Ambedkar Action Alert
Sunday, October 19, 2025
मनुष्यता को कोई हरा नहीं सकता
ओड़ाकांदी दलित नवजागरण का अंत भारत विभाजन से ज्यादा दीर्घकालिक त्रासदी है
Sunday, January 23, 2022
नेताजी की छवि का इस्तेमाल सैन्य राष्ट्र के लिए?
क्या एक सैन्य राष्ट्र के निर्माण के लिए नेताजी की छवि का इस्तेमाल हो रहा है?
आज धनबाद से सीएफआरआई के सेवानिवृत्त अधिकारी और हमारे पुराने मित्र gautam Goutam Goswami का फोन आया। नेताजी धनबाद के पास गोमो जंक्शन होकर कोलकाता से अफगानिस्तान पहुंचे थे ।यह कथा वरिष्ठ लेखक Sudhir Vidyarthi ने सिलसिलेवार लिखी है।
धनबाद से नेताजी का रिश्ता बहुत पुराना है। राँची के एक बांग्ला दैनिक में नेताजी जयंती पर नेताजी के धनबाद लिंक पर उनका सम्पादकीय छपा।
मुझे फोन करके उन्होंने पूछा कि क्या मैंने वह लेख पढ़ लिया है। लेख मैंने पढ़ लिया था।
फिर उन्होंने पूछा कि उत्तराखण्ड में इतनी बड़ी संख्या में बंगाली रहते हैं,उनका बांग्ला भाषा और साहित्य से क्या सम्बन्ध है? क्या उत्तराखण्ड में बांग्ला पत्र पत्रिकाएं आती हैं? मैंने कहा कि भारत विभजन के बाद जो पीढ़ी आई थी,उसका सम्बन्ध था।
मेरे पिता दैनिक बांग्ला अखबार के साथ देश पत्रिका के नियमित ग्राहक थे।हिंदी पत्रपत्रिकाओं के भी।
हमारे घर तब मराठी,असमिया और उड़िया के पत्र पत्रिकाएं भी आती थी।
तब पूर्वी बंगाल के हर विभाजन पीड़ित परिवार के अपढ़ अधपढ घर में भी कम से कम बंकिम,शरत,रवींद्र और नजरुल इस्लाम की लिखी किताबें होती थीं।
तराई के जंगल में तब न रेडियो था और न टीवी। शिक्षा भी नहीं थी। यातायात के साधन भी नहीं थे। लोग कच्चे मकान में कीचड़ पानी में रहते थे। बाघ घूमते थे।
अब सबकुछ है,लेकिन पढ़ने लिखने की संस्कृति नहीं हैं। लोक छवियां सिरे से गायब हैं।
गीत संगीत चित्रकला कुछ भी नहीं है।सिर्फ लाउडस्पीकर और डीजे हैं।आत्मघाती राजनीति है और बाजार है।
फिर मैंने कहा कि बंगाल के बाहर बसे 22 राज्यों के भारत विभाजन के शिकार मेरे करोड़ो परिजन अपनी मातृभाषा, संस्कृति और पहचान से कट गए हैं।
बांग्ला क्या हिंदी या किसी दूसरी भाषा या साहित्य से उनका कोई मतलब नहीं है। बस ,वे ज़िंदा हैं।
फिर मैंने मित्र अजित राय की चर्चा की जो धनबाद के थे और जिन्होंने दर्जनों बांग्ला किताबें लिखीं। इनमें धनबाद और झारखंड का इतिहास,झारखण्ड आंदोलन का इतिहास, कामरेड एके राय की जीवनी जैसी पुस्तकें शामिल हैं। बंगाल में हमने कभी कोई चर्चा नहीं देखी।
धनबाद में आसनसोल से ज्यादा बंगाली रहते हैं और आसनसोल के बाद पहला रेलवे स्टेशन हैं धनबाद।
झारखण्ड के हर शहर में विस्थापित नहीं,भद्रलोक बंगाली बड़ी संख्या में है। बिहार में भी यही हाल है।
झारखंड और बिहार में, असम और त्रिपुरा में सभी बंगाली बांग्ला भाषा और साहित्य से जुड़े हैं। बांग्ला के अनेक महान लेखकों,कवियों की बिहारी झारखंडी पृष्ठभूमि है। लेकिन बंगाल को इन राज्यों की भद्रलोक बंगालियों की भी कोई परवाह है तो पूर्वी बंगाल के करोड़ों दलित विस्थापितों की उन्हें क्या और क्यों परवाह होगी?
