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Thursday, September 24, 2015

इतिहास का सांप्रदायिक संस्करण -राम पुनियानी

24 सितंबर 2015

इतिहास का सांप्रदायिक संस्करण

-राम पुनियानी


अतीत को एक विशिष्ट ऐनक से देखना-दिखाना, सांप्रदायिक ताकतों का सबसे बड़ा हथियार होता है। ''दूसरे'' समुदायों के प्रति घृणा की जड़ें, इतिहास के उन संस्करणों में हैं, जिनका कुछ हिस्सा हमारे अंग्रेज़ शासकों ने निर्मित किया था और कुछ सांप्रदायिकतावादियों ने। फिरकापरस्त ताकतें इतिहास के इस सांप्रदायिक संस्करण में से कुछ घटनाओं को चुनती हैं और फिर उन्हें इस तरह से तोड़ती-मरोड़ती हैं जिससे उनका हित साधन हो सके। कई बार एक ही घटना की प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिक ताकतें, परस्पर विरोधाभासी व्याख्याएं करती हैं। सांप्रदायिक इतिहास अपने धर्म के राजाओं का महिमामंडन और दूसरे धर्म के राजाओं को खलनायक सिद्ध करने का पूरा प्रयास करता है। उदाहरणार्थ, इन दिनों, ''राणा प्रताप'' को महान बनाने का अभियान चल रहा है। कोई राजा क्यों और कैसे महान बनता है? ज़ाहिर है, इसके कारण और प्रतिमान अलग-अलग होते हैं।

कई बार एक ही क्षेत्र में रहने वाले विभिन्न जातियों और धर्मों के लोग, उस क्षेत्र के राजा को अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखते हैं। यह बात महाराष्ट्र के शिवाजी के बारे में बिलकुल सच है। कुछ के लिए वे गायों और ब्राह्मणों के प्रति समर्पित राजा थे तो अन्य लोग उन्हें रैय्यत (किसानों) के कल्याण के प्रति प्रतिबद्ध शासक बताते हैं। राजाओं को धर्म के चश्में से देखने से उनकी एकाधिकारवादी शासन व्यवस्था और सामंती शोषण पर से ध्यान हट जाता है। इससे आमजन यह भी भूल जाते हैं कि राजाओं-नवाबों के शासनकाल में न तो नागरिकता की अवधारणा थी और ना ही राष्ट्र-राज्य की। राष्ट्रवाद का उदय, संबंधित धर्म के पहले राजा के काल से माना जाने लगता है। उदाहरणार्थ, मोहम्मद-बिन-कासिम को इस्लामिक राष्ट्रवाद का संस्थापक बताया जाता है और हिंदू संप्रदायवादी दावा करते हैं कि भारत, अनादिकाल से हिंदू राष्ट्र-राज्य है। उन्हें इस बात से कोई लेनादेना नहीं है कि उस काल का सामाजिक ढांचा कैसा था और तत्समय के लोगों की वफादारी राष्ट्र-राज्य के प्रति थी या अपने कबीले, कुल या राजा के प्रति।

इस तरह, कुछ राजाओं को अच्छा और कुछ को बुरा बना दिया जाता है। सच यह है कि सभी राजा किसानों का खून चूसते थे और उनके राज में पितृसत्तात्मकता और जातिगत पदानुक्रम का बोलबाला था। हिंदू सांप्रदायिक ताकतें मुस्लिम राजाओं का दानवीकरण करती आई हैं और औरंगज़ेब को तो दानवराज के रूप में प्रचारित किया जाता है। इसी तरह की मानसिकता से ग्रस्त एक भाजपा सांसद ने दिल्ली की औरंगज़ेब रोड को एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर करने की मांग की थी।

