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Wednesday, October 24, 2012

Fwd: [New post] ओलंपिक : खेल और समाज का रिश्ता



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/10/23
Subject: [New post] ओलंपिक : खेल और समाज का रिश्ता
To: palashbiswaskl@gmail.com


पंकज बिष्ट posted: "खेलों का एक वृहत्तर और गंभीर उपयोग है। वह है संस्थागत हिंसा को जस्टिफाई करना। उसे समाज में स्वीका"

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ओलंपिक : खेल और समाज का रिश्ता

by पंकज बिष्ट

Officials gather near the Sikh Temple in Oak Creek in Wisconsin August 5, 2012 following a mass shooting inside and outside the Sikh Temple. A shooting during Sunday services at a Sikh temple left at least seven people dead, including a gunman, and at least three critically wounded, police and hospital officials said.     REUTERS/Allen Fredrickson   (UNITED STATES - Tags: CRIME LAW CIVIL UNREST)खेलों का एक वृहत्तर और गंभीर उपयोग है। वह है संस्थागत हिंसा को जस्टिफाई करना। उसे समाज में स्वीकार्य बनाना। यह सत्ताधारियों को सबसे ज्यादा रास आता है क्यों कि पुलिस, सेना जैसी संस्थाएं, जो मूलत: हिंसा के बल पर व्यवस्था बनाए रखने की शासकीय भुजाएं हैं, इस तरह से जन मानस में स्वीकार्य बनी रहती हैं। अहिंसक जनता हिंसक सत्ता को स्वीकार नहीं कर सकती। खेल अपनी अंतरनिहित हिंसा में शासक वर्गों का काम आसान कर देते हैं।

पांच अगस्त को जिस दिन विस्कोनसिन में एक सिरफिरे श्वेत अमेरिकी ने स्थानीय गुरुद्वारे में घुसकर पांच सिखों को गोली से उड़ा दिया उस दिन तक लंदन ओलंपिक अपनी आधी यात्रा पूरी कर चुका था। पर दुनिया पर सीटियस, अल्टियस, फोर्टियस का नशा तारी था।

यह तो कहो गनीमत थी कि एक ग्रंथी ने बढ़कर उसे रोक दिया वरना कहा नहीं जा सकता कि कितने और लोग मारे जाते। उसने जिस एआर-15 राइफल से गोलियां चलाईं उससे 100 राउंड गोलियां दागने की क्षमता है। संयोग देखिये कि लंदन ओलंपिक खेलों की प्रतिस्पद्र्धाएं शूटिंग से शुरू हुई थीं और गगन नारंग पहले भारतीय खिलाड़ी थे जिन्हें 10 मीटर एयर राइफल निशानेबाजी में 30 अगस्त को पहला पदक मिला था। इसे भी संयोग ही कहा जाएगा कि नारंग स्वयं सिख धर्मावलंबी हैं।

पर विस्कानसिन का हत्याकांड, जिसमें मासूम और निरीह लोगों को बेमतलब मारा गया, इस एक महीने में अमेरिका का अकेला ऐसा हत्याकांड नहीं था जिसमें किसी ने सनक में गोली चलाकर लोगों को उड़ा दिया हो। विस्कोनसिन कांड से 12 दिन (20 जुलाई को) और ओलंपिक शुरू होने से सिर्फ एक सप्ताह पहले एक और अमेरिकी युवा ने एक सिनेमा हाल में घुस कर गोली चलाई थी जिसमें 12 लोग मारे गए और 58 जख्मी हुए थे। ओलंपिक खत्म होने के साथ ही 13 अगस्त को थामस केफाल नाम के एक और युवक ने अमेरिका में ही गोली चलाकर तीन आदमियों को मार गिराया था। अगस्त अभी खत्म भी नहीं हुआ था कि फिर खबर आई कि न्यूयार्क में 24 तारीख को एक आदमी ने दो व्यक्तियों को सुबह-सुबह ही अकारण बंदूक से मार गिराया।

पर अमेरिका में इस तरह की गोलीबारी कोई बड़ी बात नहीं है। एक आंकड़े के मुताबिक हर दिन वहां औसत 87 आदमी गोली से मारे जाते हैं और 183 घायल होते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि अपने को दुनिया में सबसे सभ्य, अनुशासित, नियमभीरू और सुशासित माननेवाले अमेरिका सहित विभिन्न विकसित योरोपीय देशों में आम जनता के पास सबसे ज्यादा बंदूकें हैं। अकेले स्विटजरलैंड में 80 लाख परिवारों में 30 लाख के आसपास आग्रेय अस्त्र बतलाए जाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में तो खैर गजब ही है। वहां इतनी सारी हत्याओं के बावजूद अग्रेयास्त्रों पर कोई रोकटोक नहीं है बल्कि उनकी बिक्री 21 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। तब शायद हर अस्त्र की तार्किक परिणिति जवाबी अस्त्र में ही होती है।

