अन्याय की पहली सीख: एदुआर्दो गालेआनो
Posted by Reyaz-ul-haque on 4/14/2015 02:34:00 AM आज एदुआर्दो गालेआनो नहीं रहे। दुनिया में हर तरह के शोषण, गैरबराबरी और नाइंसाफी के खिलाफ लिखने-बोलने वाले इस बहादुर योद्धा पत्रकार और लेखक गालेआनो का एक और लेख। दुनिया जिस ढांचे पर चल रही है और इसके बारे में जो झूठ प्रचारित किया जाता है गालेआनो ने पूरे जीवन अपने लेखन में उसको रेशा रेशा उधेड़ दिया है- चाहे उनकी डायरीनुमा किताबें हों या लातीन अमेरिका (मेमोरीज ऑफ फायर) और दुनिया (मिरर्स) के इतिहास का पुनर्लेखन। उनका लेखन विडंबनाओं और व्यंग्यों का एक लंबा सिलसिला है। यहां पेश लेख यह उनकी किताब पातास आरीबा से लिया गया है। अनुवाद पी. कुमार मंगलम का है। गालेआनो के दूसरे लेखों और साक्षात्कारों को यहां पढ़ा जा सकता है।
रंग-रंगीले विज्ञापन बुलाते हैं कि आओ खरीदो और खर्च करो, वहीँ आज की आर्थिक व्यवस्था यूँ रोकती है, मानो कहती हो, चलो पास भी न फटको! खरीदने-खर्चने के ये बुलावे, जो हम सभी पर थोप दिए गए हैं, ठीक उसी वक्त ज्यादातर लोगों की पहुँच से बाहर भी रखे गए हैं। न्योता देकर दुत्कार देनेवाले बाजारी हिसाब-किताब का कुल जोड़ फिर यह निकलता है कि कुछ और कदम अपराध की तरफ बढ़ जाते हैं। अखबारों में आए दिन छप रही अपराध की ख़बरें हमारे समय की ऐसी ही विडंबनाओं को किसी आर्थिक और राजनीतिक रपट से कहीं ज्यादा उजागर करती हैं!
अपने बाजारी सज-धज की दावत में यह दुनिया सबको मोहती और बुलाती तो है, लेकिन बहुतों के लिये अपना दरवाजा बंद ही रखती है। इस तरह, यहाँ एक ही समय बराबरी और गैरबराबरी दोनों का खेल खेला जाता है। सभी को एक ही तरह की सोच और आदतों में ढालते हुए जहाँ 'बराबरी' का डंडा चलाया जाता है, वहीं बात जब सबको समान अवसर देने की आती है, तो यहाँ मौजूद गैरबराबरी छिपाए नहीं छिपती!
रंग-रंगीले विज्ञापन बुलाते हैं कि आओ खरीदो और खर्च करो, वहीँ आज की आर्थिक व्यवस्था यूँ रोकती है, मानो कहती हो, चलो पास भी न फटको! खरीदने-खर्चने के ये बुलावे, जो हम सभी पर थोप दिए गए हैं, ठीक उसी वक्त ज्यादातर लोगों की पहुँच से बाहर भी रखे गए हैं। न्योता देकर दुत्कार देनेवाले बाजारी हिसाब-किताब का कुल जोड़ फिर यह निकलता है कि कुछ और कदम अपराध की तरफ बढ़ जाते हैं। अखबारों में आए दिन छप रही अपराध की ख़बरें हमारे समय की ऐसी ही विडंबनाओं को किसी आर्थिक और राजनीतिक रपट से कहीं ज्यादा उजागर करती हैं!
अपने बाजारी सज-धज की दावत में यह दुनिया सबको मोहती और बुलाती तो है, लेकिन बहुतों के लिये अपना दरवाजा बंद ही रखती है। इस तरह, यहाँ एक ही समय बराबरी और गैरबराबरी दोनों का खेल खेला जाता है। सभी को एक ही तरह की सोच और आदतों में ढालते हुए जहाँ 'बराबरी' का डंडा चलाया जाता है, वहीं बात जब सबको समान अवसर देने की आती है, तो यहाँ मौजूद गैरबराबरी छिपाए नहीं छिपती!
