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Thursday, March 29, 2012

राजकाज और समाज

राजकाज और समाज


Thursday, 29 March 2012 10:39

गिरिराज किशोर 
जनसत्ता 29 मार्च, 2012: हम क्या यह कह सकते हैं कि कोई ऐसी सरकार हमारा समाज नियंत्रित कर रही है जिसमें आत्म-सम्मान हो, जो समाज और जन से प्रतिबद्ध हो, जिसमें सत्ता से अधिक जन-मन का हित-चिंतन हो? हम शायद भूल गए हैं कि सरकारें कैसी होती हैं और कैसी होनी चाहिए। हमारा संविधान बताता है कि हम एक जनतंत्र हैं। हमारी प्रतिबद्धताएं प्रजातंत्र के प्रति हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि हम स्वार्थ-तंत्र बन कर रह गए हैं। जन, यानी मतदाता के स्तर पर भी और सत्ता यानी सरकार के स्तर पर भी। सब देश और समाज से पहले अपना स्वार्थ सोचते हैं। यह क्या जनतंत्र का नया मॉडल तैयार किया जा रहा है? इस बार यूपीए सरकार और उसकी एक सहयोगी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने मिल कर जो किया है, वह लोकतंत्र का अपमान है। जब लोग कमजोरी का फायदा अपने हित में उठाने लगते हैं तो यह शक्ति का प्रतीक कम और जबर्दस्ती का प्रमाण अधिक होता है।
यूपीए सरकार में दिनेश त्रिवेदी तृणमूल कांग्रेस की नेता और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा मनोनीत किए गए रेलमंत्री थे। पहली बार रेल बजट पेश कर रहे थे। नौ साल बाद पहली बार यात्री किराया बढ़ाने का प्रस्ताव बजट में रखा गया था, केवल इसलिए कि इन नौ सालों में रेलें और यात्री बढ़े, पटरियां टूटीं, दुर्घटनाएं बढ़ीं, सुरक्षा कम क्या खत्म हुई, प्रशिक्षण नहीं के बराबर है। यथार्थ को पकड़ने वाले एक मंत्री ने रेल बजट वोट के लिए नहीं देश के पक्ष में यह मान कर तैयार किया कि सुरक्षा, मजबूती, सफाई आदि चाहिए तो किराया बढ़ाना होगा।
अभी तक रेल बिहार की बपौती थी, ममता बनर्जी के दुबारा मंत्री बनने पर रेल मंत्रालय उनके आग्रह पर उनके पास चला गया था। जब वे मुख्यमंत्री बन कर कोलकाता चली गर्इं तो रेलवे की मिल्कियत बंगाल के पास लौट गई। उन्होंने अपना उत्तराधिकारी अपनी पार्टी के वरिष्ठ सदस्य दिनेश त्रिवेदी को बना दिया। रेल मंत्रालय प्रमुख मंत्रालयों में है। सवाल है कि मिलीजुली सरकार बनने पर मंत्रालय चलाने की जिम्मेदारी और अधिकार उस पार्टी के पास स्थानांतरित हो जाता है जिस पार्टी का वह मंत्री सदस्य होता है? क्या ऐसा कोई संवैधानिक प्रावधान है या यह एक सुविधा का रास्ता है जिसका अनुगमन सत्ताधारी पार्टी और सहयोगी पार्टी के शक्ति-संतुलन के हिसाब से होता है। 
मंत्रिमंडल का सामूहिक दायित्व होता है, प्रधानमंत्री समन्वयक हैं। बाहरी व्यक्ति, चाहे वह सत्तारूढ़ गठबंधन के घटक दल का सुप्रीमो हो, अगर मंत्रिमंडल का सदस्य नहीं है तो वह कैसे उसके फैसलों को प्रभावित कर सकता है? क्या राष्ट्र, संविधान और राजधर्म के विरुद्ध जाकर, संविधानेतर शक्ति बन कर वह सरकार के निर्णय को मनचाहे ढंग से प्रभावित कर सकता है?