प्रश्न है ये अस्त्र किस लिए हैं? आखिर किसी समाज के एक नागरिक को बंदूक रखने की जरूरत क्यों पड़े? क्या यह एक ओर राज्य व्यवस्था की असफलता और दूसरी ओर भयावह असुरक्षा में जी रहे आम नागरिकों की भयग्रस्त मानसिकता का द्योतक नहीं है?

यह सही है कि अमेरिका और दूसरे विकसित देशों में भी आग्रेय अस्त्रों की बिक्री के पीछे हथियार निर्माताओं की ताकतवर लॉबी है पर सवाल यह है कि बंदूक जैसे अस्त्र को एक खेल के रूप में क्यों मान्यता मिले? क्या इस तरह से ओलंपिक खेल बंदूक संस्कृति, बल्कि कहना चाहिए खेल के नाम पर हिंसा को बढ़ावा नहीं दे रहे हैं? इसके अलावा चांदमारी का यह खेल किस तरह से ओलंपिक के आर्ष वाक्य सीटियस, अल्टियस, फोर्टियस (और तेज, और ऊंचे, और ताकतवर) को जस्टिफाई करता है?

इस तरह देखें तो तलवारबाजी और तीरंदाजी की भी खेल के रूप में क्या प्रासंगिकता है? बल्कि एक तरह से ये ऐसे खतरनाक खेल हैं जो दैनंदिन जीवन में किसी भी तरह की दुर्घटना का कारण बन सकते हैं और बनते भी हैं। रामलीला के मौसम में अक्सर बच्चे तीर-कमान के कारण घायल होत हैं।

प्रश्र मात्र इतना ही नहीं है। ओलंपिक में और उसके बाहर दैनंदिन जीवन में भी ऐसे कई खेल हैं जो शुद्ध हिंसा का प्रतीक हैं। इस में बॉक्सिंग, ओलंपिक के उद्देश्य वाक्य में फिट बैठने के बावजूद, ऐसा दूसरा खेल है जो मूलत: क्रूर हिंसा की सीधी अभिव्यक्ति है। यह मात्र परपीड़क मानसिकता को ही अभिव्यक्त नहीं करता बल्कि दर्शक को सीधे हिंसक बनाने में भी सहायक होता है। टीवी चैनलों में दिखलाई जानेवाली डब्लूडब्लू लड़ाई इसकी एक और विकृति है।

इसी तरह का तीसरा तथाकथित खेल है कुश्ती। ओलंपिक खत्म होने से एक दिन पहले भारत के लिए कुश्ती में पहला पदक जीतनेवाले योगेश्वर दत्त का जो चित्र छपा, वह इस खेल में अंतर्निहित हिंसा का जीता-जागता प्रमाण था। उनकी आंख सूजी हुई थी। इसी तरह रजत पदक जीतनेवाले पहलवान सुशील कुमार के भी होंठ में चोट थी, जिसे वह भारत आने के बाद भी रह-रह कर सहलाते हुए नजर आ रहे थे। इन खेलों में चोट लगना कोई अपवाद नहीं है। सेमी फाइनल में सुशील कुमार ने ईरान के जिस पहलवान को हराया उसके कान में भी जोर की चोट लगी थी और खून बहा था। खैर बॉक्सिंग तो ऐसा खेल है जिसमें अक्सर ही मौतें तक होती हैं। यहां यह भी याद किया जा सकता है कि अक्सर ही पहलवान अपने क्षेत्रों में आतंक बन जाते हैं। असफल बल्कि कहना चाहिए औसत बॉक्सर या बॉडी बिल्डर या पहलवान कुल मिला कर 'बाउंसर' यानी आधुनिक लठैत बनते हैं।

