मुस्लिम राजनेताओं को मुसलमानों की समस्याओं के बारे में कुछ भी पता नहीं
Posted: 31 Jul 2013 09:43 PM PDT
चुनाव नज़दीक आते दिख रहे हैं और मुसलमानों को लेकर हलचल भी तेज हो गई है. उर्दू के सबसे बड़े टेलीविजन चैनल ईटीवी ने जयपुर में दस घंटे का अल्पसंख्यकों की समस्याओं पर एक सेमिनार किया, जिसमें अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधियों के नाम पर मुसलमान थे और गैर अल्पसंख्यकों के नाम पर राजनीतिक दलों के नेता थे, जिनमें बड़े नेता भारतीय जनता पार्टी के थे. कांगे्रस की तरफ़ से दो केंद्रीय मंत्रियों ने इसमें हिस्सा लिया. कुछ धार्मिक नेता थे और कुछ ऐसे लोग भी थे, जो न राजनेता हैं और न धार्मिक नेता. यह अपनी तरह का चौथा सेमिनार था, जिसमें अल्पसंख्यकों की समस्याओं को रेखांकित करने की कोशिश की गई. सेमिनार में कई चीजें देश के लोगों के सामने उजागर हुईं. पहली, मुस्लिम राजनेताओं को मुसलमानों की समस्याओं के बारे में कुछ भी पता नहीं था. इस सेमिनार में विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के रहमान खान, दोनों ने भाषण दिया. सबसे पहला भाषण सलमान खुर्शीद का था. सलमान खुर्शीद न केवल समझदार हैं, बल्कि एक अच्छे वकील भी हैं, लेकिन जब मुसलमानों की समस्याओं की बात हो और सेमिनार में ज़्यादातर मुस्लिम नेता हों, तो कम से कम यह अपेक्षा थी कि सलमान खुर्शीद अपना राजनीतिक चेहरा एक तरफ़ रखेंगे, बड़े वकील का चेहरा दूसरी तरफ़ रखेंगे और अपना असली चेहरा, अपनी असली समझ सामने लाकर पहली बार मुसलमानों को यह बताएंगे कि वह उनके सच्चे हमदर्द हैं और उनकी समस्याओं को जानते हैं. लेकिन सलमान खुर्शीद ने, जिन नकाबों को उतार देना चाहिए था, उन्हें और कसकर अपने चेहरे पर लगा लिया. सारे देश को उन्होंने यह बताया कि वह मुसलमानों की समस्याओं को कोई तरजीह नहीं देते और उनकी समस्याएं दूर करने में मुस्लिम कौम के एक प्रतिनिधि होने के नाते भी कोई तवज्जो नहीं देते. शब्दों की बाजीगरी दिखाकर उन्होंने यह फिर साबित किया कि जैसे उन्होंने उत्तर प्रदेश के चुनावों में मुसलमानों को नौ प्रतिशत आरक्षण देने का वादा कांगे्रस की तरफ से कराया था, वैसे भ्रम वाले बयान ही उनके असली बयान हैं. उस समय यह बात उठी थी कि सलमान खुर्शीद क्यों नहीं उन राज्यों में मुसलमानों को नौ प्रतिशत आरक्षण केंद्र सरकार की तरफ़ से मुख्यमंत्रियों से कहकर दिला देते, जहां कांगे्रस का शासन है. लेकिन उस समय भी सलमान खुर्शीद चुप रहे और अब भी वह मुसलमानों को आरक्षण देने के नाम पर बिल्कुल खामोश हैं. दरअसल, यह सलमान खुर्शीद की धर्मनिरपेक्षता है, जो चुनाव के समय सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देती है और उनकी कौम, यानी मुसलमानों को डर के साथ कोने में खड़ा रखने में रोल प्ले करती है. वैसे तो, हिंदुस्तान के मुसलमान सलमान खुर्शीद को अपना प्रतिनिधि नहीं मानते और सेमिनार में मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने यह कहा भी कि उन्हें सलमान खुर्शीद जैसे नेताओं से ज़्यादा सावधान रहने की ज़रूरत है, बनिस्बत उन नेताओं