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Saturday, May 21, 2016

भीम यात्रा में एक भी ‘आंबेडकरी’ इसके आसपास नहीं देखा गया जबकि इसके एक प्रेरक प्रतीक के रूप में अंबेडकर की प्रभावशाली मौजूदगी वहां थी. सभी उल्लेखनीय प्रगतिशील व्यक्तियों ने गरीब सफाईकर्मियों के संघर्ष के साथ एकजुटता जाहिर करते हुए अपनी मौजूदगी दर्ज कराई, लेकिन स्वयंभू अंबेडकरी ही वो खास लोग थे जो वहां से नदारद थे. आनंद तेलतुंबड़े का स्तंभ आंबेडकर के जश्न के मौके पर दलितों के आंसू और ये भी पढ़ें मौजूदा छात्र संघर्षों पर आनंद तेलतुंबड़े से एक बातचीत An Interview with Anand Teltumbde on Current Student Struggles

भीम यात्रा में एक भी 'आंबेडकरी' इसके आसपास नहीं देखा गया जबकि इसके एक प्रेरक प्रतीक के रूप में अंबेडकर की प्रभावशाली मौजूदगी वहां थी. सभी उल्लेखनीय प्रगतिशील व्यक्तियों ने गरीब सफाईकर्मियों के संघर्ष के साथ एकजुटता जाहिर करते हुए अपनी मौजूदगी दर्ज कराई, लेकिन स्वयंभू अंबेडकरी ही वो खास लोग थे जो वहां से नदारद थे. आनंद तेलतुंबड़े का स्तंभ

आंबेडकर के जश्न के मौके पर दलितों के आंसू



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An Interview with Anand Teltumbde on Current Student Struggles




भीम यात्रा में एक भी 'आंबेडकरी' इसके आसपास नहीं देखा गया जबकि इसके एक प्रेरक प्रतीक के रूप में अंबेडकर की प्रभावशाली मौजूदगी वहां थी. सभी उल्लेखनीय प्रगतिशील व्यक्तियों ने गरीब सफाईकर्मियों के संघर्ष के साथ एकजुटता जाहिर करते हुए अपनी मौजूदगी दर्ज कराई, लेकिन स्वयंभू अंबेडकरी ही वो खास लोग थे जो वहां से नदारद थे. आनंद तेलतुंबड़े का स्तंभ. अनुवाद:रेयाज उल हक

जिस वक्त दुनिया बाबासाहेब आंबेडकर की 125वीं जयंती के धूम-धड़ाके से भरे उत्सव के लिए तैयार हो रही थी, उन्हीं दिनों सफाईकर्मी कहे जाने वाले दलितों का एक तबका राजधानी में जमा हुआ ताकि वो भारत में आजादी के सात दशकों के बाद भी और आंबेडकर के गुजरने के छह दशकों के बाद भी दलितों की बेचैन कर देने वाली हकीकत दिखा सके. भीम यात्रा कहे जाने वाले उनके जुलूस ने 125 दिनों में 35,000 किमी का सफर तय किया था जो असम में डिब्रूगढ़ से शुरू हुआ और करीब 500 जिलों और 30 राज्यों से होते हुए 13 अप्रैल, 2016 को नई दिल्ली में जंतर मंतर पर खत्म हुआ. उन्हें इस अमानवीय काम से मुक्ति दिलाने के संघर्ष की रहनुमाई कर रहे सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) के बैनर तले निकाले गए जुलूस में दर्द भरे तरीके से वे पुकार रहे थे 'हमारी जान मत लो'. ऐसा कहते हुए वे हर साल होने वाली 22000 सफाईकर्मियों की गुमनाम मौतों का हवाला दे रहे थे (आखिरकार भाजपा के सांसद तरुण विजय ने राज्य सभा में अभी पिछले महीने ही इसे कबूल किया है). यह तादाद 1990 से लेकर 17 वर्षों में जम्मू-कश्मीर में हथियारबंद संघर्ष से लड़ते हुए मारे जाने वाले सभी सैनिकों, पुलिसकर्मियों और अर्धसैनिक बलों की सुर्खियों में होने वाली मौतों से 4.5 गुना ज्यादा है! अपने गालों पर बहते हुए आंसुओं के साथ, रुंधे हुए गले से अनेक बच्चों ने इसकी खौफनाक कहानियां सुनाईं कि कैसे उनके परिवारवाले इस नुकसानदेह प्रथा के शिकार होते हैं.

