Thursday, 25 April 2013 10:10 |
अख़लाक़ अहमद उस्मानी जालिम सरकार ने प्रदर्शन में मारे गए लोगों के जनाजे ले जा रहे पचास हजार लोगों के काफिले पर भी गोलियां चलार्इं। सत्ता के मद में चूर बादशाह को पीछे कर राजकुमार सलमान बिन हम्माद बिन ईसा अलखलीफा ने सेना हटा ली और शांतिपूर्ण प्रदर्शन की इजाजत दे दी। 22 फरवरी 2011 को राजधानी में हुई ऐतिहासिक रैली में डेढ़ लाख से ज्यादा लोग शरीक हुए। ये प्रदर्शन अगले कई दिनों तक चले। राजा ने राजनीतिक बंदियों को छोड़ने में नरमी बरतने और तीन कैबिनेट मंत्रियों को हटाने का निर्णय किया। छिटपुट प्रदर्शन अब भी जारी हैं। बहरीन के लोग प्रधानमंत्री खलीफा बिन सलमान अलखलीफा से बहुत नाराज हैं। उनकी छवि एक बर्बर और बिगड़ैल नवाबजादे की है। खबरें हैं कि राजा के समर्थक सुन्नियों ने भी कई जगह शियाओं पर हमले किए हैं। पिछले साल मार्च में विपक्षी पार्टी अलविकाफ ने फिर जोरदार प्रदर्शन की घोषणा की। बहरीन की बादशाहत के बने रहने में सऊदी अरब की गहरी रुचि है। यही वजह है कि खाड़ी सहयोग समिति यानी जीसीसी की पुलिस और सुरक्षाकर्मी दो दिन पहले ही बहरीन पहुंच चुके थे। जीसीसी के सुरक्षाकर्मियों में ज्यादातर सऊदी हैं और प्रताड़ना देने का उन्हें विशेष प्रशिक्षण है। पंद्रह मार्च को बादशाह ने तीन माह के आपातकाल और मार्शल लॉ की घोषणा कर दी, जिसकी वजह से मोती चौक खाली करवा लिया गया। जैसे ही पिछले साल एक जून को आपातकाल समाप्त हुआ, अलविकाफ ने साप्ताहिक प्रदर्शनों का क्रम शुरू कर दिया। अलविकाफ ने लगातार और छोटे प्रदर्शनों की योजना बनाई, लेकिन राजशाही के दमनकारी रवैए में कमी नहीं आई। इस महीने की उन्नीस तारीख को अलविकाफ ने पूरे देश में जोरदार रैलियां निकालीं, जिनमें हजारों-हजार लोग शरीक हुए। लोग बहरीन में सरकार द्वारा प्रायोजित फॉर्मूला-वन रेस का विरोध करते हुए कह रहे हैं कि हमारे खून पर यह रेस होगी। पिछले साल अप्रैल तक प्रदर्शनों में छियासी लोगों के मारे जाने की खबर है। अपुष्ट सूत्र तो इन मौतों का आंकड़ा बहुत बड़ा मानते हैं। सरकार पर आरोप है कि वह विदेशी सुन्नियों को बहरीन की नागरिकता दे देती है ताकि न सिर्फ बहुसंख्यक शिया अल्पमत में आ जाएं बल्कि निचले सदन के सांसद भी राजशाही की पसंद के हों। अमेरिकी नौसेना का पांचवां बेड़ा बहरीन की राजधानी मनामा में है। अमेरिका भी नहीं चाहता कि बहरीन के सत्ताधारी राजपरिवार को जाना पड़े। ईरान पर नजर रखने के लिए ही अमेरिकी हुकूमत ने बहरीन में अपना बेड़ा डाला। अगर बहरीन में हम्माद की सरकार चली गई और शिया सत्ता में आ गए तो यह न सिर्फ अमेरिका की खाड़ी नीति, बल्कि सऊदी अरब और कतर के लिए भी सिरदर्द हो जाएगा। माना जाता है कि बहरीन के शिया ईरान के प्रति हमदर्दी रखते हैं। सूडानी मूल के ब्रिटिश नागरिक सालह अलबंदर को 13 सितंबर 2006 के दिन गिरफ्तार कर लिया गया था। वे हम्माद सरकार में सलाहकार के पद पर थे। साल 2006 में सालह अलबंदर ने सरकार को दी गई दो सौ चालीस पेज की रिपोर्ट में कह दिया था कि देश में सत्ता विरोधियों खासकर शियाओं के दमन की सरकार की योजना है। 'बंदरगेट' नाम से मशहूर इस रिपोर्ट की प्रतियां सालह अलबंदर ने विभिन्न देशों के दूतावासों और मीडिया को भी बांट दी थीं। सलाह अलबंदर को गिरफ्तार कर इंग्लैंड भेज दिया गया। बंदरगेट की भविष्यवाणी 2011 में सच साबित हुई। बहुमत वाले शिया व्यवस्थित भेदभाव के खिलाफ सड़कों पर निकल आए। पड़ोसी कतर राजपरिवार के स्वामित्व वाले अलजजीरा चैनल ने सीरिया और बहरीन विद्रोह के कवरेज में पत्रकारिता के उसूलों को ताक पर रख दिया। चैनल के बेरुत ब्यूरो प्रमुख गस्सान बेन जेद््दो ने बहरीन की बगावत के कवरेज को बहुत कम जगह मिलने पर 2011 में इस्तीफा दे दिया था। जेद््दो का आरोप है कि अलजजीरा सीरिया में सरकार की मुखालफत दिखाता रहता है लेकिन बहरीन में शाही परिवार को बचाने के लिए सामान्य खबरें तक रोक दी गर्इं। अलजजीरा की चुनिंदा रिपोर्टिंग पर खाड़ी में जोरदार चर्चा है। अरब बसंत की विकृत परिभाषा और वहाबी सुन्नी राजशाही अपना खेल खेल चुकी है। ब्लॉग और न्यू मीडिया के बूते बहरीन ने क्रांति का सपना देखा है। एक जालिम बादशाह अपनी सत्ता बचाने की अंतिम कोशिशें कर रहा है। सप्ताह में जब भी गुरुवार आता होगा, हम्माद की नींद उड़ जाती होगी। |
Thursday, April 25, 2013
बहरीन की बगावत
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