औरंगज़ेब रोड का नया नामकरण सभी स्थापित नियमों और परंपराओं का उल्लंघन कर किया गया है। भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के स्वघोषित मसीहा अरविंद केजरीवाल ने भी इसका समर्थन किया। इस तरह की बातें की गईं मानों एक सड़क का नाम बदल देने से इतिहास में जो कुछ ''गलत'' हुआ है वह ''सही'' हो जाएगा। इतिहास में क्या गलत हुआ और क्या सही, यह अंतहीन बहस का विषय है और इसका उत्तर अक्सर इस बात पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति समाज के किस तबके से आता है। जो चीज़ किसी अमीर के लिए गलत हो सकती है वह गरीब के लिए सही हो सकती है; जो चीज पुरूषों के लिए सही हो सकती है वह महिलाओं के लिए गलत हो सकती है; जो चीज किसानों के लिए सही हो सकती है वह ज़मींदारों के लिए गलत हो सकती है; जो चीज़ ब्राह्मणों के लिए सही हो सकती है वह दलितों के लिए गलत हो सकती है। जिन राजाओं ने समाज के दबे-कुचले वर्गों की ओर मदद का हाथ बढ़ाया, उन्हें छोड़कर, अन्य किसी भी राजा के महिमामंडन पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लगाए जा सकते हैं।

कुल मिलाकर, औरंगजे़ब का इस हद तक दानवीकरण कर दिया गया है कि उसका नाम लेने मात्र से लोग घृणा और क्रोध से भर जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि औरंगजे़ब सत्ता का इतना भूखा था कि उसने बादशाहत हासिल करने के लिए अपने भाई दारा शिकोह का कत्ल कर दिया था। निःसंदेह ऐसा हुआ होगा परंतु क्या हम यह नहीं जानना चाहते कि सम्राट अशोक ने भी गद्दी हासिल करने के लिए अपने भाईयों की जान ली थी। अभी हाल में नेपाल के राजा ज्ञानेन्द्र ने अपने भाई बीरेन्द्र सिंह की हत्या कर दी थी। पूरी दुनिया में राजघरानों में षड़यंत्र और कत्ल आम थे।

फिर, यह कहा जाता है कि औरंगजे़ब ने तलवार की नोंक पर हिंदुओं को मुसलमान बनाने का अभियान चलाया। पहली बात तो यह है कि भारत में इस्लाम, मुस्लिम बादशाहों के कारण नहीं फैला। अधिकांश मामलों में जाति व्यवस्था के चंगुल से बचने के लिए बड़ी संख्या में शूद्रों ने इस्लाम ग्रहण किया। स्वामी विवेकानंद (कलेक्टेड वर्क्स, खंड-8, पृष्ठ 330) ने कहा था कि इस्लाम में धर्मपरिवर्तन, जाति व्यवस्था के अत्याचारों से बचने के लिए हुआ। मेवाड़ और मलाबार तट के इलाकों में सामाजिक मेलजोल के कारण भी इस्लाम फैला।

औरंगजे़ब ने गुरू गोविंद सिंह के लड़कों के सिर कटवा दिए। यह धर्मपरिवर्तन करवाने का प्रयास था या हारे हुए राजा को अपमानित करने का? हारे हुए राजा ने क्षमादान मांगा और क्षमा करने के लिए यह अपमानित करने वाली शर्त रखी गई। एक ब्रिटिश इतिहासविद एलेक्जेंडर हेमिल्टन ने औरंगजे़ब के 50 साल के शासन के अंतिम वर्षों में पूरे देश का भ्रमण किया था। उन्होंने लिखा है कि औरंगजे़ब के साम्राज्य में प्रजाजन अपने-अपने तरीके से ईश्वर की आराधना करने के लिए स्वतंत्र थे।

अगर औरंगज़ेब व अन्य मुस्लिम राजाओं का लक्ष्य लोगों को मुसलमान बनाना होता तो 800 सालों के अपने राज में वे क्या देश की पूरी आबादी को मुसलमान न बना देते? और हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उनके दरबारों में कई बड़े ओहदेदार हिंदू थे। क्या बादशाह उन्हें ऊँचा ओहदा देने के पहले यह शर्त नहीं रखता कि वे मुसलमान बनें?