इसने विरोधाभासों की इस धरती पर एक निहायत ही बड़ा विरोधाभास पेश किया कि जब आंबेडकर को एक महा प्रतीक की हैसियत में उठाया जा रहा था, अवाम के उस हिस्से को अपनी बुनियादी जिंदगी के लिए फरियाद करनी पड़ रही थी, जिसके लिए आंबेडकर जिए और लड़ाई लड़ी.

बेपनाह दोमुंहापन

भारत के संविधान ने छुआछूत का अंत कर दिया, लेकिन उन स्थितियों के लिए उसने कुछ नहीं किया जो छुआछूत को पैदा करती थीं. यहां ऐसे लोग थे जो न सिर्फ सवर्ण हिंदुओं के लिए, बल्कि दूसरी दलित जातियों के लिए भी अछूत होने की वजह से छूने से परहेज किया जाता था. इस मामले पर अपने रूढ़िवादी विचारों के बावजूद गांधी ने वाजिब ही भंगी (सफाई के काम से पहचानी जाने वाली जाति) को दलितों के प्रतिनिधि के रूप में पहचाना और इस मुद्दे को उठाने के लिए खुद को एक भंगी के रूप में पेश किया. वे उनके लिए अपने प्यार को जाहिर करने के लिए भंगी कॉलोनी में रहे. इसलिए गांधी के नाम की कसमें खाने वाले राज्य के लिए जरूरी था कि वो इस अमानवीय काम को गैरकानूनी करार दे और इसमें लगे लोगों की बहाली को अपनी प्राथमिकताओं में ऊपर रखे. लेकिन इसकी जगह इसने इस मुद्दे को टाल देना पसंद किया, जिसके लिए इसने समितियों और आयोगों के गठन की अपनी आजमाई हुई तरकीब की मदद ली. इससे पता लगता है इस मुद्दे को लेकर राज्य के सरोकार क्या हैं और इसी के साथ साथ किस तरह ये पूरे 46 बरस इससे निबटने से बचती रही.

