कानून के राज में शतरंज की बिसात
पलाश विश्वास
Thursday, August 1, 2013
First we have to study history.Is Bengal united at all? who divided Bengal? Was darjiling a part of Bengal historically? Have we ensured inclusive development of Hills.Have we looked beyond Darjiling at all and looked at the people living in the hills?Have we treated them as Bengali ever?
Sumit Guha shared Mamata Banerjee FAN Club(m.b.f.c)'s photo.
- Palash Biswas Don`t agrre.First we have to study history.Is Bengal united at all? who divided Bengal? Was darjiling a part of Bengalhistorically? Have we ensured inclusive development of Hills.Have we looked beyond Darjiling at all and looked at the people living in the hills?Have we treated them as Bengali ever?
- Palash Biswas Do we Ever treated those ousted Bengali population,the outcaste Bengali refugees ejected out of Bengal as much Bengali as the mainstream is?
- Palash Biswas Why Marichjhapi victims have towait justice since 1979?
- Palash Biswas Pl consider these issues to generalise the matter very very sensitive.
- Palash Biswas It is impossible to keepintact any geopolitical unit without inclusive culture while bengali culture is reduced to monopolistic suicidalsupremacy.
- Sumit Guha its a true
- Palash Biswas Pl call a spade a spade if you want toresolve the complex issues.
- Palash Biswas And Just skip branding others anti Bengal ,anti Bengali or Maoist?
- Palash Biswas Is Aamir Khan a Maaoist since he has taken a stance for justice for Kaamduni?
- Palash Biswas Your posts sounds like that branding Maoist nayone,branding Anto Bengal or Anti Bengali anyone.It is nothing but Bengali communalism misunderstood as progressive character so hyped.
और कानून का राज?
बामुलाहिजा होशियार
कि इस जनगणतंत्र में जनता की कोई जगह नहीं।
कानून के राज से बेदखल है जनता।
और कानून का राज का मतलब है राडिया टेप!
बाकी जो तंत्र है वह मोंटेक का तिलिस्म हैं
और चिदंबरम का वधस्थल
बाकी जो हैं अय्यार
वे हवा में तलवारबाजी के दक्ष कलाकार!
शतरंज की बिसात पर जबर्दस्त धमाचौकड़ी है। ग्रांड मास्टरं का यावतीय कला कौशल की धूम लगी है।मंत्री,हाथी घोड़े, नाव खूब दौड़ लगा रहे हैं। हर चाल पर मारे जा रहे हैं पैदल मोहरे थोक भाव पर।
जी हां, यही भारत का वर्तमान परिप्रेक्ष्य है। शतरंज की बिसात पर महाभारत हुआ और गीता के उपदेश सह विश्वरुप दर्शन भी।
फिर टूटा विधा का व्याकरण तो विद्वतजनों ,माफ करना। न मैं प्रचलित कवि हूं
और न विद्वतजन!
