हमारी दुनिया तो आज भी सुखी लाला की तिजोरी में कैद है
मदर इंडिया की बंदूक महाजनी सभ्यता के खिलाफ नहीं,आज भी अपनी सबसे अजीज औलाद के सीने को गोलियों से छलनी कर रही है।
जल जंगल जमीन प्रकृति और पर्यावरण की लड़ाई तब भी सुखी लाला का बाल बांका नहीं कर सकती थी और आज भी केसरिया कारपोरेट राज के मिलियनर बिलियनर तबके के नरसंहार संस्कृति और बलात्कार संस्कृति से उत्पीड़ित मदर इंडिया विकास के लिए अपना ही घर उजाड़ अंध आस्था के महिमा मंडन में हमें देशभक्त बना रही है अंध धर्मोन्मादी।
पलाश विश्वास
मदर इंडिया 1957 - यूट्यूब
Apr 13, 2014 - Uploaded by Keshaw Kumar
मदर इंडिया - 1957 उत्कृष्ट फिल्म कई कई 1958 पुरस्कार जीता था,सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री (नरगिस) सहित, सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक (महबूब खान), 1.... बहुत ...
कल फिर देख ली मदर इंडिया।
सविता बाबू उत्तर प्रदेश और बिहार में लगातार हो रही बारिश और फसलों की तबाही की वजह से हमारी दुनिया में मचे हाहाकार से रूबरु होकर अपने मायके और ससुराल में मातम और खुशी में शरीक होकर जम्मू तवी एक्सप्रेस से लौटकर बांग्ला नववर्ष के सांंस्कृतिक कार्यक्रमों से निबटकर एक दफा फिर मुझे अनुशासित करने में लग गयी है।
अब हर हाल में दोपहर को आहार और विश्राम का अनुशासन मानकर चलना पड़ रहा है।
इसी बहाने कल दोपहर भोजन और विश्राम के मौके पर उनने हमारे लिए मदर इंडिया फिल्म लगा दी और फिर हम अपनी दुनिया में वापस लौट चले जो आज भी सुखी लाला की तिजोरी में कैद है।
हम बिरजू की बगावत को तब डकैती मान रहे थे।
अब फर्क सिर्फ यह है कि इस महाजनी सभ्यता की राजसत्ता के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले तमाम लोग या तो राष्ट्रद्रोही हैं या फिर माओवादी, आतंकवादी,उग्रवादी, अलगाववादी- और पूरा देश उन्हे मुठभेड़ में मारने का जश्न मना रहा है।
जल जंगल जमीन प्रकृति और पर्यावरण की लड़ाई तब भी सुखी लाला का बाल बांका नहीं कर सकती थी और आज भी केसरिया कारपोरेट राज के मिलियनर बिलियनर तबके के नरसंहार संस्कृति और बलात्कार संस्कृति से उत्पीड़ित मदर इंडिया विकास के लिए अपना ही घर उजाड़ महिमा मंडन में हमें देशभक्त बना रही है अंध धर्मोन्मादी।
मदर इंडिया की बंदूक महाजनी सभ्यता के खिलाफ नहीं,आज भी अपनी सबसे अजीज औलाद के सीने को गोलियों से छलनी कर रही है।
हकीकत के आइने में देश का भूत भविष्य वर्तमान एकाकार है और हम फासिस्ट हिंदू साम्राज्यवाद के धर्मोन्मादी प्रजाजन है।
हमने बचपन में नैनीताल की तराई समेत उत्तर प्रदेश के तमाम शहरों में दीपक जलते देखा है,जो गांवों में घुप्प अंधेरे में कहीं जलता ही न था।वह दीपक घी से जलना था और घी किसानों के यहां सर्वत्र होता न था।
केसरिया झंडों का वह उन्माद सातवें आठवें दशक तक भारत के देहात में कहीं नहीं दिखता था।
तब देहात के लोग भारतीय जनसंघ को बनियों की पार्टी बताते थे।