खेल 1949 में ही शुरू हो गया था और अब भी जारी है. तब की बंबई सरकार ने 1949 में वी.एन. बर्वे की अध्यक्षता में एक समिति बनाई जिसको स्कैवेंजर्स लिविंग कंडिशन्स इन्क्वायरी कमेटी के नाम से जाना जाता था. इसे सफाईकर्मियों की जीवन स्थितियों का अध्ययन और पड़ताल करना था और उनके काम की मौजूदा स्थितियों को बेहतर करने के रास्ते और साधनों के सुझाव देने थे. समिति ने 1952 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी. 1955 में गृह मंत्रालय ने इस समिति की मुख्य सिफारिशों की एक प्रति सभी राज्य सरकारों को यह गुजारिश करते हुए भेजी कि वे इन सिफारिशों को अपनाएं. लेकिन कुछ नहीं हुआ. 1957 में, गृह मंत्रालय ने खुद एन. आर. मल्कानी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की ताकि मैला साफ करने की प्रथा को खत्म करने के लिए एक योजना तैयार की जा सके. समिति ने 1960 में अपनी रिपोर्ट सौंपी. इसकी सिफारिशों में से एक में यह सुझाव दिया गया था कि विभिन्न सिफारिशों को लागू करने के लिए राज्य और केंद्र सरकार को मिल कर चरणबद्ध योजना बनानी होगी ताकि इस प्रथा को तीसरी पंचवर्षीय योजना के अंदर ही खत्म किया जा सके. यह सुझाव अपनी मौत मर गया और 1965 में सरकार ने सफाईकर्मियों की जजमानी के खात्मे के सवाल की जांच-पड़ताल करने के लिए एक और समिति नियुक्त की. अपनी रिपोर्ट में समिति ने अपनी सिफारिशों में जजमानी के उस ढांचे को खत्म करने को कहा जिसमें नगर निगम से अलग निजी शौचालयों की सफाई सफाईकर्मियों की एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत में मिलती रहती थी. यह सिफारिश भी ठंडे बस्ते में डाल दी गई. 1968-69 में राष्ट्रीय श्रम आयोग ने सफाईकर्मियों के कामकाज, सेवाओं और जीवन स्थितियों के नियमन के लिए व्यापक कानून बनाने की सिफारिश की. गांधी जन्मशती वर्ष (1969) के दौरान सूखे शौचालयों को फ्लश वाले शौचालयों में बदलने की एक विशेष योजना शुरू की गई लेकिन यह पांचवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान अपने पायलट स्टेज में ही नाकाम रही और इसलिए छठी योजना के दौरान इसे छोड़ दिया गया. 1980 में गृह मंत्रालय ने सूखे शौचालयों को बंद गड्ढों वाले सेनिटरी शौचालयों में बदलने और काम से छुटकारा पाए सफाईकर्मियों और उनके आश्रितों की चुने हुए शहरों में सम्मानजनक पेशों में बहाली की एक योजना शुरू की. 1985 में योजना को गृह मंत्रालय से कल्याण मंत्रालय के हाथों में दे दिया गया. 1991 में योजना आयोगन ने इसे दो हिस्सों में बांट दिया; शहरी विकास और ग्रामीण विकास के मंत्रालयों को सूखे शौचालयों को बदलने का जिम्मा दिया गया और कल्याण मंत्रालय (मई 1999 में इस मंत्रालय का नाम बदल कर सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण मंत्रालय कर दिया गया) को सफाईकर्मियों की बहाली का जिम्मेदार बनाया गया. 1992 में कल्याण मंत्रालय ने सफाईकर्मियों और उनके आश्रितों के लिए मुक्ति और पुनर्वास की राष्ट्रीय योजना की शुरुआत की लेकिन इसका भी कोई फायदा नहीं हुआ. यह थोड़ा सा ब्योरा ही मैला साफ करने के इस घिनौने मुद्दे पर राज्य के दोमुंहेपन को उजागर करने के लिए काफी है.

आपराधिक अनदेखी

जैसा कि देखा जा सकता है, भारत के संविधान के अनुच्छेदों 14, 17, 21 और 23 को मैला साफ करने की प्रथा को रोकने के संदर्भ में लिया जा सकता है. मिसाल के लिए अनुच्छेद 17 को अमल में लाने के लिए लागू की गई नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 (पहले इसे अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम 1955 के रूप में जाना जाता था) की धाराएं 7 ए और 15 ए सफाईकर्मियों को मुक्ति के प्रावधान मुहैया कराती हैं और जो लोग मैला साफ करने प्रथा को जारी रखे हुए हों, उनके लिए सजा का भी प्रावधान था. इस तरह यह दलील दी जा सकती है कि इम्प्लॉयमेंट ऑफ मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैट्रिन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट, 1993 की जरूरत नहीं थी. इस अधिनियम पर 5 जून, 1993 को राष्ट्रपति की मुहर लगी लेकिन यह भारत के राजपत्र (गजट) में 1997 तक प्रकाशित नहीं हो पाया और 2000 तक किसी भी राज्य ने इसकी घोषणा नहीं की थी. सरकार के लगातार बने हुए नाकारेपन से आक्रोशित एसकेए ने, जिसे सफाईकर्मियों के बच्चों ने 1994 में शुरू किया था, नागरिक समाज के छह दूसरे संगठनों और सफाईकर्मियों के समुदाय के सात व्यक्तियों के साथ मिल कर दिसंबर 2003 में सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करनी पड़ी, जिसमें दिशानिर्देशों और सरकार के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही की मांग की गई. एसकेए तो विभिन्न राज्य सरकारों के नकारने वाले रुख का मुकाबला 12 बरसों की लड़ाई के दौरान भारी मात्रा में आंकड़ों के साथ करना पड़ा, जिसके बाद आखिर में उसे 27 मार्च 2014 को सर्वोच्च न्यायालय से एक सहानुभूति से भरा फैसला हासिल हुआ.