तर्क यह है कि आखिर खेल के नाम पर मनोरंजन के ऐसे तरीकों को क्यों बढ़ाया जाए जो हिंसा को इतने प्रत्यक्ष रूप से महिमा मंडित करते हों। वैसे भी तीरंदाजी और तलवारबाजी ऐसे खेल हैं जिनका सार्वजनिक जीवन में कोई प्रचलन नहीं है। यह संभव है कि आदिवासी क्षेत्रों में तीरंदाजी पिछड़ेपन के कारण इस्तेमाल में हो पर वहां भी अब यह इस्तेमाल घट रहा है। जहां तक तलवारों का सवाल है उनका प्रतीकात्मक महत्त्व रह गया है जिसे झूठी शान के लिए दीवारों पर लटकाया जाता है। इन तथाकथित खेलों, जो कुल मिला कर युद्ध की प्रतिकृति हैं, का इस्तेमाल ओलंपिक जैसे आयोजनों को विशाल आकार देने के लिए होता है। तलवारबाजी में तो शारीरिक क्षमता एक महत्त्वपूर्ण कारक होता है पर निशानेबाजी और तीरंदाजी में शारीरिक गतिविधि भी न के बराबर होती है। गगन नारंग का मोटापा इसका संकेत है।

पर इसका एक वृहत्तर और गंभीर उपयोग है और वह है संस्थागत हिंसा को जस्टिफाई करना। उसे समाज में स्वीकार्य बनाना। यह सत्ताधारियों को सबसे ज्यादा रास आता है क्यों कि पुलिस, सेना जैसी संस्थाएं, जो मूलत: हिंसा के बल पर व्यवस्था बनाए रखने का काम करती हैं, इस तरह से जन मानस में स्वीकार्य बनी रहती हैं। अहिंसक जनता हिंसक सत्ता को स्वीकार नहीं कर सकती। खेल अपनी अंतरनिहित हिंसा के माध्यम से दर्शकों और प्रशंसकों को संपूर्ण हिंसा ('वायलेंस एज सच') को आत्मसात करने में मदद कर शासक वर्गों का काम आसान कर देते हैं। आप उन खेलों की अभिव्यक्तियों को देखें जो सामान्यत: उतने हिंसक नहीं हैं जितने कि मुक्केबाजी, कुश्ती या तलवारबाजी, तो आश्चर्य हुए बिना नहीं रहेगा कि हम किस तरह से हिंसक शब्दावली के माध्यम से अभिव्यक्त और प्रस्तुत किए जाते हैं। खेलों का आंखों देखा हाल जिस तरह का उन्माद पैदा करता है वह किसी से छिपा नहीं है।

अपने आप में यह बात भी विचारणीय है कि क्या वास्तव में खेल दो देशों के बीच सद्भाव पैदा करने में सहायक होते हैं या वैमन्यस्य? भारत-पाकिस्तान या फिर इंग्लैंड-आस्ट्रेलिया के बीच की प्रतिद्वंद्विता जिस तरह की हिंसक अभिव्यक्ति को जन्म देती है उसे किसी रूप में सद्भाव कहा जा सकता है? भारत और पाकिस्तान के बीच के क्रिकेट हों या हॉकी के मैच कुल मिलाकर दो देशों के बीच प्रतीकात्मक युद्ध से कम नहीं होते। स्वयं ओलंपिक ताकतवर देशों के द्वारा अपनी शक्ति प्रदर्शन का ही एक अवसर है और पदकों की तालिका विश्व के सत्ता संतुलन को ही अभिव्यक्त करती है।

मुक्केबाजी में पदक जीतने के बाद स्वदेश लौटने पर हुए अपने सम्मान के कार्यक्रम में मैरी कॉम ने अनजाने ही एक महत्त्वपूर्ण बात कही। जब उनसे पूछा गया कि क्या वह अपने बेटों को मुक्केबाज बनाना चाहेंगी तो उनका जवाब था, ''बिल्कुल नहीं। क्योंकि मैं मां हूं, इसलिए अपने बच्चों को मुक्के और चोट लगते हुए कैसे देख सकती हूं। मैं नहीं चाहूंगी कि मेरे बच्चे बॉक्सर बनें। '' यह मात्र एक मां के उद्गार नहीं हैं बल्कि इसके वृहत्तर मानवीय सरोकार हैं। आखिर हम क्यों किसी को - चाहे अपना हो या पराया - मार खाते, घायल होते, जमीन पर पटक दिए जाते देखना चाहते हैं? यह असभ्य और बर्बर होने की निशानी है जो इतने बड़े पैमाने पर विश्वव्यापी स्तर पर प्रचारित और प्रसारित होती है।

इसका एक और पक्ष भी है जो ज्यादा गंभीर और व्यापक है। वह है आखिर इस तरह के खेलों में आता कौन है?

