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Friday, February 1, 2013

मरते हाथी बेघर होते आदिवासी

मरते हाथी बेघर होते आदिवासी



छत्तीसगढ़ सरकार की दोहरी नाकामी 

गरीब आदिवासियों की बस्तियां मलबे में तब्दील हो चुकी हैं. वे अब वन विभाग द्वारा बनाए गये अस्थायी कैंपों में शरण लिए हुए हैं. जंगली इलाकों में जो आदिवासी बस्तियां हैं सरकार ने उनके पुर्नवास के लिए जमीन के पट्टे दिए हैं. लेकिन आदिवासी मातृभूमि का मोह नहीं छोड़ पा रहे...


संजय स्वदेश

विकास के नाम पर योजनाओं की आड़ लेकर गरीब-आदिवासियों के हटाने और उनके पुर्नवास को लेकर संघर्ष की खबर कोई खबर नहीं हैं. बेघर होने पर सरकार से संघर्ष के तरीके की रोचकता के अनुसार ऐसी खबरों को मीडिया में जगह मिल जाती है, लेकिन उस स्थिति में क्या जब विस्थापन करने वाली सरकार और भूमाफिया नहीं, बल्कि मूक जंगली पशु हों.

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छत्तीसगढ़ के जशपुर, कोरबा, रायगढ़, सूरजपुर, सरगुजा और बलरामपुर के जंगल से सटे अनेक ऐसे गांव हैं, जहां रहने वाले आदिवासियों को हाथियों के झुंड ने विस्थापित होने पर मजबूर कर दिया है. जैसे-जैसे जंगल कटे आदिवासी जगलों के पास सिमटते गए. मूक जानवर समझते हैं कि यह मानव उनके घर में घुसपैठ कर रहे हैं, इसलिए वे झुण्ड में आते हैं और तोड़फोड़ कर चले जाते हैं. इतना ही नहीं, इसमें कई जानें भी गई हैं.

आदमी और जानवरों की जंग में पिछले पांच वर्ष में सौ से भी ज्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं. जान जाने पर वन विभाग महज मुआवजा देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है. वन विभाग के मुआवजे के आंकड़े के अनुसार ऐसे मामलों में अब तक सवा सौ लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं और इससे कहीं ज्यादा लोग विकलांग हो चुके हैं. सैकड़ों मवेशी भी मारे जा चुके हैं.

ऐसा नहीं कि यह संघर्ष एकतरफा है. इस संघर्ष में करीब पांच साल के दौरान सवा सौ हाथियों की भी मौत हुई है. कई हाथी घायल होने के बाद संक्रमण फैलने से मरे हैं. वन विभाग के अनुसार धर्मजयगढ़ क्षेत्र में ही पिछले पांच वर्ष में 17 हाथियों की मौत हो चुकी है. हाथियों से बचने के लिए लोग शिकारियों का तरीका अपनाते हैं. वे हाई वोल्ट दौड़ते करंट वाले नंगे तार हाथियों के आवागमन की राम में बिछा देते हैं, लिहाजा, हाथियों की अधिकांश मौत बिजली के करंट से ही हुई है.

इस संघर्ष से गरीब आदिवासियों की बस्तियां मलबे में बदल चुकी है. वे अब वन विभाग द्वारा बनाए गये स्थायी कैंपों में शरण लिए हुए हैं. मजेदार बात यह है कि जंगली इलाकों में जो आदिवासी बस्तियां हैं सरकार ने उनके पुर्नवास के लिए जमीन के पट्टे दे दिए हैं. लेकिन ये आदिवासी अपनी मातृभूमि का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं. ये हर खतरे और संघर्ष के बाद भी अपनी बस्ती छोड़ कर नहीं जाना चाहते.

आदिवासी बस्ती में रहने वाले 47 वर्षीय चरण कहते हैं 'सरकार ने जमीन के अधिकार दे दिए हैं, लेकिन उसका क्या उपयोग. जहां बचपन से खेलते-कूदते जवान हुए अब जिंदगी के अंतिम समय में कहीं और क्यों जाएं.' यदि जंगल नहीं कटता तो यह हालात नहीं होते.'