अदालत ने बाकी बातों के अलावा सरकार को इस बात के निर्देश दिए कि 1993 से सफाई (सीवर की सफाई समेत) के दौरान हुई हरेक मौत पर 10 लाख रुपए का मुआवजा दिया जाए. भीम यात्रा के दौरान 1268 ऐसी मौतें दर्ज की गई थीं, जिसमें से सिर्फ 18 को ही मुआवजा मिला था. एक साल पहले सरकार ने एक और अधिनियम में इजाफा किया, हाथ से मैला ढोने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 [प्रोहिबिशन ऑफ इम्प्लॉयमेंट एज मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड देअर रिहैबिलिटेशन एक्ट, 2013]. लेकिन जमीनी हकीकत में कोई बदलाव नहीं आया. जहां राज्य सरकारें 1993 अधिनियम की घोषणा के बाद इस प्रथा के वजूद से ही इन्कार करती रही हैं, 2011 की जनगणना में भारत भर में 794,000 मामले पाए गए हैं. इस कानून के सबसे बड़े उल्लंघनकर्ता सरकार के अपने ही विभाग हैं. मिसाल के लिए भारतीय रेल में ऐसे डिब्बे हैं जिनके शौचालयों से मल इसकी पटरियों पर गिरता है, जिसको अनगिनत सफाईकर्मियों द्वारा साफ किया जाता है. प्रधानमंत्री ने आडंबरपूर्ण तरीके से अपने स्वच्छ भारत अभियान के तहत भारत को 2019 तक मैला ढोने वालों से मुक्त करन देने की घोषणा तो की है, और वे भारत में बुलेट ट्रेन नेटवर्क लाने की बातें भी कर रहे हैं, लेकिन वे इसका कोई समय नहीं बता पाए हैं कि रेलवे कब तक अपने मौजूदा शौचालयों को बदल कर उनकी जगह जैव-शौचालय लाएगा.

यह बेपरवाही क्यों?

केंद्र सरकार के बयान में उनकी राजनीतिक इच्छा की कमी को साफ देखा जा सकता है, जो उन्होंने 19 अप्रैल को बजाहिर एसकेए की भीम यात्रा के जवाब में जारी किया है कि चूंकि वे राज्यों से आंकड़े नहीं जुटा पाए हैं, इसलिए वे किसी एजेंसी के जरिए देश भर में मैला साफ किए जाने की घटनाओं का सीधा सर्वेक्षण कराएंगे. इसका अंदाजा लगाने के लिए समझदार होना भी जरूरी नहीं है कि यह सर्वेक्षण संघर्षरत सफाई कर्मचारियों को थका देने के लिए सरकार को एक और दशक की तोहफे में दे देगा. लेकिन आखिर एक ऐसी सरकार अपने इस हमेशा से चले आ रहे शर्म के साथ जीना क्यों चाहती है, जो दुनिया भर के मामलों में एक नेतृत्वकारी भूमिका हासिल करने के सपने देख रही है? जवाब बहुत मुश्किल नहीं है. भारत में राजनीतिक इच्छा की बुनियाद में चुनावी गुणा-भाग होता है. सफाईकर्मियों का छोटा सा समुदाय निराशाजनक रूप से बिखरा हुआ है, वे हरेक जगह घेरे में बंद हैं. वे सिर्फ व्यापक समाज से ही नहीं बल्कि दलित समुदाय से भी अलग थलग हैं. अपने आप में यह समुदाय किसी भी राजनीतिक दल के चुनावी हिसाब-किताब के लिहाज से गैर अहम है. शासक वर्गों के लिए मुश्किल सिर्फ एक ही है और वो ये है कि यह एक राष्ट्रीय शर्म की बात है, जैसे कि शुरुआती सुधारकों के लिए छुआछूत हुआ करती थी. छुआछूत की तरह, मैला साफ करने की प्रथा सामंती संस्कृति से बंधी हुई है, जिसको छेड़ने का मतलब बहुसंख्यक समुदाय की नाराजगी को मोल लेना है. चूंकि ये छुआछूत के खात्मे के साथ हो चुका है, यह मैला साफ करने की प्रथा के खात्मे के साथ भी हो सकता है, जो असल में छुआछूत का ही सबसे गंभीर चेहरा है! बेहतर यही है कि उन्हें वक्त के भरोसे रख कर थका दिया जाए और साथ में एक चुनावी झुनझुना भी दे दिया जाए ताकि इस मुद्दे के साथ खेलना मुमकिन रहे. 

