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Sunday, July 5, 2015

जब ख्वाबों पर हो पहरा,तो भूख क्या और प्यास क्या फिरभी न कहिये कि सब्र कर कि इंतहा हो गयी सब्र की उस आखिरी इंसान से डरियो रे बाबा,जिसे तुम्हारी कयामतों का खौफ नहीं है पलाश विश्वास

जब ख्वाबों पर हो पहरा,तो भूख क्या और प्यास क्या

फिरभी न कहिये कि सब्र कर कि इंतहा हो गयी सब्र की

उस आखिरी इंसान से डरियो रे बाबा,जिसे तुम्हारी कयामतों का खौफ नहीं है

पलाश विश्वास

सुंदर लाल बहुगुणा अब पहाड़ों पर नहीं जाते क्योंकि उनकी बूढ़ी आंखों ने ग्लेसियरों को रेगिस्तान में बदलते देखा है।चीन में भूकंप के बाद एक दो नहीं,चार चार हजार झटके महसूस किये गये।तो केदार जलआपदा और नेपाल भूकंप का सिलसिला अभी खत्म हुआ नहीं है।


जनपद जनपद डूब है और पीने को पानी मयस्सर नहीं कि हर नदी कैद है।हर नदी बिकी हुई बांदी हैं इन दिनों उनकी जो जहर के सौदागर है और उनका कारोबार खुल्ला मुक्त बाजार मेकिंग हैं।


सच कहना मना है और राजा नंगा है कि पहने हैं कितने लाख करोड़ का शूट,कहना मना है।कि सच का कोई नक्शा बना नहीं है मुकम्मल जो सत्ता के गलियारों में बगुला नुमाइंदो के जिम्मे है कि क्या कहें न कहें,क्या लिखें न क्या न लिखें।


बिररंची बाबा की किरपा है कि अपशब्दों के खिलाफ बजरंगियों को दे दिया फतवा उनने।बजरंगियों को आजादी है कि किसी को भी कभी भी मुल्क बदर कर दें फौरन वैसे ही जैसे कि बाजार के सांढ़ों और अश्वमेध के घोड़ों को मुकम्मल आजादी है कि खेतों खलिहानों को आग लगा दे और पानियों में उगाये जहर की फसलें।


कमबक्त जमाने में इश्क का भी क्या करें कि हो गयी है दिल की बीमारी और आखिरी इंसानियत की जमान से हो गयी मुहब्बत हमें,दुनिया की सारी खापें हमारे खिलाफ,लेकिन क्या करें कि सच कहने की भी आदत बेहद बुरी है।ये वो जाम है,जो होंठों से बहता है सरेआम कि जूते बरसते हैं फिजां से जहां इन दिनों आग लगा दी है इंसानियत के तमाम दुश्मनों ने।कत्लगाह में हाथ पांव बंधे हैं और तलवारे चमक रही हैं,बिजलियां कड़क रही हैं कि अब भी हम सलामती की दुआ मांग रहे हैं।


मीडिया का काम खबरों की जूठन के साथ सत्ता के रंग परोसना नहीं है न ही झूठ का इंद्रधनुष सजाना है।मुकम्मल जनजागरण,जनसुनवाई का ताकाजा है यह मिशन।जब ख्वाबों पर हो पहरा,कहीं से कोई सच की खिड़की खुल नहीं रही,सोचने समझने की ख्वाहिशे हो गयी हों खत्म।तब मंजिल हमारी बेहद मुश्किल है।आग का दरिया है और डूबकर जाना है।इस शफर में हमसफर मिलेंगे बेहद कम,जो भी हैं,उनके दम पर लड़ाई हमभी लड़के रहेंगे।सिर्फ जो सही समझें हामारा इरादा,उनका हाथ हों हमारे हाथों में।


