Thursday, 01 August 2013 10:36 |
अनुपम मिश्र हमारे संवत्सर के पन्ने एक वर्ष में बारह बार पलट जाते हैं। पर प्रकृति का कैलेंडर कुछ हजार नहीं, लाख-करोड़ वर्ष में एकाध पन्ना पलटता है। इसलिए हिमालय, उत्तराखंड, गंगा, नर्मदा आदि की बातें करते समय हमें प्रकृति के भूगोल का यह कैलेंडर कभी भी भूलना नहीं चाहिए। पर करोड़ों बरस के इस कैलेंडर को याद रखने का यह मतलब नहीं कि हम अपना आज का कर्तव्य भूल बैठें। वह तो सामने रहना ही चाहिए। और उस हिसाब से काम भी होना चाहिए। पर माथा साफ नहीं होगा तो काम भी होने नहीं वाला। आज क्या हो रहा है? नदी में से साफ पानी जगह-जगह बांध, नहर बना कर निकालते जा रहे हैं। सिंचाई, बिजली बनाने और उद्योग चलाने के लिए। विकास के लिए। अब बचा पानी तेजी से बढ़ते बड़े शहरों, राजधानियों के लिए बड़ी-बड़ी पाइप लाइन में डाल कर चुराते भी जा रहे हैं। यह भी नहीं भूलें कि अभी तीस-चालीस बरस पहले तक इन सभी शहरों में अनगिनत छोटे-बड़े तालाब हुआ करते थे। ये तालाब चौमासे की वर्षा को अपने में संभालते थे और शहरी क्षेत्र की बाढ़ को रोकते थे और वहां का भूजल उठाते थे। यह ऊंचा उठा भूजल फिर आने वाले आठ महीने शहरों की प्यास बुझाता था। अब इन सब जगहों पर जमीन की कीमत आसमान छू रही है। इसलिए बिल्डर-नेता-अधिकारी मिल-जुल कर पूरे देश के सारे तालाब मिटा रहे हैं। महाराष्ट्र में अभी कल तक पचास वर्षों का सबसे बुरा अकाल था और फिर उसी महाराष्ट्र के पुणे, मुंबई में मानसून के एक ही दिन की वर्षा में बाढ़ आ गई है। इंद्र का एक सुंदर पुराना नाम, एक पर्यायवाची शब्द है पुरंदर, यानी पुरों को, किलों को, शहरों को तोड़ने वाला। यदि हमारे शहर इंद्र से मित्रता कर उसका पानी रोकना नहीं जानते तो फिर वह पानी बाढ़ की तरह हमारे शहरों को नष्ट करेगा ही। यह पानी बह गया तो फिर गर्मी में अकाल भी आएगा ही। यह हालत सिर्फ हमारे यहां नहीं, सभी देशों में हो चली है। थाईलैंड की राजधानी दो वर्ष पहले छह महीने बाढ़ में डूबी रही थी। इस साल दिल्ली के हवाई अड््डे में पहली ही बरसात में 'आगमन' क्षेत्र में बाढ़ का आगमन हो गया था। वापस गंगा लौटें। कुछ दिनों से उत्तराखंड की बाढ़ की, गंगा की बाढ़ की टीवी पर चल रही खबरों को एक बार फिर याद करें। नदी के धर्म को भूल कर हमने अपने अहं के प्रदर्शन के लिए तरह-तरह के भद्दे मंदिर बनाए, धर्मशालाएं बनार्इं, नदी का धर्म सोचे बिना। हाल की बाढ़ में मूर्तियां ही नहीं, सब कुछ गंगा अपने साथ बहा ले गई। तो नदी से सारा पानी विकास के नाम पर निकालते रहें, जमीन की कीमत के नाम पर तालाब मिटाते जाएं, और फिर सारे शहरों, खेतों की सारी गंदगी, जहर नदी में मिलाते जाएं। फिर सोचें कि अब कोई नई योजना बना कर हम नदी भी साफ कर लेंगे। नदी ही नहीं बची। गंदा नाला बनी नदी साफ होने से रही। गुजरात के भरुच में जाकर देखिए, रसायन उद्योग ने विकास के नाम पर नर्मदा को किस तरह बर्बाद किया है। नदियां ऐसे साफ नहीं होंगी। हमें हर बार निराशा ही हाथ लगेगी। तो क्या आशा बची ही नहीं? ऐसा नहीं है। आशा है, पर तब, जब हम फिर से नदी धर्म ठीक से समझें। विकास की हमारी आज जो इच्छा है, उसकी ठीक जांच कर सकें। बिना कटुता के। गंगा को, हिमालय को कोई चुपचाप षड्यंत्र करके नहीं मार रहा। ये तो सब हमारे ही लोग हैं। विकास, जीडीपी, नदी जोड़ो, बड़े बांध सब कुछ हो रहा है। हजारों लोग षड्यंत्र नहीं करते। कोई एक चुपचाप करता है गलत काम। इसे तो विकास, सबसे अच्छा काम मान कर सब लोग कर रहे हैं। पक्ष भी, विपक्ष भी सभी मिल कर इसे कर रहे हैं। यह षड्यंत्र नहीं, सर्वसम्मति है! विकास के इस झंडे तले पक्ष-विपक्ष का भेद भी समाप्त हो जाता है। हमारी लीला ताई ने हमें मराठी की एक बहुत विचित्र कहावत सुनाई थी: रावणा तोंडी रामायण। रावण खुद बखान कर रहा है रामायण की कथा। हिमालय में, गंगा में, गांवों, शहरों में हम विकास के नाम पर ऐसे काम न करें जिनके कारण ऐसी बर्बादी आती हो। नहीं तो हमें रावण की तरह अपनी खुद की बर्बादी का बखान करना पड़ेगा।
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Thursday, August 1, 2013
रावणा तोंडी रामायण
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