इस तरह जहां इस समस्या पर शासक वर्ग के रुख को समझना आसान है, वहीं मैला साफ करने वाले कर्मचारियों के प्रति दलित आंदोलन की बेपरवाही कहीं ज्यादा उलझन में डालने वाली है. मुख्यधारा के दलित आंदोलन ने कभी भी उतनी गंभीरता से मैला साफ करने के मुद्दे को नहीं उठाया, जितनी गंभीरता की मांग यह करता है. दलित आंदोलन की बुनियादी रणनीति प्रतिनिधित्व की रही है. इसलिए बाबासाहेब आंबेडकर ने राजनीति में आरक्षण को हासिल किया और इसके बाद इसे सार्वजनिक रोजगार में भी लागू किया (क्योंकि रोजगार के लिए शिक्षा पूर्वशर्त है). उन्होंने उम्मीद की थी कि दलित राजनेता दलित जनता के राजनीतिक हितों की हिफाजत करेंगे और नौकरशाही में दाखिल होनेवाले ऊंची शिक्षा पाए दलित उनके लिए एक बचाव की ढाल का काम करेंगे. इस तरह, दलित जनता की भौतिक समस्याओं से सीधे तौर पर नहीं निबटा गया. इसलिए आरक्षण दलित आंदोलन की अकेली चिंता बन गई जिसने मेहनत करनेवाले दलितों से जुड़े मुद्दों से दूरी बना ली. पिछले सात दशकों में दलितों में मध्य वर्ग की जो एक पतली सी परत वजूद में आई है, उसने सचमुच में खुद को दलित जनता से अलग कर लिया है और इसे अपनी एक सनक में तब्दील कर दिया है.

यह बात आंखें खोल देने वाली थी कि भीम यात्रा में एक भी 'आंबेडकरी' इसके आसपास नहीं देखा गया जबकि इसके एक प्रेरक प्रतीक के रूप में अंबेडकर की प्रभावशाली मौजूदगी वहां थी. सभी उल्लेखनीय प्रगतिशील व्यक्तियों ने गरीब सफाईकर्मियों के संघर्ष के साथ एकजुटता जाहिर करते हुए अपनी मौजूदगी दर्ज कराई, लेकिन स्वयंभू अंबेडकरी ही वो खास लोग थे जो वहां से नदारद थे.

Posted by Reyaz-ul-haque on 5/08/2016 03:50:00 PM




जनवादी अधिकार कार्यकर्ता और चिंतक आनंद तेलतुंबड़े ने यह इंटरव्यू हाल ही में मलयालम साप्ताहिक माध्यमम को दिया था.  अनुवाद: रेयाज उल हक
 

सवाल: आपने अक्तूबर 2015 के ईपीडब्ल्यू में अपने लेख में इसे सटीक तरीके से दर्ज किया है कि डॉ. बीआर आंबेडकर की जिंदगी के मुख्य मकसद जाति के खात्मे को भुला कर उनके स्मारक खड़े करने के क्या खतरे हैं. हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहिथ वेमुला का हादसा और फिर देश भर में उसके बाद हुई घटनाओं ने बिना किसी संदेह के इसे साबित कर दिया कि जाति का जो खात्मा आंबेडकर के विचारों का मर्म था, वो अभी भी अधूरा सपना बना हुआ है.