'बराबरी' का डंडा और गैरबराबरी
सिर्फ खरीदने और खर्च कर देने का हुक्म देनेवाली सोच आज हम सब पर बुरी तरह हावी है। पूरी दुनिया में आज जो गैरबराबरी की 'व्यवस्था' कायम की जा रही है, वह इस सोच से अलग देखी ही नहीं जा सकती। इस तरह एक-दुसरे की जड़ें सेंकती और चेहरा बनाती-छुपाती इन दो जुड़वा बहनों की हुकूमत बिना किसी भेदभाव के हम सब के ऊपर थोप दी गयी है।
सबको एक जैसा बना देने पर तुली यह पूरी व्यवस्था इंसानियत के सबसे खूबसरत अहसास को ख़त्म किए दे रही है। वही अहसास जिसके हम सबमें मौजूद कई-कई रंग आपस में कहीं गहरे जुड़े भी हुए हैं। आखिर, इस दुनिया का सबसे बड़ा खजाना इसी एक दुनिया में बसी बहुत सारी अलग-अलग दुनियायें ही तो हैं, जिनके अपने अलग-अलग संगीत, दुख-दर्द, रंग, जीवन जीने, कुछ कहने, सोचने, कुछ बनाने, खाने, काम करने, नाचने, खेलने, प्यार करने, पीड़ा झेलने और खुशी मनाने के हजारों तरीके हैं, जिन्हें हमने धरती पर अपने लाखों साल के सफर में ढूंढ़ा है।
हम सबको सिर्फ मुंह बाए तमाशा देखते रहने वालों में तब्दील कर देने वाली 'बराबर' व्यवस्था किसी हिसाब में नहीं समाती। ऐसा कोई कम्प्यूटर नहीं बना, जो यह बता सके कि कैसे 'मास कल्चर' का कारोबार हमारी सतरंगी दुनियाओं और अस्मिता के बिलकुल बुनियादी हक़ पर रोज ही हमले कर रहा है। हकीकत, हालांकि, यही है कि इस कारोबार के टूजी-थ्रीजी फाड़[1] 'तरक्की' ने हमारा देखना-सोचना ख़त्म कर दिया है। हाल यह है की समय अपने इतिहास से तथा जगहें अपनी अद्भुत विविधताओं से खाली और अनजान होने लग गई हैं। दुनिया के मालिक लोग, माने वही जिनके पास संचार-सूचना के 'बड़े' माध्यमों की लगाम है, हमें खुद को हमेशा एक ही आईने में देखते रहने की हिदायत देते हैं। वही आईना, जहां दूसरी तरफ से सिर्फ खरीदने और खर्च डालने की सीखें निकलती हैं।
जिसके पास कुछ नहीं है, वह कुछ नहीं है। जिनके पास कार नहीं है, जो ब्रांडेड जूते या विदेशी परफ्यूम इस्तेमाल नहीं करते वे तो जीने का दिखावा ही कर रहे हैं। आयात पर पलती अर्थव्यवस्था और पाखण्ड फैलाती संस्कृति! ऐसे ही बकवासों के राज में हम सभी ठेल-ठेलकर एक बड़े और भड़कीले जहाज पर बिठा दिए गए हैं। उपभोक्तावाद का पाठ रटाता यह जहाज बाजार की उठती-मचलती लहरें नापता है। जाहिर है, ज्यादातर लोग इस जहाज से बाहर फेंक दिए जाने को अभिशप्त हैं। लेकिन सफर का पूरा मजा लेने वालों का खर्च, जो विदेशी कर्जे लेकर चुकाया जाता है, सबके मत्थे चढ़ता है। कर्जे की रकम से यह इंतजाम किया जाता है कि एक बहुत ही छोटा-सिमटा तबका अपने-आप को 'नए फैशन' की तमाम गैरजरूरी चीजों से भर ले। यह हमारे उस मध्यवर्ग के लिए होती है, जो कुछ भी खरीद कर 'बड़ा' और हाई-फाई दिख जाना चाहता है। और उस ऊँचे तबके के लिए भी, जो अपने जैसे लोगों की नकल कर उनसे भी ऊँचा हो जाने की जुगत भिड़ाए रहता है। फिर टीवी तो है ही इन सारे तबकों को यह भरोसा देने के लिए कि वे तमाम मांगें कितनी जरुरी है जो, दरअसल, दुनिया का उत्तर बिना रूके बनाता और पूरी कामयाबी से दक्षिणी हिस्से को भेजता रहता है।[2]