अमेरिका को ही लें। वहां सबसे ज्यादा अश्वेत - कैसियस क्ले से लेकर मोहमद अली तक - बॉक्सिंग के इस तथाकथित खेल के धंधे में हैं। वही समाज में सबसे ज्यादा बेरोजगार हैं, कम पढ़े-लिखे, गरीब और सामाजिक रूप से पिछड़े हैं। इस तरह के कामों को अपनाना उनके लिए सबसे ज्यादा आसान है जिसमें वह एक प्राणी के तौर पर कुछ कमा सकते हैं या अपने पिछड़ेपन से निकलकर कोई सामाजिक पहचान बना सकते हैं।

इस बात को आप यथावत भारतीय या योरापीय संदर्भ में भी लागू कर सकते हैं। मैरी काम से लेकर टिंटू लूका तक यही बात देखने को मिलती है। ब्रिटेन को इस वर्ष ओलंपिक में मिली अभूतपूर्व सफलता के पीछे उन आव्रजकों का बड़ा हाथ है जिन्होंने अपनी गरीबी से छुटकारा पाने के लिए ब्रिटेन में शरण ली है। जिस महिला निकोला एडम्स को मुक्केबाजी में पदक मिला उसी ने पहले मैरी काम को क्वार्टर फाइनल में हराया और बाद में चीनी मुक्केबाज को अंतिम चरण में मात दी। वह भी अफ्रीकी मूल की ही थी। यानी श्वेत महिलाओं ने इस खेल को बड़े पैमाने पर नहीं अपनाया है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 1996 तक मुक्केबाजी ब्रिटेन में प्रतिबंधित थी। प्रश्र यह है कि वे क्या तर्क थे जिनके चलते ब्रिटेन ने इस प्रतिबंध को हटाया? क्या खेल उद्योग के दबाव के कारण जो अब खरबों रुपए का हो चुका है? इसी तरह ब्रिटेन के लिए पांच हजार और दस हजार मीटर की दौड़ों में स्वर्ण पदक जीतनेवाला मो. फराह सोमालियाई मूल का था जिसका खानदानी काम भेड़ चराने का है।

अफ्रीकी या लातिन अमेरिकी मूल के खिलाडिय़ों का बड़े पैमाने पर योरोप के फुटबाल क्लबों में खेलना किस बात का संकेत है? क्या मात्र इस बात का कि वहां के लोगों से ज्यादा शारीरिक रूप से बलिष्ठ परागुए या सूडान के लोग होते हैं? साफ बात यह है कि लातिन अमेरिका और अफ्रीका में जो व्यापक बेरोजगारी और अवसरों की कमी है उसने वहां के देशों को योरोप के लिए खिलाड़ी बनाने की फैक्ट्रियों में बदल दिया है। योरोप तो छोड़ों हमारे देश तक में ये अफ्रीकी भाड़े के खिलाड़ी खासी बड़ी संख्या में आते हैं और स्थानीय खिलाडिय़ों से कम पैसों में खेलते हैं। यहां याद करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अभी एक आध वर्ष पहले एक अफ्रीकी खिलाड़ी की खेलते हुए एक मैच के दौरान ही मौत हो गई थी। दूसरी ओर योरोप में इतना ज्यादा पैसा मिलने के बावजूद खिलाडिय़ों की जो कमी है वह स्पष्ट कर देती है कि अच्छा खिलाड़ी बनने के लिए सदा चुस्त-दुरुस्त बने रहने की जो कठिन शर्त है उसे मानने को योरोप का युवा तैयार नहीं है। योगेश्वर दत्त ने एक साक्षात्कार में कहा कि वह इस मैडल के लिए कई वर्ष से हर रोज दस घंटे खून-पसीना एक किया करता था। जहां तक शारीरिक क्षमता का सवाल है श्वेत अमेरिकी और योरोपियों की शारीरिक क्षमता किसी भी रूप में विपन्न अफ्रीकियों से कम नहीं है। हो भी नहीं सकती। अगर ऐसा होता तो फिर हर नस्ल के लोगों के लिए अलग प्रतियोगिताएं आयोजित होतीं या होनी चाहिए। उदाहरण के लिए आप श्वेत अमेरिकी तैराक माइकेल फेल्प को ले सकते हैं जो दुनिया का सबसे ज्यादा पदक जीतनेवाला खिलाड़ी बन गया है। तैराकी जैसे असीम शारीरिक क्षमता की जरूरतवाले खेल में उसने कुल 22 पदक जीते हैं। इनमें 18 तो स्वर्ण ही हैं। वह दुनिया का पहला आदमी है जिसने व्यक्तिगत स्पर्धाओं में ही 11 स्वर्ण पदक हासिल किए हैं। ओलंपिक में इससे पहले जिस एक व्यक्ति लेरिसा लातीनिना ने निजी स्तर पर सबसे ज्यादा 18 पदक जीते थे वह सोवियत रूस की जिमनास्ट थीं। यानी श्वेत थीं।