जवाब: सचमुच ऐसा ही है. जबकि आंबेडकर ने साफ साफ जातियों के उन्मूलन को लक्ष्य के रूप में देखा था; उनकी कार्यनीति (टैक्टिक्स) प्रतिनिधित्व पर निर्भर थी. इन दोनों के बीच जो तीखा विरोधाभास है उसे नरम करने के लिए मैं जानबूझ कर इसे 
कार्यनीति कह रहा हूं. शुरू से ही उन्होंने देखा और शायद उन्हें अपने खुद के अनुभवों से हौसला भी मिला था कि अगर कुछ दलितों को कानून बनानेवाली संस्थाओं (विधायिका) में भेजा गया तो वे दलित जनता के हितों का खयाल रखेंगे. इस नजरिए के साथ, उन्होंने दलितों के लिए उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व हासिल करने के लिए संघर्ष किया. यह अलग बात है कि इस जीत को गांधी की ब्लैकमेलिंग की रणनीति ने नाकाम कर दिया, जिसने उन्हें पूना समझौते पर दस्तखत करने के लिए मजबूर कर दिया. लेकिन इसी पूना समझौते ने जैसे शैक्षणिक संस्थाओं और सार्वजनिक रोजगारों जैसे दूसरे आरक्षणों की राह खोल दी. शुरू शुरू में वे तरजीही नीतियां बने रहे (जिसमें कुछ लोगों को आगे बढ़ाने में तरजीह दी जाती थी) क्योंकि ऐसा माना गया कि आरक्षण को संस्थागत बनाने के लिहाज से उतने दलित नहीं थे. लेकिन जब आंबेडकर वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य बने, तो उन्होंने एक सीधा-सा नोट लिखा, जिसे वायसराय ने मंजूर कर लिया और इस तरह 1943 में एक कोटा सिस्टम लागू हुआ. मैं यह दलील दे सकता हूं कि इन दोनों में कोई विराधाभास नहीं था, क्योंकि जातियों को उनके हिंदू कुनबे से अलग कर दिया गया था और अब वे 'अनुसूचित जातियों' की एक प्रशासनिक श्रेणी बन गई थीं. बदकिस्मती से, नतीजा इसी अर्थ में सामने नहीं आया. उपनिवेशवाद के बाद के भारत में, जिन देशी अभिजातों के हाथ में सत्ता की बागडोर आई, उनके पास ब्राह्मणवादी चालाकी और उसके भीतर औपनिवेशिक मालिकों से सीखी गई तरकीबें थीं और वे आसानी से इस बात को यकीनी बना सके कि संविधान में प्रतिष्ठित जातियां और धर्म (एक दूसरा कारक) अवाम को बांटने का एक हथियार बने रहें. जातियों पर आधारित आरक्षण जातियों के उन्मूलन का विरोधाभासी बन गया, क्योंकि इसने ऊपर जाने की उम्मीद कर रहे दलितों के एक तबके में निहित स्वार्थ विकसित कर दिए, और फिर यह अवाम के लिए एक आदर्श (रोल मॉडल) बन गया. इसमें मदद किया चुनाव की फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट की व्यवस्था ने, जिसमें सबसे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवार को प्रतिनिधि चुन लिया जाता है. यह असल में भारत जैसे एक देश के लिए सबसे प्रतिकूल व्यवस्था है, जो निराशाजनक रूप से जातियों, समुदायों, भाषाओं, जातीयताओं वगैरह में बंटा हुआ था और यहां इस व्यवस्था को लोकतांत्रिक शासन के एक औजार के रूप में अपनाया गया. इन दोनों का मेल जातियों के खात्मे के खिलाफ एक खतरनाक मोर्चाबंदी बन गया.

