पर अपने परिजनों को आगे करते देखा गया। इनके राजनीतिक-वैचारिक पराभव की जमीन से ही भगवा-ब्रिगेड का सुदृढ़ीकरण हुआ। इसमें कोई दो राय नहीं कि बीते दो दशक के दौरान राजनीति, सत्ता और कॉरपोरेट का गठबंधन बेहद मजबूत हुआ है। यह संयोग नहीं कि इसी दौर में राजनीति धनवानों के धंधे के रूप में तब्दील हुई है। किसी आम कार्यकर्ता के लिए सिर्फ अपने काम के बल पर चुनाव जीतना असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल हो गया है। न तो उसे पार्टियों का टिकट मिलेगा और न ही जनता का समर्थन! राजनीतिक दलों में नया नेतृत्व दो ही तरीके से पैदा हो रहा है, परिवार के रास्ते या कॉरपोरेट के। क्या जनता इस दुरभिसंधि को तोड़ने के लिए स्वयं इसके मायाजाल से मुक्त हो सकेगी? किसी बड़े जन-आंदोलन या जन-जागरण के बगैर क्या यह संभव होगा? यह भी अनायास नहीं कि ज्यादातर बड़े दलों के बड़े नेता अक्सर कहते रहते हैं कि सरकार का काम आर्थिक कारोबार करना नहीं, सिर्फ सरकार चलाना है, आर्थिक कारोबार निजी क्षेत्र का दायरा है। क्रोनी-पूंजीवादी सिद्धांतकार बहुत पहले से यह बात कहते आ रहे हैं। आज के नेता तो सिर्फ उसे दुहरा रहे हैं। लेकिन भारत जैसे महादेश में जहां अभी गरीबी, असमान विकास और क्षेत्रीय असंतुलन जैसी बड़ी आर्थिक-राजनीतिक समस्याओं को हल करना बाकी है, इस तरह के सोच और समझ की सीमाएं तुरंत सामने आ जाती हैं। क्या करोड़ों गरीबों की भूख, बीमारी और बेरोजगारी के समाधान का देशी-विदेशी कॉरपोरेट के पास कोई प्रारूप है? क्या पांच सितारा निजी अस्पतालों से देश की बदहाल बड़ी आबादी की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतें पूरी की जा सकती हैं? क्या पब्लिक स्कूल के नाम पर चल रहे निजी स्कूलों या विश्वविद्यालयों से गांव-कस्बों, छोटे-मझोले शहरों या महानगरों के गरीबों के बच्चों को शिक्षित किया जा सकेगा? जब तक राजनीति का मौजूदा ढर्रा, योजनाओं का स्वरूप और शासन का चेहरा नहीं बदलता, ये सवाल सुलगते रहेंगे। इस सवाल से ही जुड़ा है राजनीतिक नेतृत्व का भविष्य भी। इससे रूबरू हुए बगैर राजनीति की मैली चादर उजली नहीं होगी और न तो नए महानायक उभरेंगे!
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Friday, August 9, 2013
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