हम लोग रोजमर्रे की जिंदगी में वहीं परम अलौकिक विश्वरुप दर्शन कर रहे हैं। पर साधन विहीन साधनाहीन लोगों के चर्मचक्षु में यह दर्शन होकर भी चाक्षुस नहीं है।
लोकसभा के 2014 के चुनाव के दांव बदलने लगे हैं। जनादेश प्रबंधन का कारोबार अब सौंदर्यशास्त्र के व्याकरण को तोड़ने लगा है। धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद में समाहित होने लगी हैं जातीय और क्षेत्रीय अस्मिताएं भी ।
अब तक मंडल बनाम कमंडल का करिश्मा देखते,झेलते और बूझते हुए भी हम भारतीय जनगण उसी में अपनी अग्निदीक्षा संपन्न कराने में अभ्यस्त रहे हैं। इतिहास के विरुद्ध भूगोल की लड़ाई में मुख्यधारा की कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही है, जैसे कि जाति उन्मूलन के जरिये सामाजिक न्याय और समता का लक्ष्य मृगमरीचिका समान है, जैसों की चूंती हुई अर्थव्यवस्था और विकास दर,परिभाषाओं और योजनाओं के तिसलिस्म में गरीबी उन्मूलन की आड़ में खुले बाजार में नरमेध अभियान।
जाहिर है कि तेलंगाना अलग राज्य को अमली जामा पहनाने में अभी देर है। कांग्रेस ने मुहर लगायी है। प्रशासनिक, संवैधानिक प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है। लेकिन इस खेल ने नरेंद्र मोदी की रथयात्रा की गति थाम दी है और देश के कोने कोने में क्षेत्रीय अस्मिता का बवंडर हिंदुत्व के ध्रूवीकरण की परिकल्पना को भटकाने लगी है।
यह महज राजनीति है। जिसे समझते बूझते भारतीय नागरिक कुछ और समझने की कोशिश करने का अभ्यस्त नहीं है।
निजी तौर पर इस मामले में हम हर कीमत पर अस्पृश्य भूगोल और वंचित समुदायों के साथ हैं। आखिर नये राज्य ही बन रहे हैं, नये देश नहीं। उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ बनने से अगर उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार की पहचान खत्म नहीं हुई है, तो दूसरे राज्यों के विभाजन से उनक वजूद खतरे में कैसे पड़ सकता है। राज्य के भीतर ही क्षेत्रीय विकास के असंतुलन को बनाये रखकर, अस्पृश्य भूगोल पर वर्चस्ववादी शासन के जरिये राज्य की भौगोलिक अंखडता क्षेत्रवादी सांप्रदायिकता के अलावा कुछ नहीं है।इस बारे में हमारी कोई दुविधा नहीं है और न राज्यों की सीमाओं की पवित्रता जैसी किसी अवधारणा में हमारी कोई आस्था है।
लेकिन मुद्दा यह है ही नहीं।अस्पृश्य भूगोल को मुख्यधारा में सामिल करने या किसी क्षेत्र विशेष के वंचित समुदायों को उनके हकहकूक की बहाली का मामला यह है ही नहीं। अलग हुए राज्यों मसलन पंजाब से अलग हुए हिमाचल से लेकर असम से अलग हुए पूर्वोत्तर क तमाम राज्यों के पुरातन मामलों से लेकर अधुना बने तीनों राज्यों उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ के अनुभव से जाहिर है कि विकास और बहिस्कार के प्रचलित समीकरण कहीं नहीं बदले। क्षेत्रीय अस्मिता पर बने राज्यों का कायाक्लप होने के बजाय वहां प्राकृतिक संसाधनों की अबाध कारपोरेट लूट की व्यवस्था ही स्थनापन्न हुई हैं और हिमाचल को अपवाद मान भी लें तो मूल राज्यों से अलगाव की प्रक्रिया में बनाये गये नये राज्यों को सत्ता समीकरण का खिलौना ही बना दिया गया। कहीं भी जनाकांक्षाों की पूर्ति हुई नहीं है। और तो और जिनकी अस्मिता की लड़ाई बजरिये इन राज्यों का गठन हुआ, नये राज्यों