ममता बनर्जी कोलकाता से आर्इं और यह डर दिखाया कि अगर उनकी बात नहीं मानी गई तो वे समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा देंगी। अब सवाल उठता है कि कांग्रेस, जो यूपीए की सबसे बड़ी हिस्सेदार है, क्या समर्थन वापस लेने के डर से देश और जनहित की बात को नजरअंदाज कर देगी? प्रधानमंत्री को संदेशवाहक की स्थिति में पहुंचा देगी? यह कैसा शासन है? रेल के मामले में ममता बनर्जी या तृणमूल की नीति चलेगी, फिर तो न प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री हैं और न मंत्रिमंडल, मंत्रिमंडल है। जितने घटक दल हैं वे सब अपने आप में स्वायत्त हैं। यह राष्ट्र-हित में सहयोग न होकर सुविधा और स्वार्थ में सहयोग और समझौता है।
रेल बजट ममता बनर्जी के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं था बल्कि वे उसकी आलोचना करके उसे अपनी तरह ढालना चाहती थीं। यूपीए सरकार के लिए त्रिवेदी का जाना बड़ी बात नहीं थी बल्कि कांग्रेस और यूपीए के दूसरे घटकों के सामने मुख्य सवाल यह है कि वे तृणमूल के बढ़ते दबाव का कितना मूल्य चुकाएं? अगर इसी तरह का ढंग रहा तो कांग्रेस और दूसरे दल भी सोचने को बाध्य हो जाएंगे कि तृणमूल के साथ मिल कर सरकार चलाने में कोई भविष्य नहीं। जब भी सरकार के सामने कोई संकट आता है ममता उसका राजनीतिक लाभ उठाने से नहीं चूकती हैं।
शरद पवार भले ही मनमोहन सिंह के वक्तव्य से नाराज हुए हों, लेकिन यह सही है कि एक घटक दल के कारण भी सरकार के लिए कोई निर्णय लेना कठिन हो जाता है। त्रिवेदी का जाना कांग्रेस के लिए महत्त्व रखे या न रखे, देश के लिए रखता है। त्रिवेदी जैसा व्यक्ति, जो यह कहने की क्षमता रखता हो कि रेलवे राइटर बिल्डिंग से नियंत्रित नहीं होता और मैंने ममता बनर्जी से इस बारे में कोई सलाह नहीं ली, राजनीति में मुश्किल से मिलता है। उन्होंने तब तक त्यागपत्र नहीं दिया जब तक ममता ने स्वयं बात नहीं की। 
सबसे दुखद बात यह है कि अव्वल तो इस तरह के राजनीतिक होते नहीं जो पद की कीमत पर किसी मुद्दे पर खड़े हो सकें। दूसरी दुखद बात है कि देश में तो जनतंत्र के मूल्यों का ह्रास हो ही रहा है, राजनीतिक दलों के अंदर जनतंत्र का दम घोंटा जा रहा है। नेहरू ने स्वयं सहकारी खेती का प्रस्ताव कांग्रेस पार्टी के सामने रखा था और चंद्रभानु गुप्त और चौधरी चरण सिंह के विरोध करने पर वह गिर गया था, तो ऐसा नहीं कि उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया हो। अब सदन में अश्लील फिल्म देखने पर निकाला जाए या न निकाला जाए, पर हाईकमान का विरोध करके बचना असंभव है। 

