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Saturday, February 1, 2014

सिखों के नरसंहार का तीस साल बाद भी अभी न्याय नहीं हुआ।इस देश में किसी भी दंगे का आजतक कोई न्याय नहीं हुआ।पैंतीस साल हो गये मरीचझांपी नरसंहार के ,न्याय की मांग करने वाले ही सिरे से गायब हैं।आदिवासियों के विनाश पर विकास गाथा की बहुमंजिली इमारत है तो कश्मीर,समूचे हिमालयी क्षेत्र,मध्यभारत और पूर्वोत्तर के अलावा जाति हिंसा के तहत पूरे देश में वैज्ञानिक तकीनीकी समृद्ध पद्धति से अविराम नरसंहार की संस्कृति है। अंध राष्ट्रवाद की यह फसल नस्ली दिल्ली के राष्ट्रगान और भव्य परेड का स्थायी भाव है। Delhi's racist regime is the root of every basic problems of India.Racist regime heralds death of the Nation.We want unity and integrity with military option and do engage ourselves dehumanising rest of the humanity.Shame!

सिखों के नरसंहार का तीस साल बाद भी अभी न्याय नहीं हुआ।इस देश में किसी भी दंगे का आजतक कोई न्याय नहीं हुआ।पैंतीस साल हो गये मरीचझांपी नरसंहार के ,न्याय की मांग करने वाले ही सिरे से गायब हैं।आदिवासियों के विनाश पर विकास गाथा की बहुमंजिली इमारत है तो कश्मीर,समूचे हिमालयी क्षेत्र,मध्यभारत और पूर्वोत्तर के अलावा जाति हिंसा के तहत पूरे देश में वैज्ञानिक तकीनीकी समृद्ध पद्धति से अविराम नरसंहार की संस्कृति है। अंध राष्ट्रवाद की यह फसल नस्ली दिल्ली के राष्ट्रगान और भव्य परेड  का स्थायी भाव है।



Delhi's racist regime is the root of every basic problems of India.Racist regime heralds death of the Nation.We want unity and integrity with military option and do engage ourselves dehumanising rest of the humanity.Shame!


दिल्ली नस्लभेदी है और नस्लभेदी दिल्ली की प्रजा है बाकी देश। इसी नस्लभेद की उपज है जाति व्यवस्था और जातिव्यवस्था से बाहर इस देश की निनानब्वे फीसद जनता को वध्य बना देने का यह निरंकुश राज्यतंत्र। मामला सिर्फ अरुणाचल का नहीं है और न पूर्वोत्तर का।यह नस्लभेद मुसलमानों के नागरिक न मानने और हिंदू राष्ट्र की मुहिम भी है।यह कश्मीर समेत तमाम हिमालयी लोगों की तबाही का आलम है।इसी नस्ल भेद के कारण बांग्ला में बोलने वाला हर आम व खास आदमी बाकी देश की नजर में बांग्लादेशी घुसपैठिया है। इसी वजह से काला हर आदमी अशुद्ध है और अस्पृश्य महिषासुर या वानर है तमिलनाडु समेत पूरा दक्षिण भारत।इसी नस्लभेद की वजह से देश हर आदिवासी को नक्सली,माओवादी और हर मुसलमान को दहशतगर्द मानता है।


Palash Biswas

Kamayani Bali Mahabal

Irom Sharmila: 10 reasons why we should support her ‪#‎AFSPA‬ - Kractivism

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kractivist.org

1. Irom Sharmila has been on hunger strike since November 2000, surpassing other fasts undertaken by Mahatma Gandhi or Anna Hazare. M. K. Gandhi undertook 17 fasts in his lifetime, longest one lasting for 21 days. Anna Hazare, who has taken more than 15 fasts, hold a record for 12 days. Irom Sharmil...

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Delhi's racist regime is the root of every basic problems of India.Racist regime heralds death of the Nation.We want unity and integrity with military option and do engage ourselves dehumanising rest of the humanity.Shame!