में सत्ता में तो क्या किसी भी क्षेत्र में उनको वाजिब हिस्सा अभी तक नहीं मिला। झारखंड में मुख्यमंत्री आदिवासी जरुर बन जाते हैं, लेकिन आदिवासियों का रजनीतिक आर्थिक सशक्तीकरण हुआ है,ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता। प्राकृतिक संसाधनों और खासतौर पर खनिज संपदा के अबाध लूट के तंत्र में कोई बलाव नहीं हुआ है। न कहीं पांचवी अनुसूची लागू है और न छठीं। प्रोमोटर माफिया राज कारपोरेट राज का दायां बायां है और राजनीति दलाली कमीशनखोरी के पर्याय के अलावा कुछ नहीं है।
इसीतरह छत्तीसगढ़ तो आदिवासियों की क्षेत्रीय अस्मिता पर बना दूसरा राज्य है, जहां आदिवासियों के विरुद्ध निरंतर युद्ध गृहयुद्ध जारी है। परा छत्तीसगढ़ झारखंड की तरह कारपरेट हवाले है। किसी भी क्षेत्र में आदिवासिययों के सशक्तीकरण के बारे में हमें जानकारी नहीं है, पर सलवा जुड़ुम के बारे में दुनिया जानती है। नयी राजधानी बनाने में सौकडों आदिवासी गांवों का वध हो रहा है और आदिवासी निहत्था दमनतंत्र की चांदमारी में प्रतिनियत लहूलुहान।
उत्तराखंड की कथा तो हाल की हिमालयी जलप्रलय ने ही बेपर्दा कर दी है। उत्तरप्रदेश में जब शामिल थे पहाड़ी जिले, तब भी राजनीति मैदानों से चलती थी औज भी वही हाल है। उद्योग लगे भी तो स्थानीय जनता को रोजगार नहीं। ऊर्जा प्रदेश बना तो तमाम घाटियां डूब में शामिल। ग्लेशियरों को भी जख्म लगे हैं। झीले दम तोड़ने लगी हैं और नदिया साकी की सारी बंध गयी। बंधकर रूठकर हिमालयी जनता पर कहर बरपाने लगी है। अलग राज्य बनने से पहले पर्यटन और धार्मिक पर्यटन से स्थानीय जनता का जो रोजगार था, वह अब अबाध कारपोरेट पूंजी की घुसपैठ से बेदखल है और यह पूंजी न हिनमालयी पर्यावरण, उसके संवेदनशील अस्तित्व और न हिमालयी जनता की वजूद की कोई परवाह करती है। राजनीति अप उसी पूंजी के खेल में तब्दील है, जो आम जनता की आकांक्षाओं की कौन कहें, उनकी लावारिश लहूलुहान रोजमर्रे की जिंदगी पर तनिक मलहम लगाने के लिए भी तैयार नहीं है।
राज्य चाहे हजार बनें, इसमें देश का बंधन टूटता है नहीं और इसपर ऐतराज पागलपन के सिवाय कुछ नहीं है। लेकिन अलग राज्य बनने का मतलब अगर कारपोरेट राज है, अबाध पूंजी प्रवाह है और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट है, भूमिपुत्रों को हाशिये पर रखकर वर्चस्ववादी समुदायों की मोनोपोली है, निरंकुश दमनतंत्र है , नागरिक मानवाधिकारों के हनन की अनंत श्रृंखला है, तो ऐसे राज्य के बनने से तो वंचितों की हालत वैसी ही खराब हने की आशंका है, जैसे समूचे पूर्वोत्तर, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड की हुई है।
राज्य पुनर्गठन का कोई तो प्रावधान होने चाहिए, सिद्धांत होने चाहिेए, पैमाने होने चाहिए।महज राजनीतिक तूफान खड़ा करके क्षेत्रीय अस्मिता की सुनामी खड़ी करके अलग राज्य बनने से वह क्षेत्रीय अस्मिता अंततः अंध धर्मोन्मादी राष्ट्रीयता में समाहित हो जाती है। कम से कम उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। जहां अब क्षेत्रीय अस्मिता और पहचान का नामोनिशान ही नही है और सबकुछ भगवा ही भगवा है।