आदिवासियों की इस बेबसी का सरकार स्थाई समाधान नहीं निकाल पाई है. ठोस पुर्नवास के लिए सरकार की जो नीति रही है वह संतोषजनक नहीं है. हाल में अब हाथियों के लिए कॉरीडोर बनाने का निर्णय लिया गया है. इसके लिए तीन अभ्यारण्यों को जोड़ा जाएगा, लेकिन जानकार कहते हैं कि यह योजना भी अव्यावहारिक लग रही है. जंगलों में बसी बस्तियों को हटाकर कारीडोर बनाना संभव नहीं. जहां जंगल था, वहां अब खेत और बस्तियां बन गर्इं हैं.

जब हजारों एकड़ के जंगल कट गए, तब भी हाथियों के बारे में किसी ने नहीं सोचा. हाथियों का कॉरीडोर बनने की प्रक्रिया अभी कागजों पर है. झारखंड,ओडिशा और मध्यप्रदेश की सीमाओं के जंगलों से घिरे होने के कारण हाथियों के लिए यह जगह अनुकूल रही है. जैसे-जैसे जगल कटे हैं, हाथियों का घर सिमटता गया है.

ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले लोग दिन रात कड़ी मेहनत कर फसल तैयार करते हैं, लेकिन फसल पकते ही हर वर्ष जंगली हाथी इन्हें अपने पैरों तले रौंदकर चौपट कर देते हैं. हाथियों ने जनवरी से दिसंबर तक 2961 ग्रामीणों की फसल चौपट की. कोरबा वन मंडल में हाथियों का बसेरा है. बेहतर रहवास व भोजन की पर्याप्त उपलब्धता के कारण हाथियों का झुण्ड करतला, कुदमुरा, बालको, कोरबा वन परिक्षेत्र में विचरण करता रहता है. हाथियों का यह झुंड ग्रामीण इलाकों में बड़े पैमाने पर फसल को हानि पहुंचा रहा है.

ग्रामीणों ने कड़ी मेहनत कर अपने खेतों में धान रोपा था कि नवंबर में फसल काटकर धान को बेचकर पूरे वर्ष भर अपना गुजर- बसर करेंगे, लेकिन पिछले कई वर्षों से जंगली हाथी इन ग्रामीणों की मेहनत पर पानी फेर देते हैं. वर्ष 2012 के आंकड़ों पर गौर करें तो दिसंबर के महीने में हाथियों ने वनांचल क्षेत्र में जमकर उत्पात मचाते हुए 1321 ग्रामीणों की फसल को चौपट किया. इसी तरह फरवरी के महीने में 1310 कृषकों की फसल को अपने पैरों तले रौंद दिया है. वर्ष 2012 के जनवरी से दिसंबर तक हाथियों ने कुल 2961 ग्रामीणों की फसल को चट किया. मगर ग्रामीणों को मुआवजे के रूप में वन विभाग ने मात्र 2 लाख 30 हजार 925 रूपए बांटे.

हालाँकि कोरबा वन मंडल में हाथी रहवास के लिए बेहतर योजना बनाई गई, जिसके तहत वनविभाग के अधिकारियों व कर्मचारियों की अलग से टीम बनाई गई है. इसका नाम हाथी मित्रदल रखा गया है. यह ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रमण कर ग्रामीणों को हाथी से बचाव की जानकारी देता है. साथ ही हाथियों को खदेड़ने का कार्य करता है. कुदमुरा, करतला व कोरबा वन परिक्षेत्र हाथियों का पसंदीदा इलाका है. पिछले दो दशकों से हाथियों का इस क्षेत्र में लगातार आना जाना लगा रहता है. पिछले कुछ वर्षों में हाथियों ने इन परिक्षेत्रों में जमकर जनहानि पहुंचाई है.

बारिश के सीजन में नए कोपल आते ही हाथी इन ग्रामीण क्षेत्रों की ओर खींचे चले आते हैं. हाथियों को ग्रामीण क्षेत्रों में घुसने से रोकने जंगल में बांस से सघन करने के लिए वर्ष 2011 में 100 हेक्टेयर में 40 हजार पौधे रोपे गए थे. अगर वन विभाग की यह योजना सफल होती है तो ग्रामीणों की जान-माल की सुरक्षा भी हो सकती है. बांस हाथियों का पसंदीदा आहार है. इन पौधों का रोपण कोरबा, करतला व कुदमुरा वन परिक्षेत्र के अंतर्गत किया गया है. 200 हेक्टेयर में 80 हजार पौधों की रोपणी कुछ वर्ष पूर्व की गई थी. जो अब सघन वन का रूप ले चुकी है.

sanjay-swadeshसंजय स्वदेश समाचार विस्फोट के संपादक हैं.

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