अब बिना इंतजार अपीलें जारी करने का सिलसिला शुरु किया जाये।कोई साथ आये या नहीं,कबीर कह गये अकेले बाजार के खिलाफ बाजार में खड़े होने के लिए।जिसे घर फूंकना हो आपना,वे आयें हमारे साथ।


इकोनामिक टाइम्स सनडे ने सिमटते जलस्रोतों पर आज खूब चर्चा की है,जिस तरफ हम आपका ध्यान आकर्षित करने का नाकाम कोशिश करते रहे हैं अरसे से तो

आज रविवारी जनसत्ता का कवर हैः

भूख है तो सब्र कर

दुष्यंत कुमार की याद फिर

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ

आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ ।


मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह

ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ ।


गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही

पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ ।


क्या वज़ह है प्यास ज्यादा तेज़ लगती है यहाँ

लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुँआ ।


आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को

आप के भी ख़ून का रंग हो गया है साँवला ।


इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो

जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुँआ ।


दोस्त, अपने मुल्क कि किस्मत पे रंजीदा न हो

उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ ।


इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात

अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ ।


Nainital

Sadiq Raza's photo.

पीछे जो छूट गया,वो हिमालय की गोद है

बाकी उ्मर सिर्फ टादों के साये हैं

बंद गलियों मे कैद है नैनीताल

और उस झील की मछलियां

ने जाने किस किस मेज पर

परोसी जाती हैं इन दिनों

अब इस जन्नत के नर्क में

कोई आशियाना नहीं

फरेब है मुकम्मल हर दिशा

अंधेरे में फिर भी झिलमिलाते

उस झील में रोशनी के सितारे



जब ख्वाबों पर हो पहरा,तो भूख क्या और प्यास क्या

फिरभी न कहिये कि सब्र कर कि इंतहा हो गयी सब्र की

उस आखिरी इंसान से डरियो रे बाबा,जिसे तुम्हारी कयामतों का खौफ नहीं है


राजन के परामर्श और ग्रीस के अनुभव के बाद क्या मोदी सरकार खतरे की घंटी सुनेगी ग्रीस और विश्व आर्थिक संकट मीडिया युग का तो बुनियादी सूत्र ही है--जो दिखता है, वही बिकता है। अचरज नहीं है कि इन दिनों राजनीतिक प्रबंधन में सबसे ज्यादा जोर हैडलाइन मैनेजमेंट पर है। फिर इस मामले में नरेंद्र मोदी के शासन की कुशलताएं तो लोकख्यात हैं। सुर्खियों बता रही हैं कि भारत डिजिटल क्रांति की लहरों पर सवार है। 'डिजिटल इंडियाÓ परियोजना के लिए, जो प्रधानमंत्री के दिल के खासतौर पर करीब है, 4.5 लाख करोड़ रु0 के निवेश संकल्प भी आ चुके हैं। इससे देश में 18 लाख नये रोजगार भी पैदा होने वाले हैं, आदि, आदि। …

http://www.hastakshep.com/…/%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%…


एक जरूरी अपील

हस्तक्षेप.कॉम कुछ संजीदा पत्रकारों का स्वैच्छिक प्रयास है। इसकी शुरूआत वर्ष 2010 के उत्तरार्द्ध में अमलेन्दु उपाध्याय ने की थी।

शुरूआत करते समय महसूस किया जा रहा था कि तथाकथित मुख्य धारा का मीडिया अपनी प्रासंगिकता खोता जा रहा है और मीडिया, जिसे लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता है, उसकी प्रासंगिकता अगर समाप्त नहीं भी हो रही है तो कम तो होती ही जा रही है। तथाकथित मुख्य धारा का मीडिया या तो पूंजीपतियों का माउथपीस बन कर रह गया है या फिर सरकार का। हाशिए पर धकेल दिए गए आम आदमी की आवाज इस मीडिया की चिन्ता नहीं हैं, बल्कि इसकी चिन्ता में राखी का स्वयंवर, राहुल महाजन की शादी, राजू श्रीवास्तव की फूहड़ कॉमेडी और सचिन तेन्दुलकर के चौके छक्के शामिल हैं। कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्याएं अब मीडिया की सुर्खी नहीं नहीं रहीं, हां 'पीपली लाइव' का मज़ा जरूर मीडिया ले रहा है।