माफ कीजियेगा,बनिया कहने से उनका मतलब बनिया जाति नहीं था।वे जनसंघ को हिंदुत्व की आड़ में मुनाफाखोरों और कारोबारियों की पार्टी समझते थे।
माफ कीजियेगा, तब लोक और आस्था के रंग आज के मुकाबले कही ज्यादा ईमानदार और पक्के थे।
रीति रिवाज रस्म अदायगी में हिंदुत्व की आस्था अपनी जगह थी लेकिन हिंदुत्व की राजनीति देहात में दो कौड़ी की नहीं थी।
तब भी देश के देहाती अपढ़ अधपढ़ लोगों ने प्रेमचंद की महाजनी सभ्यता न पढी थी और तब भी अर्थ शास्त्र पढञने और समझने वाले लोग मुट्ठीभर थे।लेकिन महाजनों का दीदार किये बिना किसानों की दिनचर्या तब असंभव थी।
वह महाजनी सभ्यता किसानों के लिए रोज रोज की नरकयंत्रणा रही है।टीप छाप और चक्रवृद्धि सूद के तिलिस्म में कैद होते हुए भी अपनी जमीन हड़पने वालों को वे साफ साफ देख सकते थे।आज नहीं देख सकते क्योंकि महाजनी सभ्यता अब पीपीपी माडल गुजराती विकास का हिंदुत्व है।हिंदुत्व में एकाकार आस्था मुक्तबाजार है।
बाकी देश में जो हो रहा था,वह तब हमने नहीं देखा होगा,लेकिन हमने तराई में सन 67 से लेकर सन 71 तक महाजनों के खिलाफ बगावत में खड़े हजारों बिरजू देखे हैं,जिन्होंने बंदूकें नहीं उठायीं,लेकिन अपनी बेदखल जमीन महाजनों की तिजोरी से निकालने की कोशिशें कीं,महाजनों के बही खाते जला दिये और हजारों की तादाद में तराई के जेलों में कैद कर लिये गये।
तब हमारे कामरेड उनका नेतृत्व कर रहे थे और यूपी में हिमालय की तलहटी में अयोध्या बनारस से लेकर समूचे पूर्वांचल और नैनीताल की तराई और कुमायूं गढ़वाल के पहाड़ों तक में कम्युनिस्टों के गढ़ बने हुए थे।जो अब केसरिया राजमहल में तब्दील हैं।
अब समूचे देहात में कृषि विध्वंस के महाश्मसान कमल ही कमल खिलाखिला रहे हैं और तन मन से पूरी तरह अमेरिकी मदर इंडिया की तकनीकी दक्षता,बाजारु फैशन की संतानें लोक और जड़ों से कटे हुए हवाहवाई ग्लोबल हिंदुत्व के बजरंगी हैं।
गौर तलब है कि विभाजन के पहले तक,1964 तक अविभाजित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव कामरेड पीसी जोशी अल्मोड़ा के ही थे।
हमारी दुनिया तो आज भी सुखी लाला की तिजोरी में कैद है।लेकिन इस मुक्त बाजारी तंत्र में बिजनेस फ्रेंडली राजकाज की बनिया भेष अब करोड़ टकिया फैशन है और विकास के फरेब में धर्म के तड़के का जो मुक्तबाजारी तंत्र यंत्र मंत्र का अर्थशास्त्र नरसंहारी है,उसे समझते नहीं है देहात के बहुजन बहुसंख्य कृषि से बेदखल लोग।
कयामती मंजर जो है सो है कि
आस्था न सिर्फ उन्माद है।
आस्था राष्ट्रवाद है।
आस्था अंध फासिस्ट सत्ता है।
आस्था मुक्मल अर्थशास्त्र है।
आस्था विधर्मियों का सर्वनाश और सफाया है।
आस्था सांप्रादायिक हिंसा है।
आस्था संपूर्ण निजीकरण है।
आस्था संपूर्ण विनेवेश है।
आस्था आलराउंड कारपोरेट राज है।
आस्था आफसा है।
आस्था परमाणु बम है। मिसाइल है और राष्ट्र का सैन्यीकरण है।
आस्था सलवा जुड़ुम है और जल जंगल जमीन नागरिकता मानवाधिकार रोजगार आजीविका प्राकृतिक संसाधनों,बुनियादी जरुरतों और बुनियादी सुविधाओं से बेदखली है।