क्या बांग्ला में बिहार,झारखण्ड,असम,ओडीशा और त्रिपुरा में रचे जा रहे बांग्ला साहित्य की खोज खबर ली जाती है। क्या बंगाल के लोग अजित राय जैसे लेखक को भी जानते हैं?
जिस बांग्ला साहित्य में, जिन बांग्ला पत्र पत्रिकाओं में हमारे लोगों की त्रासदी और हमारे अस्तित्व को भुला दिया गया है,उनसे हम क्यों जुड़े रहेंगे?
इसलिए मैंने भी बांग्ला में लिखना छोड़ दिया है।
मैं अगर लेखक हूँ तो सिर्फ हिंदी का लेखक।
फिर नेताजी की चर्चा चली।
गौतम जी ने अचानक कहा कि नेताजी की प्रतिमा की सबसे खास बात है,उनकी सैन्य वेशभूषा और आज़ाद हिंद फौज की उनकी पृष्ठभूमि। यह संघ परिवार के एजंडे के लिए बहुत उपयोगी है।
मैंने इस पर ध्यान नही दिया था।
फौरन एक बड़े अखबार में कुछ अरसे पहले छपे लेलह की याद आ गयी,जिसका शीर्षक था,नेताजी भारत में निरंकुश फासीवादी शासन चाहते थे।
शहीदे आज़म भगत सिंह ,गाँधी और अम्बेडकर के अपहरण से ज्यादा खतरनाक है नेताजी का यह संघी अवतार।
यह भारत को निरंकुश सैन्य राष्ट्र बनाने की तैयारी है।
अब शायद कारपोरेट राज को लगातार महंगा होता जा रहा लोकतंत्र का प्रहसन भी नापसंद है।
फासिज्म का सैन्य राष्ट्र एजेंडा पर है,इज़लिये नेताजी का भी भगवाकरण भी अनिवार्य है।
यह है पराक्रम का असल मायने।
पलाश विश्वास
23 जनवरी 2022
Thursday, December 30, 2021
बन्द कल- कारखानों की मजदूर बस्तियों की प्रेम कथा
प्रवास वृत्तांत- मजदूर बस्ती के एक बेरोजगार कलाकार की ट्रेन से कटकर मौत,एक प्रेमकथा का दुःखद अंत
पलाश विश्वास
बंगाल में 35 साल के वाम शासन में आज़ाद भारत की उद्योग विरोधी शहरीकरण के कारपोरेटपरस्त मुक्तबाजारी अर्थ व्यवस्था में 56 हजार कल कारखाने बन्द हो गए। ममता बनर्जी के परिवर्तन आंदोलन और वाम तख्ता पलट का यह सबसे बड़ा मुद्दा था।
विडम्बना यह है कि तीसरी बार निरंकुश मुख्यमंत्रित्व के ममता बनर्जी के राजकाज में शहरीकरण और निजीकरण का यह सिलसिला तेज हुआ और कोलकाता और हावड़ा के तमाम कलकारखानों की जमीन पर बहुमंजिली आवासीय कालोनियां और बाजारों की रौनक है,जहां ब्रिटिश हुक़ूमत के दो सौ साल के औद्योगिकीकरण के कारण बंगाल में आ बसे भारत भर के मजदूरों की बस्तियां गरीबी,बेरोज़गारी और बेदखली की शिकार हैं।
बांग्ला के मशहूर कथाकारों समरेश बसु और माणिक बन्दोपध्याय का कथा संसार इसे मेहनतकश तबके का जीवन संघर्ष और प्रवास वृत्तांत है।
हाल में हमारे लिक्खाड़ मित्र H L Dusadh Dusadh जो ऐसे ही एक मजदूर बस्ती से उठकर देश के अनूठे लेखक बन गए हैं,ने इन बस्तियों पर लिखा है। उनका जीवन संघर्ष भी इन दलित बस्तियों की आत्मकथा है,जो उन्होंने लिखी नहीं है। मैंने उनसे लिखने को कहा है।