वैसे भी अब मीडिया की मौत हो चुकी है। पिछले दो वर्ष में तो मीडिया मोदिया हो गया है।

ऐसे में जरूरत महसूस की गई एक वैकल्पिक मीडिया की। लेकिन महसूस किया जा रहा है कि जो वैकल्पिक मीडिया आ रहा है उनमें से कुछ की बात छोड़ दी जाए तो बहुत स्वस्थ बहस वह भी नहीं दे पा रहे हैं। अधिकांश या तो किसी राजनैतिक दल की छत्र छाया में पनप रहे हैं या फिर अपने विरोधियों को निपटाने के लिए एक मंच तैयार कर रहे हैं।

इसलिए हमने महसूस किया कि क्यों न एक नया मंच बनाया जाए जहां स्वस्थ बहस की परंपरा बने और ऐसी खबरें पाठकों तक पहुचाई जा सकें जिन्हें या तो राष्ट्रीय मीडिया अपने पूंजीगत स्वार्थ या फिर वैचारिक आग्रह या फिर सरकार के डर से नहीं पहुंचाता है।

इसी उद्देश्य को लेकर अगस्त 2010 में हमने हस्तक्षेप.कॉम को लाँच किया।

ऐसा नहीं है कि हमें कोई भ्रम हो कि हम कोई नई क्रांति करने जा रहे हैं और पत्रकारिता की दशा और दिशा बदल डालेंगे। लेकिन एक प्रयास तो किया ही जा सकता है कि उनकी खबरें भी स्पेस पाएं जो मीडिया के लिए खबर नहीं बनते।

ऐसा भी नहीं है कि हमारे वैचारिक आग्रह और दुराग्रह नहीं हैं, लेकिन हमने वादा किया था, जिसे निभाया भी, कि खबरों के साथ अन्याय नहीं करेंगे। मुक्तिबोध ने कहा था 'तय करो कि किस ओर हो तुम'। हमें अपना लक्ष्य मालूम है और हम यह भी जानते हैं कि वैश्वीकृत होती और तथाकथित आर्थिक उदारीकरण की इस दुनिया में हमारा रास्ता क्या है? इसलिए अगर कुछ लोगों को लगे कि हम निष्पक्ष नहीं हैं तो हमें आपत्ति नहीं है।

हमने यह जानते हुए हस्तक्षेप प्रारंभ किया था कि पोर्टल चलाना कोई हंसी मजाक नहीं है और जब तक कि पीछे कोई काली पूंजी न हो अथवा जिंदा रहने के लिए आपके आर्थिक रिश्ते मजबूत न हों, या फिर आजीविका के आपके साधनों से अतिरिक्त बचत न हो, तो टिकना आसान नहीं है। लेकिन मित्रों के सहयोग से रास्ता पार होगा ही! अभी तक अपने संसाधनों से हमने इसे संचालित किया है, परंतु अब आगे संचालित करने में दिक्कतें हैं।

इस समय हमारे गूगल+ पर 1,53,000 फॉलोवर्स हैं। फेसबुक पेज पर 7900 फॉलोवर्स हैं। ट्विटर पर 1000 फॉलोवर्स हैं, जबकि 48000 प्रतिमाह के यूनिक विजिटर्स हैं।