लातिन अमेरिका के उन करोड़ों बच्चों के इस जिंदगी के क्या मायने हैं जो इस पूरे दौर में बड़े हो रहे हैं और बेकारी और भुखमरी देखने के लिये जवान हो रहे हैं। विज्ञापनों दुनिया विचित्र दुनिया। मांग बढ़ाती है या हिंसा? टेलीविजन भी बाजार को अपनी पूरी सेवा देता है। यह हमें सामानों के विज्ञापन के ढेर बिठाकर हमें जिंदगी के अच्छी-भली चलने का भ्रम पालना सिखाता है, साथ ही रोज हिंसा की ऑडियोविजुअल'खुराक भी देता है। जिसकी लत 'विडियोगेम्स' से हमें पहले ही लग चुकी होती है। अपराध टी।वी। पर आने वाला सबसे मनोरंजक कार्यक्रम बन गया है। विडियोगेम्स की हिंसा से भरी दुनिया हमें रोज और ज्यादा हिंसक और बर्बर होने के नए मंत्र देती है। जैसे कि 'मारो उन्हें, इससे पहले कि वे तुम्हें मारें' या 'आप अकेले हैं, सिर्फ खुद पर भरोसा करें'। इस सब उथल-पुथल की गवाह बन रहे आधुनिक शहर बढ़ रहे हैं। लातिन अमेरिका के शहर बढ़कर दुनिया के बड़े शहरों में शुमार हो रहे हैं। बढ़तो शहरों के साथ अपराध भी उससे या उससे कहीं ज्यादा घबरा देने वाली, रफ्तार से बढ़ रहे हैं।
आज की आर्थिक व्यवस्था को बढ़ते उत्पादन की खपत और फायदा बनाए रखने के लिये बाजार बढ़ाते जाने की जरूरत है। साथ ही लागत कम बनाए रखने के लिये यह सबसे सस्ते मजदूर और कच्चा माल भी चाहता है। यह अंतर्विरोध ही बाजार का मूलमंत्र है जो हम हर दिन बढ़ते दामों और मजदूरों को उनकी न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दिये जाने के आम होते मामलों में देख सकते हैं। यह अंतर्विरोध ही दुनिया के दो गैरबराबर हिस्सों में बंटे रहने के मूल में है, जब विकसित उत्तरी भाग साम्राज्यवाद दक्षिणी और पूर्वी भागों को अपनी कंपनियों के लिये खरीदार बना रहा है। यह साम्राज्यवाद का नया रूप है जो बड़े और विकसित देशों की बाजारवादी धौंस से जाहिर होता है। खरीददार बढ़ाते रहने की इस अंधाधुन्ध रफ्तार से बढ़ाया है तो तो सिर्फ हाशिये पर खड़े लोगों की संख्या जो अपराधी बनने को मजबूर है। सब कुछ खरीद लेने की इस सनक में हर आदमी वो सब कुछ खरीद लेना चाहता है, जो वह दूसरों के पास देखता है और इसके लिये उसे हिंसा से भी कोई परहेज नहीं है। सभी इस आपधापी और मुठभेड़ के लिये खुद को तैयार कर रहे हैं। कोई भी कभी भी मार दिया जा सकता है, वे लोग जो भूख से मर रहे हैं और वे भी जिनके पास खाने को जरूरत से ज्यादा है।
सांस्कृतिक विविधताओं को खत्म कर सबको एक जैसा खरीदार बना देने की यह पूरी प्रक्रिया कैसे काम कर रही है, इसे आंकडों से नहीं दिखाया जा सकता। हालांकि इसके उलट व्यवस्था की आर्थिक गैरबराबरी बयां करने को कई आंकड़े हैं। हम इसे देख सकते हैं। इस पूरी व्यवस्था को बनाए रखने के लिये विश्वबैंक इस कड़वी सच्चाई को स्वीकारता है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र के कई संगठन भी इसकी पुष्टि करते हैं। दुनिया की अर्थव्यवस्था कभी भी इतनी गैरबराबरी बढ़ाने वाली नहीं रही और न कभी दुनिया इतनी क्रूर अन्याय की गवाह बनी थी। 1960 में दुनिया की आबादी का सबसे धनी 20 फीसदी हिस्सा सबसे गरीब 20 फीसदी के मुकाबले 30 गुना ज्यादा धनी और साधन सम्पन्न था। इसके बाद तो यह खाई और चैड़ी होती रही है। सन 2000 तक यह अंतर बढ़कर 90 गुना हो जाएगा।