हैदराबाद विश्वविद्यालय में हुई घटनाओं और रोहिथ की बदकिस्मत खुदकुशी ने शासक वर्गों के रवैए को साफ-साफ उजागर किया है, जो दलितों से पिछले किसी भी समय के मुकाबले सबसे ज्यादा प्यार दिखा रहे हैं. और जब वे यह सब कर रहे हैं और सब कुछ को दांव पर लगा कर आंबेडकर को एक प्रतीक के रूप में स्थापित कर रहे हैं, वहीं वे रेडिकल दलित नजरिए के उभरने को बर्दाश्त नहीं करेंगे. वो उन्हें उग्रवादी, राष्ट्र-विरोधी वगैरह कह कर बदनाम करेंगे, और यह इसके लिए काफी है कि दलित उन्हें नकार दें. दलित जनता ने, राज्य के छिपे हुए समर्थन से अपने मध्य वर्ग के असर में आंबेडकर का सरलीकरण कर दिया है. इस सरलीकृत आंबेडकर की एक धारणा यह है कि वे किसी भी तरह के उग्रवाद और रेडिकलिज्म के खिलाफ थे. इस धारणा के साथ वे आसानी से उन दलित नौजवानों को खारिज कर देंगे, जो रेडिकल आवाजें उठाते हैं. रोहिथ की मौत ने असल में भावनाओं को झकझोरा, लेकिन वो अभी भी दलितों में अपना रेडिकल संदेश नहीं जगा पाया जो जातियों के खात्मे की बात करता है. सभी छात्र संगठनों से मिले भारी समर्थन के बावजूद, जिसने एक वक्त पर एबीवीपी को पूरी तरह अलग-थलग कर दिया था, इसको रेडिकल संभावनाओं के बिना बस पहचान (आइडेंटिटी) के आधार पर ही उठाया जा रहा है.

सवाल: रोहिथ वेमुला के हादसे और जेएनयू में संघर्ष ने कम से कम कैंपसों में वामपंथ और आंबेडकरी आंदोलनों के बीच गठबंधन की संभावनाओं को पेश किया है. क्या आप सोचते हैं कि दोनों धाराओं के बीच बनी इस नई नई करीबी को भाजपा और संघ परिवार की सांप्रदायिकता को कारगर तरीके से चुनौती देने और उसका मुकाबला करने के लिए एक संगठित शक्ल दी जा सकती है.

जवाब: बेशक, मैं सोचता हूं कि हमारे कैंपसों के नौजवान ही वो अकेली ताकत हो सकते हैं जो उत्पीड़ित अवाम की राजनीति की विचारधारात्मक गड़बड़ियों को साफ कर सकते हैं. हमारे कैंपसों से आने वाले संकेत खासे हौसला बढ़ाने वाले हैं. हैदराबाद विवि का मामला भाजपा की रणनीति का हिस्सा था कि राष्ट्रवाद-विरोध, उग्रवाद वगैरह के हौवे को खड़ा करके छात्रों को दो अलग अलग खेमों में बांट दिया जाए. उन्होंने हैदराबाद विवि को चुना क्योंकि यह दलित छात्रों की रेडिकल आवाजों का केंद्र बन गया था. अगर वो यहां कामयाब रहे तो उनके छात्र संगठन के लिए दूसरे कैंपसों में और खास कर दलित छात्रों के बीच जगह बनाना बहुत आसान हो जाएगा. लेकिन उनकी बदकिस्मती से, रोहिथ की बदकिस्मत मौत ने पूरे मामले को पलट दिया. फिर सावधानी बरतते हुए उन्होंने जेएनयू को चुना और उन्होंने ऐसा ही मामला वहां गढ़ा, लेकिन इससे दलित पहलू को बाहर रखा. वहां यह सिर्फ राष्ट्रवाद-विरोध, देशभक्ति वगैरह का मामला था. लेकिन इसने वहां कन्हैया पैदा कर दिया. जेएनयू छात्रों ने जो सबसे अच्छी बात की, वो ये थी कि उन्होंने इसे रोहिथ के संघर्ष के साथ जोड़ दिया. इसने विचारधारात्मक बंटवारों (मैं इसे गड़बड़झाला कहूंगा) को दबा दिया और संघर्ष को उन सवालों पर टिकाया, जिनका सामना आज जनता कर रही है. ऐसा करने के लिए मैं कन्हैया को पूरे अंक दूंगा क्योंकि मैं सोचता हूं कि जनसंघर्षों का आज यही तरीका होना चाहिए. मार्क्स और आंबेडकर में से कोई भी (किसी और को तो छोड़ ही दीजिए) आपको इन शासक वर्गों से लड़ने के सारे साधन नहीं दे सकता है, जिनका जानकारियों और आधुनिक तकनीक से लैस राज्य 
अभूतपूर्व ढंग से ताकतवर है. हम जिस दुनिया में रह रहे हैं, उसे न तो मार्क्स ही पहचान पाएंगे और न आंबेडकर और इसलिए हमें अपने संघर्षों के लिए अपनी रणनीतियां खुद बनानी होंगी. मार्क्स, आंबेडकर और उनके जैसे अनेक महान लोग हमें राह दिखा सकते हैं, हमें प्रेरणा दे सकते हैं लेकिन हमें अपनी लड़ाइयों के लिए बने बनाए औजार और साज-सामान नहीं मुहैया करा सकते. 