हम हस्तक्षेप को मुख्यधारा में अनुपस्थित जनसुनवाई का मंच बनाना चाहते हैं। जाहिर सी बात है कि खबरों के प्रस्तुतीकरण का जो रास्ता हमने चुना है, उसमें बाजार से हमें सहयोग नहीं मिल सकता और अपने निजी संसाधनों से यह स्वरूप बनाए रखकर भी आगे चला पाना संभव नहीं है, क्योंकि अब आर्थिक संसाधन भी जुटाने पड़ेंगे और मानवीय श्रम भी (सहयोगी)। हालांकि जिस प्रकार पाठकों की आशाएं हमसे बढ़ी हैं, उसमें हमें विस्तार ही करना पड़ेगा जिसके लिए इंफ्रास्ट्रक्चर भी बढ़ाना है, नए पूर्णकालिक साथी भी बढ़ाने हैं और पाठकों की लगातार बढ़ती संख्या को देखते हुए अच्छा और महंगा सर्वर भी लेना पड़ेगा। जैसे-जैसे पाठकों की संख्या बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे सर्वर पर खर्चा बढ़ता जाएगा, इसलिए फिलहाल की परिस्थितियों में हम पाठकों की संख्या बढ़ने पर खुश होने के स्थान पर चिंतित होने लगते हैं।  

जनांदोलनों के साथ हस्तक्षेप का एक रिश्ता कायम हो सकता है। हम पहले भी जनांदोलनों की खबरें प्रमुखता से प्रकाशित करते रहे हैं। आगे भी जनांदोलनों की खबरें हमारे यहां और अधिक स्पेस पा सकती हैं, जो तथाकथित मुख्य धारा के मीडिया में नहीं मिलता। हम जनांदोलनों के साथियों को थोड़ा सा प्रशिक्षण देकर अपनी खबरों का नेटवर्क बढ़ाना चाहते हैं, जिससे देश भर में चल रहे जनांदोलनों की खबरें और तथ्य सही रूप में रियलटाइम में पाठकों तक पहुंचेंगी और सरकार या कॉरपोरेट्स द्वारा किए जा रहे दुष्प्रचार का उत्तर दिया जा सकता है।

जिस तरीके से तथाकथित मुख्य धारा का मीडिया सरकार और कॉरपोरेट घरानों का माउथपीस बनता जा रहा है, उससे आने वाले समय में सच का सामने आना और मुश्किल होता जाएगा, इसलिए वैकल्पिक मीडिया और जनांदोलन एक दूसरे का सहयोग करके एक ताकत बन सकते हैं।    

आशा है आपका सहयोग मिलेगा। हमारा प्रयास होगा कि हम ऐसे पत्रकारों को स्थान दें जो अच्छा काम तो कर रहे हैं लेकिन किसी गॉडफादर के अभाव में अच्छा स्पेस नहीं पा रहे हैं। हम जनोपयोगी और सरोकारों से जुड़े लोगों और संगठनों की विज्ञप्तियों को भी स्थान देंगे।

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अमलेन्दु उपाध्याय


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Jul 05 2015 : The Economic Times (Kolkata)

Thirsty Nation

Rahul Sachitanand and Sandhya Ravishankar






Unbridled consumption of water across India, with few ideas of how to fill a yawning demand-supply gap, is leading to an unprecedented crisis

A steel wheelchair occupies pride of place in the home of A Swami, a resident of Kottala village in Nalgonda district of Telangana. When you walk into the small two-room dwelling, you imme diately see why. Swami is barely a cou ple of feet tall, with an outsize head and a shrunken body. He contracted fluoro sis as a baby and that stunted both his mental and physical progress.

The government's balm has been a `1,500 monthly pension and the wheel chair, but he and his father (who has a debilitating neurological variant of the illness, which has forced him to give up his job as the village barber) are both prime examples of the hazards of over drawing groundwater resources. The fluoride count in Nalgonda is as much as 100 times the permissible limit and the likes of Swami and his family have suf fered for generations from this overuse of groundwater. A tour of villages in and around Kottala shows what can happen when water-hungry residents overdraw on limited groundwater. According to multiple estimates, there are some 25 lakh borewells in Nalgonda, three-quarters of which have run dry. Farmers say they have to dig to at least 400-500 feet to hit water -that too if they are lucky. One local, Panchakutla Suresh, says he struck water at about 400 feet, but in the neighbouring village farmers went as deep as 1,200 feet to only hit hard rock. "We have suffered for decades from locals overdrawing on water and the resultant fluorosis," says Suresh."The local administration is now dealing with a full-blown crisis of water lev els literally hit ting rock bottom."