के, जो मुसलमानों का खुला विरोध करते हैं. के रहमान खान अपने विभाग द्वारा किए गए कामों का ढिंढोरा पीटते नज़र आए. उन्होंने यह भी बता दिया कि इस देश का मुसलमान अंधा है, जाहिल है, बेवकूफ है, जो अपने आसपास होने वाले विकास को देख नहीं पा रहा है. के रहमान खान का कहना है कि सच्चर कमेटी की 69 सिफारिशों में से 66 सिफारिशें पूरी कर ली गई हैं. अब यह हिंदुस्तान का मुसलमान है, जो अक्ल से अंधा है और के रहमान खान के दिखाए हुए सच्चर कमेटी की सिफारिशों पर अमल को देख नहीं पा रहा है. सवाल यह उठता है कि के रहमान खान सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को क्या समझते हैं, सच्चर कमेटी को क्या समझते हैं और रंगनाथ मिश्र आयोग को क्या समझते हैं? बहुत सारे लोगों का मानना है, जिसे शायद के रहमान खान नहीं मानते कि सच्चर कमेटी बीमारी की डायग्नोसिस है, बीमारी की पहचान है, लेकिन बीमारी का इलाज रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट में ही है. रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट कितनी लागू की गई, इस पर के रहमान खान खामोश हैं, क्योंकि वह और उनकी सरकार रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट लागू ही नहीं करना चाहते थे. चौथी दुनिया में वह रिपोर्ट इस ख़तरे के साथ छापी गई कि संभव है, झूठी धाराएं लगाकर परेशान किया जाए. हमने वह रिपोर्ट चौथी दुनिया में छापी. उस समय के रहमान खान राज्यसभा में उप सभापति थे और उन्होंने वह रिपोर्ट राज्यसभा में लाने से भरसक रोका. यह तो भला हो लोकसभा का, जहां 25 से ज़्यादा सांसद चौथी दुनिया की प्रतियां लेकर खड़े हो गए, तो प्रधानमंत्री को ऐलान करना पड़ा कि वह रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट टेबिल करेंगे. रिपोर्ट सदन में रखना एक चीज है और रिपोर्ट पर अमल करना दूसरी चीज. आज के रहमान खान रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट पर खामोश हैं और ऐसा लग रहा है कि वह भी मुसलमानों को धोखा देने में वही रोल प्ले कर रहे हैं, जैसा आज तक कांग्रेस अदा करती आई है. दरअसल, कांगे्रस मुसलमानों के लिए हमेशा वादे करती है, लेकिन उन्हें पूरा नहीं करती. उसे मालूम है कि मुसलमान उसके सिवाय आख़िर कहां जाएंगे? वे भारतीय जनता पार्टी के पास जा नहीं सकते. समाजवादी पार्टी एवं बहुजन समाज पार्टी की पहचान पूरे देश में नहीं है और जदयू भी अपने प्रदेश में सिमटा हुआ है. इसलिए सारे देश में मुसलमान कांगे्रस के साथ जाएंगे ही जाएंगे, ऐसा कांगे्रसी नेताओं का विश्वालस है और उसी विश्वाास ने मुसलमानों को कांगे्रस के यहां बंधुआ बना रखा है. जितने भी बड़े मुसलमान नेता हैं, चाहे वे मजहबों के हों, इदारों के हों, स्कूलों में पढ़ाने वाले हों, या जो भी यह दावा करे कि मुसलमान उसके कहने पर चलते हैं, उन सबके लिए कांगे्रस की दुकान में सामान रखा हुआ है. वे चुनाव के समय जाते हैं और अपने हिस्से का सामान उठा लेते हैं. मुझे यह कहते हुए बहुत संकोच हो रहा है, लेकिन अब इस सत्य को मुस्लिम समाज भी बुरी तरह तकलीफ के साथ समझने लगा है. यह