सिखों के नरसंहार का तीस साल बाद भी अभी न्याय नहीं हुआ।इस देश में किसी भी दंगे का आजतक कोई न्याय नहीं हुआ।पैंतीस साल हो गये मरीचझांपी नरसंहार के ,न्याय की मांग करने वाले ही सिरे से गायब हैं।आदिवासियों के विनाश पर विकास गाथा की बहुमंजिली इमारत है तो कश्मीर,समूचे हिमालयी क्षेत्र,मध्यभारत और पूर्वोत्तर के अलावा जाति हिंसा के तहत पूरे देश में वैज्ञानिक तकीनीकी समृद्ध पद्धति से अविराम नरसंहार की संस्कृति है। अंध राष्ट्रवाद की यह फसल नस्ली दिल्ली के राष्ट्रगान और भव्य परेड  का स्थायी भाव है।

दिल्ली नस्लभेदी है और नस्लभेदी दिल्ली की प्रजा है बाकी देश। इसी नस्लभेद की उपज है जाति व्यवस्था और जातिव्यवस्था से बाहर इस देश की निनानब्वे फीसद जनता को वध्य बना देने का यह निरंकुश राज्यतंत्र। मामला सिर्फ अरुणाचल का नहीं है और न पूर्वोत्तर का।यह नस्लभेद मुसलमानों के नागरिक न मानने और हिंदू राष्ट्र की मुहिम भी है।यह कश्मीर समेत तमाम हिमालयी लोगों की तबाही का आलम है।इसी नस्ल भेद के कारण बांग्ला में बोलने वाला हर आम व खास आदमी बाकी देश की नजर में बांग्लादेशी घुसपैठिया है। इसी वजह से काला हर आदमी अशुद्ध है और अस्पृश्य म हिषाषासुर या वानर है तमिलनाडु समेत पूरा दक्षिण भारत।इसी नस्लभेद की वजह से देश हर आदिवासी को नक्सली,माओवादी और हर मुसलमान को दहशतगर्द मानता है।

The shocking assault and subsequent death of a Arunachal Pradesh student has got the north-eastern community enraged who say it is a racist crime

Reuters

Guwahati: From downright shock to a seething anger, people from the country's northeast, and especially its youth, reacted strongly at the death Thursday of a 19-year-old Arunachal Pradesh student who was allegedly severely assaulted by shopkeepers in a busy south Delhi market.

Calling it as yet another incident of blatant racism against northeastern students, people of the region spoke out against widescale discrimination meted out to hapless youngsters going to the national capital every year looking for better opportunities for education and career.

"There were such large scale protests against discrimination of South African students in Delhi after the Somnath Bharti (of Aam Aadmi Party) incident in south Delhi. Without undermining their case, why are there no voices outside the northeast community condemning incidents of racism against people of India's northeast?"

"Day after day, and year after year, when helpless students of the northeast are meted out worse behaviour by residents of the city, no one speaks out. Nido Taniem's death was a case of downright discrimination and racism, but who, other than us from the northeast, are going to speak out against it?" asks an agitated Saurav Barman, a second year graduation student in Guwahati.

Agrees another student in Tinsukia, another town of Assam.

"Taniem was harassed for his hairstyle, for the way he looked and that resulted in a tiff. This incident stinks of racism. And even if the argument resulted in the breaking of a shop window, does it justify the merciless beating of a young boy with rods by six-eight men? What kind of barbaric society is this?" asks Arupjyoti Gohain.

Taniem, who was severely assaulted on Wednesday, died of his injuries while being treated in a hospital on Thursday. Police said they are questioning shopkeepers of the Lajpat Nagar-1 area where the attack on him took place.

Speaking out against the incident, Suhas Chakma of the Asian Centre for Human Rights said, "There have been increasing racial attacks on the people from the northeast India in Delhi. In addition to the provisions of the Indian Penal Code, Delhi Police must invoke the Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act against the murderers, as well as the Delhi Police personnel who failed to protect Nido Taniam, a Scheduled Tribe boy, from being beaten to death."