भारतीय समाज मुगल साम्राज्य तक जिस मनुस्मृति शासन की कैद रहा है,उससे मुक्ति का संघर्ष अंग्रेजी राज में हुए औद्योगिकीकरण से बदले उत्पादन संघर्ष से ही शुरू हुआ,जो बंगाल के सूफी बाउल फकीर मतुआ दलित नवजागरण, महात्मा ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु, अयंकाली,अम्बेडकर और पेरियार के आंदोलनों से तेज़ हुआ।
भारत विभाजन के फलस्वरूप जनसंख्या स्थानांतरण के जरिये मनुस्मृति समर्थकों ने देश की जनसंख्या विन्यास को सिरे से बदलकर दलित नवजागरण की विरासत को खत्म करके अम्बेडकर मिशन,लिंगायत मतुआ आंदोलन और आदिवासी भूगोल का भगवाकर्ण को तोड़ डाला और जाति व्यवस्था तोड़ रहे औद्योगिकीकरण की जगह जनसंख्या की राजनीति के तहत अस्मिताओं के युद्ध में जाति को इतिहास के अमित शिला लेख में तब्दील कर दिया।
बंगाल, मद्रास और बम्बई अंग्रेजी हुकूमत के दौरान औद्योगिकीकरण के केंद्र थे।
देशभर के दलित, पिछड़े लोग सिर्फ रोजगार की तलाश में ही नहीं बल्कि गांव में सवर्णों की बंधुआ मजदूरी, अस्पृश्यता और नरसंहार से बचने के लिए इन्हें अपना शरणस्थल बना लिया था।
ये मजदूर बस्तियां देश की ऐसी दलित बस्तियां थीं, जो सामंती अत्याचार और उत्पीड़न से मुक्त थीं।
औद्योगिकीकरण के अवसान के बाद भी मध्य बिहार जैसे नरसंहारी इलाकों से सिर्फ जान बचाने के लिए इन महानगरों की मजदूर बस्तियों की भीड़ बढ़ती रही,जिसमें बड़ी संख्या में भारत विभजन के शिकार बंगाली विस्थापित और देश के आदिवासी भूगोल में बेदखली और विस्थापन के शिकार लोग बड़ी संख्या में शामिल हो गए। कोरोना इन बस्तियों के सफाये का हथियार हो गया।
कोलकाता,मुंबई, चेन्नई के अलावा देश के सभी बड़े छोटे शहरों की नई जनसंख्या का विन्यास इन्हीं उखड़े हुए सतह के लोगों की बसासत से बना है।
कोलकाता के सारे उपनगर इसीतरह बने झाने शहरीकरण और बाजारीकरण की सुनामी में बाकी देश की मजदूर बसत्यों और आदिवासी गांवों की तरह ये दलित पिछड़े भी उखाड़े जा रहे हैं।
हम कोलकाता में 27 साल तक इन्ही लोगों के साथ और इन्ही के बीच रहे भद्रलोक बिरादरी से घिरे हुए। हम सोदपुर के जिस गोस्टो कानन मजदूर बस्ती में रहे हैं,वहां से एक प्रेमकथा के दुःखद अंत की कथा आज हम तक पहुंची। कोरोनाकाल में बेरोजगार एक कलाकार दम्पति की प्रेमकथा का दुःखद अंत बाजार से लौटते हुए पति के ट्रेन से कट जाने से हो गयी। उसका नाम है सुमित।
उसकी पत्नी मुहल्ले की ही लड़की है,जिसने 14 साल की उम्र में उसके साथ भागकर शादी कर ली थी और दोनों पति पत्नी पिछले 10- 12 साल से कोलकाता और आस पड़ोस के राज्यों में स्टेज शो के जरिये नाच गा कर गुजर बसर करते थे। कोरोना नई जिसे बन्द कर दिया।