समझदारी ही मुसलमानों के इंडिपेंडेंट पॉलिटिकल स्टेटस के लिए एक आशा है. भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी सेमिनार में उपस्थित थे. उन्होंने मुसलमानों से भावनात्मक अपील की कि वे उनके साथ आएं और उन्हें अछूत न समझें. वह मुसलमानों को देश का हिस्सा मानते हैं. लेकिन शायद राजनाथ सिंह जब बोल रहे थे, तो टीवी कैमरे पर देश के लोग आवाज़ तो उनकी सुन रहे थे, लेकिन चेहरा नरेंद्र मोदी का देख रहे थे. यह एक अजीब मनोवैज्ञानिक स्थिति देश में पैदा हो गई है कि नरेंद्र मोदी का सौम्य चेहरा लोगों के सामने आ ही नहीं रहा है. जब नरेंद्र मोदी कहते हैं, सर्वे भवंतु सुखिन: तो वह स़िर्फ हिंदू भवंतु सुखिन: की बात नहीं करते, बल्कि वह सबके भले की कामना करते हैं. फिर भी लोगों को यही लगता है कि नरेंद्र मोदी स़िर्फ और स़िर्फ हिंदू राष्ट्र की बात कहते हैं. नरेंद्र मोदी की मुस्कुराहट के पीछे लोगों को मोहन भागवत की मुस्कुराहट नज़र आती है. ऐसा सच है या नहीं, मैं नहीं कह सकता, लेकिन देश में जो भी लोग टेलीविजन पर राजनाथ सिंह को बोलते हुए देखते हैं, उन्हें नरेंद्र मोदी का चेहरा नज़र आता है और जब नरेंद्र मोदी बोलते हैं, तो उनके पीछे उन्हें मोहन भागवत एवं प्रवीण तोगड़िया का चेहरा नज़र आता है. यही भारतीय जनता पार्टी के लिए चुनौती है कि वह जो बोल रही है, वैसा ही चेहरा लोगों को नज़र आए. इसके लिए भाषा बोलते हुए किस तरह की शारीरिक लोच या चेहरे पर सौम्यता नज़र आनी चाहिए, उस पर वह ध्यान नहीं देती. मुसलमानों के धार्मिक गुरु, जिन्होंने इस सेमिनार में भाषण दिए, उन्होंने समझदारी से अपनी बातें रखीं, लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि इन मुस्लिम धर्मगुरुओं की पार्टियों को भी आम मुसलमान वोट नहीं देता. हालांकि जिस शख्स के भाषण की सबसे ज़्यादा तारीफ़ हुई, वह स्वामी अधोक्षानंद थे, जिन्हें पुरी के शंकराचार्य का पट्ट शिष्य माना जाता है. उन्होंने जिस तरह सफाई से अपनी बातें रखीं, उसे सारे देश के लोगों ने स्वीकार किया, पर स्वामी अधोक्षानंद साधुओं की जमात में अल्पमत में है. साधुओं का बड़ा हिस्सा भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं नरेंद्र मोदी के साथ है. नरेंद्र मोदी के धनवान शिष्यों ने उन साधुओं को सारे देश में घुमाने और उनके जरिए देश में हिंदू राज्य का ध्वजवाहक होने का संदेश मोदी के लिए फैलाना शुरू कर दिया है. आज यह संदेश धार्मिक बंटवारे की सबसे निचली सीढ़ी पर है, लेकिन कल हो सकता है कि यह सबसे ऊंची सीढ़ी पर पहुंच जाए और उस समय यह देश दंगों की एक नई आग में घिर जाएगा. मुसलमानों के सामने कई मुसीबतें हैं. पहली मुसीबत, हर राजनीतिक नेता मुसलमानों को इस पार्टी या उस पार्टी में देखना चाहता है. वह मुसलमानों को रोजी-रोटी, शिरकत और नेतृत्व के सवाल पर साफ़ बात बताता ही नहीं है. दूसरी, धार्मिक नेता एक साथ बैठकर यह तय नहीं कर पाते कि उन्हें मुसलमानों से क्या कहना चाहिए. सच तो यह है कि कोई भी धार्मिक नेता दूसरे धार्मिक नेता के साथ मिलकर, जब तक यह तय न हो जाए कि वह खुद सर्वोच्च