सबको एक जैसा बना देने पर तुली यह पूरी व्यवस्था इंसानियत के सबसे खूबसरत अहसास को ख़त्म किए दे रही है। वही अहसास जिसके हम सबमें मौजूद कई-कई रंग आपस में कहीं गहरे जुड़े भी हुए हैं। आखिर, इस दुनिया का सबसे बड़ा खजाना इसी एक दुनिया में बसी बहुत सारी अलग-अलग दुनियायें ही तो हैं, जिनके अपने अलग-अलग संगीत, दुख-दर्द, रंग, जीवन जीने, कुछ कहने, सोचने, कुछ बनाने, खाने, काम करने, नाचने, खेलने, प्यार करने, पीड़ा झेलने और खुशी मनाने के हजारों तरीके हैं, जिन्हें हमने धरती पर अपने लाखों साल के सफर में ढूंढ़ा है।
हम सबको सिर्फ मुंह बाए तमाशा देखते रहने वालों में तब्दील कर देने वाली 'बराबर' व्यवस्था किसी हिसाब में नहीं समाती। ऐसा कोई कम्प्यूटर नहीं बना, जो यह बता सके कि कैसे 'मास कल्चर' का कारोबार हमारी सतरंगी दुनियाओं और अस्मिता के बिलकुल बुनियादी हक़ पर रोज ही हमले कर रहा है। हकीकत, हालांकि, यही है कि इस कारोबार के टूजी-थ्रीजी फाड़[1] 'तरक्की' ने हमारा देखना-सोचना ख़त्म कर दिया है। हाल यह है की समय अपने इतिहास से तथा जगहें अपनी अद्भुत विविधताओं से खाली और अनजान होने लग गई हैं। दुनिया के मालिक लोग, माने वही जिनके पास संचार-सूचना के 'बड़े' माध्यमों की लगाम है, हमें खुद को हमेशा एक ही आईने में देखते रहने की हिदायत देते हैं। वही आईना, जहां दूसरी तरफ से सिर्फ खरीदने और खर्च डालने की सीखें निकलती हैं।
जिसके पास कुछ नहीं है, वह कुछ नहीं है। जिनके पास कार नहीं है, जो ब्रांडेड जूते या विदेशी परफ्यूम इस्तेमाल नहीं करते वे तो जीने का दिखावा ही कर रहे हैं। आयात पर पलती अर्थव्यवस्था और पाखण्ड फैलाती संस्कृति! ऐसे ही बकवासों के राज में हम सभी ठेल-ठेलकर एक बड़े और भड़कीले जहाज पर बिठा दिए गए हैं। उपभोक्तावाद का पाठ रटाता यह जहाज बाजार की उठती-मचलती लहरें नापता है। जाहिर है, ज्यादातर लोग इस जहाज से बाहर फेंक दिए जाने को अभिशप्त हैं। लेकिन सफर का पूरा मजा लेने वालों का खर्च, जो विदेशी कर्जे लेकर चुकाया जाता है, सबके मत्थे चढ़ता है। कर्जे की रकम से यह इंतजाम किया जाता है कि एक बहुत ही छोटा-सिमटा तबका अपने-आप को 'नए फैशन' की तमाम गैरजरूरी चीजों से भर ले। यह हमारे उस मध्यवर्ग के लिए होती है, जो कुछ भी खरीद कर 'बड़ा' और हाई-फाई दिख जाना चाहता है। और उस ऊँचे तबके के लिए भी, जो अपने जैसे लोगों की नकल कर उनसे भी ऊँचा हो जाने की जुगत भिड़ाए रहता है। फिर टीवी तो है ही इन सारे तबकों को यह भरोसा देने के लिए कि वे तमाम मांगें कितनी जरुरी है जो, दरअसल, दुनिया का उत्तर बिना रूके बनाता और पूरी कामयाबी से दक्षिणी हिस्से को भेजता रहता है।[2]
लातिन अमेरिका के उन करोड़ों बच्चों के इस जिंदगी के क्या मायने हैं जो इस पूरे दौर में बड़े हो रहे हैं और बेकारी और भुखमरी देखने के लिये जवान हो रहे हैं। विज्ञापनों दुनिया विचित्र दुनिया। मांग बढ़ाती है या हिंसा? टेलीविजन भी बाजार को अपनी पूरी सेवा देता है। यह हमें सामानों के विज्ञापन के ढेर बिठाकर हमें जिंदगी के अच्छी-भली चलने का भ्रम पालना सिखाता है, साथ ही रोज हिंसा की ऑडियोविजुअल'खुराक भी देता है। जिसकी लत 'विडियोगेम्स' से हमें पहले ही लग चुकी होती है। अपराध टी।