दोनों को बड़ा होते हुए हमने अपनी आंखों के सामने देखा। हम उनके प्यार को भूल नहीं पाए।
इन तमाम लोगों की रोजमर्रे की ज़िंदगी,बीमारी , आपदा,शोक में घर, अड़पटल से लेकर श्मशानघाट तक सविताजी और हम शामिल थे। वे हमारी तरह वैचारिक नहीं,लेकिन हमसे कहीं ज्यादा मनुष्य हैं। यही प्रेम है।
वे दोनों बेदखली की लड़ाई की अगुवाई भी करते थे।
यह मजदूर बस्ती हमारे किराये के घर की खिड़की से खुलती थी।
सुबह होते ही उन सभी से मुलाकात हो जाती थी जो कभी सोदपुर के मशहूर काँचकल में मजदूर थे।
दफ्तर निकलते वक्त या देर रात या सुबह तड़के घर लौटते वक्त हिंदी स्कूल के आसपास किसी न किसी से बातचीत ही जाती थी। उन्हें हमारी फिक्र थी। है।
घर घर से होली के गुजिये और छठ के ठेकुए आ जाते थे। वे सभी हमारे परिवार में शामिल थे,जिनमे सोदपुर के तमाम सब्जीवाले, मछलिवाले भी हुआ करते थे या फिर हॉकर।ये सभी कोलकाता के सभी उपनगरों के बन्द कल करखानों के बेरोजगार मजदूर थे।
अमित और सुमित दो भाई थे।सुमित छोटा भाई। उनके दादा जी हरियाणा के यादव थे। पिता किशोर भी मजदूर थे। उनकी मां लीला पूर्वी बंगाल की विस्थापित थी।
इनमें ब्राह्मण और ठाकुर जैसे सवर्ण यूपी,बिहार के लोग भी थे लेकिन पीढ़ियों से साथ रहते रहते उनके बीच जाति गायब सी हो गयी थी। औद्योगिकरण से शहरीकरण का यह मुक्तबाजार हर मायने में मनुस्मृति राज है।
करीब 15 साल पहले भी हक हकूक की वर्गचेतना से लैस थी ये तमाम मजदूर बस्तियां मनुस्मृति से मुक्त।
कल कारखाने बन्द होने से पॉश कालोनियों से घिरकर फिर ये लोग मनुस्मृति के शिकंजे में है और इसी वजह से बंगाल भी बाकी देश की तरह गोबर पट्टी में तेज़ी से शामिल होता जा रहा है और वहां वाम का कोई नामलेवा बचा नहीं। लगता नहीं कि कोलकाता ज़िंदा भी है।
सुमित की पत्नी बहुत प्यारी बच्ची है। अब शायद 25-26 की हो गयी होगी।वह भी अपनी सास की तरह बंगाली थी। स्टेज शो करके घर लौटने पर सविता जी से जरूर मिलने आती थी।
हमारी उस बिटिया से मिलने की अब कोई संभावना हालांकि नहीं हैं लेकिन बहुत बेचैन है कि कभी मुलाकात हो गयी तो उसके दुःख का सामना कैसे हम करेंगे। बूढ़े होने की एक मजबूरी यह भी है कि हम बच्चों की तरह आंसू भी बहा नहीं सकते।
शव वाहिनी गंगा मैया की गोद में इन लावारिश बस्तियों की लाशें भी शामिल हैं,यह भी सनद रहे।
सौ करोड़ या दो सौ करोड़ मुफ्त टीकों या बूस्टर खुराक से इन बेदखल होती मजदूर बस्तियों की लाइलाज महामारियों का इलाज होगा?