इस प्रक्रिया में मुश्किलें आ सकती हैं. मिसाल के लिए, जब हैदराबाद विवि में सभी छात्र संगठन एक साथ आए, तो मैंने वहां छात्रों के कुछ नेतृत्वकारी लोगों को सलाह दी थी कि एबीवीपी को अलग करके इस एकता को एक संगठनात्मक शक्ल दें. यह हिंदुत्व या सांप्रदायिकता के खिलाफ मोर्चा या ऐसा ही कोई नाम हो सकता था. यह बड़ी आसानी से हो सकता था, जब हैदराबाद विवि में लोहा गर्म था और फिर उसको आसानी से दूसरी जगह अपनाया जा सकता था. लेकिन बदकिस्मती से ऐसा नहीं हो पाया. मैंने अपने तरीके से इसमें कोशिश की, लेकिन वह कारगर नहीं रही. इसकी जगह पर 'जस्टिस टू रोहिथ' के लिए बनाई गईं ज्वाइंट एक्शन कमेटियां धीरे धीरे और भीतर ही भीतर पहचान (आइडेंटिटी) की पुरानी लीक पर चलने लगीं जिन्होंने प्रतिक्रियावादी तत्वों का हौसला बढ़ाया कि वे कन्हैया को भूमिहार के रूप में देखें. मौजूदा हालात में इससे ज्यादा बदकिस्मत बात कुछ नहीं हो सकती है. लेकिन अभी भी मुझे इसका भरोसा है कि छात्र इन मुश्किलों को पार कर लेंगे. इस राह में अनेक और बाधाएं हो सकती हैं. मिसाल के लिए, शासक वर्ग ने जेएनयू के छात्रों पर कड़ी सजाएं थोप दी हैं, जिसके खिलाफ वे भूख हड़ताल पर हैं. उन्हें इसका अहसास होगा कि आने वाले कल में क्या करना बेहतर होगा. मुझे यकीन है कि वे भाजपा/एबीवीपी की मिली जुली शैतानी साजिशों को हरा देंगे. जहां तक आंबेडकर और मार्क्स के बीच अनोखी एकता की बात है, जेएनयू के छात्र इस मामले में एकदम सही रास्ते पर हैं. उन्होंने जो तरीका अपनाया है, वो मायावतियों और उनके चेलों की जातिवादी दलीलों को अप्रासंगिक बना देगा. मुझे इसको लेकर खासी उम्मीद है कि ये लड़के और लड़कियां वह करेंगे जो अब तक नहीं किया गया है. क्योंकि अगर वे नाकाम रहे, तो भारत के लिए उम्मीद ही खत्म हो जाएगी.


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