आस्था अबाध विदेशी पूंजी है।संविधान की रोजाना हत्या है। लोकतंत्र, स्वतंत्रता, संप्रभुता समेत लोक गणराज्य का अवसान है आस्था।
आस्था मुकम्मल मुक्तबाजारी महाजनी सभ्यता है तो आस्था अपनी ही संतान को गोली मारकर महाजनी सभ्यता के हक में खड़ी हो जाने को नियतिबद्ध उत्पीड़ित शोषित वंचित बेदखल मदर इंडिया भी है आस्था।
मदर इंडिया की बंदूक महाजनी सभ्यता के खिलाफ नहीं,आज भी अपनी सबसे अजीज औलाद के सीने को गोलियों से छलनी कर रही है।
जल जंगल जमीन प्रकृति और पर्यावरण की लड़ाई तब भी सुखी लाला का बाल बांका नहीं कर सकती थी और आज भी केसरिया कारपोरेट राज के मिलियनर बिलियनर तबके की नरसंहार संस्कृति और बलात्कार संस्कृति से उत्पीड़ित मदर इंडिया विकास के लिए अपना ही घर उजाड़ महिमा मंडन में हमें देशभक्त बना रही है अंध धर्मोन्मादी।
कृपया हस्तक्षेप पर राम पुनियानी जी का आलेख तुरंत पढ़ लें।
संघ परिवार के बाबा साहेब की विरासत को केसरिया बनाने के तंत्र मंत्र यंत्र का खुलासा करता है यह आलेख।कल ही हमने उन्हें सिलसिलेवार लिखने के लिए कहा था और अपनी उम्र और स्वास्थ्य की परवाह किये बिना उन्होंने आज से लिखना शुरु कर दिया है।
हमने इतिहासकार रामचंद्र गुहा और एडमिरल भागवत से भी निवेदन किया है कि वे सच की परते खोलें।रामचंद्र गुहा सत्तर के दशक में हमारे शेखर पाठक के खास मित्र थे और पहाड़ के लिए नियमित लिखते रहते हैं।अपनी बहुत बड़ी हैसियत के बावजूद वे हमें भूले नहीं है।हमें उनके जवाब का इंतजार है और उम्मीद है कि एडमिरल भागवत भी खामोश नहीं रहेंगे।
कल आदरणीय आनंद तेलतुंबड़े से हमने अपनी शंकाओं के समाधान के लिए लंबी बातचीत की और उनने साफ साफ कहा कि अंबेडकर ने कहीं भी संस्कृत को राजभाषा बनाने की बात नहीं की है।यह सरासर झूठ है।
आनंद से हमारी बातचीत इस सिलसिले में लगभग रोजाना होती रही है और आनंद को पहले ही आशंका थी कि चूंकि अंबेडकर समय समय पर अलग अलग परस्परविरोधी वक्तव्य दे चुके हैं क्योंकि वे किसी विचारधारा में कैद न थे और समूची मानवता के लिए और खासतौर पर वंचित वर्ग के लिए उऩकी चिंता घनघोर थीं,तो उन वक्तव्यों को संदर्भ और प्रसंग से काटकर कोई भी कुछ भी व्याख्या कर सकता है।संघ परिवार बिल्कुल वही कर रहा है और हमें पहले से इसकी आशंका थी।
बाबासाहेब कोई ईश्वर न थे।
वे हाड़ मांस के इंसान थे और समाज के हर तबके के लिए गौतम बुद्ध के दर्शन के मुताबिक कल्याकारी समता और सामाजिक न्याय आधारित समाज की स्थापना उनके जीने का एकमात्र मकसद था।
हम उनके कहे को जस का तस लेकर उनके आंदोलन के मुख्य उद्देश्य को भूल नहीं सकते।जाति उन्मूलन का एजंडा उनका मुख्य था और मनुस्मृति का दहन उनने किया,हिंदुत्व के ब्राह्मणवादी वर्ण वर्चस्व के खिलाफ उनने कहा कि जनम पर चूंकि उनका हाथ नहीं रहा है,वे जनमे तो हिंदू हैं लेकिन वे हरगिज हिंदू रहकर मरेंगे नहीं और उनने हिंदू धर्म का परित्याग किया।
इससे यह स्वयंसिद्ध है कि फासिस्ट हिंदू साम्राज्यवाद के वे कितने खिलाफ थे।