वी। पर आने वाला सबसे मनोरंजक कार्यक्रम बन गया है। विडियोगेम्स की हिंसा से भरी दुनिया हमें रोज और ज्यादा हिंसक और बर्बर होने के नए मंत्र देती है। जैसे कि 'मारो उन्हें, इससे पहले कि वे तुम्हें मारें' या 'आप अकेले हैं, सिर्फ खुद पर भरोसा करें'। इस सब उथल-पुथल की गवाह बन रहे आधुनिक शहर बढ़ रहे हैं। लातिन अमेरिका के शहर बढ़कर दुनिया के बड़े शहरों में शुमार हो रहे हैं। बढ़तो शहरों के साथ अपराध भी उससे या उससे कहीं ज्यादा घबरा देने वाली, रफ्तार से बढ़ रहे हैं।
आज की आर्थिक व्यवस्था को बढ़ते उत्पादन की खपत और फायदा बनाए रखने के लिये बाजार बढ़ाते जाने की जरूरत है। साथ ही लागत कम बनाए रखने के लिये यह सबसे सस्ते मजदूर और कच्चा माल भी चाहता है। यह अंतर्विरोध ही बाजार का मूलमंत्र है जो हम हर दिन बढ़ते दामों और मजदूरों को उनकी न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दिये जाने के आम होते मामलों में देख सकते हैं। यह अंतर्विरोध ही दुनिया के दो गैरबराबर हिस्सों में बंटे रहने के मूल में है, जब विकसित उत्तरी भाग साम्राज्यवाद दक्षिणी और पूर्वी भागों को अपनी कंपनियों के लिये खरीदार बना रहा है। यह साम्राज्यवाद का नया रूप है जो बड़े और विकसित देशों की बाजारवादी धौंस से जाहिर होता है। खरीददार बढ़ाते रहने की इस अंधाधुन्ध रफ्तार से बढ़ाया है तो तो सिर्फ हाशिये पर खड़े लोगों की संख्या जो अपराधी बनने को मजबूर है। सब कुछ खरीद लेने की इस सनक में हर आदमी वो सब कुछ खरीद लेना चाहता है, जो वह दूसरों के पास देखता है और इसके लिये उसे हिंसा से भी कोई परहेज नहीं है। सभी इस आपधापी और मुठभेड़ के लिये खुद को तैयार कर रहे हैं। कोई भी कभी भी मार दिया जा सकता है, वे लोग जो भूख से मर रहे हैं और वे भी जिनके पास खाने को जरूरत से ज्यादा है।
सांस्कृतिक विविधताओं को खत्म कर सबको एक जैसा खरीदार बना देने की यह पूरी प्रक्रिया कैसे काम कर रही है, इसे आंकडों से नहीं दिखाया जा सकता। हालांकि इसके उलट व्यवस्था की आर्थिक गैरबराबरी बयां करने को कई आंकड़े हैं। हम इसे देख सकते हैं। इस पूरी व्यवस्था को बनाए रखने के लिये विश्वबैंक इस कड़वी सच्चाई को स्वीकारता है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र के कई संगठन भी इसकी पुष्टि करते हैं। दुनिया की अर्थव्यवस्था कभी भी इतनी गैरबराबरी बढ़ाने वाली नहीं रही और न कभी दुनिया इतनी क्रूर अन्याय की गवाह बनी थी। 1960 में दुनिया की आबादी का सबसे धनी 20 फीसदी हिस्सा सबसे गरीब 20 फीसदी के मुकाबले 30 गुना ज्यादा धनी और साधन सम्पन्न था। इसके बाद तो यह खाई और चैड़ी होती रही है। सन 2000 तक यह अंतर बढ़कर 90 गुना हो जाएगा।
अनुवादकीय टिप्पणी
1. मूल लेख में "demoledores progresos" phrase का उपयोग हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ विध्वंसक विकास होगा। लेकिन भारत के सन्दर्भ में बात को और मौजूं बनाने के लिए "टूजी-थ्रीजी फाड़ तरक्की" का प्रयोग किया गया है।2. उत्तर और दक्षिण से यहां तात्पर्य धरती पर मौजूद संसाधनों के वितरण से है और यह सभी मामलों में भौगोलिक संकल्पना नहीं है।
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