राजनीति कोई मुद्दा है ही नहीं, असली मुद्दे हैं आर्थिक और इस एकाधिकारवादी कारपोरेट आक्रमण का प्रतिरोध हर कदम पर अनिवार्य है
पलाश विश्वास
कल रात लंदन से हमारे वयोवृद्ध परम आदरणीय गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने तीन तीन बार काल करके आखिर हमें पकड़ लिया और सीधे पूछ लिया कि भारत में प्रधानमंत्री कौन बनेगा, क्या इसके अलावा कोई मुद्दा नहीं है? उन्होंने कहा कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को हम लोग भारत का पर्याय क्यों बना रहे हैं ? मोदी प्रधानमंत्री हो या नहीं,इससे क्या फर्क पड़ता है जबकि जनसंहार की नीतियां हर हाल में जारी रहनी है? उनके साथ हिमालयी आपदा और मौजूदा परिप्रेक्ष्य पर लंबी बातचीत हुई।
आज अरसे बाद कोलकाता महानगर के किसी क्रयक्रम में शामिल हुआ सिर्फ इसलिए कि वक्ता थे पी साईनाथ और वंदना शिवा। साईनाथ ने कोलकाता रवानगी से पहले इस कार्यक्रम की सूचना दी थी। कोलकाता पहुंचने के बाद कल और आज कई कई दफा उनके फोन आये। कार्यक्रम शुरु होने से करी चालीस मिनय पहले वे पहुंचे और बातचीत के लिए आयोजकों से अलग कमरा मांग लिया इस हिदायत के साथ कि कोई डिस्टर्ब न करें। उनसे कार्यक्रम शुरु हो जाने के बाद भी बातचीत जारी रही। आयोजकों के तकाजे के बाद ही उन्होंने बातचीत खत्म की और कहा कि आगे भी बातचीत चली।हिंदी के महामहिमों के विपरीत ग्रामीण भारत की धड़कनों को तीन दशक सेआवाज देने वाले पी साईनाथ सोशल मीडिया को नियमित फालो करते हैं और जनप्रतिरोध के लिए इसे बेहद कारगर मानते हैं। हमें सुखद अचरज हुआ कि वे लगातार हमें पढ़ रहे हैं जबकि हम प्रिंट मीडिया में छपते ही नहीं और वे प्रिंट मीडिया के आइकन हैं। उन्होंने पिताजी पर लिखे मेरे आलेखों का बाकायदा हवाला दिया और मरीचझांपी ले लेकर ढिमरी ब्लाक पर बातचीत की।
साईनाथ का भी मानना है कि राजनीति कोई मुद्दा नहीं है। भारत को कृषि से बेदखल करने वाली अर्थव्यवस्था ही असली मुद्दा है। उन्होंने साफ साफ कहा कि राहुल गांधी और मोदी के बीच कोई लड़ाई है ही नहीं। लड़ाई मोदी ौर मोदी के बीच है। जनसंहार का एजंडा लागू करमे में पूरीतरह कारपोरेट इंडिया और वैश्विक पूंजी की आकांक्षाओं को पूरा करने में चूंकि मनमोहन सिंह सफल नहीं हुए, तो स्वाभाविक तौर पर उनका एकमात्र विकल्प मोदी है। मोदी पर यह बहस भी कारपरेट प्रायोजित है और इससे हमें बचना चाहिए।हमें ग्रामीम भारत के असली मुद्दों को फोकस में लाना चाहिए आम जनता की भाषा और उनके मुहावरों में। हमने जब कहा कि हमें अर्थशास्त्र के तिलिस्म को तोड़कर आम जनता को असलियत के सामने खड़ा करना चाहिए और यही सबसे बड़ी चुनौती है, सहमति देने में वे कतई नहीं हिचके। वे भी मानते हैं कि आर्थिक मुद्दों ौर सूचनाओं पर जनसंवाद और तेज होना चाहिए तभी कोई प्रतिरोध संभव है। राजनीति पर चर्चा इसलिए भी बैमानी है क्योंकि इस राजनीति का चरित्र कारपोरेट है और जनसंहार संस्कृति का पोषम करती है यह राजनीति।इस मुदु्दे पर हम दोनों की सहमति रही।दरअसल राजनीति पर चर्चा केंद्रित करके हम राजनीति की आड़ में जारी एकाधिकारवादी कारपोरेट आक्रमण की ही मोर्चाबंदी में शामिल हो रहे हैं। राजनीति चाहती ही है कि अर्थ व्यवस्था संबंधी कोई चर्चा आम आदमी तक न पहुंचे। अपनी तबाही के मंजर से बेखबर रखे निनानब्वे फीसद लोग, तिलिस्म का कारोबार यही है। अब इस तिलिस्म को तोड़ना ही होगा।