In recent years, Delhi has also earned a dubious tag of being a city that often sees sexual harassment of women, and almost every northeastern girl in the city complains of being teased because of their looks and being referred by the derogatory term, 'chinky'.

Babita Singha of Manipur, whose 18-year-old daughter is deciding on colleges outside her home state for her graduation, said that Delhi is strictly out of the list of choices.

"How can any parent send their child to a place that is notorious for being racist to people of the northeast? My neighbour's daughter is studying in Delhi and she often complains of being harassed on the road, being called 'chinky', even harassed by her landlord. It's a shame that the capital of the country is so hostile to its own people," Singha said.

It's a similar reaction by a number of other students from the region preparing to explore colleges in the metros for their graduation.

"I will either go to Bangalore or Pune, but not Delhi. All these incidents have put such a negative impact on my mind," said James Jyrwa, a student in Meghalaya's Shillong.

Already sore with the capital's attitude, Thursday's unfortunate death of a young student has further darkened the mood of the people, especially its youngsters, towards Delhi.

"People say why do people of the northeast feel alienated...with such discrimination, who wouldn't? We youngsters go looking for better opportunity to the capital of the country, not to do any harm. Let's see who speaks up against Taniem's death this time, or if we will yet again be left to scream for ourselves," read a post by Animikha from Assam on a social networking site.


हमारे आदरणीय मित्र विद्याभूषण रावत जी ने अपने फेसबुक वाल पर लिखा हैः

दिल्ली के 'गरीब' 'जातिवादी ' और 'नसलवादी' लोगो ने अरुणाचल प्रदेश के एक लड़के को पीट पीट के मार डाला। ये घटना दिल्ली के प्रतिष्टित ग्रीन पार्क इलाके में हुई है. ये रास्ट्रीय शर्म है. दिल्ली की घटना अकेली नहीं है, हैदरबाद, बंगलोर, मुम्बई आदि शहरो में वाले उत्तरपूर्व के छात्रो को नसलवादी घटनाओ का शिकार होना पड़ता है. भारत को सोचना पड़ेगा के क्या ऐसी हालातो में देश की एकता रह पायेगी। क्या हम अपने उत्तर पूर्व के मित्रो, भाई बहिनो को उनके अधिकारो की साथ नहीं रहने देंगे। इस देश पर उत्तर पूर्व के लोगो का उतना ही हक़ है जितना किसी और के. एक बात स्वीकारनी पड़ेगी के हम वाकई एक असभ्य समाज है, क्रूर हैं. हमारी राजनीती के लिए ये प्रश्न जरुरी नहीं है. भ्रष्टाचार के नाम पर केवल उत्तर भारतीय प्रभुत्वाद को देश पर थोपने की हर कोशिश की जा रही है लेकिन देश की विविधता, उसके अंदर रह रहे उत्तर पूर्व के लोगो को देश में उनके अधिकार नहीं मिल पा रहे. दिल्ली में नसलवादी और जातिवादी नजरिया भ्रस्ताचार से बड़ा मुद्दा है और अब समय आ गया है हम सब इसके खिलाफ खड़े हों और अपना विरोध दर्ज करें और दोगली राजनीती का पर्दाफास करें।



विद्याभूषण जी के इस मंतव्य से मैं सहमत हूं।


दिल्ली नस्लभेदी है और नस्लभेदी दिल्ली की प्रजा है बाकी देश।यही नस्ली वर्णवर्चस्वी राज्यतंत्र इस देश की बुनियादी समस्य़ाओं की जड़ है।


चूंकि दिल्ली में मीडिया को पल दर पल टीआरपी की जंग लड़नी होती है तो यह उसके लिए महज नया मसाला है,कोई मुद्दा वुद्दा नहीं है।


पैनलों मे जो लोग बैठकर बहियाते हैं और जो लोग टनों कागद इस एक प्रकरण पर खर्च करेंगे,उन्हें दरअसल इसी नस्लभेदी वर्णवर्चस्वी सैन्य राज्यतंत्र ने हर सुविधा दी हुई है कि वे ऐसी बहसें चलाते रहें लेकिन इस इंतजाम में कोई खलल न पड़ने दें।