लेकिन यह समझना और जरुरी है कि लोकसभा चुनाव से पहले मोदी कीबढ़त थामने के लिए ही यह शतरंजी बिसात का प्रयोजन नहीं हुआ। क्षेत्रीय अस्मिता का बवंडर खड़ा करने का मकसद यही है कि अस्मिता राजनीति की आड़ में आर्थिक सुधारों का राजसूय यज्ञ निर्बाध संपन्न हो। राज्य बने या न बने, मुद्दा यह दरअसल है ही नहीं। असली मुद्दा यह है कि इस मसले के उभार से राजनीति धुंआधार बनाकर पूरे देश को आपरेशन टेबिल पर सजा देना है, जहां उसकी शल्यक्रिया करेंगी चिदंबरम मोंटेक कारपोरेट टीम। सोनिया राजनीति साधेंगी और नरमेध अभियान का सिलसिला जारी रखेंगे युगावतार सुदारों के ईश्वर। बाकी बचा है कुरुक्षेत्र का मैदान जहां स्वजनों के हाथों स्वजनों का वध संपन्ना होगा। विधवाएं विलाप करती रहेंगी और घाव चाटते रहेंगे अश्वत्थामा। अपने बनाये चक्रव्यूह में ही घिर रहे हैं हम और किसी को नहीं मालूम मारे जाने से पहले बचाव के रास्ते कैसे बनेंगे।
हमने अपने अग्रज पी साईनाथ का हवाला देकर कहा था कि इस अर्थव्यवस्था के तिलिस्म को तोड़ने की सबसे बड़ी अनिवार्यता है जिस पर रंगबिरंगी चाकलेटी कंडोम आवरण है, जो धारी दार है और खूब मजा देते हैं। भरपूर मस्ती है। लेकिन ध्वंस के बीज अंकुरित होकर महावृक्ष हो गये हैं और वे विष वृक्ष में तब्दील है।
तेलंगाना में कभी खेत जागे थे, हम भूल चुके हैं। नयी तेलंगाना अस्मिता में उन मृत खेतो की सोंधी महक लेकिन कहीं नहीं है। हम तो बूटों की धमक से बहरे हुए जाते हैं।बख्तरबंद वर्दियां दसों दिशाओं से हमलावर हैं एकाधिकारवादी कारपोरेट वर्चस्व के लिए। हमारे मोर्चे पर न प्रतिरोध है और आत्मरक्षा के उपाय। न किलेबंदी है और न विरोध, है तो सिर्फ नपुंसक आत्मसर्पण। यह देश अबकंडोमवाहक है निर्बीज, जहां खेतों से न को उत्पादन होगा न दाने दाने पर लिखा होगा किसी का नाम। नदियां बिक गयी हैं। हिमालय का वध जारी है। अरण्य अरण्य दावानल है। समुंदर समुंदर विनाश गाथा। कारखानों में खामोश है उत्पादन। बिना उत्पादन विकासगाथा का अद्भुत यह देश है जहां आर्तिक नीतियां वाशिंगटन से बनती हैं और उनके कार्यान्वन के लिए बिछायी जाती शतरंज की बिसात।
बार बार महाभारत दोहराया जाता है पर स्वर्गारोहण पर सिर्फ युधिष्ठिर का एकाधिकार ।अमर्त्य सिर्फ एकमेव। बाकी बचा जो मर्त्य वह रसातल है।बर बार स्वजनों के वध से हमारे हाथ रक्तरंजित और कोई पापबोध नहीं। कोई पाप बोध नहीं, नृशंस नरसंहार के अपराधी हम सभी।
हम सभी अपराधी सिखसंहार के। हम सभी अपराधी भोपाल त्रासदी के। हम सभी अपराधी हिमालय वध के। हम सभी अपराधी सशस्त्र सैन्य शासन के । हमीं अपराधी मुंबई और मालेगांव के धमाकों के। बाबरी विध्वंस के। देश विदेश व्यापी दंगों के। गुजरात नरसंहार के और इस कारपोरेट पारमाणविक महाभारत में हम हमेशा या तो पांडव हैं या कौरव।
सिर्फ मौद्रिक कवायद के सिवाय क्या है वित्तीय प्रबंधन बताइये। सुब्बाराव माफिक नहीं है शेयर बाजार के सांढ़ों के लिए, तो उन्हें हटाना तय है। चिदंपरम ने उनके अखंड सुधार जाप से न पीजकर भस्म हो जाने का शाप दे दिया है। दुर्वासा मोंटेक हैं, जो नागरिक सेवाओं की पात्रता से बेदखल करके बार बार शापित कर रहे हैं गरीबों को। निलेकनी हमें बायोमेट्रिक डिजिटल बना ही चुके हैं। अपनी अपनी निगरानी का उत्सव मना रहे हैं हम इस देश के कबंध नागरिक।
रस्सी जल गयी अस्मिता की , जलकर राख हुई अस्मिता हर कोई, फिर उसे रस्सी समझकर अपनी अकड़ में अकड़ू!