और जजि़या का क्या? मध्यकालीन इतिहास के अध्येता प्रो. हरबंस मुखिया के अनुसार, औरंगज़ेब ने 1669 में जजि़या लगाया। यह उसके शासनकाल का 21वां वर्ष था। राजाओं की कर संबंधी नीतियां समय-समय पर बदलती रहती थीं। जहां स्वस्थ हिंदू पुरूषों को जजि़या देना होता था वहीं मुसलमानों पर ज़कात नाम का कर लगाया जाता था। ऐसे भी कई कर थे जिनकी वसूली औरंगज़ेब ने बंद कर दी थी। परंतु जजि़या, आमजनों के दिमाग में इस हद तक बैठ गया है कि वे उसे औरंगजे़ब के हिंदू-विरोधी होने का अकाट्य सबूत मानने लगे हैं।

क्या यह सही नहीं है कि औरंगज़ेब ने विश्वनाथ मंदिर तोड़ा और उसके स्थान पर मस्जि़द बनवा दी? इसमें कोई संदेह नहीं कि औरंगजे़ब ने कई मंदिर गिराए परंतु उसने कई मंदिरों को अनुदान भी दिए। चित्रकूट के उत्तर में स्थित ऐतिहासिक बालाजी या विष्णु मंदिर में एक शिलालेख है, जिससे यह पता चलता है कि इस मंदिर की तामीर बादशाह औरंगजे़ब ने स्वयं की थी। औरंगज़ेब ने पंढरपुर के बिठोबा मंदिर को एक बड़ी राशि दान के रूप में दी थी। उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर, गुवाहाटी के उमानंद मंदिर, शत्रुंजई के जैन मंदिर व उत्तर भारत के कई गुरूद्वारों को औरंगजे़ब के शासनकाल में शाही खज़ाने से अनुदान मिलता था। इनसे संबंधित फरमान 1659 से 1685 के बीच जारी किए गए थे। डॉ. विशंभरनाथ पाण्डे ने औरंगजे़ब के कई ऐसे फरमानों को संकलित किया है, जिसमें उसने हिंदू मंदिरों को अनुदान देने का आदेश दिया है। यह विरोधाभास क्यों? इसका उत्तर आसान है। सत्ता संघर्ष के चलते कुछ मंदिरों को गिराया गया और जनता को खुश करने के लिए कुछ मंदिरों को अनुदान दिया गया। कई मौकों पर ऐसे मंदिरों को ढहाया गया जहां बादशाह के खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाने वाले योद्धा शरण लिए हुए थे।

हमारे अंग्रेज़ शासकों का कोई प्रयास सफल हुआ हो या नहीं परंतु केवल धर्म के आधार पर राजाओं की पहचान स्थापित करने के लिए उन्होंने इतिहास का जो पुनर्लेखन किया, वह पूरी तरह से सफल रहा। हिंदू व मुस्लिम सांप्रदायिक धाराओं ने इसे अपना लिया और सांप्रदायिक आधार पर देश का ध्रुवीकरण करने के अपने राजनैतिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए इसका इस्तेमाल किया। अंग्रेज़ों ने सांप्रदायिक आधार पर इतिहास लेखन इसलिए भी किया क्योंकि उन्हें जनता की वफादारी हासिल करनी थी। उन्होंने इतिहास को इस रूप में प्रस्तुत किया मानो अंग्रेज़ों ने देश को क्रूर मुस्लिम शासन से मुक्ति दिलाई हो। अंग्रेज़ों ने इस देश के साथ क्या किया, यह तो शशि थरूर के कुछ समय पहले वायरल हुए आक्सफोर्ड लेक्चर से ज़ाहिर है। हमारे इन ''उद्धारकों'' ने, जो ''पूर्व को सभ्य बनाने'' आए थे, हमारे देश को किस कदर लूटा-खसोटा यह किसी से छिपा नहीं है। अकबर हों या औरंगजे़ब या फिर दारा शिकोह-सबके व्यक्तित्व अलग-अलग थे परंतु अंततः वे थे तो बादशाह ही। वे सामंती व्यवस्था के शीर्ष पर विराजमान थे और यह व्यवस्था कमरतोड़ मेहनत करने वाले किसानों और दिन-रात खटने वाले कारीगरों के शोषण पर आधारित थी। नाम बदलने का यह खेल विघटनकारी राष्ट्रवाद के सांप्रदायिक एजेण्डे का भाग है। वे शायद यह मानते हैं कि जिस बादशाह ने इस उपमहाद्वीप पर आधी सदी तक शासन किया, उसके नाम पर एक सड़क भी नहीं हो सकती। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)




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