जो दिल्ली में हुआ,वह सिर्फ पूर्वोत्तर में या कश्मीर में या दंडकारण्य में ही नहीं, पूरे देश में रोजमर्रे का रोजनामचा है।


अंध राष्ट्रवादी धर्मोन्माद के नस्ली आवेग से अंधी आंखों को इरोम शर्मिला का आमरण अनशन साल दर साल चलते रहने का सच दिखायी नहीं देता।


सिखों के नरसंहार का तीस साल बाद भी अभी न्याय नहीं हुआ।इस देश में किसी भी दंगे का आजतक कोई न्याय नहीं हुआ।पैंतीस साल हो गये मरीचझांपी नरसंहार के ,न्याय की मांग करने वाले ही सिरे से गायब हैं।आदिवासियों के विनाश पर विकास गाथा की बहुमंजिली इमारत है तो कश्मीर,समूचे हिमालयी क्षेत्र,मध्यभारत और पूर्वोत्तर के अलावा जाति हिंसा के तहत पूरे देश में वैज्ञानिक तकीनीकी समृद्ध पद्धति से अविराम नरसंहार की संस्कृति है। अंध राष्ट्रवाद की यह फसल नस्ली दिल्ली के राष्ट्रगान और भव्य परेड  का स्थायी भाव है।


दिल्ली नस्लभेदी है और नस्लभेदी दिल्ली की प्रजा है बाकी देश। इसी नस्लभेद की उपज है जाति व्यवस्था और जातिव्यवस्था से बाहर इस देश की निनानब्वे फीसद जनता को वध्य बना देने का यह निरंकुश राज्यतंत्र।


मामला सिर्फ अरुणाचल का नहीं है और न पूर्वोत्तर का।


यह नस्लभेद मुसलमानों के नागरिक न मानने और हिंदू राष्ट्र की मुहिम भी है।


यह कश्मीर समेत तमाम हिमालयी लोगों की तबाही का आलम है।


इसी नस्ल भेद के कारण बांग्ला में बोलने वाला हर आम व खास आदमी बाकी देश की नजर में बांग्लादेशी घुसपैठिया है।


इसी वजह से काला हर आदमी अशुद्ध है और अस्पृश्य म हिषाषासुर या वानर है तमिलनाडु समेत पूरा दक्षिण भारत।


इसी नस्लभेद की वजह से देश हर आदिवासी को नक्सली,माओवादी और हर मुसलमान को दहशतगर्द मानता है।



मणिपुर, असम, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम,सिक्किम,नगालैंड,अरुमाचल की क्या कहे,पूरे हिमालयी क्षेत्र का हिंदुत्व और सवर्णत्व इस नस्ली भेदभाव के आगे उन्हें गोरखा या पहाड़ी बना देता है।


इसी नस्ली भेदभाव की वजह से सिखों को तीस साल से अभी न्याय नहीं मिला और न इस जनसंहार संस्कृति के निर्माता लोग सत्ता से बाहर हुए। उस तंत्र के लोग हमें बेवखूप बनाने के लिए कुछ लोगों के अपराध का स्वीकार तो करते हैं ,लेकिन न्याय करना तो दूर,इस देश व्यापी जनसंहार के लिए माफी मांगने के लिए भी तैयार नहीं हैं।क्या सिखों की नियति सर्वश्रेष्ठ केती से देश को अन्न देने और जिस देश में उन्हें नागरिक और मानवाधिकार तक से वंचित किया जाता है,उसी देश लिए सीमा के भीतर बाहर अपने ताजा जवानों की शहादत देते रहने की है।जिन लोगों ने शहीदेआजम भगत सिंह की कुर्बानी तक को मटिया दिया,उन्हें आम सिखों की कितनी परवाह होगी,समझने वाली बात है।इसपर सिख जो तीस साल से लगातार न्याय की मांग कर रहे हैं,भारत राष्ट्र के धर्मोन्मादी अंध राष्ट्रभक्त अपनी अंतरात्मा से पूछकर देखें,उसके पक्ष में बाकी देश कब और कितना खड़ा रह पाया।