मजेदार बात तो यह है कि हमारे गुरुजी की जो सीख है और साईनाथ का जो सबक है, उसमें कोई बुनियादी अंतर है नहीं। दोनों इस बात पर कायम है कि राजनीति नहीं, इस देश की कारपोरेट अर्थव्यवस्था ही अस्पृश्यता, बहिस्कार और जनसंहारकी असली वजह है। सत्ता में भागेदारी, जातीय धार्मिक क्षेत्रीय अस्मिता और पहचान, सत्ता समीकरण में उलझने पर हम इस निर्मम एकाधिकारवादी आक्रमण का कोई प्रतिरोध कर ही नहीं सकते । पिछले दो दशकों से यही हो रहा है।
हमें िइस पर संतोष हैकि हिंदुत्व के पुनरुत्थान और उदारवादी खुले बाजार की अर्थव्यवस्था के चोली दामन के जिस रिश्ते को हम बार बार रेखांकित करते हैं, साईनाथ भी उसी समीकरण पर जोर देते हैं।
हम लोगों ने बंगाल के वर्चस्ववाद के सिलसिले में मरीचझांपी से लेकर पंचायती राज तक पर चर्चा की।औपनिवेशिक जमाने से बंगाल के किसान आंदोलन की विरासतपर चर्चा की और बंगाल के सामाजिक ढांचा और इसके अनार्य इतिहास पर भी चर्चा की।
लेकिन चर्चा चर्चा ही रह जायेगी अगर लड़ाई के मोर्चे पर हम राजनीति के बदले आर्तिक मुद्दों को फोकस में लाने की चुनौती मंजूर नहीं करते। इसके लिए आप सबकी मदद अनिवार्य है और इसी लिए निजी संवाद के इन दुर्ळब क्षणों को हम आपके साथ साझा कर रहे हैं। क्योंकि यह बदलाव अकेले साईनाथ ला नहीं सकते और न हम।
इसी वार्तालाप में साईनाथ ने खुलासा किया कि कैसे एक लोकप्रिय टीवी चैनल ने डा. अमर्त्य सेन की ओर से उठाये जाने वाले आर्थिक मुद्दों को मोदी विवाद में डीरेल कर दिया। मोदी के प्रधानमंत्रित्व पर पूछे गये एक सवाल पर उनकी टिप्पणी को ही राजनीतिक बवंडर बना दिया गया, जबकि उनके उठाये आर्थिक मुद्दों पर जनसुनवाई के मौके बनाने में मीडिया हमेशा चुकता रहा।
यही वह परिप्रेक्ष्य है जहां हमें विधाओं और संदर्भ के व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र दोनों बदलने हैं। गिरदा हमेशा लोक में बड़ी बड़ी बातें कर डालने का दुस्साहस कर जातेत थे। यह उनकी कला थी और दक्षता भी और उससे भी बड़ी थी उनकी जनप्रतिबद्धता।
अभी कहां हैं हम, कहना बहुत मुश्किल है। लेकिन शिविरबद्ध होकर हम जनता के साथ यकीनन खड़े नही हो सकते।
कोलकाता विश्वविद्यालय के सेंटिनरी हाल में फेमा यानी एकाधिकारवादी आक्रमण विरोधी मंचा के आयोजन पर मुख्य वक्ता वंदना शिवा और साईनाथ थे। करीब एक हजार सीटों वाला प्रेक्षागृह खचाखच भरा हुआ था।
फोरम की ओर से प्राध्यपक तुषार चक्रवर्ती और अभीदत्त मजुमदार ने अत्यंत संक्षेप में भूमंडलीकरण के शिकंजे में फंसी भारतीय कृषि की समस्याओं को रेखांकित किया। जिनपर विस्तार से बोले वंदना और साईनाथ।बंगाल में फोरम 2008 से सक्रिय है और कारवां जुड़ता जा रहा है।
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