हमारे पास अपने मोहल्ले और मजदूर बस्ती या उन लोगों की तस्वीरें शायद हों या न हों, खोजना मुश्किल है।आपको माहौल का अंदाज़ा हो,इसलिए दुसाध जी की खींची तस्वीरों का साभार इस्तेमाल कर रहे हैं।
मित्रों, इस कथा का प्रसार जरूर करें । मोक्ष नहीं मिलता लेकिन जाति उन्मूलन और प्रवास के बारे में कुछ लोग नए सिरे से सोचें तो इस निजी शोक का कोई सामाजिक मायने भी शायद निकले।
Wednesday, December 15, 2021
किसान आंदोलन के नतीजे हमेशा सकारात्मक। पलाश विश्वास
किसान जब भी आंदोलन करते हैं,उसका नतीजा हमेशा सकारात्मक होता है।
पलाश विश्वास
यूरोप के किसानों ने विद्रोह नहीं किया होता तो धर्मसत्ता और राजसत्ता के दोहरे शासन से जनता को मुक्ति न मिलती।न सामंती व्यवस्था का अंत होता।
फ्रांसीसी क्रांति में मेहनतकश शामिल नहीं होते तो समता,भ्रातृत्व,न्याय और स्वतंत्रता के मूल्य स्थापित होते। रूसी और चीनी क्रांति की कथा सबको मालूम है।
अखण्ड भारत में दो सौ साल के किसिन आंदोलनों और विद्रोह की विरासत से आज का भारत बना है।
कृषि समाज सभ्यता और संस्कृति की बुनियाद है।
हाल का किसिन आंदोलन विश्व के इतिहास में सबसे लंबा शांतिपूर्ण और सफल आंदोलन है,जिसने धर्म,जाति, वर्ग,नस्ल और भाषा में विभाजित जनता को एकताबद्ध कर दिया।
इस आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि धर्म,जाति की राजनीति की हार है।
कल शाम हम बिन्दुखत्ता गए थे। तराई भाबर में किसान आंदोलन से हुई क्रांति की जमीन है बिन्दुखत्ता।
पूरा पहाड़ वहां बस गया है।
लालकुआं और पन्तनगर शांतिपुरी के बीच।एक तरफ गोला नदी है तो दूसरी तरफ किच्छा काठगोदाम रेलवे लाइन।
करीब 50 वर्ग किमी इलाका,जिसे पहाड़ के हर जिले से,कुमायूं और गढ़वाल से भी नीचे उतरे किसानों ने आबाद किया है।
यह जमीन खम यानी ब्रिटिश राज परिवार की सम्पत्ति है। सुप्रीम कोर्ट ने निर्णयक फैसला दे दिया कि इस जमीन पर सरकर का कोई हक नहीं है।
इससे पहले लालकुआं और गुलरभोज के बीच ढिमरी ब्लॉक में किसान सभा ने 40 गांव बसाए थे।। उस आंदोलन के नेता थे पुलिन बाबू,हरीश ढूंढियाल, सत्येंद्र,बाबा गणेश सिंह और चौधरी नेपाल सिंह।
भारी दमन हुआ था। सेना,पीएसी और पुलिस की मदद से किसानों को वहां से हटाया गया था।
चालीस के चालीस गांव फूंक दिए गए थे। निर्मम लाठीचार्ज के बाद हजारों किसान गिरफ्तार हुए थे।
तेलंगना के तुरन्त बाद हुए इस आंदोलन से कम्युनिस्ट पार्टी ने पल्ला झाड़ लिया था।
अस्सी के दशक में शक्तिफार्म इलाके के कोटखर्रा आंदोलन को भी भारी दमन से कुचल दिया गया था।
ढिमरी ब्लॉक की तरह बिन्दुखत्ता को सत्ता कुचल नहीं सकी।जमीनी लड़ाई के साथ अदालती लड़ाई को भी किसानों ने बखूबी अपने हक में अंजाम दिया।
कल हम प्रेरणा अंशु परिवार के पुराने सदस्य कुंदन सिंह कोरंगा की भतीजी की शादी के महिला संगीत कार्यक्रम में पहुंचे। मास्साब की पत्नी गीताजी हमारे साथ थी।
कुंदन की पत्नी रीना ने समाजोत्थान विद्यालय से पढ़ाई की थी। दोनों का प्रेम विवाह हुआ जाति तोड़कर। रीना भी मास्साब के आंदोलनों में शामिल रही हैं।