मैं विभाजन पीड़ित बंगाली शरणार्थी हूं और मेरे पिता आजादी के पहले से इस देश में विभाजनपीड़ितों का नेतृत्व करते रहे हैं देशभर में।वे तेभागा से लेकर ढिमरी ब्लाक तक के किसान आंदोलनों के नेतृत्व में भी रहे हैं। मेरा जन्म,पढ़ाई लिखाई उत्तराखंड में हुआ।मैं लगातार 1973 में भारतीयभाषाओं में जनपक्षधर लेखन में जुटा हूं,लेकिन असहमति के किसी भी बिंदू पर मुझे कोई भी बांग्लादेसी शरणार्थी कहकर गाली दे देता है। गाली देने वालों में सबसे आगे हैं बंगाली सत्तावर्ग के लोग जो नस्ली भेदभाव के सबसे बड़े वैज्ञानिक हैं।


विभाजनपीड़ितों के देशनिकाले के लिए जो सर्वदलीय अभियान चल रहा है,वह नस्लभेद के सिवायऔर कुछ भी नहीं है।


बहरहाल मुझे अपने शरणार्थी होने का गर्व है।गर्व है कि मैं बंगाल के बजाय उत्तराखंड में जन्मा हूं और इस देश के चप्पेचप्पे की माटी की सुगंध मेरे दिलोदिमाग में है।मैं विश्वप्रसिद्ध बंगालियों की तरह बाकी देश से न कटा हूं और न अपने लोगो के अलावा दूसरों को अपने से कमतर समझता हूं।


हम देश के इतिहास में शंहशाह अकबर का महिमामंडन करने से चूकते नहीं हैं। जोधा अकबर की प्रेमकथा हर माध्यम में हमें उद्वेलित करती है।दिलीपकुमार नर्गिस मधुबाला से लेकर आज के खान बंधुओं को हम पलके पांवड़े पर बैठाये हुए रहते हैं।


बहादुरशाह जफर को हम आजादी की पहली लड़ाई का शहीद मानते हैं और ताजमहल को अपनी विरासत।


फिरभी आजतक हमने मुसलमानों को अपना भाई नहीं माना।जो अरब या मंगोलिया या तुर्की से आये होंगे,उनकी बात रही अलग,जो धर्मांतरित मुसलमान हैं देशज जैसे समूचे दक्षिण भारत में ,पूर्व और पूर्वोत्तर में,उन्हें हम लगातार भारतीय मानने से इंकार कर रहे हैं।मुगलों पठानों की हर विरासत पर केशरिया लहराने के एजंडे के साथ ही नमोमय है भारत।गुजरात नरसंहार और बाबरी विध्वंस के मानवता के विरुद्ध युद्ध अपराधियों को हम राष्ट्र की बागडोर सौंपना चाहते हैं।क्या यह हमारी युद्धक नस्ली सोच की वीभत्स अभिव्यक्ति नहीं हैं,सोचें दोस्त।


गुजरात से लेकर मुजफ्परनगर तक के दंगे इसी नस्ली भेदभाव की लहलहाती फसल है ,जिसकी खेती आधुनिक भारत का सबसे फायदेमंद कारपोरेट कारोबार और राजकाज है।


हर कोई चिल्लाता है ,दूध मांगोगे तो खीर देंगे,कशमीर मांगोगे तो चीर देंगे।लेकिन कश्मीर में दिल्ली की जो सैन्यतांत्रिक दमन उत्पीड़न जारी है,उसके खिलाफ किसी की आवाज तो निकली ही नहीं, लेकिन जो कश्मीरियों को भी इस देश का नागरिक मानकर उनके मानवाधिकार और नागरिक हक हकूक की बात करते हैं,सशस्त्र सैन्य बल अधिनियम के खिलाफ बोलते हैं,हम सारे लोग गोलबंद होकर उसे राष्ट्रद्रोही करार देने में एक क्षण की देरी नहीं लगाते भले ही वे लोग इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत कश्मीरियों के चुने हुए जनप्रतिनिधि,यहां तक कि कश्मीर का मुख्यमंत्री ही क्यों नहीं हो।