According to water and fluoride expert Srinivas Chekuri, last year Nalgonda wit nessed severe drought. "[There was a] shortage of rainfall by almost 42%... It only received 440 mm as against 758 mm average rainfall. Three-fourths of the area was declared as drought hit," he says. "Ten years of rainfall data shows a steadily declining trend." While forest cover is low [below 5%, according to government data] activists say in reality it may be next to nothing. "The demand for water for drinking as well as irrigation is at a peak and the rainfall situation is alarming," claims Chekuri.

While the local administration has tried to convince farmers to consider using lesser water and alternative sources to groundwater (pumped over ground), there are dozens of farmers losing their entire earnings in this desperate hunt. What's worsened the scene is inconsistent rainfall. In the past five years, monsoons were above average only once.

Nalgonda town itself has around 40 operating reverse osmosis plants and there are some 150-200 in the district. "In a place with already severe water scarcity, wastage of more than 60-70% water from these plants aggravates... the skeletal fluorosis situation even more," says Sunderrajan Krishnan, executive director at INREM Foundation, a water advocacy and advisory company.

Water Crisis Everywhere

The villages of Nalgonda district are a microcosm of the water scenario in India. According to a World Resources Institute estimate, in 15 years, the national supply of water is expected to fall 50% below demand. According to the Central Water Commission, the demand for water will climb from 634 billion cubic metres (BCM) to 1,093 BCM in 2025, to 1,447 BCM by 2050.

Despite this rocketing rise in demand, India's supply remains constrained. While agriculture accounts for around threequarters of all water used in India, rapid urbanisation and heavy demand from commercial and industrial users have placed undue stress on already fragile resources. According to the ministry of water resources, industrial demand is expected to rise four-fold by 2030 to 196 billion kilo litres. What's worse, India Inc uses water inefficiently.

Over the past decade, Narayana Gowda, a small landowner in Devanahalli, near Bengaluru, has watched with a mixture of bemusement and alarm the drying up of the water table around his five-acre farm."We used to be able to hit water at 100 feet a decade ago," says the 50-year-old, as commercial planes scream overhead. "Today, with some luck, you may hit water at 1,000 feet." As Devanahalli has become a real estate magnet -rates have shot up 50% in the past couple of years -water levels have plunged. While some farmers have cashed out in this real estate boom, the ones who didn't are now suffering."Borewell-drilling activity almost never stops around here," Gowda adds.

But the water woes plaguing such residents is hardly news to long-time residents of India's technology capital; it's just the heightened intensity that has knocked them off their feet. Water researcher S Vishwanath points out that there are some 30 million borewells across India and hundreds more being dug, only harming India's limited groundwater. He adds that the 30 million borewells pump out some 250 million cubic metres of groundwater annually. "This makes India a groundwater civilisation... 65% of India's water use is from groundwater," he says. "We need to manage this precious resource better."

"There are 3,600 irrigation tanks around Chennai in Tiruvallur and Kanchipuram districts," says S Janakarajan, professorial consultant, Madras Institute of Development Studies and president, South Asia Consortium for Interdisciplinary Water Resources Studies (SaciWATERS). "80% of these two districts is already urban as per the 2011 census. So what will happen to these water bodies?

Who will regulate the buildings and industries? Only if we protect these water bodies will we be able to prevent thirst in Chennai," he adds.