खेलों में जो वर्ग भेद है वह अत्यंत गंभीर और व्यापक है। अक्सर शारीरिक क्षमता वाले खेलों में आर्थिक रूप से सबसे गरीब या सामाजिक रूप से पिछड़े तबके के ही युवा आते हैं। इस नजर से देखेंगे तो सुशील और योगेश्वर आपको बहुत अपवाद नहीं लगेंगे। वे जिस सामाजिक पृष्ठभूमि से हैं वह किसान की है और जो खेती या जमीन के दामों में हाल में हुई आशातीत वृद्धि (विशेष कर दिल्ली के आसपास) के कारण संपन्न हुए हैं। पर वे पढऩे-लिखने की परंपरा से दूर हैं। अक्सर मध्यवर्गीय या पिछड़ी जातियों का है।

इस संदर्भ में मिल्खा सिंह को याद किया जा सकता है। उन्होंने आजादी के बाद का इतना बड़ा एथलेट होने के बावजूद अपने बेटे को धावक नहीं बनाया। वह गॉल्फर है। और हम जानते ही हैं कि गॉल्फ कुल मिला कर अति समृद्धों का खेल है। पश्चिचम में इस तरह का परिवर्तन एक अर्से से चल रहा है। वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिका में जो हिप्पी आंदोलन पैदा हुआ और जिसके चलते वहां के श्वेत युवा एशियाई देशों में निर्वाण की तलाश में लाखों की संख्या में निकल पड़े थे उसका कारण वहां की अनिवार्य सैनिक सेवा था। वियतनाम में अमेरिका ने नाकों चने चबा गए थे और उसके सिपाही बड़े पैमाने पर मारे जा रहे थे। अंतत: उसकी शर्मनाक हार हुई थी। हिप्पी आंदोलन इसी मारे जाने से बचने के लिए था। आज स्थिति यह है कि अमेरिकी सेना में बड़ी संख्या अफ्रीकी मूल के अलावा हस्पानी सैनिकों की है। श्वेत युवा सेना में जाने से बचते हैं।

यहां देखने की बात यह है कि खेल आधुनिक संसार में शुद्ध मनोरंजन के माध्यम नहीं रह गए हैं। एक ओर वे बड़े व्यापार में तब्दील हो चुके हैं तो दूसरी ओर वे तथाकथित राष्ट्रगौरव और अंधराष्ट्रवाद को बढ़ावा देने का मुख्य स्रोत हैं। व्यावसायिकता कुल मिलाकर खेलों को थके, ऊबे और अकेले पड़ गए लोगों की तात्कालिक उत्तेजना का शमन करने के लिए क्षेत्रीयता, नस्ल, जाति और धर्म तक का इस्तेमाल करता है। हमारे यहां मोहम्मडन स्पोॢटंग और मोहन बागान इसका अच्छा उदाहरण हैं।

हमारे देश में सामूहिक खेलों, विशेष कर हाकी का पतन क्यों हुआ और क्यों इसमें आदिवासियों और अन्य पिछड़े क्षेत्रों के लोगों को जगह मिली, उसके कारण भी कोई बहुत छिपे नहीं हैं। आजादी से पहले इस खेल में मध्यवर्ग बड़े पैमाने पर भागीदारी करता था पर आजादी के बाद बढ़ती संपन्नता और जीवन के अन्य क्षेत्रों में अवसरों के विस्तार ने उसे इस शारीरिक रूप से कठिन खेल से दूर कर दिया। इसके लिए जिस शारीरिक फिटनस की जरूरत होती उसे बरकरार रखना आसान नहीं है। इस बीच क्रिकेट का जो उभार हुआ उसका कारण कुल मिला कर इसका शारीरिक रूप से कई गुना कम क्षमता वाला खेल होना भी है। यह लार्डों और राजे-रजवाड़ों का खेल इसलिए नहीं था कि यह फुटबाल और हाकी की तरह जबर्दस्त शारीरिक फिटनेस की मांग करता है। यहां तक कि क्रिकेट में भी आप देख सकते हैं कि हमारे देश की टीम में आज जो तेज गेंदबाज हैं- चाहे इरफान पठान हों या ज़हीरखान या यादव या डिंडा या फिर अरुण एरों - वे किस आर्थिक पृष्ठभूमि के हैं। तेंदुलकर, गौतम और कोहली किस पृष्ठभूमि के हैं।