हमें पूरा का पूरा क्शमीर चाहिए,लेकिन कश्मीरी गैरनस्ली विधर्मी जनता के कत्लेआम को हम राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए निहायत जरुरी मानते हैं।


इस देश के बाकी नागरिक आदिवासियों को अब भी असुर,राक्षस,दैत्य,दानव,वानर जैसा ही कुछ समझते हैं।बस,संवैधानिक मजबूरी है कि उनके हक हकूक की भी चर्चा हो जाती है।


हमारी तरह समान नागरिक न हुए तो क्या उनका भी वोटबैंक है,आदिवासियों के वोट भी जनादेश के लिए जरूरी है।लेकिन जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से आदिवासी आवाम की निरंकुश बेदखली को हम भारत की अर्थव्यवस्था और विकास के लिए अनिवार्य मानते हैं।


पढ़े लिखे मध्यवर्ग,जिसे मुक्त बाजार के विस्तार के लिए प्रधानमंत्रित्व के अहम दावेदार सत्तर फीसद तक कर देना चाहते हैं,उसके नजरिये से आदिवासियों के सफाये से ही देश का विकास संभव है।


वैसे भी मुक्त बाजार का आधार यही है,आधार प्रकल्प यही है,ज्यादा से ज्यादा क्रयशक्ति संपन्न वर्ग की गोलबंदी बाकी आधारविहीन जनता के खिलाफ।


सत्तावर्ग के वर्णवर्चस्वी नस्ली सैन्यतंत्र को बहाल करने के लिए नस्लीभेदभाव के तहत बाकी,राहुल गाधी के लक्ष्य के मुताबिक तीस फीसद का सफाया तो तय है। इस नस्ली भेदभाव के बारे में भी विचार करें मित्र।


हमें देश का मुकम्मल एक भूगोल चाहिए और उसके लिए हथियारों के जखीरा खड़ा करने के नाम पर पारमाणविक होड़ के तहत महाविद्वंस का आवाहन हम करते हैं पल पल,रक्षा सौदों पर उंगली नहीं उठाते,उठाते हैं तो पवित्र रक्षाकवचों के अंतराल में कालाधन और अबाध विदेशी पूंजी प्रवाह के विनियंत्रित मुक्त बाजार बने देश में नस्ली भेदभाव के तहत अस्पृश्य भूगोल के इंच इंच में जनगण के विरुद्ध ,प्रकृति के विरुद्ध और मनुष्यता के विरुद्ध जारी युद्ध गृहयुद्ध के औचित्य पर हम सवाल खड़े नहीं कर सकते।


सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून को खत्म करने की कोई भी मांग हमें देशद्रोह लगता है। जबकि सलवाजुड़ुम में ,देश के तमाम आदिवासी इलाकों में संविधान,कानून के राज और लोकतंत्र की गैरमौजूदगी हमें सामाजिक समरसता लगती है।


दक्षिण के लोग काले हैं तो हम चाहते हैं कि वे तो हमारी हिंदी को सीख कर बलरोज मधोक की दलील की तर्ज पर अपना भारतीयकरण करे लें,लेकिन हम हर्गिज उनकी कोई भाषा नहीं सीखेंगे।


हम तमाम आदिवासियों में प्रचलित गोंड,कुर्माली,संथाली जैसी भाषाओं क अपनी भाषा नहीं मान सकते और न हम उनकी संस्कृति,उनके रंग रुप,उनकी देशज जीवन शैली का सम्मान करना जानते हैं।