Janakarajan has spent over 50 years researching Tamil Nadu's aquifers and deple tion of water resources. "These estimates by Water Resources Institute are based on the assumption that our water resources are clean, protected and unpolluted," he added. "Therefore available water resources may be much less than estimated... We have thousands of industries, all of which are dumping solid waste, biomedical waste and effluent into the wa ter bodies. It will not take 15 years; in another 10 years itself we may face a severe water crisis," he says.

Forty-eight-year-old Rani Francis, a resident of Nallan Kuppam slum in Chennai, has been buying water from private tankers for the past two years. "Earlier we used to get water in the common pump in our street," said Francis. "Not a drop is available in the past two years. Every day we buy water for `1 for three kudams [a kind of bucket that holds around eight litres of water], so we spend around `6-7 a day on water for our daily needs," she said.

Francis is not alone in her lament. Most homes in and around Greater Chennai buy water from private tankers as government-supplied water is not available and borewells have run dry. In the tony neighbourhood of Old Mahabalipuram Road, home to Chennai's IT corri dor, residents of apartment complexes pay up to `2,000 a month simply to buy private water.

With the city's expansion, Chennai's demand for water skyrocketed too. According to data from Chennai Metropolitan Water Supply and Sewerage Board, demand for water has increased from 1,326 million litres per day (MLD) in 2006 to 1,481 in 2011 and is expected to hit 1,763 MLD in 2021. Over a decade ago, in 2004, the authorities initiated two projects, one to draw water from Veeranam Lake, 230 km away (to add 180 MLD of capacity) and the second to build check dams to stop rainwater running off into the sea and add another 20 MLD of capacity.

Much to Worry About

Notwithstanding such initiatives, Chennai has much to be worried about. At the entrance of the IT corridor is Pallikaranai, a small patch of preserved marsh in the midst of the city. "I remem ber when I was a boy, there was water everywhere," said S Murugan, a resident of Pallikaranai since 1973. "We used to catch truckloads of fish from the kazhiveli [Tamil word mean ing marsh] and samba rice used to grow to a height of 5 feet. We used to be able to scoop up fresh water from the ground just by digging with our hands but now we do not find water even though we sink borewells to depths of 120 feet," he said.

Experts say that the destruction of Chennai's wetland ecology by rampant concretisation, encroachment and pollution are the key causes for depletion of groundwater levels. "Out of 474 wetland complexes in Greater Chennai, only about 43 can be used today," explained Jayshree Vencatesan, managing trustee of Care Earth, a non-profit which works with the state government in conservation of wetlands. "The rest have been converted for terrestrial use, encroached and silted. Wetlands soak in rainwater and hold it in like a sponge. They are the main cause for groundwater recharging in the city.But now only a little over 10% of the original 5,500 hectares of marshes have been rescued," she said.

A senior state government official told ET Magazine that the state wanted to graduate from rooftop harvesting to campus-level harvesting.Chennai's local water board wants to increase piped water supply to homes, to decrease reliance on tankers and improve the maintenance of tanks so that there are no obstacles in inflow channels and no leaks in sluice gates.

But Chennai is not alone in this battle for water. According to some estimates, while there are some 65 to 70 million people drinking fluoride-laced wa ter in places such as Nalgonda, across Bihar, Jharkhand and West Bengal, some 15-20 million people are consuming water with signifi cant traces of arsenic. As more and more water is pumped out of limited reserves, experts think India is at the brink of a full-blown water crisis. "Indiscriminate ground water use, no controls on tariff, contamination of sources thanks to rapid urbanisation... the situation has become much worse," says Hoshang Subawalla, APAC regional executive -Water and Process Technologies for GE Power & Water. "India's water footprint no longer matches its human footprint and old best practices in groundwater discharge have disappeared."

Rapidly urbanising India can't only be blamed for the current state of affairs. According to experts, the agriculture sector not only accounts for nearly three-fourths of water use in the country, it is also an extremely inefficient user of the resource. The planting of water-intensive crops such as sugarcane in arid regions such as Marathwada in Maharashtra, leaning on vested political interests in the sugar industry, is just one example of the ineffective use of the resource.