जिन धर्मशास्त्रों की बुनियाद पर हिंदुत्व का यह तिलिस्म खड़ा है,उसके तमाम मिथकों और आख्यानों को परत दर परत बेनकाब करने वाले बाबासाहेब हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक काम करते रहे हैं,संघ परिवार के इस दावे का सच आप खुदै समझ लें।
पुनियानी जी ने अपने अंग्रेजी आलेख में तमाम उद्धरणों के साथ इसका खुलासा किया है।इस आलेख का हिंदी अनुवाद भी हस्तक्षेप पर देर सवेर लगेगा।
कृपया देखेंः
Ambedkar's Ideology: Religion, Nationalism and Indian Constitution
मुसलमानों के खिलाफ संघ परिवार ने जो विषवमन बाबासाहेब के हवाले से किया,वह पाकिस्तान पर लिखे उनके आलेख के आधार पर हैं।ऐसे लांछन पहले भी लगाये गये हैं।
आनंद तेलतुबड़े ने इसका जवाब बाकायदा एक पुस्तक लिखकर दिया है,जो हिंदी और मराठी समेत कई भारतीयभषाओं में अनूदित है।हमने वह पुस्तक इंटरनेट में लगाने वास्ते यूनिकोड में आनंद जी से मांगा है और उसके प्रासंगिक अंश भी हस्तक्षेप पर लगा दिये जायेंगे।
गौर तलब है कि हमारी बहस वैकल्पिक मीडिया को लेकर चल रही थी।आनंद स्वरुप वर्मा के आलेख का यूनिकोड मिलते ही वह बहस फिर शुरु होगी।
हम संवाद के किसी भी क्षेत्र से पीछे हट नहीं रहे हैं।
हम लोग शुरु से अंबेडकर को ईश्वर बनाने की अस्मिता राजनीति के खिलाफ रहे हैं और अंबेडकर के जाति उन्मूलन के एजंडा और मेहनतकश तबके के लिए बनाये उनके श्रम कानून और संवैधानिक रक्षाकवच को ही अंबेडकरी आंदोलन का प्रस्थान बिंदू मानते हैं,जहां धर्म और जाति पहचान को खत्म करने से ही समता और समामाजिक न्याय की मंजिल साफ नजर आती है।
अंबेडकर चूंकि राजनेता भी रहे हैं।इसलिए राजनीतिक परिस्थितियों के मद्देनजर वे जो भी कुछ कहते रहे हैं,उन सभी उद्धरणों को जस का तस उनकी विचाराधारा मान लाना आत्मघाती होगा।
बहुजनों को कुछ इसी तरह बाबासाहेब का अंधा अनुयायी बनाकर सत्ता में भागेदारी के लिए जो अस्मिता राजनीति खड़ी की गयी है,हमार समझ से बाबासाहेब के आंदोलन को वह खत्म ही कर रही है और इससे बिलियनर मिलियनर एक तबका बहुजनों में भी तैयार हो गया है जो नस्लवादी वर्णवर्स्वी शासकों के साथ मिलकर अपने ही स्वजनों के खून से अपनी सारी देह रंगे हुए हैं।यही तबका बाबासाहेब के आंदोलन के प्रस्थानबिंदू उनके जाति उन्मूलन के एजंडे पर किसी भी संवाद के खिलाफ है।
संघ परिवार बहुजनों के इसी रामरथ पर सवार होकर बाबासाहेब का वध करके उनकी एक स्वर्ण प्रतिमा को हिंदुत्व के भव्य राममंदिर में स्थापित करने जा रहा है।
इस सिलसिले में सबसे मजेदार वाकया विशाकापत्तनम माकपा पार्टी कांग्रेस से जारी एक प्रस्ताव है,जिसमें संदद का विशेष अधिवेशन बाबासाहेब की जयंती पर बुलाकर अनुसूचितों की समस्याओं पर बहस करने के लिए बुलाने की मांग की है।
इस प्रस्ताव से ही बाबासाहेब के कृतित्व व्यक्तित्व और उनके आंदोलन के बारे में हमारे आदरणीय कामरेडों का नजरिया साफ हो जाता है।