औपनिवेशिक शासन के खिलाफ,विदेशी हमलावरों के खिलाफ आदिवासी हजारों साल से लड़ रहे हैं अलग थलग।बाकी देश उनकी लड़ाई में कभी शामिल ही नहीं हुआ।


आज भी वही स्थिति है जस का तस।


उनके हक हकूक की हर लड़ाई को बाकी देश सत्ताभाषा के मुताबिक राष्ट्र के समक्ष सबसे बड़ी माओवादी चुनौती मानता है तो हर मुसलमान संदिग्ध दहशत गर्द है और बांगाल में बोलने वाला हर कोई विदेशी घुसपैठिया।और तो और,मुंबई में तो हिंदुत्व के झंडेवरदारों को उत्तर भारत के लोगों के खदेड़े बिना चैन नहीं है।



मुक्तबाजार के नोबेल गरिमामंडित राथचाइल्डस दामाद प्रवक्ता को भी बहुआयामी ज्ञान के लिए संस्कृत को पुलर्जीवित करने की जरुरत महसूस होती है,जिस भाषा में बोलने वाले कुल जमा पंद्रह सौ लोग भी नहीं है।संस्कृत से बेहद पुरानी शास्त्रीय भाषा तमिल है,लेकिन वह सत्तावर्गीय विशुद्धरक्त आर्यों की भाषा नहीं है और भारत की प्राचीनतम द्रविड़ संस्कृति की धारक वाहक है।तमिल भी शास्त्रीयभाषा है।लेकिन डा.अमर्त्यसेन देशभर में तमिल या दूसरी दक्षिण भारतीय भाषाओं को सिखाने  या गोंड या कोई आदिवासी भाषा शीखने की सलाह नहीं देते।



poke me

Just Another Massacre

Atrocities like Pathribal in Kashmir aren't an aberration, but a pattern



   The question this writer has always asked, of himself, when writing about his native Kashmir for a major Indian newspaper, is whether any words he can muster will suffice to convey even a part of the reality of Kashmir mutilated by official narratives, an act of mutilation superbly supported by sections within an extremely nationalistic Indian media itself.

   How does one sound rational, arguing for the truth, in the face of lies piled on top of lies so high that anyone arguing against that pile of solid rubble seems utterly deluded, totally partisan, if not slightly off his rocker? Truth be told, it has seemed a losing battle.

   And that's because the truth in Kashmir has the slight misfortune of being raped, tortured, killed in a fake encounter, and then dubbed a terrorist. And those wanting to speak out against this barbarity are also in the habit of being called, variously, anti-national, Islamist terrorists, Pakistani agents or, mildly more wondrously, Kashmiris who themselves have forgotten what Kashmir is 'supposed' to be.

Himalayan Lies

Examine the case of the Kashmiris killed in the 'encounter' in Pathribal almost 14 years ago — and this case is in the news because the Indian army has just exonerated itself of all blame for killing these men, who, when they were killed, were called (and splashed in the Indian media as) terrorists responsible for the massacre of Kashmiri Sikhs in a village called Chittisinghpora.

   Then-US president Bill Clinton was visiting India. And, in accordance, this was portrayed as one of the 'high profile' cases of the killing of minorities which supposedly proved the Islamist-terrorist nature of the insurgency in Kashmir.

   Goebbels would have been extremely proud of the Indian state in Kashmir. The dictum of repeating a lie ad nauseam till it becomes the truth has been perfected to an art, nay, a science, of presenting so multifarious forms of a basic lie that it seems sheer pedantry to even to try and reply, leave alone unravel that tangle of lies, propaganda and mutilation of reality.

   Take, again, the same Pathribal instance, and how, now, after a plainly shaming self-exoneration by the Indian army, the case has mostly been reported in the Indian media.

Long List of Atrocities

The first thing that an ordinary Indian reader would glean from this reporting is that the fake encounter at Pathribal was an aberration, a one-off instance of blame on the otherwise unimpeachable record of the Indian armed forces massed in Kashmir. It is not. It is a pattern. It is even more than a pattern, it is policy. Heard of Brakpora?