As India races to try to right this water imbalance, some activists say priorities may be misplaced. "We have more than 5,100 large dams, many thousands of smaller dams, and are the third largest dam-building nation in the world," says Parineeta Dandekar, associate coordinator, South Asia Network on Dams, Rivers and People. "There is hardly any post-facto analysis of how this infrastructure... is functioning." Maharashtra is the largest dam-builder in the country, even though the average irrigated area is barely 17%, she contends.

Much of this spurt in demand from Maharashtra comes from the agriculture sector, especially for crops such as sugarcane -and is reflective of the strife facing Indian agriculture. In Beed region, there are 66 sugar factories in operation, fed by a sugarcane crop spread across 2.5 lakh hectares. Dandekar argues that this skew is hindering rather than helping the sector. "The issue is not about dams... but about using the available infrastructure effectively," she argues."That's not happening because of a number of reasons, most important being lack of democratic and participatory management in dam operations." In August 2011, four agitating farmers were allegedly shot dead by the police outside of Pune, as they protested the diversion of water to a nearby industrial area.

A Dwindling Resource

With 16% of the world's population and barely 4% of its water, this squeeze is unlikely to improve anytime with the existing water infrastructure. Companies looking to target this opportunity say that rather than pour more funds into the existing infrastructure, India may need to consider alternatives. For instance, experts say cities need to consider alternatives to pumping water for hundreds of kilometres to reach its resi dents. Critics also say that the government's policy -especially around the ambitious, yet contentious river-linking programme -needs plenty of work. A national water policy unveiled three years ago immediately attracted the ire of states for being too centrally controlled. More focus needs to be put on waste water treatment, recharge of aquifers and enhancement of storage facilities.

GE's Subawalla says that the traditional focus has been on ground and surface water, with scant thought for alternative means. For example, he says India needs to expand the use of desalination units, enhance the use of recycled water and decentralise its water infrastructure to make ends meet. GE, for instance, is hawking a range of low-cost decentralised sewage treatment plants and has bagged some 125 deals to fit water reuse and recycle units across the country. Subawalla adds that GE is also leveraging its expertise across power and water to provide cheaper and more efficient solutions for customers. "Producing a barrel of oil takes 3-9 barrels of water... desalination of water costs `50 per kilo litre, of which `32-35 is the power cost," he explains.

And it isn't the behemoths only hogging the headlines. Far smaller startups are proffering their own innovations to try and solve this vexing problem. Nexus Venture-funded Jaldhara, for one, offers plug-and-play water treatment units for companies. Others have also attracted investor attention -Waterlife India has raised money from Matrix Partners and Aavishkaar Ventures for its community water systems, water harvesting solutions and waste water management products.

Back in Nalgonda, district collector Satyanarayana Reddy is looking for drastic solutions to fix the region's water woes.Rather than try to fix the groundwater, the local administration is trying to give it a break. Water will be pumped from nearby reservoirs to provide water to houses and an ambitious afforestation programme, fed by some 450 nurseries, will try to stop leeching of water, in an attempt to stabilise water levels in the region. "We are going at 100 kmh to try to solve the water crisis facing this region... this is not just my focus, but the top priority of the state government," says Reddy.

The close link water has with India's economic fortunes was amply demonstrated on June 2. When Union minister for science & technology and earth sciences Harsh Vardhan forecast a poor monsoon, it triggered a two-day drop in the stock market indices, which shaved $23 billion off its value. While over 600 million Indians face a threat to their surface water supply, water-hungry businesses are pushing prime minister Narendra Modi for assured supply as he promotes his Make in India initiative. Trying to balance these delicate requirements for water may be India's biggest development challenge yet.
















http://epaperbeta.timesofindia.com/index.aspx?eid=31817&dt=20150705




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