सवाल यह है कि जो संसद संविधान ,कानून का राज और लोकतंत्र से लेकर देश की संप्रभुता को गिरवी पर रखने वाली सत्ता पर अंकुश नहीं लगा पाती,जो संसद कानून बिगाड़ने और जनविरोधी जनसंहारी नीतियों सो कर्वदलीय सहमति से लगातार कारपोरेट और वैश्विक इशारों से पास करती रही है और वहां जो तथाकथित जनप्रतिनिधि हैं,वे कारपोरेट लाबिंग और कारपोरेटफंडिंग के टुकड़खोर हैं तो उस संसद में बाबासाहेब को याद करने से वोट बैंक साधने के सिवाय कौन और मकसद सध सकता है,हमारी समझ से परे हैं।
भारतीय लोकतंत्र में अर्थव्यवस्था,संसाधनों और राजस्व के प्रबंधन से लेकर श्रम कानूनों से लेकर हिंदू कोड बिल ट्रेड यूनियनों को वैध बनाने से लेकर स्त्रियों के लिए मातृत्व अवकाश और काम के घंटे तक तय करने में जो बाबासाहेब की भूमिका रही है,उसके मद्देनजर उन्हें सिर्फ अनुसूचियों का नेता मानने वाले हमारे कामरेड कितने जनपक्षधर हैं,सवाल यही है।
बाबा साहेब के स्मरण में अगर संसद का विशेष अधिवेशन बुलाने का ही लक्ष्य है तो उस अधिवेशन में बाबासाहेब के बनाये संविधान की रोज रोज हत्या के लिए हो रहे आर्थिक सुधारों और मुक्त बाजारी अश्वमेध पर बहस क्यों न हो और क्या इसके लिए नवउदावादी सत्ता तैयार होगी,सवाल यह है।
हस्तक्षेप पर इस सिलसिले में मेरा अंग्रेजी मंतव्य जरुर देख लेंः
What is the use of remembering DR BR Ambedkar, Comrade General Secretary?
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
मदर इण्डिया | |
मदर इण्डिया का पोस्टर | |
निर्देशक | महबूब खान |
निर्माता | महबूब खान |
लेखक | महबूब ख़ान वजाहत मिर्ज़ा एस अली रज़ा |
अभिनेता | चंचल मुकरी सिद्दीक़ी गीता |
संगीतकार | नौशाद |
छायाकार | फरेदूं ए ईरानी |
संपादक | शमसुदीन कादरी |
प्रदर्शन तिथि(याँ) | 25 अक्तुबर 1957 |
कार्यावधि | 172 मिनट |
देश | भारत |
भाषा | हिन्दी |
मदर इण्डिया (अंग्रेज़ी: Mother India, उर्दू: مدر انڈیا) १९५७ में बनी भारतीय फ़िल्म है जिसे महबूब ख़ान द्वारा लिखा और निर्देशित किया गया है। फ़िल्म में नर्गिस, सुनील दत्त, राजेंद्र कुमार और राज कुमार मुख्य भूमिका में हैं। फ़िल्म महबूब ख़ान द्वारा निर्मित औरत (१९४०) का रीमेक है। यह गरीबी से पीड़ित गाँव में रहने वाली औरत राधा की कहानी है जो कई मुश्किलों का सामना करते हुए अपने बच्चों का पालन पोषण करने और बुरे जागीरदार से बचने की मेहनत करती है। उसकी मेहनत और लगन के बावजूद वह एक देवी-स्वरूप उदाहरण पेश करती है व भारतीय नारी की परिभाषा स्थापित करती है और फिर भी अंत में भले के लिए अपने गुण्डे बेटे को स्वयं मार देती है। वह आज़ादी के बाद के भारत को सबके सामने रखती है।
यह फ़िल्म अबतक बनी सबसे बड़ी बॉक्स ऑफिस हिट भारतीय फ़िल्मों में गिनी जाती है और अब तक की भारत की सबसे बढ़िया फ़िल्म गिनी जाती है। इसे १९५८ में तीसरी सर्वश्रेष्ठ फीचर फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से नवाज़ा गया था। मदर इण्डिया क़िस्मत (१९४३),मुग़ल-ए-आज़म (१९६०) और शोले (१९७५) के साथ उन चुनिन्दा फ़िल्मों में आती है जिन्हें आज भी लोग देखना पसंद करते हैं और यह हिन्दी सांस्कृतिक फ़िल्मों की श्रेणी में विराजमान है। यह फ़िल्म भारत की ओर से पहली बार अकादमी पुरस्कारों के लिए भेजी गई फ़िल्म थी।[1