   This was a place where a few more Kashmiris were slaughtered while protesting the killings at Pathribal. What happened to the 'enquiry' into this massacre?

   Heard of the Gaw Kadal massacre in Srinagar?

   Here, called the 'first' massacre, post-1989 in Kashmir, over 50 protestors were gunned down over the bridge that bears that name. They were mowed down by machine guns, and as eyewitnesses and survivors say, some of the injured were then shot at point-blank range — a few survived by playing dead amidst the muddle of dead bodies.

   From there, to Pathribal, to the massacre of teenagers in the agitation in 2010, and beyond, the killing of Kashmiris, torture in custody, to the rape of Kashmiri women (heard of, just to name the most infamous case, the mass rape of women in the villages of Kunan-Poshpora?), exists a pattern, a policy, amidst the general vilification of Kashmiris demanding their inalienable rights.

Punishment as Justice

That policy consists of inflicting savage violence, and sometimes playing up the odd case of an atrocity to invent the make-believe that there is some process of accountability — whereas, all the cases, every single one reported, including Pathribal, underline the reality that even seeking justice for even the reported atrocities becomes a process of justice denied, and hence more punishment itself.

   Seeking justice is itself a form of punishment in Kashmir.

   A 2012 report by rights groups on atrocities in Jammu and Kashmir and the impunity for Indian armed forces, which only mentioned reported cases, states: "Out of 214 cases a list emerges of 500 individual perpetrators, which include 235 army personnel, 123 paramilitary personnel, 111 Jammu and Kashmir Police personnel and 31 government backed militants/associates. The designations of some of these alleged perpetrators points to a deep institutional involvement of the Indian State in the crimes. Among the alleged perpetrators are two Major Generals and three Brigadiers of the Indian Army, besides nine Colonels, three Lieutenant Colonels, 78 Majors and 25 Captains. Add to this, 37 senior officials of the federal Paramilitary forces, a recently retired Director General of the Jammu and Kashmir Police, as well as a serving Inspector General."

   Justice, writing, seems a losing battle.

Readers React

Varun Bajaj (Kolkata) Acts such as these abase armed forces before the public and abase our nation before other countries. Sanity has gone for a toss. Shiladi123 (Kolkata) Any killing of civilians is sad. But the situation in Kashmir can't be wished away by blaming the armed forces. Prasad (India)

Despite talk of fake encounters, the truth is Indian army is sensitive to fake encounters and defaulters are punished.

BRV Shanbhag (Bangalore)

The entire script is one-sided. The author has no value for the death of military personnel due to militant attacks. Suresh Shetye (Maharashtra)

The army, with the help of the local police and politicians, has taken a toll on innocents and sham enquiries have given all of them a clean chit. Killing innocents has become a dangerous hobby and the truth in most cases has never been told.

Ishfaq Ahmad (Srinagar)

Pathribal is the tip of the iceberg. In Kashmir, the Indian army has carried out a genocide — over one lakh innocent civilians have been killed. Indian media has never told Indians what army does in J&K.

POKE ME will appear every Saturday. The article will first appear on www.economictimes. com every Wednesday morning. Do check what we poke you next with on February 5


Najeeb Mubarki




इकोनामिक टाइम्स से साभार

जनज्वार डॉटकॉम

मारुति मजदूरों के अन्याय की कहानी इस मजदूर विरोधी दौर का जीता-जागता उदाहरण है. कार्पोरेट जगत को समर्पित मजदूर विरोधी, आमजन विरोधी इस दौर में शासन-प्रशासन-पुलिस-श्रमविभाग सभी मालिकों के हित में एक टांग पर खडे हैं. मारुति मजदूरों की जमानत याचिका निचली और उच्च अदालत में इस आधार पर खारिज कर दी गयी कि इससे विदेशी निवेश को चोट पहुँचेगी...http://www.janjwar.com/2011-06-03-11-27-02/71-movement/4757-maruti-mazdooron-ka-jantar-mantar-par-vishal-pradarshan-for-janjwar-by-mukul

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