जरूरत इस बात की है कि खेल आम आदमी के मनोरंजन के साथ स्वस्थ रहने के लिए जरूरी गतिविधि का माध्यम बने न कि भयावह आपसी प्रतिद्वंद्विता का माध्यम। इसलिए जरूरी है कि खेलों के प्रतिस्पद्र्धी तत्व को हटाया न जाए तो भी घटाया तो निश्चित रूप से जाए ही। ओलंपिक या कामनवैल्थ जैसे आयोजन मूलत: शक्तिशाली देशों के लिए अपने अहं के प्रदर्शन का मंच साबित होते हैं। निश्चय ही यह आत्म गौरव और श्रेष्ठता के भाव का वैसा प्रदर्शन भले ही न हो जैसा हिटलर ने जैसी ओवेन्स का अपमान कर के किया था, पर कुल मिला कर यह उसी भावना का विस्तार है। खेल किसी भी रूप में भाईचारे का नहीं बल्कि कुछ में अहंकार और कुछ में हीनता पैदा करने का माध्यम बनते हैं। दूसरी ओर वल्र्ड कप जैसे आयोजन मूलत: व्यावसायिक हितों को बढ़ाने और पैसा कमाने के लिए किए जाते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि खेलना मात्र देखना नहीं है, जो आज हो गया है और लगातार होता जा रहा है, बल्कि वह भागीदारी है। खिलाडिय़ों को सुपर मैन के रूप में प्रस्तुत करना कुल मिला कर आम आदमी को खेलों से दूर करना है।

अंत में ओलंपिक के आर्ष वाक्य सीटियस, अल्टियस, फोर्टियस (और तेज, और ऊंचे, और ताकतवर) की निरर्थकता स्वयं सिद्ध है। आखिर एक व्यक्ति की क्षमता को किस हद तक बढ़ाया जा सकता है और क्यों बढ़ाया जाए? आज के जीवन में उसकी क्या उपयोगिता है। आदमी ने अपना विकास सिर्फ अपनी शारीरिक क्षमता के बल पर नहीं किया है। अगर ऐसा होता तो वह आज किसी जानवर से ज्यादा नहीं होता। उसके विकास में उसकी बुद्धि का महत्त्वपूर्ण योगदान है। वह उड़ सकता है, हजारों टनों के जहाज तैरा सकता है और चार सौ किमी की गति से पृथ्वी को नाप सकता है। इसके बावजूद यदि आप हर व्यक्ति से बेमतलब अपनी शारीरिक क्षमता को बढ़ाने की अपेक्षा करेंगे, जो जाहिर है सीमित है, तो लाजमी है कि वह ऐसे माध्यमों का इस्तेमाल करेगा जो सामान्य नहीं हैं। यह वैज्ञानिक रूप से भी गलत है। प्रकृति ने हर प्राणियों की शारीरिक क्षमता उनके अस्तित्व के लिए जरूरी स्थितियों के अनुरूप निर्धारित की है जिनका विकास या ह्रास वे ही निर्धारित करती है। खेलों में ड्रग्स का इस्तेमाल अचानक नहीं है। वह मूलत: इसी दबाव के कारण है। सात बार के विश्वचैंपियन अमेरिकी साइकिलिस्ट लेंस आर्मस्ट्रांग का जो दुखांत है वह इसी दबाव का नतीजा है। इसी तरह की एक और घटना अमेरिकी धावक फ्लो जो के साथ घटी जिसने फर्राटा दौड़ में विश्वरिकार्ड तोड़ दिया था। उसका 30 वर्ष की उम्र में देहांत हो गया और माना जाता है कि इस असामयिक मृत्यु का कारण ड्रग्स ही थीं जो उसने खेलों में असाधारण प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल की थीं।

पंकज बिष्ट | October 16, 2012 at 4:59 pm | Tags: olympic, society, sports, violence | Categories: विचार | URL: http://wp.me/p2oFFu-dx

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