क्या खाक डिकोड करेंगे कि ममता दीदी के दरबार में क्यों हाजिरा लगा रहे हैं दरबारी तमाम कारपोरेट? कोचर से लेकर अंबानी। टाटा से लेकर जिंदल। गोदरेज तमाम।
राष्ट्रपति बनाने वाले लोग अब दीदी को साध रहे हैं! किसलिए आखिर सिंगुर से भागे टाटा को क्या मालूम नही निवेश माहौल बंगाल का?
कारपोरेट विकल्प कोई अकेला नहीं होता।
न महज मोदी
न महज राहुल
न नीतिश अकेला
और न मुलायम
और न अग्निकन्या कोई
कारपोरेट मीडिया में तमाम ताश फेंटे जा रहे हैं। तमम सर्वे और प्रोजक्शन जारी है। पहला नहीं तो दूसरा। दूसरा नहीं तो तीसरा । हर विकल्प को साधने का खेल है। शह और मात का इंतजाम पुख्ता है।
यह कारपोरेट चंदा हर झोली में क्यों?
और क्यों सूचना अधिकार से बाहर राजनीति?
और कानून का राज?
बामुलाहिजा होशियार
कि इस जनगणतंत्र में जनता की कोई जगह नहीं।
कानून के राज से बेदखल है जनता।
और कानून का राज का मतलब है राडिया टेप!
बाकी जो तंत्र है वह मोंटेक का तिलिस्म हैं
और चिदंबरम का वधस्थल
बाकी जो हैं अय्यार
वे हवा में तलवारबाजी के दक्ष कलाकार!
बामुलाहिजा होशियार!
सरकार बहु-ब्रांड खुदरा क्षेत्र में एफडीआई नियमों में गुरुवार को और ढील दे दी। वित्तमंत्री पी चिदंबरम को उम्मीद है कि इससे इस क्षेत्र में पहला विदेशी निवेश आकर्षित करने में मदद मिलेगी।
सूत्रों के मुताबिक, मंत्रिमंडल की आज हुई बैठक में इस संबंध में निर्णय लिया गया। कहा जा रहा है कि इसके अलावा, मंत्रिमंडल दूरसंचार, रक्षा, सरकारी तेल रिफाइनरियों, जिंस बाजारों, बिजली एक्सचेंजों, शेयर बाजारों व क्लियरिंग कारपोरेशनों सहित एक दर्जन क्षेत्रों में एफडीआई नियमों को उदार करने संबंधी नए नियमों को मंजूरी भी दी।
उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 16 जुलाई को इन क्षेत्रों के लिए एफडीआई नियमों को उदार करने की घोषणा की थी।
यद्यपि सरकार ने बहु-ब्रांड खुदरा क्षेत्र में करीब दस महीने पहले ही 51 प्रतिशत एफडीआई की अनुमति दे दी थी, डीआईपीपी के पास अभी तक कोई औपचारिक प्रस्ताव नहीं आया है।
वालमार्ट, टेस्को और कारफो जैसी वैश्विक खुदरा कंपनियां नियमों को और आसान बनाने की मांग कर रही हैं।
बामुलाहिजा होशियार!