फिल्म की शुरुआत वर्तमान काल में गाँव के लिए एक पानी की नहर के पूरा होने से होती है। राधा (नर्गिस), गाँव की माँ के रूप में, नहर का उद्घाटन करती है और अपने भूतकाल पर नज़र डालती है जब वह एक नई दुल्हन थी।
राधा और शामू (राज कुमार) की शादी का ख़र्चा राधा की सास ने सुखीलाला से उधार लेकर उठाया था। इस के कारण गरीबी और मेहनत के कभी न खत्म होने वाले चक्रव्यूह में राधा फँस जाती है। उधार की शर्तें विवादास्पद होती है परन्तु गाँव के सरपंच सुखीलाला के हित में फैसला सुनाते हैं जिसके तहत शामू और राधा को अपनी फ़सल का एक तिहाई हिस्सा सुखीलाला को ५०० के ब्याज़ के तौर पर देना होगा। अपनी गरीबी को मिटाने के लिए शामू अपनी ज़मीन की और जुताई करने की कोशिश करता है परन्तु एक पत्थर तले उसके दोनों हाथ कुचले जाते है। अपनी मजबूरी से शर्मिंदा व औरों द्वारा बेईज़्ज़ती के कारण वह फैसला करता है कि वह अपने परिवार के किसी काम का नहीं और उन्हें छोड़ कर हमेशा के लिए चले जाता है। जल्द ही राधा की सास भी गुज़र जाती है। राधा अपने दोनों बेटों के साथ खेतों में काम करना जारी रखती है और एक और बेटे को जन्म देती है। सुखीलाला उसे अपनी गरीबी दूर करने के लिए खुद से शादी करने का प्रस्ताव रखता है पर राधा खुद को बेचने से इंकार कर देती है। एक तूफ़ान गाँव को अपनी चपेट में ले लेता है और सारी फ़सल नष्ट हो जाती है। तूफ़ान में राधा का छोटा बेटा मारा जाता है। सारा गाँव पलायन करने लगता है परन्तु राधा के मनाने पर सभी रुक कर वापस गाँव को स्थापित करने की कोशिश करते है।
फ़िल्म कई साल आगे पहुँचती है जब राधा के दोनों बचे हुए बेटे, बिरजू (सुनील दत्त) और रामू (राजेंद्र कुमार) अब बड़े हो चुके है। बिरजू अपने बचपन में सुखीलाला के बर्ताव का प्रतिशोध लेने के लिए गाँव की लड़कियों को छेड़ना शुरू कर देता है, ख़ास कर सुखीलाला की बेटी को। इसके विपरीत रामू बेहद शांत स्वभाव का है और जल्द ही शादी कर लेता है। हालांकि अब वह एक पिता है पर उसकी पत्नी जल्द ही परिवार में मौजूद गरीबी का शिकार हो जाती है। बिरजू का ग़ुस्सा आख़िरकार ख़तरनाक रूप ले लेता है और उकसाने पर सुखीलाला और उसकी बेटी पर हमला कर देता है। उसे गाँव से निकाल दिया जाता है और वह एक डाकू बन जाता है। सुखीलाला की बेटी की शादी के दिन वह बदला लेने वापस आता है और सुखीलाला को मार कर उसकी बेटी को भगा ले जाने की कोशिश करता है। राधा, जिसने यह वादा किया था कि बिरजू किसी को कोई हानि नहीं पहुँचाएगा, बिरजू को गोली मार देती है जो उसकी बाँहों में दम तोड़ देता है। फ़िल्म वर्तमान काल में राधा द्वारा नहर खोले जाने पर लाल रंग के बहते हुए पानी से समाप्त होती है जो धीरे धीरे खेतों में पहुँच जाता है।
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