है, मुसलमानों को सही बात बताना ही नहीं चाहता. इसका नतीजा यह कि पूरी मुस्लिम कौम एक तरफ़ अपने नेताओं की चालाकी और दूसरी तरफ़ धार्मिक नेताओं की आपसी जलन से परेशान है. हो सकता है, वह इन चुनावों में अपने दर्द एवं तकलीफ को महसूस करके कुछ और फैसला करे, लेकिन वह फैसला भी राजनीतिक तौर पर किसी तरफ़ असर करता नहीं दिखाई देता, क्योंकि आज मुसलमान खुद को राजनीतिक ताकत के रूप में संगठित नहीं कर पा रहा है. मुसलमानों को यह समझ में नहीं आता कि जब तक वे अपने प्रतिनिधि दूसरी कौमों के साथ मिलकर नहीं भेजेंगे और उन्हें यह भरोसा नहीं दिलाएंगे कि उनके प्रतिनिधि भेजने में उनका भी हिस्सा होगा, तब तक इस देश में मुसलमानों की न तो कोई राजनीतिक हैसियत बनेगी, न उनकी ज़िंदगी में कोई बदलाव आ पाएगा और न ही राजनीति में वे दबाव डाल पाएंगे. सबसे ग़रीब तबका होने के नाते मुसलमानों को दलितों एवं पिछड़ों के साथ एकता की कोशिश करनी चाहिए. दूसरी तरफ़ दलित एवं पिछड़े हैं, जो राजनीतिक तौर पर बंटे हुए हैं और जिन्हें मुसलमानों के साथ यह समझना चाहिए कि जब तक वे किसी राजनीतिक पार्टी के कब्जे में रहेंगे, तब तक उनके हितों के लिए कुछ नहीं होगा. यह बहुत बड़ा सवाल है कि दलितों की पार्टी ने दलितों के लिए और पिछड़ों की पार्टियों ने पिछड़ों के लिए आज तक क्या किया? मुसलमान अगर पार्टी बना लेंगे, तो वे ऩुकसान में रहेंगे. वे अगर किसी दूसरी पार्टी में जाएंगे, तो वहां बंधुआ कौम के रूप में जाने जाएंगे. इसका मतलब यह कि देश के ग़रीब तबकों, जिनमें दलित, पिछड़े एवं मुसलमान बड़ी संख्या में हैं, को राजनीतिक दलों की गुलामी से बाहर निकलना होगा और एक दबे-कुचले वर्ग के रूप में अपनी ताकत बनानी पड़ेगी. यह ताकत वोट की ताकत है. यह वर्ग अपने प्रतिनिधि लोकसभा एवं विधानसभा में भेजे, न कि राजनीतिक पार्टियों के दलालों के रूप में अपने प्रतिनिधि वहां भेजे. कोई भी राजनीतिक पार्टी जिस वर्ग का समर्थन लेती है, उसके पक्ष में आज तक एक भी फैसला नहीं कर सकी, क्योंकि हमारे देश का संविधान राजनीतिक पार्टियों को मान्यता ही नहीं देता. संविधान में राजनीतिक पार्टियों का कोई रोल नहीं है, लेकिन राजनीतिक दलों ने हमारे संविधान पर कब्जा कर लिया है और उसी तरह गुलाम बना लिया है, जिस तरह अंगे्रजों ने हिंदुस्तान को गुलाम बनाया था. मुसलमानों, दलितों एवं पिछड़ों को हिंदुस्तान का संविधान पढ़ने की ज़रूरत है. हमारा संविधान लोगों को लोकसभा एवं विधानसभाओं में भेजने की बात करता है, राजनीतिक दलों को नहीं. मुस्लिम नौजवान, आलिम एवं मुस्लिम पत्रकार अगर इस कैच, इस मसले को नहीं समझेंगे, तो वे एक बार फिर अपनी कौम को राजनीतिक दलों के हाथों गिरवी रख देंगे और किसी भी राजनीतिक दल, चाहे वह कांगे्रस हो, भारतीय जनता पार्टी हो, समाजवादी पार्टी हो, बहुजन समाज पार्टी हो, जदयू हो या कोई और, में उनके प्रतिनिधि मुसलमानों के लिए नहीं, बल्कि अपनी पार्टी के लिए काम करते नज़र आएंगे. नाम वे मुसलमानों का लेंगे, लेकिन काम मुसलमानों के ख़िलाफ़ करेगे.
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