हमने शाम के धुंधलके में बिन्दुखत्ता के साथियों को प्रेरणा अंशु की प्रतियां दी। रात में मोबाइल सें कैमरा का काम नहीं होता। तस्वीरें अगली बार।
तराई भाबर और पहाड़ में सड़के खस्ताहाल है। हमने लगभग बिन्दुखत्ता का पूरा इलाका घूम लिया है। फसल से लहलहाते खेतों के बीच सभी गांवों की सड़कें चकाचक न जाने किस हीरोइन के गाल की तरह है।
कुंदन का तिवारी गांव गोला नदी से सिर्फ दो किमी और शांतिपुरी से पांच किमी दूर है।बहुत अंदर। उसका घर भूरिया की मशहूर दुकान के पाश है।पुरे इलाके में सडकों के साथ किसानों की खुशहाली देखते ही बनती है।
यह किसान आन्दोलन की ताकत है।
इस दुनिया में किसी को कुछ बिना मांगे मिलता नहीं है और बेदखली के खिलाफ प्रतिरोध अनिवार्य है।
तुरन्त तीन काम बदलाव के लिए जरूरी,लक्ष्मण सिंह से हुई बात
पलाश विश्वास
आज सुबह दफ्तर पहुंचते ही धुरंधर विद्वान और घुमक्कड़ डॉ लक्ष्मण सिंह से मुलाकात हो गयी। वे 12 विषयों में यूजीसी नेट की परीक्षएँ पास कर चुके हैं।
जेएनयू में उन्होंने कला और सौंदर्यशास्त्र से एमए कर रखा है। रूपेश के मित्र हैं नेपाल जाने के रास्ते हम सभी से मुलाकात करने आए।
उनसे विस्तार से बात हुई।उन्होंने जामिया मिलिए से इंटरनेशनल स्टडीज में पीएचडी की है और भारत और नेपाल में दलित पॉलिटिकल आर्ट के विशेषज्ञ हैं। वे भारत,चीन,नेपाल और ईरान के विशेषज्ञ हैं।
हमने उनसे कहा कि देशभर में सबसे जरूरी काम हैं-
1 राजनीतिक होलटाइमर की तर्ज पर इकोनोमिक कॉडर तैयार किये जायें जो जनता को अर्थशास्त्र,आर्थिक नीतियां और प्रबंधन तथा योजना और बजट समझायें। राजनिति और राजकाज पर जनता के अंकुश के लिए यह बहुत जरूरी है
2.सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के वकीलों को भारतीय भाषाओं में कानून के बारे में सिलसिलेवार लिखना चाहिए। आम जनता को कानूनी हक हकूक की जानकारी देनी चाहिए। क्योंकि अदालतों के कामकाज अंग्रेजी में होने से आम लोगो को मुकदमों और कानून की कोई जानकारी नहीं होती।
3.हर सामाजिक कार्यकर्ता को इकोनॉमिक कॉडर और पर्यावरण एक्टिविस्ट बनना चाहिए।
तभी देश दुनिया को बदलने के लिए जमीन और फिजा तैयार होंगी।
हमने कहा कि सौंदर्य की जड़ें तो लोक में है और सौंदर्यशास्त्र लोक का बहिष्कार करता है।
उन्होंने प्रेरणा अंशु के लिए नियमित लिखने का वायदा किया है।
मुजफ्फरनगर में उनका घर है जहां प्रेरणा अंशु नियमित जाती है।उन्होंने बताया कि उनके पिता नियमित प्रेरणा अंशु पढ़ते हैं और उन्हें यह पत्रिका बेहद पसंद है।
पिताजी को प्रणाम।
आज सुबह दफ्तर पहुंचते ही धुरंधर विद्वान और घुमक्कड़ डॉ लक्ष्मण सिंह से मुलाकात हो गयी। वे 12 विषयों में यूजीसी नेट की परीक्षएँ पास कर चुके हैं।
जेएनयू में उन्होंने कला और सौंदर्यशास्त्र से एमए कर रखा है। रूपेश के मित्र हैं नेपाल जाने के रास्ते हम सभी से मुलाकात करने आए।
उनसे विस्तार से बात हुई।उन्होंने जामिया मिलिए से इंटरनेशनल स्टडीज में पीएचडी की है और भारत और नेपाल में दलित पॉलिटिकल आर्ट के विशेषज्ञ हैं। वे भारत,चीन,नेपाल और ईरान के विशेषज्ञ हैं।
हमने उनसे कहा कि देशभर में सबसे जरूरी काम हैं-