तीसरी बात, ममता अपने ही वरिष्ठ सदस्य को, उनसे सहमत न होने पर मंत्री-पद से हटवा सकती हैं, फिर रेल राज्यमंत्री के रूप में प्रधानमंत्री की   हुक्मउदूली करने वाले को सरकार गिराने का डर दिखा कर, प्रधानमंत्री के सिर पर रेलमंत्री के रूप में आसानी से थोप सकती हैं। अपना सम्मान सम्मान, दूसरे का सम्मान कुछ नहीं? कांग्रेस को भी अपने नेता के सम्मान की रक्षा के बारे में सोचना चाहिए। अगर जनरल का अपमान होता है, तो बाकी सेना का सम्मान कैसे बचेगा?
मुगल काल के पतन के समय जानसठ के सैयद बंधु दिल्ली के तख्त पर बादशाहों को उतारते-बैठाते थे। सिर्फ इसी बात के चलते वे इतिहास में आ गए। क्या हमारा लोकतंत्र भी उसी तरफ जा रहा है? जनतंत्र में संसद जनप्रतिनिधियों की सबसे बड़ी पंचायत होती है, नेता सदन (यानी प्रधानमंत्री) सारे राजनीतिक दिशा-निर्देश देता है। उसकी सहायता मंत्रिमंडल करता है। प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं। लेकिन संभवत: हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र का नया इतिहास लिखा जा रहा है। 
प्रधानमंत्री संसद की जगह सत्तारूढ़ गठबंधन की हिस्सेदार पार्टियों के प्रति उत्तरदायी होने के लिए मजबूर हैं। गठबंधन सरकारें प्रधानमंत्री की स्थिति को कमजोर कर रही हैं। साझा सरकार में अपेक्षया अधिक सदस्यों वाली पार्टियां सैयद बंधु की तर्ज पर प्रधानमंत्री की रास अपने हाथ में रखती हैं और ममता की तरह हर मौके पर यह बताती रहती हैं कि तुम हमारे रहमो-करम पर ही इस कुर्सी पर हो, हम जब चाहे तुम्हारी कुर्सी के नीचे से अपने समर्थन का कालीन खींच सकते हैं। 
द्रमुक और तृणमूल इसके उदाहरण हैं। इस बार दोनों पार्टियों ने खेल खेला है। द्रमुक ने तो एक पड़ोसी देश के साथ संबंध खराब होने की कीमत पर अपनी बात मनवाई। अब उस पड़ोसी देश ने साफ कह दिया कि कश्मीर के मसले पर दिखा देंगे कि हम क्या करते हैं। गठबंधन सरकार में सबसे बड़ी पार्टी का नेता प्रधानमंत्री होता है; अगर वे सत्ता खोने के भय से इतना झुक जाते हैं कि सीधे खड़े होने की आदत छूटती जाती है तो मुश्किल होगी।
प्रधानमंत्री को अंदरूनी मामलों को ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय संबंधों को भी देखना होता है। 1937 में भी यह हो चुका है जब मुसलिम लीग और कांग्रेस की संयुक्त सरकार थी। तत्कालीन वित्तमंत्री लियाकत अली खां अपनी पार्टी के सदस्यों की समांतर सरकार चलाते थे। प्रधानमंत्री के लिए यह सबसे ज्यादा असुविधाजनक स्थिति थी। शायद यह सब ब्रिटिश हुकूमत के इशारे पर हो रहा था। लेकिन आज तो ऐसी कोई बंदिश नहीं। शायद स्वार्थ और सत्ता-लोलुपता इतनी बढ़ गई है कि छोटे दलों के नेता बिना इस बात का ध्यान किए कि उनसे बड़ा जन-समर्थन दूसरी पार्टी के साथ है, अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए वे उस जन-समर्थन को भी नकारने में गुरेज नहीं करते हैं। उन्हें सदन के नेता का और अपनी पार्टी से भेजे गए मंत्रियों का, स्वतंत्र निर्णय लेकर देश के हित में काम करना पसंद नहीं आता। 
यह दूसरी घटना है जब संविधान और देश को पार्टी से ऊपर मान कर पार्टी-प्रमुख को यह समझाने का प्रयत्न किया गया तो रेलमंत्री बाहर हो गए। इससे पहले माकपा ने अपने एक नेता सोमनाथ चटर्जी पर जोर डाला था कि पार्टी के यूपीए से हट जाने के कारण उन्हें भी लोकसभा अध्यक्ष का पद छोड़ देना चाहिए, लोकसभा अध्यक्ष को समझा जाता है कि वह निर्दलीय है। उनके मना कर देने पर उन्हें पार्टी-बदर कर दिया गया था। पिछले चुनाव में माकपा के हारने का एक कारण यह भी था।
अपने एक साक्षात्कार में दिनेश त्रिवेदी ने स्पष्ट किया है कि उन्होंने वही किया जो किसी भी रेलमंत्री को करना चाहिए था। उन्होंने यह भी कहा कि कोई एक आदमी पार्टी नहीं तोड़ सकता, पार्टी को जनता ही तोड़ती है, जनता ही बनाती है। हमारे ज्यादातर राजनीतिकों ने देश के बारे में सोचना बंद कर दिया है। सत्ता में पहुंच कर अपने संसाधन और झूठी प्रतिष्ठा को मजबूत करना ही उनका उद्देश्य रहता है। लोकपाल के सवाल पर सब राजनीतिक पार्टियां इसीलिए दोहरी बातें करती रहीं क्योंकि उन्हें अपने-अपने दामन पर लगे दाग नजर आने लगे। एक सदन में विधेयक पास किया, दूसरे में किसी न किसी बहाने से रोक दिया। जब पार्टियों के अंदर जनतंत्र नहीं होगा तो देश में कैसे होगा!
अगर  ममता जी देश के प्रति जिम्मेदार अपने सहयोगी को प्रधानमंत्री पर दबाव डाल कर हटा सकती हैं तो देश भी उन्हें हटा सकता है। जनता ऐसा पहले कई बार कर चुकी है, राज्यों के स्तर पर भी और केंद्र के स्तर पर भी। सरकारें जब नेताओं के व्यक्तिगत हितों और रुचियों का पोषण करने में लग जाती हैं तो उनकी साख घटने लगती है। अब जनता को लगने लगा है कि उसके और सरकार के बीच न्यूनतम संबंध रह गया है। इसका नतीजा किसी के लिए भी ठीक नहीं होगा।

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