उच्चतम न्यायालय ने नीरा राडिया के औद्योगिक घरानों के प्रमुखों, नेताओं और दूसरे व्यक्तियों की टैप की गयी बातचीत से मिली जानकारी के आधार पर पांच साल तक कोई कार्रवाई नहीं करने पर आज आय कर विभाग और केन्द्रीय जांच ब्यूरो को आड़े हाथ लिया।
न्यायमूर्ति जी एस सिंघवी और न्यायमूर्ति वी गोपाल गौडा की खंडपीठ ने कहा, ‘‘यह अच्छी स्थिति नहीं है।’’ न्यायाधीशों ने कहा कि यह बातचीत पांच साल पहले टैप की गयी थी लेकिन इस दौरान सरकारी अधिकारी चुप्पी साधे रहे । न्यायाधीश जानना चाहते थे कि क्या वे कार्रवाई के लिये अदालत के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘टेलीफोन टैपिंग पांच साल पहले की गयी थी, अब तक आपने :सरकारी प्राधिकारियों: क्या किया? क्या वे अदालत के आदेश का इंजतार कर रहे हैं। यह अच्छी स्थिति तो नहीं है कि सिर्फ अदालत के आदेश पर ही कार्रवाई होगी।’’
न्यायालय ने आय कर विभाग को राडिया के टेलीफोन टैप करने के लिये अधिकृत किये जाने से संबंधित सारा रिकार्ड पेश करने का निर्देश दिया। न्यायालय ने आय कर विभाग को यह भी स्प्ष्ट करने का निर्देश दिया कि टैपिंग की जिम्मेदारी जिन अधिकारियों को सौंपी गयी थी क्या उन्होंने रिकार्डिंग के विवरण के बारे में अपने वरिष्ठ अधिकारियों को सूचित किया और इस बातचीत में जिन आपराधिक मामलों का जिक्र हुआ है, क्या उनके बारे में सीबीआई को सूचित किया गया था।
न्यायालय ने आय कर विभाग को इस आदेश पर छह अगस्त तक अमल करने का निर्देश दिया। इस मामले में अब छह अगस्त को आगे सुनवाई होगी।
बामुलाहिजा होशियार!
केंद्रीय कैबिनेट ने राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून के दायरे से बाहर रखने के सरकार के फैसले को गुरुवार को मंजूरी दे दी।
सरकारी सूत्रों ने बताया कि इस मुद्दे पर एक मसौदा नोट कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने तैयार किया है। इसमें आरटीआई कानून 2005 में संशोधन का प्रस्ताव है। इसे केन्द्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी के लिए पेश किया गया था।
केन्द्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) ने पिछले महीने कहा था कि छह राष्ट्रीय दलों कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, बसपा और राकांपा को केन्द्र सरकार की ओर से परोक्ष रूप से काफी वित्तपोषण मिलता है इसलिए उन्हें जन सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करनी चाहिए क्योंकि आरटीआई कानून के तहत उनका स्वरूप सार्वजनिक इकाई का है।
सीआईसी ने इन राजनीतिक दलों को जन सूचना अधिकारी और अपीली अधिकारी की नियुक्ति के लिए छह सप्ताह का समय दिया था।
सीआईसी के इस फैसले पर राजनीतिक दलों विशेषकर कांग्रेस में कड़ी प्रतिक्रिया हुई। आरटीआई कानून लाने का श्रेय पाने वाली कांग्रेस ने ही सीआईसी के इस फैसले का विरोध किया।
छह राजनीतिक दलों में से केवल भाकपा ने सीआईसी के आदेश का समय पर पालन किया और एक आरटीआई सवाल का जवाब भी दिया।
सूत्रों ने कहा कि सरकार अब सार्वजनिक इकाइयों की परिभाषा बदलना चाहती है ताकि सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे से बाहर रखा जा सके।
सूत्रों के अनुसार कैबिनेट की मंजूरी के बाद अब सरकार को इस संबंध में संसद के मानसून सत्र में विधेयक पेश करना होगा।
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