1 राजनीतिक होलटाइमर की तर्ज पर इकोनोमिक कॉडर तैयार किये जायें जो जनता को अर्थशास्त्र,आर्थिक नीतियां और प्रबंधन तथा योजना और बजट समझायें। राजनिति और राजकाज पर जनता के अंकुश के लिए यह बहुत जरूरी है
2.सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के वकीलों को भारतीय भाषाओं में कानून के बारे में सिलसिलेवार लिखना चाहिए। आम जनता को कानूनी हक हकूक की जानकारी देनी चाहिए। क्योंकि अदालतों के कामकाज अंग्रेजी में होने से आम लोगो को मुकदमों और कानून की कोई जानकारी नहीं होती।
3.हर सामाजिक कार्यकर्ता को इकोनॉमिक कॉडर और पर्यावरण एक्टिविस्ट बनना चाहिए।
तभी देश दुनिया को बदलने के लिए जमीन और फिजा तैयार होंगी।
हमने कहा कि सौंदर्य की जड़ें तो लोक में है और सौंदर्यशास्त्र लोक का बहिष्कार करता है।
उन्होंने प्रेरणा अंशु के लिए नियमित लिखने का वायदा किया है।
मुजफ्फरनगर में उनका घर है जहां प्रेरणा अंशु नियमित जाती है।उन्होंने बताया कि उनके पिता नियमित प्रेरणा अंशु पढ़ते हैं और उन्हें यह पत्रिका बेहद पसंद है।
पिताजी को प्रणाम।
Tuesday, December 14, 2021
हर पल साबित करना अनिवार्य है कि हम मरे नहीं हैं
लोग मुझसे पूछते हैं कि अब भी दिन रात काम क्यों करते हैं?
मेरा जवाब- ज़िंदा हूँ, हर पल यह साबित करना जरूरी है। जरूरी ही नहीं,अनिवार्य,अपरिहार्य है,इसलिए।
मुर्दा शरीर और दिलोदिमाग के साथ जीना कोई जीना हुआ?
आप भी यह नुस्खा आजमाकर देखें तो मौत से डर नहीं लगेगा। स्वस्थ और सकुशल रहेंगे।हम पिछले दो साल से जब भी मौका मिला, अपने लोगों से मिलने के लिए तराई,भाबर और पहाड़ दौड़ते रहे हैं।
सिर्फ राजधानियों की हवा हवाई उड़ान स्थगित है लेकिन खेतों में फिर बचपन की तरह दौड़ रहा हूँ।
इस प्रकृति के रूप रस गन्ध को हर पल पांचों इंद्रियों से महसूस कर रहा हूँ।
27 साल से मधुमेह है।आय का कोई स्रोत नहीं है।क्या फर्क पड़ता है। मुश्किलों से ज़िन्दगी मजेदार बनती है।
शतुरमुर्ग की तरह रेत में सर गड़ाकर जिंदा रहने का कोई मतलब है? हम बचपन से चाहता था कि जो भी हो,मुझे अमीर और वातानुकूलित नहीं बनना।ताकि खुली हवा मिलती रहे हमेशा। चाहता रहा कि मशहूर नहीं बनना ताकि अपनी आजादी भल रहे। अपनी मर्जी से जी सके।
अकेले सफर का भी कोई मजा नहीं है।
साथी ,हाथ बढ़ाइए।
हम सभी हमसफ़र है और इस सफर में सिर्फ पल दो पल का साथ है। स्टेशन आ जाये तो उतर जाना।बेशक पीछे मुड़कर मत देखना।
कभी कभी ऐसा भी होता है कि हम आपके साथ मिलना चाहते हैं,लेकिन मिल नहीं सकते। कहीं जाना चाहते हैं लेकिन जा नहीं सकते।जैसे घर लौटकर अभीतक नैनीताल जाना नहीं हो सका।
फिर डीएसबी कैम्पस में बेफिक्र घूमना न हो सका।
हिमपात के मध्य मालरोड पर दोस्तों के साथ रात भर टहल नहीं सकता और न शिखरों को फिर स्पर्श कर सकता हूँ ।
युद्ध का नियम अनुशासन है।आप जिस मोर्चे पर हों,कयामत आ जाये,आप वह जमे रहे। युद्ध में हीरोगिरी की गुंजाइश नहीं होती।युद्ध हीरो बनाता है।
फिलहाल दिनेशपुर मेरा मोर्चा है।
ज़िन्दगी बहती हुई नदी है। इसे बांधिए नहीं,नदी मर जाएगी। किसीको पता भी नहीं चलेगा।
prernaanshu.com
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